<< भागवत पुराण – प्रथम स्कन्ध – अध्याय – 13
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अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिरका शंका करना और अर्जुनका द्वारकासे लौटना
सूतजी कहते हैं—स्वजनोंसे मिलने और पुण्यश्लोक भगवान् श्रीकृष्ण अब क्या करना चाहते हैं—यह जाननेके लिये अर्जुन द्वारका गये हुए थे।।१।।
कई महीने बीत जानेपर भी अर्जुन वहाँसे लौटकर नहीं आये।
धर्मराज युधिष्ठिरको बड़े भयंकर अपशकुन दीखने लगे।।२।।
उन्होंने देखा, कालकी गति बड़ी विकट हो गयी है।
जिस समय जो ऋतु होनी चाहिये, उस समय वह नहीं होती और उनकी क्रियाएँ भी उलटी ही होती हैं।
लोग बड़े क्रोधी, लोभी और असत्यपरायण हो गये हैं।
अपने जीवन-निर्वाहके लिये लोग पापपूर्ण व्यापार करने लगे हैं।।३।।
सारा व्यवहार कपटसे भरा हुआ होता है, यहाँतक कि मित्रतामें भी छल मिला रहता है; पिता-माता, सगे-सम्बन्धी, भाई और पति-पत्नीमें भी झगड़ा-टंटा रहने लगा है।।४।।
कलिकालके आ जानेसे लोगोंका स्वभाव ही लोभ, दम्भ आदि अधर्मसे अभिभूत हो गया है और प्रकृतिमें भी अत्यन्त अरिष्टसूचक अपशकुन होने लगे हैं, यह सब देखकर युधिष्ठिरने अपने छोटे भाई भीमसेनसे कहा।।५।।
युधिष्ठिरने कहा—भीमसेन! अर्जुनको हमने द्वारका इसलिये भेजा था कि वह वहाँ जाकर, पुण्यश्लोक भगवान् श्रीकृष्ण क्या कर रहे हैं—इसका पता लगा आये और सम्बन्धियोंसे मिल भी आये।।६।।
तबसे सात महीने बीत गये; किन्तु तुम्हारे छोटे भाई अबतक नहीं लौट रहे हैं।
मैं ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता हूँ कि उनके न आनेका क्या कारण है।।७।।
कहीं देवर्षि नारदके द्वारा बतलाया हुआ वह समय तो नहीं आ पहुँचा है, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण अपने लीला-विग्रहका संवरण करना चाहते हैं?।।८।।
उन्हीं भगवान् की कृपासे हमें यह सम्पत्ति, राज्य, स्त्री, प्राण, कुल, संतान, शत्रुओंपर विजय और स्वर्गादि लोकोंका अधिकार प्राप्त हुआ है।।९।।
भीमसेन! तुम तो मनुष्योंमें व्याघ्रके समान बलवान् हो; देखो तो सही—आकाशमें उल्कापातादि, पृथ्वीमें भूकम्पादि और शरीरोंमें रोगादि कितने भयंकर अपशकुन हो रहे हैं! इनसे इस बातकी सूचना मिलती है कि शीघ्र ही हमारी बुद्धिको मोहमें डालनेवाला कोई उत्पात होनेवाला है।।१०।।
प्यारे भीमसेन! मेरी बायीं जाँघ, आँख और भुजा बार-बार फड़क रही हैं।
हृदय जोरसे धड़क रहा है।
अवश्य ही बहुत जल्दी कोई अनिष्ट होनेवाला है।।११।।
देखो, यह सियारिन उदय होते हुए सूर्यकी ओर मुँह करके रो रही है।
अरे! उसके मुँहसे तो आग भी निकल रही है! यह कुत्ता बिलकुल निर्भय-सा होकर मेरी ओर देखकर चिल्ला रहा है।।१२।।
भीमसेन! गौ आदि अच्छे पशु मुझे अपने बायें करके जाते हैं और गधे आदि बुरे पशु मुझे अपने दाहिने कर देते हैं।
मेरे घोड़े आदि वाहन मुझे रोते हुए दिखायी देते हैं।।१३।।
यह मृत्युका दूत पेड़ुखी, उल्लू और उसका प्रतिपक्षी कौआ रातको अपने कर्ण-कठोर शब्दोंसे मेरे मनको कँपाते हुए विश्वको सूना कर देना चाहते हैं।।१४।।
दिशाएँ धुँधली हो गयी हैं, सूर्य और चन्द्रमाके चारों ओर बार-बार मण्डल बैठते हैं।
यह पृथ्वी पहाड़ोंके साथ काँप उठती है, बादल बड़े जोर-जोरसे गरजते हैं और जहाँ-तहाँ बिजली भी गिरती ही रहती है।।१५।।
शरीरको छेदनेवाली एवं धूलिवर्षासे अंधकार फैलानेवाली आँधी चलने लगी है।
बादल बड़ा डरावना दृश्य उपस्थित करके सब ओर खून बरसाते हैं।।१६।।
देखो! सूर्यकी प्रभा मन्द पड़ गयी है।
आकाशमें ग्रह परस्पर टकराया करते हैं।
भूतोंकी घनी भीड़में पृथ्वी और अन्तरिक्षमें आग-सी लगी हुई है।।१७।।
नदी, नद, तालाब और लोगोंके मन क्षुब्ध हो रहे हैं।
घीसे आग नहीं जलती।
यह भयंकर काल न जाने क्या करेगा।।१८।।
बछड़े दूध नहीं पीते, गौएँ दुहने नहीं देतीं, गोशालामें गौएँ आँसू बहा-बहाकर रो रही हैं।
बैल भी उदास हो रहे हैं।।१९।।
देवताओंकी मूर्तियाँ रो-सी रही हैं, उनमेंसे पसीना चूने लगता है और वे हिलती-डोलती भी हैं।
भाई! ये देश, गाँव, शहर, बगीचे, खानें और आश्रम श्रीहीन और आनन्दरहित हो गये हैं।
पता नहीं ये हमारे किस दुःखकी सूचना दे रहे हैं।।२०।।
इन बड़े-बड़े उत्पातोंको देखकर मैं तो ऐसा समझता हूँ कि निश्चय ही यह भाग्यहीना भूमि भगवान् के उन चरण-कमलोंसे, जिनका सौन्दर्य तथा जिनके ध्वजा, वज्र अंकुशादि-विलक्षण चिह्न और किसीमें भी कहीं भी नहीं हैं, रहित हो गयी है।।२१।।
शौनकजी! राजा युधिष्ठिर इन भयंकर उत्पातोंको देखकर मन-ही-मन चिन्तित हो रहे थे कि द्वारकासे लौटकर अर्जुन आये।।२२।।
युधिष्ठिरने देखा, अर्जुन इतने आतुर हो रहे हैं जितने पहले कभी नहीं देखे गये थे।
मुँह लटका हुआ है, कमल-सरीखे नेत्रोंसे आँसू बह रहे हैं और शरीरमें बिलकुल कान्ति नहीं है।
उनको इस रूपमें अपने चरणोंमें पड़ा देखकर युधिष्ठिर घबरा गये।
देवर्षि नारदकी बातें याद करके उन्होंने सुहृदोंके सामने ही अर्जुनसे पूछा।।२३-२४।।
युधिष्ठिरने कहा—‘भाई! द्वारकापुरीमें हमारे स्वजन-सम्बन्धी मधु, भोज, दशार्ह, आर्ह, सात्वत, अन्धक और वृष्णिवंशी यादव कुशलसे तो हैं?।।२५।।
हमारे माननीय नाना शूरसेनजी प्रसन्न हैं? अपने छोटे भाईसहित मामा वसुदेवजी तो कुशलपूर्वक हैं?।।२६।।
उनकी पत्नियाँ हमारी मामी देवकी आदि सातों बहिनें अपने पुत्रों और बहुओंके साथ आनन्दसे तो हैं?।।२७।।
जिनका पुत्र कंस बड़ा ही दुष्ट था, वे राजा उग्रसेन अपने छोटे भाई देवकके साथ जीवित तो हैं न? हृदीक, उनके पुत्र कृतवर्मा, अक्रूर, जयन्त, गद, सारण तथा शत्रुजित् आदि यादववीर सकुशल हैं न? यादवोंके प्रभु बलरामजी तो आनन्दसे हैं?।।२८-२९।।
वृष्णिवंशके सर्वश्रेष्ठ महारथी प्रद्युम्न सुखसे तो हैं? युद्धमें बड़ी फुर्ती दिखलानेवाले भगवान् अनिरुद्ध आनन्दसे हैं न?।।३०।।
सुषेण, चारुदेष्ण, जाम्बवतीनन्दन साम्ब और अपने पुत्रोंके सहित ऋषभ आदि भगवान् श्रीकृष्णके अन्य सब पुत्र भी प्रसन्न हैं न?।।३१।।
भगवान् श्रीकृष्णके सेवक श्रुतदेव, उद्धव आदि और दूसरे सुनन्द-नन्द आदि प्रधान यदुवंशी, जो भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामके बाहुबलसे सुरक्षित हैं, सब-के-सब सकुशल हैं न? हमसे अत्यन्त प्रेम करनेवाले वे लोग कभी हमारा कुशल-मंगल भी पूछते हैं?।।३२-३३।।
भक्तवत्सल ब्राह्मणभक्त भगवान् श्रीकृष्ण अपने स्वजनोंके साथ द्वारकाकी सुधर्मा सभामें सुखपूर्वक विराजते हैं न?।।३४।।
वे आदिपुरुष बलरामजीके साथ संसारके परम मंगल, परम कल्याण और उन्नतिके लिये यदुवंशरूप क्षीरसागरमें विराजमान हैं।
उन्हींके बाहुबलसे सुरक्षित द्वारकापुरीमें यदुवंशीलोग सारे संसारके द्वारा सम्मानित होकर बड़े आनन्दसे विष्णुभगवान् के पार्षदोंके समान विहार कर रहे हैं।।३५-३६।।
सत्यभामा आदि सोलह हजार रानियाँ प्रधानरूपसे उनके चरणकमलोंकी सेवामें ही रत रहकर उनके द्वारा युद्धमें इन्द्रादि देवताओंको भी हराकर इन्द्राणीके भोगयोग्य तथा उन्हींकी अभीष्ट पारिजातादि वस्तुओंका उपभोग करती हैं।।३७।।
यदुवंशी वीर श्रीकृष्णके बाहुदण्डके प्रभावसे सुरक्षित रहकर निर्भय रहते हैं और बलपूर्वक लायी हुई बड़े-बड़े देवताओंके बैठने योग्य सुधर्मा सभाको अपने चरणोंसे आक्रान्त करते हैं।।३८।।
भाई अर्जुन! यह भी बताओ कि तुम स्वयं तो कुशलसे हो न? मुझे तुम श्रीहीन-से दीख रहे हो; वहाँ बहुत दिनोंतक रहे, कहीं तुम्हारे सम्मानमें तो किसी प्रकारकी कमी नहीं हुई? किसीने तुम्हारा अपमान तो नहीं कर दिया?।।३९।।
कहीं किसीने दुर्भावपूर्ण अमंगल शब्द आदिके द्वारा तुम्हारा चित्त तो नहीं दुखाया? अथवा किसी आशासे तुम्हारे पास आये हुए याचकोंको उनकी माँगी हुई वस्तु अथवा अपनी ओरसे कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके भी तुम नहीं दे सके?।।४०।।
तुम सदा शरणागतोंकी रक्षा करते आये हो; कहीं किसी भी ब्राह्मण, बालक, गौ, बूढ़े, रोगी, अबला अथवा अन्य किसी प्राणीका, जो तुम्हारी शरणमें आया हो, तुमने त्याग तो नहीं कर दिया?।।४१।।
कहीं तुमने अगम्या स्त्रीसे समागम तो नहीं किया? अथवा गमन करनेयोग्य स्त्रीके साथ असत्कारपूर्वक समागम तो नहीं किया? कहीं मार्गमें अपनेसे छोटे अथवा बराबरीवालोंसे हार तो नहीं गये?।।४२।।
अथवा भोजन करानेयोग्य बालक और बूढ़ोंको छोड़कर तुमने अकेले ही तो भोजन नहीं कर लिया? मेरा विश्वास है कि तुमने ऐसा कोई निन्दित काम तो नहीं किया होगा, जो तुम्हारे योग्य न हो।।४३।।
हो-न-हो अपने परम प्रियतम अभिन्नहृदय परम सुहृद् भगवान् श्रीकृष्णसे तुम रहित हो गये हो।
इसीसे अपनेको शून्य मान रहे हो।
इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं हो सकता, जिससे तुमको इतनी मानसिक पीड़ा हो।।४४।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे युधिष्ठिरवितर्को नाम चतुर्दशोऽध्यायः।।१४।।
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भागवत पुराण – प्रथम स्कन्ध – अध्याय – 15
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