<< भागवत पुराण – प्रथम स्कन्ध – अध्याय – 4
भगवान् के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजीका पूर्वचरित्र
सूतजी कहते हैं—तदनन्तर सुखपूर्वक बैठे हुए वीणापाणि परम यशस्वी देवर्षि नारदने मुसकराकर अपने पास ही बैठे ब्रह्मर्षि व्यासजीसे कहा।।१।।
नारदजीने प्रश्न किया—महाभाग व्यासजी! आपके शरीर एवं मन—दोनों ही अपने कर्म एवं चिन्तनसे सन्तुष्ट हैं न?।।२।।
अवश्य ही आपकी जिज्ञासा तो भलीभाँति पूर्ण हो गयी है; क्योंकि आपने जो यह महाभारतकी रचना की है, वह बड़ी ही अद् भुत है।
वह धर्म आदि सभी पुरुषार्थोंसे परिपूर्ण है।।३।।
सनातन ब्रह्मतत्त्वको भी आपने खूब विचारा है और जान भी लिया है।
फिर भी प्रभु! आप अकृतार्थ पुरुषके समान अपने विषयमें शोक क्यों कर रहे हैं?।।४।।
व्यासजीने कहा—आपने मेरे विषयमें जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है।
वैसा होनेपर भी मेरा हृदय सन्तुष्ट नहीं है।
पता नहीं, इसका क्या कारण है।
आपका ज्ञान अगाध है।
आप साक्षात् ब्रह्माजीके मानसपुत्र हैं।
इसलिये मैं आपसे ही इसका कारण पूछता हूँ।।५।।
नारदजी! आप समस्त गोपनीय रहस्योंको जानते हैं; क्योंकि आपने उन पुराणपुरुषकी उपासना की है, जो प्रकृति-पुरुष दोनोंके स्वामी हैं और असंग रहते हुए ही अपने संकल्पमात्रसे गुणोंके द्वारा संसारकी सृष्टि, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं।।६।।
आप सूर्यकी भाँति तीनों लोकोंमें भ्रमण करते रहते हैं और योगबलसे प्राणवायुके समान सबके भीतर रहकर अन्तःकरणोंके साक्षी भी हैं।
योगानुष्ठान और नियमोंके द्वारा परब्रह्म और शब्दब्रह्म दोनोंकी पूर्ण प्राप्ति कर लेनेपर भी मुझमें जो बड़ी कमी है, उसे आप कृपा करके बतलाइये।।७।।
नारदजीने कहा—व्यासजी! आपने भगवान् के निर्मल यशका गान प्रायः नहीं किया।
मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान् संतुष्ट नहीं होते, वह शास्त्र या ज्ञान अधूरा है।।८।।
आपने धर्म आदि पुरुषार्थोंका जैसा निरूपण किया है, भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका वैसा निरूपण नहीं किया।।९।।
जिस वाणीसे—चाहे वह रस-भाव-अलंकारादिसे युक्त ही क्यों न हो—जगत् को पवित्र करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके यशका कभी गान नहीं होता, वह तो कौओंके लिये उच्छिष्ट फेंकनेके स्थानके समान अपवित्र मानी जाती है।
मानसरोवरके कमनीय कमलवनमें विहरनेवाले हंसोंकी भाँति ब्रह्मधाममें विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त कभी उसमें रमण नहीं करते।।१०।।
इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो दूषित शब्दोंसे युक्त भी है, परन्तु जिसका प्रत्येक श्लोक भगवान् के सुयशसूचक नामोंसे युक्त है, वह वाणी लोगोंके सारे पापोंका नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणीका श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं।।११।।
वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्षकी प्राप्तिका साक्षात् साधन है, यदि भगवान् की भक्तिसे रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती।
फिर जो साधन और सिद्धि दोनों ही दशाओंमें सदा ही अमंगलरूप है, वह काम्य कर्म और जो भगवान् को अर्पण नहीं किया गया है, ऐसा अहैतुक (निष्काम) कर्म भी कैसे सुशोभित हो सकता है।।१२।।
महाभाग व्यासजी! आपकी दृष्टि अमोघ है।
आपकी कीर्ति पवित्र है।
आप सत्यपरायण एवं दृढ़व्रत हैं।
इसलिये अब आप सम्पूर्ण जीवोंको बन्धनसे मुक्त करनेके लिये समाधिके द्वारा अचिन्त्य-शक्ति भगवान् की लीलाओंका स्मरण कीजिये।।१३।।
जो मनुष्य भगवान् की लीलाके अतिरिक्त और कुछ कहनेकी इच्छा करता है, वह उस इच्छासे ही निर्मित अनेक नाम और रूपोंके चक्करमें पड़ जाता है।
उसकी बुद्धि भेदभावसे भर जाती है।
जैसे हवाके झकोरोंसे डगमगाती हुई डोंगीको कहीं भी ठहरनेका ठौर नहीं मिलता, वैसे ही उसकी चंचल बुद्धि कहीं भी स्थिर नहीं हो पाती।।१४।।
संसारी लोग स्वभावसे ही विषयोंमें फँसे हुए हैं।
धर्मके नामपर आपने उन्हें निन्दित (पशुहिंसायुक्त) सकाम कर्म करनेकी भी आज्ञा दे दी है।
यह बहुत ही उलटी बात हुई; क्योंकि मूर्खलोग आपके वचनोंसे पूर्वोक्त निन्दित कर्मको ही धर्म मानकर—‘यही मुख्य धर्म है’ ऐसा निश्चय करके उसका निषेध करनेवाले वचनोंको ठीक नहीं मानते।।१५।।
भगवान् अनन्त हैं।
कोई विचारवान् ज्ञानी पुरुष ही संसारकी ओरसे निवृत्त होकर उनके स्वरूपभूत परमानन्दका अनुभव कर सकता है।
अतः जो लोग पारमार्थिक बुद्धिसे रहित हैं और गुणोंके द्वारा नचाये जा रहे हैं, उनके कल्याणके लिये ही आप भगवान् की लीलाओंका सर्वसाधारणके हितकी दृष्टिसे वर्णन कीजिये।।१६।।
जो मनुष्य अपने धर्मका परित्याग करके भगवान् के चरणकमलोंका भजन-सेवन करता है—भजन परिपक्व हो जानेपर तो बात ही क्या है—यदि इससे पूर्व ही उसका भजन छूट जाय तो क्या कहीं भी उसका कोई अमंगल हो सकता है? परन्तु जो भगवान् का भजन नहीं करते और केवल स्वधर्मका पालन करते हैं, उन्हें कौन-सा लाभ मिलता है।।१७।।
बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि वह उसी वस्तुकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करे, जो तिनकेसे लेकर ब्रह्मापर्यन्त समस्त ऊँची-नीची योनियोंमें कर्मोंके फलस्वरूप आने-जानेपर भी स्वयं प्राप्त नहीं होती।
संसारके विषयसुख तो, जैसे बिना चेष्टाके दुःख मिलते हैं वैसे ही, कर्मके फलरूपमें अचिन्त्यगति समयके फेरसे सबको सर्वत्र स्वभावसे ही मिल जाते हैं।।१८।।
व्यासजी! जो भगवान् श्रीकृष्णके चरणारविन्दका सेवक है वह भजन न करनेवाले कर्मी मनुष्योंके समान दैवात् कभी बुरा भाव हो जानेपर भी जन्म-मृत्युमय संसारमें नहीं आता।
वह भगवान् के चरणकमलोंके आलिंगनका स्मरण करके फिर उसे छोड़ना नहीं चाहता; उसे रसका चसका जो लग चुका है।।१९।।
जिनसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं, वे भगवान् ही इस विश्वके रूपमें भी हैं।
ऐसा होनेपर भी वे इससे विलक्षण हैं।
इस बातको आप स्वयं जानते हैं, तथापि मैंने आपको संकेतमात्र कर दिया है।।२०।।
व्यासजी! आपकी दृष्टि अमोघ है; आप इस बातको जानिये कि आप पुरुषोत्तम-भगवान् के कलावतार हैं।
आपने अजन्मा होकर भी जगत् के कल्याणके लिये जन्म ग्रहण किया है।
इसलिये आप विशेषरूपसे भगवान् की लीलाओंका कीर्तन कीजिये।।२१।।
विद्वानोंने इस बातका निरूपण किया है कि मनुष्यकी तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान, स्वाध्याय, ज्ञान और दानका एकमात्र प्रयोजन यही है कि पुण्यकीर्ति श्रीकृष्णके गुणों और लीलाओंका वर्णन किया जाय।।२२।।
मुने! पिछले कल्पमें अपने पूर्वजीवनमें मैं वेदवादी ब्राह्मणोंकी एक दासीका लड़का था।
वे योगी वर्षाऋतुमें एक स्थानपर चातुर्मास्य कर रहे थे।
बचपनमें ही मैं उनकी सेवामें नियुक्त कर दिया गया था।।२३।।
मैं यद्यपि बालक था, फिर भी किसी प्रकारकी चंचलता नहीं करता था, जितेन्द्रिय था, खेल-कूदसे दूर रहता था और आज्ञानुसार उनकी सेवा करता था।
मैं बोलता भी बहुत कम था।
मेरे इस शील-स्वभावको देखकर समदर्शी मुनियोंने मुझ सेवकपर अत्यन्त अनुग्रह किया।।२४।।
उनकी अनुमति प्राप्त करके बरतनोंमें लगा हुआ प्रसाद मैं एक बार खा लिया करता था।
इससे मेरे सारे पाप धुल गये।
इस प्रकार उनकी सेवा करते-करते मेरा हृदय शुद्ध हो गया और वे लोग जैसा भजन-पूजन करते थे, उसीमें मेरी भी रुचि हो गयी।।२५।।
प्यारे व्यासजी! उस सत्संगमें उन लीलागानपरायण महात्माओंके अनुग्रहसे मैं प्रतिदिन श्रीकृष्णकी मनोहर कथाएँ सुना करता।
श्रद्धापूर्वक एक-एक पद श्रवण करते-करते प्रियकीर्ति भगवान् में मेरी रुचि हो गयी।।२६।।
महामुने! जब भगवान् में मेरी रुचि हो गयी, तब उन मनोहरकीर्ति प्रभुमें मेरी बुद्धि भी निश्चल हो गयी।
उस बुद्धिसे मैं इस सम्पूर्ण सत् और असत्-रूप जगत् को अपने परब्रह्मस्वरूप आत्मामें मायासे कल्पित देखने लगा।।२७।।
इस प्रकार शरद् और वर्षा—इन दो ऋतुओंमें तीनों समय उन महात्मा मुनियोंने श्रीहरिके निर्मल यशका संकीर्तन किया और मैं प्रेमसे प्रत्येक बात सुनता रहा।
अब चित्तके रजोगुण और तमोगुणको नाश करनेवाली भक्तिका मेरे हृदयमें प्रादुर्भाव हो गया।।२८।।
मैं उनका बड़ा ही अनुरागी था, विनयी था; उन लोगोंकी सेवासे मेरे पाप नष्ट हो चुके थे।
मेरे हृदयमें श्रद्धा थी, इन्द्रियोंमें संयम था एवं शरीर, वाणी और मनसे मैं उनका आज्ञाकारी था।।२९।।
उन दीनवत्सल महात्माओंने जाते समय कृपा करके मुझे उस गुह्यतम ज्ञानका उपदेश किया, जिसका उपदेश स्वयं भगवान् ने अपने श्रीमुखसे किया है।।३०।।
उस उपदेशसे ही जगत् के निर्माता भगवान् श्रीकृष्णकी मायाके प्रभावको मैं जान सका, जिसके जान लेनेपर उनके परमपदकी प्राप्ति हो जाती है।।३१।।
सत्यसंकल्प व्यासजी! पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णके प्रति समस्त कर्मोंको समर्पित कर देना ही संसारके तीनों तापोंकी एकमात्र ओषधि है, यह बात मैंने आपको बतला दी।।३२।।
प्राणियोंको जिस पदार्थके सेवनसे जो रोग हो जाता है, वही पदार्थ चिकित्साविधिके अनुसार प्रयोग करनेपर क्या उस रोगको दूर नहीं करता?।।३३।।
इसी प्रकार यद्यपि सभी कर्म मनुष्योंको जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्रमें डालनेवाले हैं, तथापि जब वे भगवान् को समर्पित कर दिये जाते हैं, तब उनका कर्मपना ही नष्ट हो जाता है।।३४।।
इस लोकमें जो शास्त्रविहित कर्म भगवान् की प्रसन्नताके लिये किये जाते हैं, उन्हींसे पराभक्तियुक्त ज्ञानकी प्राप्ति होती है।।३५।।
उस भगवदर्थ कर्मके मार्गमें भगवान् के आज्ञानुसार आचरण करते हुए लोग बार-बार भगवान् श्रीकृष्णके गुण और नामोंका कीर्तन तथा स्मरण करते हैं।।३६।।
‘प्रभो! आप भगवान् श्रीवासुदेवको नमस्कार है।
हम आपका ध्यान करते हैं।
प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षणको भी नमस्कार है’।।३७।।
इस प्रकार जो पुरुष चतुर्व्यूहरूपी भगवन्मूर्तियोंके नामद्वारा प्राकृतमूर्तिरहित अप्राकृत मन्त्रमूर्ति भगवान् यज्ञपुरुषका पूजन करता है, उसीका ज्ञान पूर्ण एवं यथार्थ है।।३८।।
ब्रह्मन्! जब मैंने भगवान् की आज्ञाका इस प्रकार पालन किया, तब इस बातको जानकर भगवान् श्रीकृष्णने मुझे आत्मज्ञान, ऐश्वर्य और अपनी भावरूपा प्रेमाभक्तिका दान किया।।३९।।
व्यासजी! आपका ज्ञान पूर्ण है; आप भगवान् की ही कीर्तिका—उनकी प्रेममयी लीलाका वर्णन कीजिये।
उसीसे बड़े-बड़े ज्ञानियोंकी भी जिज्ञासा पूर्ण होती है।
जो लोग दुःखोंके द्वारा बार-बार रौंदे जा रहे हैं, उनके दुःखकी शान्ति इसीसे हो सकती है और कोई उपाय नहीं है।।४०।।
इति श्रीमद् भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे व्यासनारदसंवादे पञ्चमोऽध्यायः।।५।।
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भागवत पुराण – प्रथम स्कन्ध – अध्याय – 6
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