भागवत पुराण – पंचम स्कन्ध – अध्याय – 2

<< भागवत पुराण – Index

<< भागवत पुराण – पंचम स्कन्ध – अध्याय – 1

भागवत पुराण स्कंध लिंक - भागवत माहात्म्य | प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8) | नवम (9) | दशम (10) | एकादश (11) | द्वादश (12)


आग्नीध्र-चरित्र

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – पिता प्रियव्रतके इस प्रकार तपस्यामें संलग्न हो जानेपर राजा आग्नीध्र उनकी आज्ञाका अनुसरण करते हुए जम्बूद्वीपकी प्रजाका धर्मानुसार पुत्रवत् पालन करने लगे।।१।।

एक बार वे पितृलोककी कामनासे सत्पुत्रप्राप्तिके लिये पूजाकी सब सामग्री जुटाकर सुरसुन्दरियोंके क्रीडास्थल मन्दराचलकी एक घाटीमें गये और तपस्यामें तत्पर होकर एकाग्रचित्तसे प्रजापतियोंके पति श्रीब्रह्माजीकी आराधना करने लगे।।२।।

आदिदेव भगवान् ब्रह्माजीने उनकी अभिलाषा जान ली।

अतः अपनी सभाकी गायिका पूर्वचित्ति नामकी अप्सराको उनके पास भेज दिया।।३।।

आग्नीध्रजीके आश्रमके पास एक अति रमणीय उपवन था।

वह अप्सरा उसीमें विचरने लगी।

उस उपवनमें तरह-तरहके सघन तरुवरोंकी शाखाओंपर स्वर्णलताएँ फैली हुई थीं।

उनपर बैठे हुए मयूरादि कई प्रकारके स्थलचारी पक्षियोंके जोड़े सुमधुर बोली बोल रहे थे।

उनकी षड् जादि स्वरयुक्त ध्वनि सुनकर सचेत हुए जलकुक्कुट, कारण्डव एवं कलहंस आदि जलपक्षी भाँति-भाँतिसे कूजने लगते थे।

इससे वहाँके कमलवनसे सुशोभित निर्मल सरोवर गूँजने लगते थे।।४।।

पूर्वचित्तिकी विलासपूर्ण सुललित गतिविधि और पाद विन्यासकी शैलीसे पद-पदपर उसके चरणनूपुरोंकी झनकार हो उठती थी।

उसकी मनोहर ध्वनि सुनकर राजकुमार आग्नीध्रने समाधियोगद्वारा मूँदे हुए अपने कमल-कलीके समान सुन्दर नेत्रोंको कुछ-कुछ खोलकर देखा तो पास ही उन्हें वह अप्सरा दिखायी दी।

वह भ्रमरीके समान एक-एक फूलके पास जाकर उसे सूँघती थी तथा देवता और मनुष्योंके मन और नयनोंको आह्लादित करनेवाली अपनी विलासपूर्ण गति, क्रीडा-चापल्य, लज्जा एवं विनययुक्त चितवन, सुमधुर वाणी तथा मनोहर अंगावयवोंसे पुरुषोंके हृदयमें कामदेवके प्रवेशके लिये द्वार-सा बना देती थी।

जब वह हँस-हँसकर बोलने लगती, तब ऐसा प्रतीत होता मानो उसके मुखसे अमृतमय मादक मधु झर रहा है।

उसके निःश्वासके गन्धसे मदान्ध होकर भौंरे उसके मुखकमलको घेर लेते, तब वह उनसे बचनेके लिये जल्दी-जल्दी पैर उठाकर चलती तो उसके कुचकलश, वेणी और करधनी हिलनेसे बड़े ही सुहावने लगते।

यह सब देखनेसे भगवान् कामदेवको आग्नीध्रके हृदयमें प्रवेश करनेका अवसर मिल गया और वे उनके अधीन होकर उसे प्रसन्न करनेके लिये पागलकी भाँति इस प्रकार कहने लगे – ।।५-६।।

‘मुनिवर्य! तुम कौन हो, इस पर्वतपर तुम क्या करना चाहते हो? तुम परमपुरुष श्रीनारायणकी कोई माया तो नहीं हो? (भौंहोंकी ओर संकेत करके – ) सखे! तुमने ये बिना डोरीके दो धनुष क्यों धारण कर रखे हैं? क्या इनसे तुम्हारा कोई अपना प्रयोजन है अथवा इस संसारारण्यमें मुझ-जैसे मतवाले मृगोंका शिकार करना चाहते हो!।।७।।

(कटाक्षोंको लक्ष्य करके – ) तुम्हारे ये दो बाण तो बड़े सुन्दर और पैने हैं।

अहो! इनके कमलदलके पंख हैं, देखनेमें बड़े शान्त हैं और हैं भी पंखहीन।

यहाँ वनमें विचरते हुए तुम इन्हें किसपर छोड़ना चाहते हो? यहाँ तुम्हारा कोई सामना करनेवाला नहीं दिखायी देता।

तुम्हारा यह पराक्रम हम-जैसे जड-बुद्धियोंके लिये कल्याणकारी हो।।८।।

(भौंरोंकी ओर देखकर – ) भगवन्! तुम्हारे चारों ओर जो ये शिष्यगण अध्ययन कर रहे हैं, वे तो निरन्तर रहस्ययुक्त सामगान करते हुए मानो भगवान् की स्तुति कर रहे हैं और ऋषिगण जैसे वेदकी शाखाओंका अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार ये सब तुम्हारी चोटीसे झड़े हुए पुष्पोंका सेवन कर रहे हैं।।९।।

(नूपुरोंके शब्दकी ओर संकेत करके – ) ब्रह्मन्! तुम्हारे चरणरूप पिंजड़ोंमें जो तीतर बन्द हैं, उनका शब्द तो सुनायी देता है; परन्तु रूप देखनेमें नहीं आता।

(करधनीसहित पीली साड़ीमें अंगकी कान्तिकी उत्प्रेक्षा कर – ) तुम्हारे नितम्बोंपर यह कदम्ब-कुसुमोंकी-सी आभा कहाँसे आ गयी? इनके ऊपर तो अंगारोंका मण्डल-सा भी दिखायी देता है।

किन्तु तुम्हारा वल्कल-वस्त्र कहाँ है?।।१०।।

(कुंकुममण्डित कुचोंकी ओर लक्ष्य करके – ) द्विजवर! तुम्हारे इन दोनों सुन्दर सींगोंमें क्या भरा हुआ है? अवश्य ही इनमें बड़े अमूल्य रत्न भरे हैं, इसीसे तो तुम्हारा मध्यभाग इतना कृश होनेपर भी तुम इनका बोझ ढो रहे हो।

यहाँ जाकर तो मेरी दृष्टि भी मानो अटक गयी है।

और सुभग! इन सींगोंपर तुमने यह लाल-लाल लेप-सा क्या लगा रखा है? इसकी गन्धसे तो मेरा सारा आश्रम महक उठा है।।११।।

मित्रवर! मुझे तो तुम अपना देश दिखा दो, जहाँके निवासी अपने वक्षःस्थलपर ऐसे अद् भुत अवयव धारण करते हैं, जिन्होंने हमारे-जैसे प्राणियोंके चित्तोंको क्षुब्ध कर दिया है तथा मुखमें विचित्र हाव-भाव, सरसभाषण और अधरामृत-जैसी अनूठी वस्तुएँ रखते हैं।।१२।।

‘प्रियवर! तुम्हारा भोजन क्या है, जिसके खानेसे तुम्हारे मुखसे हवनसामग्रीकी-सी सुगन्ध फैल रही है? मालूम होता है, तुम कोई विष्णुभगवान् की कला ही हो; इसीलिये तुम्हारे कानोंमें कभी पलक न मारनेवाले मकरके आकारके दो कुण्डल हैं।

तुम्हारा मुख एक सुन्दर सरोवरके समान है।

उसमें तुम्हारे चंचल नेत्र भयसे काँपती हुई दो मछलियोंके समान, दन्तपंक्ति हंसोंके समान और घुँघराली अलकावली भौंरोंके समान शोभायमान है।।१३।।

तुम जब अपने करकमलोंसे थपकी मारकर इस गेंदको उछालते हो, तब यह दिशा-विदिशाओंमें जाती हुई मेरे नेत्रोंको तो चंचल कर ही देती है, साथ-साथ मेरे मनमें भी खलबली पैदा कर देती है।

तुम्हारा बाँका जटाजूट खुल गया है, तुम इसे सँभालते नहीं? अरे, यह धूर्त वायु कैसा दुष्ट है जो बार-बार तुम्हारे नीवी-वस्त्रको उड़ा देता है।।१४।।

तपोधन! तपस्वियोंके तपको भ्रष्ट करनेवाला यह अनूप रूप तुमने किस तपके प्रभावसे पाया है? मित्र! आओ, कुछ दिन मेरे साथ रहकर तपस्या करो।

अथवा, कहीं विश्वविस्तारकी इच्छासे ब्रह्माजीने ही तो मुझपर कृपा नहीं की है।।१५।।

सचमुच, तुम ब्रह्माजीकी ही प्यारी देन हो; अब मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता।

तुममें तो मेरे मन और नयन ऐसे उलझ गये हैं कि अन्यत्र जाना ही नहीं चाहते।

सुन्दर सींगोंवाली! तुम्हारा जहाँ मन हो, मुझे भी वहीं ले चलो; मैं तो तुम्हारा अनुचर हूँ और तुम्हारी ये मंगलमयी सखियाँ भी हमारे ही साथ रहें’।।१६।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – राजन्! आग्नीध्र देवताओंके समान बुद्धिमान् और स्त्रियोंको प्रसन्न करनेमें बड़े कुशल थे।

उन्होंने इसी प्रकारकी रतिचातुर्यमयी मीठी-मीठी बातोंसे उस अप्सराको प्रसन्न कर लिया।।१७।।

वीर-समाजमें अग्रगण्य आग्नीध्रकी बुद्धि, शील, रूप, अवस्था, लक्ष्मी और उदारतासे आकर्षित होकर वह उन जम्बूद्वीपाधिपतिके साथ कई हजार वर्षोंतक पृथ्वी और स्वर्गके भोग भोगती रही।।१८।।

तदनन्तर नृपवर आग्नीध्रने उसके गर्भसे नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्मय, कुरु, भद्राश्व और केतुमाल नामके नौ पुत्र उत्पन्न किये।।१९।।

इस प्रकार नौ वर्षमें प्रतिवर्ष एकके क्रमसे नौ पुत्र उत्पन्न कर पूर्वचित्ति उन्हें राजभवनमें ही छोड़कर फिर ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित हो गयी।।२०।।

ये आग्नीध्रके पुत्र माताके अनुग्रहसे स्वभावसे ही सुडौल और सबल शरीरवाले थे।

आग्नीध्रने जम्बूद्वीपके विभाग करके उन्हींके समान नामवाले नौ वर्ष (भूखण्ड) बनाये और उन्हें एक-एक पुत्रको सौंप दिया।

तब वे सब अपने-अपने वर्षका राज्य भोगने लगे।।२१।।

महाराज आग्नीध्र दिन-दिन भोगोंको भोगते रहनेपर भी उनसे अतृप्त ही रहे।

वे उस अप्सराको ही परम पुरुषार्थ समझते थे।

इसलिये उन्होंने वैदिक कर्मोंके द्वारा उसी लोकको प्राप्त किया, जहाँ पितृगण अपने सुकृतोंके अनुसार तरह-तरहके भोगोंमें मस्त रहते हैं।।२२।।

पिताके परलोक सिधारनेपर नाभि आदि नौ भाइयोंने मेरुकी मेरुदेवी, प्रतिरूपा, उग्रदंष्ट्री, लता, रम्या, श्यामा, नारी, भद्रा और देववीति नामकी नौ कन्याओंसे विवाह किया।।२३।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे आग्नीध्रवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः।।२।।


Next.. (आगे पढें…..) >> भागवत पुराण – पंचम स्कन्ध – अध्याय – 3

भागवत पुराण – पंचम स्कन्ध का अगला पेज पढ़ने के लिए क्लिक करें >>

भागवत पुराण – पंचम स्कन्ध – अध्याय – 3


Krishna Bhajan, Aarti, Chalisa

Krishna Bhajan