भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 2

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भगवान् का गर्भ-प्रवेश और देवताओंद्वारा गर्भ-स्तुति

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! कंस एक तो स्वयं बड़ा बली था और दूसरे, मगधनरेश जरासन्धकी उसे बहुत बड़ी सहायता प्राप्त थी।

तीसरे, उसके साथी थे – प्रलम्बासुर, बकासुर, चाणूर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक, अरिष्टासुर, द्विविद, पूतना, केशी और धेनुक।

तथा बाणासुर और भौमासुर आदि बहुत-से दैत्य राजा उसके सहायक थे।

इनको साथ लेकर वह यदुवंशियोंको नष्ट करने लगा।।१-२।।

वे लोग भयभीत होकर कुरु, पंचाल, केकय, शाल्व, विदर्भ, निषध, विदेह और कोसल आदि देशोंमें जा बसे।।३।।

कुछ लोग ऊपर-ऊपरसे उसके मनके अनुसार काम करते हुए उसकी सेवामें लगे रहे।

जब कंसने एक-एक करके देवकीके छः बालक मार डाले, तब देवकीके सातवें गर्भमें भगवान् के अंशस्वरूप श्रीशेषजी* जिन्हें अनन्त भी कहते हैं – पधारे।

आनन्द-स्वरूप शेषजीके गर्भमें आनेके कारण देवकीको स्वाभाविक ही हर्ष हुआ।

परन्तु कंस शायद इसे भी मार डाले, इस भयसे उनका शोक भी बढ़ गया।।४-५।।

विश्वात्मा भगवान् ने देखा कि मुझे ही अपना स्वामी और सर्वस्व माननेवाले यदुवंशी कंसके द्वारा बहुत ही सताये जा रहे हैं।

तब उन्होंने अपनी योगमायाको यह आदेश दिया – ।।६।।

‘देवि! कल्याणी! तुम व्रजमें जाओ! वह प्रदेश ग्वालों और गौओंसे सुशोभित है।

वहाँ नन्दबाबाके गोकुलमें वसुदेवकी पत्नी रोहिणी निवास करती हैं।

उनकी और भी पत्नियाँ कंससे डरकर गुप्त स्थानोंमें रह रही हैं।।७।।

इस समय मेरा वह अंश जिसे शेष कहते हैं, देवकीके उदरमें गर्भ रूपसे स्थित है।

उसे वहाँसे निकालकर तुम रोहिणीके पेटमें रख दो।।८।।

कल्याणी! अब मैं अपने समस्त ज्ञान, बल आदि अंशोंके साथ देवकीका पुत्र बनूँगा और तुम नन्दबाबाकी पत्नी यशोदाके गर्भसे जन्म लेना।।९।।

तुम लोगोंको मुँहमाँगे वरदान देनेमें समर्थ होओगी।

मनुष्य तुम्हें अपनी समस्त अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाली जानकर धूप-दीप, नैवेद्य एवं अन्य प्रकारकी सामग्रियोंसे तुम्हारी पूजा करेंगे।।१०।।

पृथ्वीमें लोग तुम्हारे लिये बहुत-से स्थान बनायेंगे और दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा और अम्बिका आदि बहुत-से नामोंसे पुकारेंगे।।११-१२।।

देवकीके गर्भमेंसे खींचे जानेके कारण शेषजीको लोग संसारमें ‘संकर्षण’ कहेंगे, लोकरंजन करनेके कारण ‘राम’ कहेंगे और बलवानोंमें श्रेष्ठ होनेके कारण ‘बलभद्र’ भी कहेंगे।।१३।।

जब भगवान् ने इस प्रकार आदेश दिया, तब योगमायाने ‘जो आज्ञा’ – ऐसा कहकर उनकी बात शिरोधार्य की और उनकी परिक्रमा करके वे पृथ्वी-लोकमें चली आयीं तथा भगवान् ने जैसा कहा था, वैसे ही किया।।१४।।

जब योगमायाने देवकीका गर्भ ले जाकर रोहिणीके उदरमें रख दिया, तब पुरवासी बड़े दुःखके साथ आपसमें कहने लगे – ‘हाय! बेचारी देवकीका यह गर्भ तो नष्ट ही हो गया’।।१५।।

भगवान् भक्तोंको अभय करनेवाले हैं।

वे सर्वत्र सब रूपमें हैं, उन्हें कहीं आना-जाना नहीं है।

इसलिये वे वसुदेवजीके मनमें अपनी समस्त कलाओंके साथ प्रकट हो गये।।१६।।

उसमें विद्यमान रहनेपर भी अपनेको अव्यक्तसे व्यक्त कर दिया।

भगवान् की ज्योतिको धारण करनेके कारण वसुदेवजी सूर्यके समान तेजस्वी हो गये, उन्हें देखकर लोगोंकी आँखें चौंधिया जातीं।

कोई भी अपने बल, वाणी या प्रभावसे उन्हें दबा नहीं सकता था।।१७।।

भगवान् के उस ज्योतिर्मय अंशको, जो जगत् का परम मंगल करनेवाला है, वसुदेवजीके द्वारा आधान किये जानेपर देवी देवकीने ग्रहण किया।

जैसे पूर्वदिशा चन्द्रदेवको धारण करती है, वैसे ही शुद्ध सत्त्वसे सम्पन्न देवी देवकीने विशुद्ध मनसे सर्वात्मा एवं आत्मस्वरूप भगवान् को धारण किया।।१८।।

भगवान् सारे जगत् के निवासस्थान हैं।

देवकी उनका भी निवासस्थान बन गयी।

परन्तु घड़े आदिके भीतर बंद किये हुए दीपकका और अपनी विद्या दूसरेको न देनेवाले ज्ञानखलकी श्रेष्ठ विद्याका प्रकाश जैसे चारों ओर नहीं फैलता, वैसे ही कंसके कारागारमें बंद देवकीकी भी उतनी शोभा नहीं हुई।।१९।।

देवकीके गर्भमें भगवान् विराजमान हो गये थे।

उसके मुखपर पवित्र मुसकान थी और उसके शरीरकी कान्तिसे बंदीगृह जगमगाने लगा था।

जब कंसने उसे देखा, तब वह मन-ही-मन कहने लगा – ‘अबकी बार मेरे प्राणोंके ग्राहक विष्णुने इसके गर्भमें अवश्य ही प्रवेश किया है; क्योंकि इसके पहले देवकी कभी ऐसी न थी।।२०।।

अब इस विषयमें शीघ्र-से-शीघ्र मुझे क्या करना चाहिये? देवकीको मारना तो ठीक न होगा; क्योंकि वीर पुरुष स्वार्थवश अपने पराक्रमको कलंकित नहीं करते।

एक तो यह स्त्री है, दूसरे बहिन और तीसरे गर्भवती है।

इसको मारनेसे तो तत्काल ही मेरी कीर्ति, लक्ष्मी और आयु नष्ट हो जायगी।।२१।।

वह मनुष्य तो जीवित रहनेपर भी मरा हुआ ही है, जो अत्यन्त क्रूरताका व्यवहार करता है।

उसकी मृत्युके बाद लोग उसे गाली देते हैं।

इतना ही नहीं, वह देहाभिमानियोंके योग्य घोर नरकमें भी अवश्य-अवश्य जाता है।।२२।।

यद्यपि कंस देवकीको मार सकता था, किन्तु स्वयं ही वह इस अत्यन्त क्रूरताके विचारसे निवृत्त हो गया।* अब भगवान् के प्रति दृढ़ वैरका भाव मनमें गाँठकर उनके जन्मकी प्रतीक्षा करने लगा।।२३।।

वह उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते और चलते-फिरते – सर्वदा ही श्रीकृष्णके चिन्तनमें लगा रहता।

जहाँ उसकी आँख पड़ती, जहाँ कुछ खड़का होता, वहाँ उसे श्रीकृष्ण दीख जाते।

इस प्रकार उसे सारा जगत् ही श्रीकृष्णमय दीखने लगा।।२४।।

परीक्षित्! भगवान् शंकर और ब्रह्माजी कंसके कैदखानेमें आये।

उनके साथ अपने अनुचरोंके सहित समस्त देवता और नारदादि ऋषि भी थे।

वे लोग सुमधुर वचनोंसे सबकी अभिलाषा पूर्ण करनेवाले श्रीहरिकी इस प्रकार स्तुति करने लगे।।२५।।

‘प्रभो! आप सत्यसंकल्प हैं।

सत्य ही आपकी प्राप्तिका श्रेष्ठ साधन है।

सृष्टिके पूर्व, प्रलयके पश्चात् और संसारकी स्थितिके समय – इन असत्य अवस्थाओंमें भी आप सत्य हैं।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच दृश्यमान सत्योंके आप ही कारण हैं।

और उनमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान भी हैं।

आप इस दृश्यमान जगत् के परमार्थस्वरूप हैं।

आप ही मधुर वाणी और समदर्शनके प्रवर्तक हैं।

भगवन्! आप तो बस, सत्यस्वरूप ही हैं।

हम सब आपकी शरणमें आये हैं।।२६।।

यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष।

इस वृक्षका आश्रय है – एक प्रकृति।

इसके दो फल हैं – सुख और दुःख; तीन जड़ें हैं – सत्त्व, रज और तम; चार रस हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

इसके जाननेके पाँच प्रकार हैं – श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका।

इसके छः स्वभाव हैं – पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना।

इस वृक्षकी छाल हैं सात धातुएँ – रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र।

आठ शाखाएँ हैं – पाँच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार।

इसमें मुख आदि नवों द्वार खोड़र हैं।

प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय – ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं।

इस संसाररूप वृक्षपर दो पक्षी हैं – जीव और ईश्वर।।२७।।

इस संसाररूप वृक्षकी उत्पत्तिके आधार एकमात्र आप ही हैं।

आपमें ही इसका प्रलय होता है और आपके ही अनुग्रहसे इसकी रक्षा भी होती है।

जिनका चित्त आपकी मायासे आवृत हो रहा है, इस सत्यको समझनेकी शक्ति खो बैठा है – वे ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाले ब्रह्मादि देवताओंको अनेक देखते हैं।

तत्त्वज्ञानी पुरुष तो सबके रूपमें केवल आपका ही दर्शन करते हैं।।२८।।

आप ज्ञानस्वरूप आत्मा हैं।

चराचर जगत् के कल्याणके लिये ही अनेकों रूप धारण करते हैं।

आपके वे रूप विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय होते हैं और संत पुरुषोंको बहुत सुख देते हैं।

साथ ही दुष्टोंको उनकी दुष्टताका दण्ड भी देते हैं।

उनके लिये अमंगलमय भी होते हैं।।२९।।

कमलके समान कोमल अनुग्रहभरे नेत्रोंवाले प्रभो! कुछ बिरले लोग ही आपके समस्त पदार्थों और प्राणियोंके आश्रयस्वरूप रूपमें पूर्ण एकाग्रतासे अपना चित्त लगा पाते हैं और आपके चरणकमलरूपी जहाजका आश्रय लेकर इस संसारसागरको बछड़ेके खुरके गढ़ेके समान अनायास ही पार कर जाते हैं।

क्यों न हो, अबतकके संतोंने इसी जहाजसे संसार-सागरको पार जो किया है।।३०।।

परम प्रकाशस्वरूप परमात्मन्! आपके भक्तजन सारे जगत् के निष्कपट प्रेमी, सच्चे हितैषी होते हैं।

वे स्वयं तो इस भयंकर और कष्टसे पार करनेयोग्य संसारसागरको पार कर ही जाते हैं, किन्तु औरोंके कल्याणके लिये भी वे यहाँ आपके चरण-कमलोंकी नौका स्थापित कर जाते हैं।

वास्तवमें सत्पुरुषोंपर आपकी महान् कृपा है।

उनके लिये आप अनुग्रहस्वरूप ही हैं।।३१।।

कमलनयन! जो लोग आपके चरणकमलोंकी शरण नहीं लेते तथा आपके प्रति भक्तिभावसे रहित होनेके कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अपनेको झूठ-मूठ मुक्त मानते हैं।

वास्तवमें तो वे बद्ध ही हैं।

वे यदि बड़ी तपस्या और साधनाका कष्ट उठाकर किसी प्रकार ऊँचे-से-ऊँचे पदपर भी पहुँच जायँ, तो भी वहाँसे नीचे गिर जाते हैं।।३२।।

परन्तु भगवन्! जो आपके अपने निज जन हैं, जिन्होंने आपके चरणोंमें अपनी सच्ची प्रीति जोड़ रखी है, वे कभी उन ज्ञानाभिमानियोंकी भाँति अपने साधन-मार्गसे गिरते नहीं।

प्रभो! वे बड़े-बड़े विघ्न डालनेवालोंकी सेनाके सरदारोंके सिरपर पैर रखकर निर्भय विचरते हैं, कोई भी विघ्न उनके मार्गमें रुकावट नहीं डाल सकते; क्योंकि उनके रक्षक आप जो हैं।।३३।।

आप संसारकी स्थितिके लिये समस्त देहधारियोंको परम कल्याण प्रदान करनेवाला विशुद्ध सत्त्वमय, सच्चिदानन्दमय परम दिव्य मंगल-विग्रह प्रकट करते हैं।

उस रूपके प्रकट होनेसे ही आपके भक्त वेद, कर्मकाण्ड, अष्टांगयोग, तपस्या और समाधिके द्वारा आपकी आराधना करते हैं।

बिना किसी आश्रयके वे किसकी आराधना करेंगे?।।३४।।

प्रभो! आप सबके विधाता हैं।

यदि आपका यह विशुद्ध सत्त्वमय निज स्वरूप न हो, तो अज्ञान और उसके द्वारा होनेवाले भेदभावको नष्ट करनेवाला अपरोक्ष ज्ञान ही किसीको न हो।

जगत् में दीखनेवाले तीनों गुण आपके हैं और आपके द्वारा ही प्रकाशित होते हैं, यह सत्य है।

परन्तु इन गुणोंकी प्रकाशक वृत्तियोंसे आपके स्वरूपका केवल अनुमान ही होता है, वास्तविक स्वरूपका साक्षात्कार नहीं होता।

(आपके स्वरूपका साक्षात्कार तो आपके इस विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूपकी सेवा करनेपर आपकी कृपासे ही होता है)।।३५।।

भगवन्! मन और वेद-वाणीके द्वारा केवल आपके स्वरूपका अनुमानमात्र होता है।

क्योंकि आप उनके द्वारा दृश्य नहीं; उनके साक्षी हैं।

इसलिये आपके गुण, जन्म और कर्म आदिके द्वारा आपके नाम और रूपका निरूपण नहीं किया जा सकता।

फिर भी प्रभो! आपके भक्तजन उपासना आदि क्रियायोगोंके द्वारा आपका साक्षात्कार तो करते ही हैं।।३६।।

जो पुरुष आपके मंगलमय नामों और रूपोंका श्रवण, कीर्तन, स्मरण और ध्यान करता है और आपके चरणकमलोंकी सेवामें ही अपना चित्त लगाये रहता है – उसे फिर जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्रमें नहीं आना पड़ता।।३७।।

सम्पूर्ण दुःखोंके हरनेवाले भगवन्! आप सर्वेश्वर हैं।

यह पृथ्वी तो आपका चरणकमल ही है।

आपके अवतारसे इसका भार दूर हो गया।

धन्य है! प्रभो! हमारे लिये यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि हमलोग आपके सुन्दर-सुन्दर चिह्नोंसे युक्त चरणकमलोंके द्वारा विभूषित पृथ्वीको देखेंगे और स्वर्गलोकको भी आपकी कृपासे कृतार्थ देखेंगे।।३८।।

प्रभो! आप अजन्मा हैं।

यदि आपके जन्मके कारणके सम्बन्धमें हम कोई तर्क ना करें, तो यही कह सकते हैं कि यह आपका एक लीला-विनोद है।

ऐसा कहनेका कारण यह है कि आप तो द्वैतके लेशसे रहित सर्वाधिष्ठानस्वरूप हैं और इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय अज्ञानके द्वारा आपमें आरोपित हैं।।३९।।

प्रभो! आपने जैसे अनेकों बार मत्स्य, हयग्रीव, कच्छप, नृसिंह, वराह, हंस, राम, परशुराम और वामन अवतार धारण करके हमलोगोंकी और तीनों लोकोंकी रक्षा की है – वैसे ही आप इस बार भी पृथ्वीका भार हरण कीजिये।

यदुनन्दन! हम आपके चरणोंमें वन्दना करते हैं’।।४०।।

[देवकीजीको सम्बोधित करके] ‘माताजी! यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आपकी कोखमें हम सबका कल्याण करनेके लिये स्वयं भगवान् पुरुषोत्तम अपने ज्ञान, बल आदि अंशोंके साथ पधारे हैं।

अब आप कंससे तनिक भी मत डरिये।

अब तो वह कुछ ही दिनोंका मेहमान है।

आपका पुत्र यदुवंशकी रक्षा करेगा’।।४१।।

येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्तमानिन- स्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः ।

आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्घ्रयः ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! ब्रह्मादि देवताओंने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की।

उनका रूप ‘यह है’ इस प्रकार निश्चितरूपसे तो कहा नहीं जा सकता, सब अपनी-अपनी मतिके अनुसार उसका निरूपण करते हैं।

इसके बाद ब्रह्मा और शंकरजीको आगे करके देवगण स्वर्गमें चले गये।।४२।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे गर्भगतविष्णोर्ब्रह्मादिकृतस्तुतिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः।।२।।

* शेष भगवान् ने विचार किया कि ‘रामावतारमें मैं छोटा भाई बना, इसीसे मुझे बड़े भाईकी आज्ञा माननी पड़ी और वन जानेसे मैं उन्हें रोक नहीं सका।

श्रीकृष्णावतारमें मैं बड़ा भाई बनकर भगवान् की अच्छी सेवा कर सकूँगा।

इसलिये वे श्रीकृष्णसे पहले ही गर्भमें आ गये।

* जो कंस विवाहके मंगलचिह्नोंको धारण की हुई देवकीका गला काटनेके उद्योगसे न हिचका, वही आज इतना सद्-विचारवान् हो गया, इसका क्या कारण है? अवश्य ही आज वह जिस देवकीको देख रहा है, उसके अन्तरंगमें – गर्भमें श्रीभगवान् हैं।

जिसके भीतर भगवान् हैं, उसके दर्शनसे सद् बुद्धिका उदय होना कोई आश्चर्य नहीं है।


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