<< भागवत पुराण – पंचम स्कन्ध – अध्याय – 7
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भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृगयोनिमें जन्म लेना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – एक बार भरतजी गण्डकीमें स्नान कर नित्य-नैमित्तिक तथा शौचादि अन्य आवश्यक कृत्योंसे निवृत्त हो प्रणवका जप करते हुए तीन मुहूर्ततक नदीकी धाराके पास बैठे रहे।।१।।
राजन्! इसी समय एक हरिनी प्याससे व्याकुल हो जल पीनेके लिये अकेली ही उस नदीके तीरपर आयी।।२।।
अभी वह जल पी ही रही थी कि पास ही गरजते हुए सिंहकी लोकभयंकर दहाड़ सुनायी पड़ी।।३।।
हरिनजाति तो स्वभावसे ही डरपोक होती है।
वह पहले ही चौकन्नी होकर इधर-उधर देखती जाती थी।
अब ज्यों ही उसके कानमें वह भीषण शब्द पड़ा कि सिंहके डरके मारे उसका कलेजा धड़कने लगा और नेत्र कातर हो गये।
प्यास अभी बुझी न थी, किन्तु अब तो प्राणोंपर आ बनी थी।
इसलिये उसने भयवश एकाकी नदी पार करनेके लिये छलाँग मारी।।४।।
उसके पेटमें गर्भ था, अतः उछलते समय अत्यन्त भयके कारण उसका गर्भ अपने स्थानसे हटकर योनिद्वारसे निकलकर नदीके प्रवाहमें गिर गया।।५।।
वह कृष्णमृगपत्नी अकस्मात् गर्भके गिर जाने, लम्बी छलाँग मारने तथा सिंहसे डरी होनेके कारण बहुत पीड़ित हो गयी थी।
अब अपने झुंडसे भी उसका बिछोह हो गया, इसलिये वह किसी गुफामें जा पड़ी और वहीं मर गयी।।६।।
राजर्षि भरतने देखा कि बेचारा हरिनीका बच्चा अपने बन्धुओंसे बिछुड़कर नदीके प्रवाहमें बह रहा है।
इससे उन्हें उसपर बड़ी दया आयी और वे आत्मीयके समान उस मातृहीन बच्चेको अपने आश्रमपर ले आये।।७।।
उस मृगछौनेके प्रति भरतजीकी ममता उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी।
वे नित्य उसके खाने-पीनेका प्रबन्ध करने, व्याघ्रादिसे बचाने, लाड़ लड़ाने और पुचकारने आदिकी चिन्तामें ही डूबे रहने लगे।
कुछ ही दिनोंमें उनके यम, नियम और भगवत्पूजा आदि आवश्यक कृत्य एक-एक करके छूटने लगे और अन्तमें सभी छूट गये।।८।।
उन्हें ऐसा विचार रहने लगा – ‘अहो! कैसे खेदकी बात है! इस बेचारे दीन मृगछौनेको कालचक्रके वेगने अपने झुंड, सुहृद् और बन्धुओंसे दूर करके मेरी शरणमें पहुँचा दिया है।
यह मुझे ही अपना माता-पिता, भाई-बन्धु और यूथके साथी-संगी समझता है।
इसे मेरे सिवा और किसीका पता नहीं है और मुझमें इसका विश्वास भी बहुत है।
मैं भी शरणागतकी उपेक्षा करनेमें जो दोष हैं, उन्हें जानता हूँ।
इसलिये मुझे अब अपने इस आश्रितका सब प्रकारकी दोषबुद्धि छोड़कर अच्छी तरह पालन-पोषण और प्यार-दुलार करना चाहिये।।९।।
निश्चय ही शान्त-स्वभाव और दीनोंकी रक्षा करनेवाले परोपकारी सज्जन ऐसे शरणागतकी रक्षाके लिये अपने बड़े-से-बड़े स्वार्थकी भी परवाह नहीं करते’।।१०।।
इस प्रकार उस हरिनके बच्चेमें आसक्ति बढ़ जानेसे बैठते, सोते, टहलते, ठहरते और भोजन करते समय भी उनका चित्त उसके स्नेहपाशमें बँधा रहता था।।११।।
जब उन्हें कुश, पुष्प, समिधा, पत्र और फल-मूलादि लाने होते तो भेड़ियों और कुत्तोंके भयसे उसे वे साथ लेकर ही वनमें जाते।।१२।।
मार्गमें जहाँ-तहाँ कोमल घास आदिको देखकर मुग्धभावसे वह हरिणशावक अटक जाता तो वे अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदयसे दयावश उसे अपने कंधेपर चढ़ा लेते।
इसी प्रकार कभी गोदमें लेकर और कभी छातीसे लगाकर उसका दुलार करनेमें भी उन्हें बड़ा सुख मिलता।।१३।।
नित्य-नैमित्तिक कर्मोंको करते समय भी राजराजेश्वर भरत बीच-बीचमें उठ-उठकर उस मृगबालकको देखते और जब उसपर उनकी दृष्टि पड़ती, तभी उनके चित्तको शान्ति मिलती।
उस समय उसके लिये मंगलकामना करते हुए वे कहने लगते – ‘बेटा! तेरा सर्वत्र कल्याण हो’।।१४।।
कभी यदि वह दिखायी न देता तो जिसका धन लुट गया हो, उस दीन मनुष्यके समान उनका चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो जाता और फिर वे उस हरिनीके बच्चेके विरहसे व्याकुल एवं सन्तप्त हो करुणावश अत्यन्त उत्कण्ठित एवं मोहाविष्ट हो जाते तथा शोकमग्न होकर इस प्रकार कहने लगते।।१५।।
‘अहो! क्या कहा जाय? क्या वह मातृहीन दीन मृगशावक दुष्ट बहेलियेकी-सी बुद्धिवाले मुझ पुण्यहीन अनार्यका विश्वास करके और मुझे अपना मानकर मेरे किये हुए अपराधोंको सत्पुरुषोंके समान भूलकर फिर लौट आयेगा?।।१६।।
क्या मैं उसे फिर इस आश्रमके उपवनमें भगवान् की कृपासे सुरक्षित रहकर निर्विघ्न हरी-हरी दूब चरते देखूँगा?।।१७।।
ऐसा न हो कि कोई भेड़िया, कुत्ता, गोल बाँधकर विचरनेवाले सूकरादि अथवा अकेले घूमनेवाले व्याघ्रादि ही उसे खा जायँ।।१८।।
अरे! सम्पूर्ण जगत् की कुशलके लिये प्रकट होनेवाले वेदत्रयीरूप भगवान् सूर्य अस्त होना चाहते हैं; किन्तु अभीतक वह मृगीकी धरोहर लौटकर नहीं आयी!।।१९।।
क्या वह हरिणराजकुमार मुझ पुण्यहीनके पास आकर अपनी भाँति-भाँतिकी मृगशावकोचित मनोहर एवं दर्शनीय क्रीडाओंसे अपने स्वजनोंका शोक दूर करते हुए मुझे आनन्दित करेगा?।।२०।।
अहो! जब कभी मैं प्रणयकोपसे खेलमें झूठ-मूठ समाधिके बहाने आँखें मूँदकर बैठ जाता, तब वह चकित चित्तसे मेरे पास आकर जलबिन्दुके समान कोमल और नन्हें-नन्हें सींगोंकी नोकसे किस प्रकार मेरे अंगोंको खुजलाने लगता था।।२१।।
मैं कभी कुशोंपर हवनसामग्री रख देता और वह उन्हें दाँतोंसे खींचकर अपवित्र कर देता तो मेरे डाँटने-डपटनेपर वह अत्यन्त भयभीत होकर उसी समय सारी उछल-कूद छोड़ देता और ऋषिकुमारके समान अपनी समस्त इन्द्रियोंको रोककर चुपचाप बैठ जाता था’।।२२।।
[फिर पृथ्वीपर उस मृगशावकके खुरके चिह्न देखकर कहने लगते – ] ‘अहो! इस तपस्विनी धरतीने ऐसा कौन-सा तप किया है जो उस अतिविनीत कृष्णसारकिशोरके छोटे-छोटे सुन्दर, सुखकारी और सुकोमल खुरोंवाले चरणोंके चिह्नोंसे मुझे, जो मैं अपना मृगधन लुट जानेसे अत्यन्त व्याकुल और दीन हो रहा हूँ, उस द्रव्यकी प्राप्तिका मार्ग दिखा रही है और स्वयं अपने शरीरको भी सर्वत्र उन पदचिह्नोंसे विभूषित कर स्वर्ग और अपवर्गके इच्छुक द्विजोंके लिये यज्ञस्थल* बना रही है।।२३।।
(चन्द्रमामें मृगका-सा श्याम चिह्न देख उसे अपना ही मृग मानकर कहने लगते – ) ‘अहो! जिसकी माता सिंहके भयसे मर गयी थी, आज वही मृगशिशु अपने आश्रमसे बिछुड़ गया है।
अतः उसे अनाथ देखकर क्या ये दीनवत्सल भगवान् नक्षत्रनाथ दयावश उसकी रक्षा कर रहे हैं?।।२४।।
[फिर उसकी शीतल किरणोंसे आह्लादित होकर कहने लगते – ] ‘अथवा अपने पुत्रोंके वियोगरूप दावानलकी विषम ज्वालासे हृदयकमल दग्ध हो जानेके कारण मैंने एक मृगबालकका सहारा लिया था।
अब उसके चले जानेसे फिर मेरा हृदय जलने लगा है; इसलिये ये अपनी शीतल, शान्त, स्नेहपूर्ण और वदनसलिलरूपा अमृतमयी किरणोंसे मुझे शान्त कर रहे हैं’।।२५।।
राजन्! इस प्रकार जिनका पूरा होना सर्वथा असम्भव था, उन विविध मनोरथोंसे भरतका चित्त व्याकुल रहने लगा।
अपने मृगशावकके रूपमें प्रतीत होनेवाले प्रारब्धकर्मके कारण तपस्वी भरतजी भगवदाराधनरूप कर्म एवं योगानुष्ठानसे च्युत हो गये।
नहीं तो, जिन्होंने मोक्षमार्गमें साक्षात् विघ्नरूप समझकर अपने ही हृदयसे उत्पन्न दुस्त्यज पुत्रादिको भी त्याग दिया था, उन्हींकी अन्यजातीय हरिणशिशुमें ऐसी आसक्ति कैसे हो सकती थी।
इस प्रकार राजर्षि भरत विघ्नोंके वशीभूत होकर योगसाधनसे भ्रष्ट हो गये और उस मृगछौनेके पालन-पोषण और लाड़-प्यारमें ही लगे रहकर आत्मस्वरूपको भूल गये।
इसी समय जिसका टलना अत्यन्त कठिन है, वह प्रबल वेगशाली कराल काल, चूहेके बिलमें जैसे सर्प घुस आये, उसी प्रकार उनके सिरपर चढ़ आया।।२६।।
उस समय भी वह हरिणशावक उनके पास बैठा पुत्रके समान शोकातुर हो रहा था।
वे उसे इस स्थितिमें देख रहे थे और उनका चित्त उसीमें लग रहा था।
इस प्रकारकी आसक्तिमें ही मृगके साथ उनका शरीर भी छूट गया।
तदनन्तर उन्हें अन्तकालकी भावनाके अनुसार अन्य साधारण पुरुषोंके समान मृगशरीर ही मिला।
किन्तु उनकी साधना पूरी थी, इससे उनकी पूर्वजन्मकी स्मृति नष्ट नहीं हुई।।२७।।
उस योनिमें भी पूर्वजन्मकी भगवदाराधनाके प्रभावसे अपने मृगरूप होनेका कारण जानकर वे अत्यन्त पश्चात्ताप करते हुए कहने लगे,।।२८।।
‘अहो! बड़े खेदकी बात है, मैं संयमशील महानुभावोंके मार्गसे पतित हो गया! मैंने तो धैर्यपूर्वक सब प्रकारकी आसक्ति छोड़कर एकान्त और पवित्र वनका आश्रय लिया था।
वहाँ रहकर जिस चित्तको मैंने सर्वभूतात्मा श्रीवासुदेवमें, निरन्तर उन्हींके गुणोंका श्रवण, मनन और संकीर्तन करके तथा प्रत्येक पलको उन्हींकी आराधना और स्मरणादिसे सफल करके, स्थिरभावसे पूर्णतया लगा दिया था, मुझ अज्ञानीका वही मन अकस्मात् एक नन्हे-से हरिण-शिशुके पीछे अपने लक्ष्यसे च्युत हो गया!’।।२९।।
इस प्रकार मृग बने हुए राजर्षि भरतके हृदयमें जो वैराग्य-भावना जाग्रत् हुई, उसे छिपाये रखकर उन्होंने अपनी माता मृगीको त्याग दिया और अपनी जन्मभूमि कालंजर पर्वतसे वे फिर शान्तस्वभाव मुनियोंके प्रिय उसी शालग्रामतीर्थमें, जो भगवान् का क्षेत्र है, पुलस्त्य और पुलह ऋषिके आश्रमपर चले आये।।३०।।
वहाँ रहकर भी वे कालकी ही प्रतीक्षा करने लगे।
आसक्तिसे उन्हें बड़ा भय लगने लगा था।
बस, अकेले रहकर वे सूखे पत्ते, घास और झाड़ियोंद्वारा निर्वाह करते मृगयोनिकी प्राप्ति करानेवाले प्रारब्धके क्षयकी बाट देखते रहे।
अन्तमें उन्होंने अपने शरीरका आधा भाग गण्डकीके जलमें डुबाये रखकर उस मृगशरीरको छोड़ दिया।।३१।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे भरतचरितेऽष्टमोऽध्यायः।।८।।
* शास्त्रोंमें उल्लेख आता है कि जिस भूमिमें कृष्णमृग विचरते हैं, वह अत्यन्त पवित्र और यज्ञानुष्ठानके योग्य होती है।
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भागवत पुराण – पंचम स्कन्ध – अध्याय – 9
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