<< भागवत पुराण – प्रथम स्कन्ध – अध्याय – 5
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नारदजीके पूर्वचरित्रका शेष भाग
श्रीसूतजी कहते हैं—शौनकजी! देवर्षि नारदके जन्म और साधनाकी बात सुनकर सत्यवतीनन्दन भगवान् श्रीव्यासजीने उनसे फिर यह प्रश्न किया।।१।।
श्रीव्यासजीने पूछा—नारदजी! जब आपको ज्ञानोपदेश करनेवाले महात्मागण चले गये, तब आपने क्या किया? उस समय तो आपकी अवस्था बहुत छोटी थी।।२।।
स्वायम्भुव! आपकी शेष आयु किस प्रकार व्यतीत हुई और मृत्युके समय आपने किस विधिसे अपने शरीरका परित्याग किया?।।३।।
देवर्षे! काल तो सभी वस्तुओंको नष्ट कर देता है, उसने आपकी इस पूर्वकल्पकी स्मृतिका कैसे नाश नहीं किया?।।४।।
श्रीनारदजीने कहा—मुझे ज्ञानोपदेश करनेवाले महात्मागण जब चले गये, तब मैंने इस प्रकार अपना जीवन व्यतीत किया—यद्यपि उस समय मेरी अवस्था बहुत छोटी थी।।५।।
मैं अपनी माँका इकलौता लड़का था।
एक तो वह स्त्री थी, दूसरे मूढ़ और तीसरे दासी थी।
मुझे भी उसके सिवा और कोई सहारा नहीं था।
उसने अपनेको मेरे स्नेहपाशसे जकड़ रखा था।।६।।
वह मेरे योगक्षेमकी चिन्ता तो बहुत करती थी, परंतु पराधीन होनेके कारण कुछ कर नहीं पाती थी।
जैसे कठपुतली नचानेवालेकी इच्छाके अनुसार ही नाचती है, वैसे ही यह सारा संसार ईश्वरके अधीन है।।७।।
मैं भी अपनी माँके स्नेहबन्धनमें बँधकर उस ब्राह्मण-बस्तीमें ही रहा।
मेरी अवस्था केवल पाँच वर्षकी थी; मुझे दिशा, देश और कालके सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञान नहीं था।।८।।
एक दिनकी बात है, मेरी माँ गौ दुहनेके लिये रातके समय घरसे बाहर निकली।
रास्तेमें उसके पैरसे साँप छू गया, उसने उस बेचारीको डस लिया।
उस साँपका क्या दोष, कालकी ऐसी ही प्रेरणा थी।।९।।
मैंने समझा, भक्तोंका मंगल चाहनेवाले भगवान् का यह भी एक अनुग्रह ही है।
इसके बाद मैं उत्तर दिशाकी ओर चल पड़ा।।१०।।
उस ओर मार्गमें मुझे अनेकों धन-धान्यसे सम्पन्न देश, नगर, गाँव, अहीरोंकी चलती-फिरती बस्तियाँ, खानें, खेड़े, नदी और पर्वतोंके तटवर्ती पड़ाव, वाटिकाएँ, वन-उपवन और रंग-बिरंगी धातुओंसे युक्त विचित्र पर्वत दिखायी पड़े।
कहीं-कहीं जंगली वृक्ष थे, जिनकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ हाथियोंने तोड़ डाली थीं।
शीतल जलसे भरे हुए जलाशय थे, जिनमें देवताओंके काममें आनेवाले कमल थे; उनपर पक्षी तरह-तरहकी बोली बोल रहे थे और भौंरे मँडरा रहे थे।
यह सब देखता हुआ मैं आगे बढ़ा।
मैं अकेला ही था।
इतना लम्बा मार्ग तै करनेपर मैंने एक घोर गहन जंगल देखा।
उसमें नरकट, बाँस, सेंठा, कुश, कीचक आदि खड़े थे।
उसकी लम्बाई-चौड़ाई भी बहुत थी और वह साँप, उल्लू, स्यार आदि भयंकर जीवोंका घर हो रहा था।
देखनेमें बड़ा भयावना लगता था।।११-१४।।
चलते-चलते मेरा शरीर और इन्द्रियाँ शिथिल हो गयीं।
मुझे बड़े जोरकी प्यास लगी, भूखा तो था ही।
वहाँ एक नदी मिली।
उसके कुण्डमें मैंने स्नान, जलपान और आचमन किया।
इससे मेरी थकावट मिट गयी।।१५।।
उस विजन वनमें एक पीपलके नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया।
उन महात्माओंसे जैसा मैंने सुना था, हृदयमें रहनेवाले परमात्माके उसी स्वरूपका मैं मन-ही-मन ध्यान करने लगा।।१६।।
भक्तिभावसे वशीकृत चित्तद्वारा भगवान् के चरण-कमलोंका ध्यान करते ही भगवत्-प्राप्तिकी उत्कट लालसासे मेरे नेत्रोंमें आँसू छलछला आये और हृदयमें धीरे-धीरे भगवान् प्रकट हो गये।।१७।।
व्यासजी! उस समय प्रेमभावके अत्यन्त उद्रेकसे मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा।
हृदय अत्यन्त शान्त और शीतल हो गया।
उस आनन्दकी बाढ़में मैं ऐसा डूब गया कि मुझे अपना और ध्येय वस्तुका तनिक भी भान न रहा।।१८।।
भगवान् का वह अनिर्वचनीय रूप समस्त शोकोंका नाश करनेवाला और मनके लिये अत्यन्त लुभावना था।
सहसा उसे न देख मैं बहुत ही विकल हो गया और अनमना-सा होकर आसनसे उठ खड़ा हुआ।।१९।।
मैंने उस स्वरूपका दर्शन फिर करना चाहा; किन्तु मनको हृदयमें समाहित करके बार-बार दर्शनकी चेष्टा करनेपर भी मैं उसे नहीं देख सका।
मैं अतृप्तके समान आतुर हो उठा।।२०।।
इस प्रकार निर्जन वनमें मुझे प्रयत्न करते देख स्वयं भगवान् ने, जो वाणीके विषय नहीं हैं, बड़ी गंभीर और मधुर वाणीसे मेरे शोकको शान्त करते हुए-से कहा।।२१।।
‘खेद है कि इस जन्ममें तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे।
जिनकी वासनाएँ पूर्णतया शान्त नहीं हो गयीं हैं, उन अधकचरे योगियोंको मेरा दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है।।२२।।
निष्पाप बालक! तुम्हारे हृदयमें मुझे प्राप्त करनेकी लालसा जाग्रत् करनेके लिये ही मैंने एक बार तुम्हें अपने रूपकी झलक दिखायी है।
मुझे प्राप्त करनेकी आकांक्षासे युक्त साधक धीरे-धीरे हृदयकी सम्पूर्ण वासनाओंका भलीभाँति त्याग कर देता है।।२३।।
अल्पकालीन संतसेवासे ही तुम्हारी चित्तवृत्ति मुझमें स्थिर हो गयी है।
अब तुम इस प्राकृतमलिन शरीरको छोड़कर मेरे पार्षद हो जाओगे।।२४।।
मुझे प्राप्त करनेका तुम्हारा यह दृढ़ निश्चय कभी किसी प्रकार नहीं टूटेगा।
समस्त सृष्टिका प्रलय हो जानेपर भी मेरी कृपासे तुम्हें मेरी स्मृति बनी रहेगी’।।२५।।
आकाशके समान अव्यक्त सर्वशक्तिमान् महान् परमात्मा इतना कहकर चुप हो रहे।
उनकी इस कृपाका अनुभव करके मैंने उन श्रेष्ठोंसे भी श्रेष्ठतर भगवान् को सिर झुकाकर प्रणाम किया।।२६।।
तभीसे मैं लज्जा-संकोच छोड़कर भगवान् के अत्यन्त रहस्यमय और मंगलमय मधुर नामों और लीलाओंका कीर्तन और स्मरण करने लगा।
स्पृहा और मद-मत्सर मेरे हृदयसे पहले ही निवृत्त हो चुके थे, अब मैं आनन्दसे कालकी प्रतीक्षा करता हुआ पृथ्वीपर विचरने लगा।।२७।।
व्यासजी! इस प्रकार भगवान् की कृपासे मेरा हृदय शुद्ध हो गया, आसक्ति मिट गयी और मैं श्रीकृष्णपरायण हो गया।
कुछ समय बाद, जैसे एकाएक बिजली कौंध जाती है, वैसे ही अपने समयपर मेरी मृत्यु आ गयी।।२८।।
मुझे शुद्ध भगवत्पार्षद-शरीर प्राप्त होनेका अवसर आनेपर प्रारब्धकर्म समाप्त हो जानेके कारण पांचभौतिक शरीर नष्ट हो गया।।२९।।
कल्पके अन्तमें जिस समय भगवान् नारायण एकार्णव (प्रलय-कालीन समुद्र)-के जलमें शयन करते हैं, उस समय उनके हृदयमें शयन करनेकी इच्छासे इस सारी सृष्टिको समेटकर ब्रह्माजी जब प्रवेश करने लगे, तब उनके श्वासके साथ मैं भी उनके हृदयमें प्रवेश कर गया।।३०।।
एक सहस्र चतुर्युगी बीत जानेपर जब ब्रह्मा जगे और उन्होंने सृष्टि करनेकी इच्छा की, तब उनकी इन्द्रियोंसे मरीचि आदि ऋषियोंके साथ मैं भी प्रकट हो गया।।३१।।
तभीसे मैं भगवान् की कृपासे वैकुण्ठादिमें और तीनों लोकोंमें बाहर और भीतर बिना रोक-टोक विचरण किया करता हूँ।
मेरे जीवनका व्रत भगवद्भजन अखण्डरूपसे चलता रहता है।।३२।।
भगवान् की दी हुई इस स्वरब्रह्मसे* विभूषित वीणापर तान छेड़कर मैं उनकी लीलाओंका गान करता हुआ सारे संसारमें विचरता हूँ।।३३।।
जब मैं उनकी लीलाओंका गान करने लगता हूँ, तब वे प्रभु, जिनके चरणकमल समस्त तीर्थोंके उद् गमस्थान हैं और जिनका यशोगान मुझे बहुत ही प्रिय लगता है, बुलाये हुएकी भाँति तुरन्त मेरे हृदयमें आकर दर्शन दे देते हैं।।३४।।
जिन लोगोंका चित्त निरन्तर विषयभोगोंकी कामनासे आतुर हो रहा है, उनके लिये भगवान् की लीलाओंका कीर्तन संसारसागरसे पार जानेका जहाज है, यह मेरा अपना अनुभव है।।३५।।
काम और लोभकी चोटसे बार-बार घायल हुआ हृदय श्रीकृष्णसेवासे जैसी प्रत्यक्ष शान्तिका अनुभव करता है, यम-नियम आदि योगमार्गोंसे वैसी शान्ति नहीं मिल सकती।।३६।।
व्यासजी! आप निष्पाप हैं।
आपने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब अपने जन्म और साधनाका रहस्य तथा आपकी आत्मतुष्टिका उपाय मैंने बतला दिया।।३७।।
श्रीसूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! देवर्षि नारदने व्यासजीसे इस प्रकार कहकर जानेकी अनुमति ली और वीणा बजाते हुए स्वच्छन्द विचरण करनेके लिये वे चल पड़े।।३८।।
अहा! ये देवर्षि नारद धन्य हैं; क्योंकि ये शार्ङ्गपाणि भगवान् की कीर्तिको अपनी वीणापर गा-गाकर स्वयं तो आनन्दमग्न होते ही हैं, साथ-साथ इस त्रितापतप्त जगत् को भी आनन्दित करते रहते हैं।।३९।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे व्यासनारदसंवादे षष्ठोऽध्यायः।।६।।
* षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद्—ये सातों स्वर ब्रह्मव्यंजक होनेके नाते ही ब्रह्मरूप कहे गये हैं।
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भागवत पुराण – प्रथम स्कन्ध – अध्याय – 7
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