तुलसीदासजी पहले कौन कौन से देवताओं को प्रणाम करते हैं?
सरस्वतीजी और गणेशजीकी को प्रणाम क्यों करें?
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श्लोक वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥
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अक्षरों, अर्थसमूहों, रसों, छन्दों और
मंगलोंकी करनेवाली सरस्वतीजी और
गणेशजीकी मैं वन्दना करता हूँ॥1॥
भगवान् शंकर और माँ पार्वती को प्रणाम क्यों करें?
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भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥
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श्रद्धा और विश्वासके स्वरूप श्रीपार्वतीजी और
श्रीशङ्करजीकी मैं वन्दना करता हूँ,
जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरणमें स्थित
ईश्वरको नहीं देख सकते॥2॥
शंकररूपी गुरु की महिमा कैसी है?
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वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
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ज्ञानमय, नित्य, शङ्कररूपी गुरुकी मैं वन्दना करता हूँ,
जिनके आश्रित होनेसे ही
टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥
विशुद्ध विज्ञानसम्पन्न कौन है?
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सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ ॥4॥
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श्रीसीतारामजीके गुणसमूहरूपी पवित्र वनमें विहार करनेवाले,
विशुद्ध विज्ञानसम्पन्न कवीश्वर श्रीवाल्मीकिजी और
कपीश्वर श्रीहनुमान्जीकी मैं वन्दना करता हूँ॥4॥
श्रीसीताजीको प्रणाम क्यों करें?
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उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥
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उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करनेवाली,
क्लेशोंकी हरनेवाली
तथा सम्पूर्ण कल्याणोंकी करनेवाली
श्रीरामचन्द्रजीकी प्रियतमा
श्रीसीताजीको मैं नमस्कार करता हूँ॥5॥
भगवान् की माया कैसी है और उससे कैसे पार हो सकते है?
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यन्मायावशवर्त्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥6॥
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जिनकी मायाके वशीभूत
सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं,
जिनकी सत्तासे
रस्सीमें सर्पके भ्रमकी भाँति
यह सारा दृश्य-जगत् सत्य ही प्रतीत होता है और
जिनके केवल चरण ही
भवसागरसे तरनेकी इच्छावालोंके लिये एकमात्र नौका हैं,
उन समस्त कारणोंसे पर,
सब कारणोंके कारण और सबसे श्रेष्ठ,
राम कहानेवाले भगवान् हरिकी मैं वन्दना करता हूँ॥6॥
तुलसीदासजी ने रामायण कैसे लिखी?
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नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा- भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति ॥7॥
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अनेक पुराण, वेद और तन्त्र शास्त्रसे सम्मत
तथा जो रामायणमें वर्णित है और
कुछ अन्यत्रसे भी उपलब्ध
श्रीरघुनाथजीकी कथाको
तुलसीदास अपने अन्तःकरणके सुखके लिये
अत्यन्त मनोहर भाषारचनामें विस्तृत करता है॥7॥
भगवान् गणेशजी को वंदन क्यों करें?
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सोरठा – जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥
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जिन्हें स्मरण करनेसे सब कार्य सिद्ध होते हैं,
जो गणोंके स्वामी और सुन्दर हाथीके मुखवाले हैं,
वे ही बुद्धिके राशि और शुभ गुणोंके धाम
श्रीगणेशजी मुझपर कृपा करें॥1॥
भगवान् की कृपा से क्या क्या हो सकता है?
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मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥2॥
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जिनकी कृपासे गूँगा बहुत सुन्दर बोलनेवाला हो जाता है और
लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़पर चढ़ जाता है,
वे कलियुगके सब पापोंको जला डालनेवाले दयालु (भगवान्)
मुझपर द्रवित हों (दया करें),॥2॥
भगवान् नारायण का स्वरुप कैसा है?
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नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥
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जो नील कमलके समान श्यामवर्ण हैं,
पूर्ण खिले हुए लाल कमलके समान जिनके नेत्र हैं और
जो सदा क्षीरसागरमें शयन करते हैं,
वे भगवान् नारायण मेरे हृदयमें निवास करें॥3॥
भगवान् शंकर का स्वरुप कैसा है?
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कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥
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जिनका कुन्दके पुष्प और चन्द्रमाके समान (गौर) शरीर है,
जो पार्वतीजीके प्रियतम और दयाके धाम हैं और
जिनका दीनोंपर स्नेह है,
वे कामदेवका मर्दन करनेवाले
शङ्करजी मुझपर कृपा करें॥4॥
गुरु के चरणों को वंदन क्यों करें?
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बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
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मैं उन गुरु महाराजके चरणकमलकी वन्दना करता हूँ,
जो कृपाके समुद्र और नररूपमें श्रीहरि ही हैं और
जिनके वचन महामोहरूपी घने अन्धकारके नाश करनेके लिये
सूर्य-किरणोंके समूह हैं॥5॥
गुरु के चरणरज का क्या महत्व है?
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बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥
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मैं गुरु महाराजके चरणकमलोंकी रजकी वन्दना करता हूँ,
जो सुरुचि (सुन्दर स्वाद), सुगन्ध तथा अनुरागरूपी रससे पूर्ण है।
वह अमर मूल (सञ्जीवनी जड़ी) का सुन्दर चूर्ण है,
जो सम्पूर्ण भवरोगोंके परिवारको नाश करनेवाला है॥1॥
श्रीगुरु महाराजके चरण वंदन से जीवन में क्या बदलाव आते है?
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सुकृति संभु तन बिमल बिभूती।
मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी।
किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥
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वह रज
सुकृती (पुण्यवान् पुरुष) रूपी शिवजीके शरीरपर सुशोभित
निर्मल विभूति है और
सुन्दर कल्याण और आनन्दकी जननी है,
भक्तके मनरूपी सुन्दर दर्पणके मैलको दूर करनेवाली और
तिलक करनेसे गुणोंके समूहको वशमें करनेवाली है॥2॥
गुरु के चरण वंदन से क्या लाभ मिलता है?
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श्रीगुर पद नख मनि गन जोती।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू।
बड़े भाग उर आवइ जासू॥
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श्रीगुरु महाराजके चरण-नखोंकी ज्योति
मणियोंके प्रकाशके समान है,
जिसके स्मरण करते ही
हृदयमें दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है।
वह प्रकाश
अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश करनेवाला है;
वह जिसके हृदयमें आ जाता है,
उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
गुरु के चिंतन से जीवन में क्या परिवर्तन आते है?
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उघरहिं बिमल बिलोचन ही के।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥
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उसके हृदयमें आते ही
हृदयके निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और
संसाररूपी रात्रिके दोष-दुःख मिट जाते हैं
एवं श्रीरामचरित्ररूपी मणि और माणिक्य,
गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खानमें है,
सब दिखायी पड़ने लगते हैं – ॥4॥
दोहा – 1
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दोहा – जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
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जैसे सिद्धाञ्जनको नेत्रोंमें लगाकर साधक,
सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वीके अंदर
कौतुकसे ही बहुत-सी खानें देखते हैं॥1॥
तुलसीदासजी गुरु के चरण रज से कैसे लाभ प्राप्त करते है?
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गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन।
नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिंकरि बिमल बिबेक बिलोचन।
बरनउँ राम चरित भव मोचन॥
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श्रीगुरु महाराजके चरणोंकी रज
कोमल और सुन्दर नयनामृत-अञ्जन है,
जो नेत्रोंके दोषोंका नाश करनेवाला है।
उस अञ्जनसे
विवेकरूपी नेत्रोंको निर्मल करके
मैं संसाररूपी बन्धनसे छुड़ानेवाले
श्रीरामचरित्रका वर्णन करता हूँ॥1॥
देवता और संतों के चरणोंकी वन्दना क्यों करना चाहिए?
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बंदउँ प्रथम महीसुर चरना।
मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी।
करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥
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पहले पृथ्वीके देवता ब्राह्मणोंके चरणोंकी वन्दना करता हूँ,
जो अज्ञानसे उत्पन्न सब संदेहोंको हरनेवाले हैं।
फिर सब गुणोंकी खान संत-समाजको
प्रेमसहित सुन्दर वाणीसे प्रणाम करता हूँ॥2॥
संतों का चरित्र कैसा होता है?
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साधु चरित सुभ चरित कपासू।
निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा।
बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥
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संतोंका चरित्र
कपासके चरित्र (जीवन)-के समान शुभ है,
जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है।
(कपासकी डोडी नीरस होती है,
संत-चरित्रमें भी विषयासक्ति नहीं है,
इससे वह भी नीरस है;
कपास उज्ज्वल होता है,
संतका हृदय भी
अज्ञान और पापरूपी अन्धकारसे रहित होता है,
इसलिये वह विशद है, और
कपासमें गुण (तन्तु) होते हैं,
इसी प्रकार संतका चरित्र भी
सद्गुणोंका भण्डार होता है,
इसलिये वह गुणमय है।)
जैसे कपासका धागा सूईके किये हुए छेदको
अपना तन देकर ढक देता है,
अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने,
काते जाने और बुने जानेका कष्ट सहकर भी
वस्त्रके रूपमें परिणत होकर
दूसरोंके गोपनीय स्थानोंको ढकता है
उसी प्रकार,
संत स्वयं दुःख सहकर
दूसरोंके छिद्रों (दोषों)-को ढकता है,
जिसके कारण उसने जगत्में वन्दनीय यश प्राप्त किया है॥3॥
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मुद मंगलमय संत समाजू।
जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा।
सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥
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संतोंका समाज आनन्द और कल्याणमय है,
जो जगत्में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है।
जहाँ (उस संतसमाजरूपी प्रयागराजमें)
रामभक्तिरूपी गङ्गाजीकी धारा है और
ब्रह्मविचारका प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4॥
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बिधि निषेधमय कलिमल हरनी।
करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी।
सुनत सकल मुद मंगल देनी॥
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विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मोंकी कथा कलियुगके पापोंको हरनेवाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान् विष्णु और शङ्करजीकी कथाएँ त्रिवेणीरूपसे सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनन्द और कल्याणोंकी देनेवाली हैं॥5॥
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बटु बिस्वास अचल निज धरमा।
तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा।
सेवत सादर समन कलेसा॥
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उस संतसमाजरूपी प्रयागमें, अपने धर्ममें जो अटल विश्वास है वह अक्षयवट है, और शुभकर्म ही उस तीर्थराजका समाज (परिकर) है।
वह (संतसमाजरूपी प्रयागराज) सब देशोंमें, सब समय सभीको सहजहीमें प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करनेसे क्लेशोंको नष्ट करनेवाला है॥6॥
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अकथ अलौकिक तीरथराऊ।
देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥
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वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है, एवं तत्काल फल देनेवाला है; उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥7॥
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दोहा – सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥
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जो मनुष्य इस संत-समाजरूपी तीर्थराजका प्रभाव प्रसन्न मनसे सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीरके रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – चारों फल पा जाते हैं॥2॥
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मज्जन फल पेखिअ ततकाला।
काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई।
सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
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इस तीर्थराजमें स्नानका फल तत्काल ऐसा देखनेमें आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संगकी महिमा छिपी नहीं है॥1॥
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बालमीक नारद घटजोनी।
निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना।
जे जड़ चेतन जीव जहाना॥
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वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजीने अपने-अपने मुखोंसे अपनी होनी (जीवनका वृत्तान्त) कही है। जलमें रहनेवाले, जमीनपर चलनेवाले और आकाशमें विचरनेवाले नाना प्रकारके जड़-चेतन जितने जीव इस जगत्में हैं,॥2॥
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मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ।
लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥
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उनमेंसे जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्नसे बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पायी है, सो सब सत्संगका ही प्रभाव समझना चाहिये। वेदोंमें और लोकमें इनकी प्राप्तिका दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥
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बिनु सतसंग बिबेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
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सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥ सत्संगके बिना विवेक नहीं होता और श्रीरामजीकी कृपाके बिना वह सत्संग सहजमें मिलता नहीं। सत्संगति आनन्द और कल्याणकी जड़ है। सत्संगकी सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल हैं॥4॥
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सठ सुधरहिं सतसंगति पाई।
पारस परस कुधात सुहाई॥
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बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥ दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारसके स्पर्शसे लोहा सुहावना हो जाता है (सुन्दर सोना बन जाता है)। किन्तु दैवयोगसे यदि कभी सज्जन कुसंगतिमें पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँपकी मणिके समान अपने गुणोंका ही अनुसरण करते हैं (अर्थात् जिस प्रकार साँपका संसर्ग पाकर भी मणि उसके विषको ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाशको नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टोंके संगमें रहकर भी दूसरोंको प्रकाश ही देते हैं, दुष्टोंका उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता)॥5॥
[expand]
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी।
कहत साधु महिमा सकुचानी॥
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सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥ ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितोंकी वाणी भी संत-महिमाका वर्णन करनेमें सकुचाती है; वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचनेवालेसे मणियोंके गुणसमूह नहीं कहे जा सकते॥6॥
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दोहा – बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3(क)॥
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मैं संतोंको प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्तमें समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अञ्जलिमें रखे हुए सुन्दर फूल [जिस हाथने फूलोंको तोड़ा और जिसने उनको रखा उन] दोनों ही हाथोंको समानरूपसे सुगन्धित करते हैं [वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनोंका ही समानरूपसे कल्याण करते हैं]॥3(क)॥ संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु। बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥3(ख)॥ संत सरलहृदय और जगत्के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेहको जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनयको सुनकर कृपा करके श्रीरामजीके चरणोंमें मुझे प्रीति दें॥3(ख)॥
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बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ।
जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
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पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥ अब मैं सच्चे भावसे दुष्टोंको प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करनेवालेके भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरोंके हितकी हानि ही जिनकी दृष्टिमें लाभ है, जिनको दूसरोंके उजड़नेमें हर्ष और बसनेमें विषाद होता है॥1॥
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हरि हर जस राकेस राहु से।
पर अकाज भट सहसबाहु से॥
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जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥ जो हरि और हरके यशरूपी पूर्णिमाके चन्द्रमाके लिये राहुके समान हैं (अर्थात् जहाँ कहीं भगवान् विष्णु या शङ्करके यशका वर्णन होता है, उसीमें वे बाधा देते हैं) और दूसरोंकी बुराई करनेमें सहस्रबाहुके समान वीर हैं। जो दूसरोंके दोषोंको हजार आँखोंसे देखते हैं और दूसरोंके हितरूपी घीके लिये जिनका मन मक्खीके समान है (अर्थात् जिस प्रकार मक्खी घीमें गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरोंके बने-बनाये कामको अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं)॥2॥
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तेज कृसानु रोष महिषेसा।
अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
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उदय केत सम हित सब ही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥ जो तेज (दूसरोंको जलानेवाले ताप) में अग्नि और क्रोधमें यमराजके समान हैं, पाप और अवगुणरूपी धनमें कुबेरके समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभीके हितका नाश करनेके लिये केतु (पुच्छल तारे) के समान है, और जिनके कुम्भकर्णकी तरह सोते रहनेमें ही भलाई है॥3॥
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पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं।
जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
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बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥ जैसे ओले खेतीका नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरोंका काम बिगाड़नेके लिये अपना शरीरतक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टोंको [हजार मुखवाले] शेषजीके समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराये दोषोंका हजार मुखोंसे बड़े रोषके साथ वर्णन करते हैं॥4॥
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पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना।
पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
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बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥ पुनः उनको राजा पृथु (जिन्होंने भगवान्का यश सुननेके लिये दस हजार कान माँगे थे) के समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानोंसे दूसरोंके पापोंको सुनते हैं। फिर इन्द्रके समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा (मदिरा) नीकी और हितकारी मालूम देती है [इन्द्रके लिये भी सुरानीक अर्थात् देवताओंकी सेना हितकारी है]॥5॥
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बचन बज्र जेहि सदा पिआरा।
सहस नयन पर दोष निहारा॥
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जिनको कठोर वचनरूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखोंसे दूसरोंके दोषोंको देखते हैं॥6॥
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दोहा – उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥
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दुष्टोंकी यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसीका भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है॥4॥