भगवद गीता अर्थ सहित अध्याय – 04

इस आधाय में भगवान् ने मनुष्य के लिए यज्ञ का महत्व समझाया और
यज्ञों के कई रूपों के बारें में बताया है,
जैसे की, द्रव्य यज्ञ, तपस्या, योग, स्वाध्याय और प्राण अपान का हवन।

और यह कहा की ज्ञानयज्ञ, बाहरी द्रव्य यज्ञों की अपेक्षा श्रेष्ठ है।

ज्ञानयज्ञ किससे सीखना चाहिए इसका भी वर्णन है।

श्रीकृष्ण ने यह भी समझाया की कैसे कर्म करते हुए, भगवान् के स्वरुप को प्राप्त कर सकते है, अर्थात मोक्ष या मुक्ति मिल सकती है।

इसी अध्याय में सबसे लोकप्रिय श्लोक भी आता है, जिसमे भगवान् अपने अवतार का कारण बताते है और वे कब कब अपने साकार स्वरुप में आते है यह समझाया है। वह लोकप्रिय श्लोक है –

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥

भगवद गीता के 700 श्लोकों में से
इस चौथे अध्याय में 42 श्लोक आते हैं।


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में भगवद गीता के चौथे अध्याय सभी 42 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

भगवद गीता सिर्फ हिन्दी में

भगवद गीता सिर्फ हिंदी में पढ़ने के लिए,
अर्थात सभी श्लोक हाईड (hide) करने के लिए क्लिक करें –

सिर्फ हिंदी में (Hide Shlok)

गीता श्लोक अर्थ सहित

भगवद गीता के सभी श्लोक अर्थ सहित पढ़ने के लिए (यानी की सभी श्लोकों को unhide या show करने के लिए) क्लिक करें  –

सभी श्लोक देखें (Show Shlok)


साथ ही साथ हर श्लोक के स्थान पर
एक छोटा सा arrow है, जिसे क्लिक करने पर,
वह श्लोक दिखाई देगा।

और सभी श्लोक हाईड और शो (दिखाने) के लिए भी लिंक दी गयी है।


<< भगवद गीता अध्याय 3

भगवद गीता अध्याय की लिस्ट

अथ चतुर्थोऽध्यायः- ज्ञानकर्मसंन्यासयोग

1

भगवान् से योग किस प्रकार पृथ्वी तक आया

[expand]

श्री भगवानुवाच : इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌॥

[/expand]

श्री भगवान बोले-
मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था,
सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और
मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा॥1॥

सभी श्लोक – Hide | Show

2

योग का लुप्तप्राय होना

[expand]

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥

[/expand]

हे परन्तप अर्जुन!
इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना,
किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से
इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया॥2॥

सभी श्लोक – Hide | Show

3

भगवान् कृष्ण ने पुरातन योग अर्जुन से क्यों कहा?

[expand]

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌॥

[/expand]

तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है,
इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है
क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है
अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है॥3॥

सभी श्लोक – Hide | Show

4

अर्जुन के मन में भगवान् के बारें में शंका

[expand]

अर्जुन उवाच: अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥

[/expand]

अर्जुन बोले –
आपका जन्म तो अर्वाचीन-अभी हाल का है और
सूर्य का जन्म बहुत पुराना है
अर्थात कल्प के आदि में हो चुका था।

तब मैं इस बात को कैसे समूझँ
कि आप ही ने कल्प के आदि में
सूर्य से यह योग कहा था?॥4॥

सभी श्लोक – Hide | Show

5

भगवान् अर्जुन को जन्मों के बारें में समझाते है

[expand]

श्रीभगवानुवाच: बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥

[/expand]

श्री भगवान बोले- हे परंतप अर्जुन!
मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं।

उन सबको तू नहीं जानता,
किन्तु मैं जानता हूँ॥5॥

सभी श्लोक – Hide | Show

6

भगवान् साकार रूप में प्रकट कैसे होते है?

[expand]

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥

[/expand]

मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी
तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी
अपनी प्रकृति को अधीन करके
अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ॥6॥

सभी श्लोक – Hide | Show

7

भगवान् पृथ्वी पर अवतार क्यों लेते है?

[expand]

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌॥

[/expand]

हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है,
तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ
अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ॥7॥

सभी श्लोक – Hide | Show

8

कब कब भगवान साकार रूप में प्रकट होते है?

[expand]

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥

[/expand]

साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए,
पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और
धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए
मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥8॥

सभी श्लोक – Hide | Show

9

मनुष्य कैसे भगवान् को प्राप्त हो सकता है?

[expand]

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥

[/expand]

हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म
दिव्य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं –
इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से जान लेता है,
वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता,
किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है॥9॥

(सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्दन परमात्मा
अज, अविनाशी और सर्वभूतों के परम गति तथा परम आश्रय हैं,
वे केवल धर्म को स्थापन करने और
संसार का उद्धार करने के लिए ही
अपनी योगमाया से सगुणरूप होकर प्रकट होते हैं।

इसलिए परमेश्वर के समान
सुहृद्, प्रेमी और पतितपावन दूसरा कोई नहीं है,
ऐसा समझकर जो पुरुष परमेश्वर का
अनन्य प्रेम से निरन्तर चिन्तन करता हुआ
आसक्तिरहित संसार में बर्तता है,
वही उनको तत्व से जानता है।)

सभी श्लोक – Hide | Show

10

कौन से भक्त पहले भगवान् के स्वरूप को प्राप्त हुए है?

[expand]

वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥

[/expand]

पहले भी, जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गए थे और
जो मुझ में अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते थे,
ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त
उपर्युक्त ज्ञान रूप तप से पवित्र होकर
मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं॥10॥

सभी श्लोक – Hide | Show

11

भक्त और भगवान् में सम्बन्ध

[expand]

ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

[/expand]

हे अर्जुन!
जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं,
मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ,
क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से
मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥11॥

सभी श्लोक – Hide | Show

12

देवताओं की पूजा से शीघ्र कर्मों का फल

[expand]

काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥

[/expand]

इस मनुष्य लोक में
कर्मों के फल को चाहने वाले लोग
देवताओं का पूजन किया करते हैं
क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि
शीघ्र मिल जाती है॥12॥

सभी श्लोक – Hide | Show

13

मनुष्य के चार वर्ण – कर्मों के आधार पर

[expand]

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌॥

[/expand]

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र –
इन चार वर्णों का समूह,
गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है।

इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का
कर्ता होने पर भी
मुझ अविनाशी परमेश्वर को
तू वास्तव में अकर्ता ही जान॥13॥

सभी श्लोक – Hide | Show

14

कर्म बंधन से छूटने का एक मार्ग – ईश्वर को तत्व से जानना

[expand]

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥

[/expand]

कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है,
इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते –
इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है,
वह भी कर्मों से नहीं बँधता॥14॥

सभी श्लोक – Hide | Show

15

मुक्त पुरुषों के कर्मों को जानकार कर्म करें

[expand]

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌॥

[/expand]

पूर्वकाल में मुमुक्षुओं ने भी
इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं,
इसलिए तू भी
पूर्वजों द्वारा सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही कर॥15॥

सभी श्लोक – Hide | Show

16

कर्मबन्धनों से मुक्ति के लिए कर्मतत्व समझना जरूरी

[expand]

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥

[/expand]

कर्म क्या है? और अकर्म क्या है?
इस प्रकार इसका निर्णय करने में
बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाते हैं।

इसलिए वह कर्मतत्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा,
जिसे जानकर तू अशुभ से
अर्थात कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा॥16॥

सभी श्लोक – Hide | Show

17

कर्म, अकर्म और विकर्म का स्वरुप

[expand]

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥

[/expand]

कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और
अकर्मण का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा
विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए
क्योंकि कर्म की गति गहन है॥17॥

सभी श्लोक – Hide | Show

18

बुद्धिमान और योगी किस प्रकार कर्म करते है?

[expand]

कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्‌॥

[/expand]

जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और
जो अकर्म में कर्म देखता है,
वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और
वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है॥18॥

सभी श्लोक – Hide | Show

19

बिना कामना और संकल्प के कर्म से मनुष्य क्या होता है?

[expand]

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः॥

[/expand]

जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म
बिना कामना और संकल्प के होते हैं
तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि द्वारा भस्म हो गए हैं,
उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं॥19॥

सभी श्लोक – Hide | Show

20

निरंतर ईश्वर में मन और कर्मफलों का त्याग

[expand]

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥

[/expand]

जो पुरुष समस्त कर्मों में और
उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके
संसार के आश्रय से रहित हो गया है और
परमात्मा में नित्य तृप्त है,
वह कर्मों में भलीभाँति बर्तता हुआ भी
वास्तव में कुछ भी नहीं करता॥20॥

सभी श्लोक – Hide | Show

21

कर्म करते हुए भी पापों से कैसे बचा जा सकता है?

[expand]

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌॥

[/expand]

जिसका अंतःकरण और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है और
जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है,
ऐसा आशारहित पुरुष
केवल शरीर-संबंधी कर्म करता हुआ भी
पापों को नहीं प्राप्त होता॥21॥

सभी श्लोक – Hide | Show

22

कर्मयोगी किस प्रकार कर्म बंधनों में नहीं बंधता?

[expand]

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥

[/expand]

जो बिना इच्छा के अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है,
जिसमें ईर्ष्या का सर्वथा अभाव हो गया हो,
जो हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से सर्वथा अतीत हो गया है –
ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्मयोगी
कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता॥22॥

सभी श्लोक – Hide | Show

23

सम्पूर्ण कर्म कैसे विलीन हो सकते है?

[expand]

गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥

[/expand]

जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है,
जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है,
जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है –
ऐसा केवल यज्ञसम्पादन के लिए
कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म
भलीभाँति विलीन हो जाते हैं॥23॥

सभी श्लोक – Hide | Show

24

ब्रह्म का स्वरूप क्या है?

[expand]

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥

[/expand]

जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और
हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है,
तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है –
उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा
प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं॥24॥

सभी श्लोक – Hide | Show

25

यज्ञ, अनुष्ठान, हवन और ब्रह्म

[expand]

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥

[/expand]

दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही
भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और
अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में
अभेद दर्शनरूप यज्ञ द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं।

(परब्रह्म परमात्मा में ज्ञान द्वारा एकीभाव से स्थित होना ही
ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ को हवन करना है।)॥25॥

सभी श्लोक – Hide | Show

26

विषयों का इन्द्रियों में हवन

[expand]

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥

[/expand]

अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को
संयम रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं और
दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को
इन्द्रिय रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं॥26॥

सभी श्लोक – Hide | Show

27

इन्द्रियों का संयमरूपी अग्नि में हवन

[expand]

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥

[/expand]

दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं और
प्राणों की समस्त क्रियाओं को
ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं।

(सच्चिदानंदघन परमात्मा के सिवाय
अन्य किसी का भी न चिन्तन करना ही
उन सबका हवन करना है।)॥27॥

सभी श्लोक – Hide | Show

28

यज्ञ के रुप – द्रव्य, तपस्या, योग, स्वाध्याय

[expand]

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥

[/expand]

कई पुरुष द्रव्य संबंधी यज्ञ करने वाले हैं,
कितने ही तपस्या रूप यज्ञ करने वाले हैं
तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं,
कितने ही अहिंसादि तीक्ष्णव्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष
स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं॥28॥

सभी श्लोक – Hide | Show

29-30

यज्ञ के रुप – प्राण अपान का हवन

[expand]

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥ अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥

[/expand]

दूसरे कितने ही योगीजन
अपान वायु में प्राणवायु को हवन करते हैं,
वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं
तथा अन्य कितने ही नियमित आहार
(गीता अध्याय 6 श्लोक 17 में देखना चाहिए।)
करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष
प्राण और अपान की गति को रोककर
प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं।

ये सभी साधक यज्ञों द्वारा
पापों का नाश कर देने वाले और
यज्ञों को जानने वाले हैं॥29-30॥

सभी श्लोक – Hide | Show

31

ऊपर बताए गए यज्ञ क्यों जरूरी है?

[expand]

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥

[/expand]

हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन!
यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन
सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं।

और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिए तो
यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है,
फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है?॥31॥

सभी श्लोक – Hide | Show

32

कर्म बंधन से छूटने के लिए – मन, इन्द्रियों का यज्ञ

[expand]

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥

[/expand]

इसी प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ
वेद की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं।

उन सबको तू
मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान,
इस प्रकार तत्व से जानकर
उनके अनुष्ठान द्वारा
तू कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाएगा॥32॥

सभी श्लोक – Hide | Show

33

बाहर के द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ

[expand]

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥

[/expand]

हे परंतप अर्जुन!
द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है
तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं॥33॥

सभी श्लोक – Hide | Show

34

ज्ञानयज्ञ किससे सीखे?

[expand]

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः॥

[/expand]

उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ,
उनको भलीभाँति दण्डवत्‌ प्रणाम करने से,
उनकी सेवा करने से और
कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से
वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा
तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे॥34॥

सभी श्लोक – Hide | Show

35

ज्ञानयज्ञ से क्या मिलेगा अर्थात उसका फल क्या है?

[expand]

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥

[/expand]

जिसको जानकर
फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा
तथा हे अर्जुन!
जिस ज्ञान द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को
निःशेषभाव से पहले अपने में
(गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए।) और
पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखेगा।

(गीता अध्याय 6 श्लोक 30 में देखना चाहिए।)॥35॥

सभी श्लोक – Hide | Show

36

ज्ञानयज्ञ सभी पापों से मुक्ति दिला सकता है

[expand]

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥

[/expand]

यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है,
तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा
निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जाएगा॥36॥

सभी श्लोक – Hide | Show

37

ज्ञानयज्ञ से कर्म बंधन कट जाते है

[expand]

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥

[/expand]

क्योंकि हे अर्जुन!
जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है,
वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है॥37॥

सभी श्लोक – Hide | Show

38

कर्मयोग से अपने आप ही ज्ञान की प्राप्ति

[expand]

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥

[/expand]

इस संसार में
ज्ञान के समान पवित्र करने वाला
निःसंदेह कुछ भी नहीं है।

उस ज्ञान को
कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा
शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य
अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है॥38॥

सभी श्लोक – Hide | Show

39

ज्ञान प्राप्त होने के अगले ही क्षण क्या हो जाता है?

[expand]

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥

[/expand]

जितेन्द्रिय, साधनपरायण और
श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है
तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के
तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है॥39॥

सभी श्लोक – Hide | Show

40

संशययुक्त, अज्ञानी पुरुष की क्या गति?

[expand]

अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥

[/expand]

विवेकहीन और श्रद्धारहित
संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है।

ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए
न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है॥40॥

सभी श्लोक – Hide | Show

41

कौन से पुरुष को कर्म नहीं बाँध सकते?

[expand]

योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥

[/expand]

हे धनंजय!
जिसने कर्मयोग की विधि से
समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और
जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है,
ऐसे वश में किए हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते॥41॥

सभी श्लोक – Hide | Show

42

भगववान अर्जुन को समत्वरूप कर्मयोग के लिए कहते है

[expand]

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥

[/expand]

इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन!
तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का
विवेकज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके
समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥42॥

सभी श्लोक – Hide | Show

ज्ञानकर्मसंन्यास योग नामक चौथा अध्याय समाप्त

[expand]

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः॥4॥

[/expand]


Next.. (आगे पढें ..) – Bhagavad Gita – 5

भगवद गीता का अगला पेज, भगवद गीता अध्याय – 5 पढ़ने के लिए क्लिक करें >>

भगवद गीता अध्याय – 5

For next page of Bhagavad Gita, please visit >>

Bhagavad Gita Adhyay – 5

भगवद गीता अध्याय की लिस्ट