<< भागवत पुराण – सप्तम स्कन्ध – अध्याय – 10
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मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्मका निरूपण
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – भगवन्मय प्रह्लादजीके साधुसमाजमें सम्मानित पवित्र चरित्र सुनकर संतशिरोमणि युधिष्ठिरको बड़ा आनन्द हुआ।
उन्होंने नारदजीसे और भी पूछा।।१।।
युधिष्ठिरजीने कहा – भगवन्! अब मैं वर्ण और आश्रमोंके सदाचारके साथ मनुष्योंके सनातनधर्मका श्रवण करना चाहता हूँ, क्योंकि धर्मसे ही मनुष्यको ज्ञान, भगवत्प्रेम और साक्षात् परम पुरुष भगवान् की प्राप्ति होती है।।२।।
आप स्वयं प्रजापति ब्रह्माजीके पुत्र हैं और नारदजी! आपकी तपस्या, योग एवं समाधिके कारण वे अपने दूसरे पुत्रोंकी अपेक्षा आपका अधिक सम्मान भी करते हैं।।३।।
आपके समान नारायण-परायण, दयालु, सदाचारी और शान्त ब्राह्मण धर्मके गुप्त-से-गुप्त रहस्यको जैसा यथार्थरूपसे जानते हैं, दूसरे लोग वैसा नहीं जानते।।४।।
नारदजीने कहा – युधिष्ठिर! अजन्मा भगवान् ही समस्त धर्मोंके मूल कारण हैं।
वही प्रभु चराचर जगत् के कल्याणके लिये धर्म और दक्षपुत्री मूर्तिके द्वारा अपने अंशसे अवतीर्ण होकर बदरिकाश्रममें तपस्या कर रहे हैं।
उन नारायणभगवान् को नमस्कार करके उन्हींके मुखसे सुने हुए सनातनधर्मका मैं वर्णन करता हूँ।।५-६।।
युधिष्ठिर! सर्ववेदस्वरूप भगवान् श्रीहरि, उनका तत्त्व जाननेवाले महर्षियोंकी स्मृतियाँ और जिससे आत्मग्लानि न होकर आत्मप्रसादकी उपलब्धि हो, वह कर्म धर्मके मूल हैं।।७।।
युधिष्ठिर! धर्मके ये तीस लक्षण शास्त्रोंमें कहे गये हैं – सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचितका विचार, मनका संयम, इन्द्रियोंका संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, समदर्शी महात्माओंकी सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगोंकी चेष्टासे निवृत्ति, मनुष्यके अभिमानपूर्ण प्रयत्नोंका फल उलटा ही होता है – ऐसा विचार, मौन, आत्मचिन्तन, प्राणियोंको अन्न आदिका यथायोग्य विभाजन, उनमें और विशेष करके मनुष्योंमें अपने आत्मा तथा इष्टदेवका भाव, संतोंके परम आश्रय भगवान् श्रीकृष्णके नाम-गुण-लीला आदिका श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्य और आत्मसमर्पण – यह तीस प्रकारका आचरण सभी मनुष्योंका परम धर्म है।
इसके पालनसे सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं।।८-१२।।
धर्मराज! जिनके वंशमें अखण्डरूपसे संस्कार होते आये हैं और जिन्हें ब्रह्माजीने संस्कारके योग्य स्वीकार किया है, उन्हें द्विज कहते हैं।
जन्म और कर्मसे शुद्ध द्विजोंके लिये यज्ञ, अध्ययन, दान और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमोंके विशेष कर्मोंका विधान है।।१३।।
अध्ययन, अध्यापन, दान लेना, दान देना और यज्ञ करना, यज्ञ कराना – ये छः कर्म ब्राह्मणके हैं।
क्षत्रियको दान नहीं लेना चाहिये।
प्रजाकी रक्षा करनेवाले क्षत्रियका जीवन-निर्वाह ब्राह्मणके सिवा और सबसे यथायोग्य कर तथा दण्ड (जुर्माना) आदिके द्वारा होता है।।१४।।
वैश्यको सर्वदा ब्राह्मणवंशका अनुयायी रहकर गोरक्षा, कृषि एवं व्यापारके द्वारा अपनी जीविका चलानी चाहिये।
शूद्रका धर्म है द्विजातियोंकी सेवा।
उसकी जीविकाका निर्वाह उसका स्वामी करता है।।१५।।
ब्राह्मणके जीवन-निर्वाहके साधन चार प्रकारके हैं – वार्ता१, शालीन,२ यायावर३ और शिलोञ्छन४।
इनमेंसे पीछे-पीछेकी वृत्तियाँ अपेक्षाकृत श्रेष्ठ हैं।।१६।।
निम्नवर्णका पुरुष बिना आपत्तिकालके उत्तम वर्णकी वृत्तियोंका अवलम्बन न करे।
क्षत्रिय दान लेना छोड़कर ब्राह्मणकी शेष पाँचों वृत्तियोंका अवलम्बन ले सकता है।
आपत्तिकालमें सभी सब वृत्तियोंको स्वीकार कर सकते हैं।।१७।।
ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृत – इनमेंसे किसी भी वृत्तिका आश्रय ले, परन्तु श्वानवृत्तिका अवलम्बन कभी न करे।।१८।।
बाजारमें पड़े हुए अन्न (उञ्छ) तथा खेतोंमें पड़े हुए अन्न (शिल)-को बीनकर ‘शिलोञ्छ’ वृत्तिसे जीविका-निर्वाह करना ‘ऋत’ है।
बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, उसी अयाचित (शालीन) वृत्तिके द्वारा जीवन-निर्वाह करना ‘अमृत’ है।
नित्य माँगकर लाना अर्थात् ‘यायावर’ वृत्तिके द्वारा जीवन-यापन करना ‘मृत’ है।
कृषि आदिके द्वारा ‘वार्ता’ वृत्तिसे जीवन-निर्वाह करना ‘प्रमृत’ है।।१९।।
वाणिज्य ‘सत्यानृत’ है और निम्नवर्णकी सेवा करना ‘श्वानवृत्ति’ है।
ब्राह्मण और क्षत्रियको इस अन्तिम निन्दित वृत्तिका कभी आश्रय नहीं लेना चाहिये।
क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय और क्षत्रिय (राजा) सर्वदेवमय है।।२०।।
शम, दम, तप, शौच, सन्तोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान, दया, भगवत्परायणता और सत्य – ये ब्राह्मणके लक्षण हैं।।२१।।
युद्धमें उत्साह, वीरता, धीरता, तेजस्विता, त्याग, मनोजय, क्षमा, ब्राह्मणोंके प्रति भक्ति, अनुग्रह और प्रजाकी रक्षा करना – ये क्षत्रियके लक्षण हैं।।२२।।
देवता, गुरु और भगवान् के प्रति भक्ति, अर्थ, धर्म और काम – इन तीनों पुरुषार्थोंकी रक्षा करना; आस्तिकता, उद्योगशीलता और व्यावहारिक निपुणता – ये वैश्यके लक्षण हैं।।२३।।
उच्च वर्णोंके सामने विनम्र रहना, पवित्रता, स्वामीकी निष्कपट सेवा, वैदिक मन्त्रोंसे रहित यज्ञ, चोरी न करना, सत्य तथा गौ, ब्राह्मणोंकी रक्षा करना – ये शूद्रके लक्षण हैं।।२४।।
पतिकी सेवा करना, उसके अनुकूल रहना, पतिके सम्बन्धियोंको प्रसन्न रखना और सर्वदा पतिके नियमोंकी रक्षा करना – ये पतिको ही ईश्वर माननेवाली पतिव्रता स्त्रियोंके धर्म हैं।।२५।।
साध्वी स्त्रीको चाहिये कि झाड़ने-बुहारने, लीपने तथा चौक पूरने आदिसे घरको और मनोहर वस्त्राभूषणोंसे अपने शरीरको अलंकृत रखे।
सामग्रियोंको साफ-सुथरी रखे।।२६।।
अपने पतिदेवकी छोटी-बड़ी इच्छाओंको समयके अनुसार पूर्ण करे।
विनय, इन्द्रिय-संयम, सत्य एवं प्रिय वचनोंसे प्रेमपूर्वक पतिदेवकी सेवा करे।।२७।।
जो कुछ मिल जाय, उसीमें सन्तुष्ट रहे; किसी भी वस्तुके लिये ललचावे नहीं।
सभी कार्योंमें चतुर एवं धर्मज्ञ हो।
सत्य और प्रिय बोले।
अपने कर्तव्यमें सावधान रहे।
पवित्रता और प्रेमसे परिपूर्ण रहकर, यदि पति पतित न हो तो, उसका सहवास करे।।२८।।
जो लक्ष्मीजीके समान पतिपरायणा होकर अपने पतिकी उसे साक्षात् भगवान् का स्वरूप समझकर सेवा करती है, उसके पतिदेव वैकुण्ठलोकमें भगवत्सारूप्यको प्राप्त होते हैं और वह लक्ष्मीजीके समान उनके साथ आनन्दित होती है।।२९।।
युधिष्ठिर! जो चोरी तथा अन्यान्य पाप-कर्म नहीं करते – उन अन्त्यज तथा चाण्डाल आदि अन्तेवसायी वर्णसंकर जातियोंकी वृत्तियाँ वे ही हैं, जो कुल-परम्परासे उनके यहाँ चली आयी हैं।।३०।।
वेददर्शी ऋषि-मुनियोंने युग-युगमें प्रायः मनुष्योंके स्वभावके अनुसार धर्मकी व्यवस्था की है।
वही धर्म उनके लिये इस लोक और परलोकमें कल्याणकारी है।।३१।।
जो स्वाभाविक वृत्तिका आश्रय लेकर अपने स्वधर्मका पालन करता है, वह धीरे-धीरे उन स्वाभाविक कर्मोंसे भी ऊपर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है।।३२।।
महाराज! जिस प्रकार बार-बार बोनेसे खेत स्वयं ही शक्तिहीन हो जाता है और उसमें अंकुर उगना बंद हो जाता है, यहाँतक कि उसमें बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता है – उसी प्रकार यह चित्त, जो वासनाओंका खजाना है, विषयोंका अत्यन्त सेवन करनेसे स्वयं ही ऊब जाता है।
परन्तु स्वल्प भोगोंसे ऐसा नहीं होता।
जैसे एक-एक बूँद घी डालनेसे आग नहीं बुझती, परन्तु एक ही साथ अधिक घी पड़ जाय तो वह बुझ जाती है।।३३-३४।।
जिस पुरुषके वर्णको बतलानेवाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्णवालेमें भी मिले तो उसे भी उसी वर्णका समझना चाहिये।।३५।।
इति श्रीमद् भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नामैकादशोऽध्यायः।।११।।
१. यज्ञाध्ययनादि कराकर धन लेना।
२. बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, उसीमें निर्वाह करना।
३. नित्यप्रति धान्यादि माँग लाना।
४. किसानके खेत काटकर अन्न घरको ले जानेपर पृथ्वीपर जो कण पड़े रह जाते हैं, उन्हें ‘शिल’ तथा बाजारमें पड़े हुए अन्नके दानोंको ‘उञ्छ’ कहते हैं।
उन शिल और उञ्छोंको बीनकर अपना निर्वाह करना ‘शिलोञ्छन’ वृत्ति है।
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भागवत पुराण – सप्तम स्कन्ध – अध्याय – 12
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