<< भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 20
भागवत पुराण स्कंध लिंक - भागवत माहात्म्य | प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8) | नवम (9) | दशम (10) | एकादश (11) | द्वादश (12)
वेणुगीत
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! शरद् ऋतुके कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था।
जल निर्मल था और जलाशयोंमें खिले हुए कमलोंकी सुगन्धसे सनकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी।
भगवान् श्रीकृष्णने गौओं और ग्वालबालोंके साथ उस वनमें प्रवेश किया।।१।।
सुन्दर-सुन्दर पुष्पोंसे परिपूर्ण हरी-हरी वृक्ष-पंक्तियोंमें मतवाले भौंरे स्थान-स्थानपर गुनगुना रहे थे और तरह-तरहके पक्षी झुंड-के-झुंड अलग-अलग कलरव कर रहे थे, जिससे उस वनके सरोवर, नदियाँ और पर्वत – सब-के-सब गूँजते रहते थे।
मधुपति श्रीकृष्णने बलरामजी और ग्वालबालोंके साथ उसके भीतर घुसकर गौओंको चराते हुए अपनी बाँसुरीपर बड़ी मधुर तान छेड़ी।।२।।
श्रीकृष्णकी वह वंशीध्वनि भगवान् के प्रति प्रेमभावको, उनके मिलनकी आकांक्षाको जगानेवाली थी।
(उसे सुनकर गोपियोंका हृदय प्रेमसे परिपूर्ण हो गया) वे एकान्तमें अपनी सखियोंसे उनके रूप, गुण और वंशीध्वनिके प्रभावका वर्णन करने लगीं।।३।।
व्रजकी गोपियोंने वंशीध्वनिका माधुर्य आपसमें वर्णन करना चाहा तो अवश्य; परन्तु वंशीका स्मरण होते ही उन्हें श्रीकृष्णकी मधुर चेष्टाओंकी, प्रेमपूर्ण चितवन, भौंहोंके इशारे और मधुर मुसकान आदिकी याद हो आयी।
उनकी भगवान् से मिलनेकी आकांक्षा और भी बढ़ गयी।
उनका मन हाथसे निकल गया।
वे मन-ही-मन वहाँ पहुँच गयीं, जहाँ श्रीकृष्ण थे।
अब उनकी वाणी बोले कैसे? वे उसके वर्णनमें असमर्थ हो गयीं।।४।।
(वे मन-ही-मन देखने लगीं कि) श्रीकृष्ण ग्वालबालोंके साथ वृन्दावनमें प्रवेश कर रहे हैं।
उनके सिरपर मयूरपिच्छ है और कानोंपर कनेरके पीले-पीले पुष्प; शरीरपर सुनहला पीताम्बर और गलेमें पाँच प्रकारके सुगन्धित पुष्पोंकी बनी वैजयन्ती माला है।
रंगमंचपर अभिनय करते हुए श्रेष्ठ नटका-सा क्या ही सुन्दर वेष है।
बाँसुरीके छिद्रोंको वे अपने अधरामृतसे भर रहे हैं।
उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्तिका गान कर रहे हैं।
इस प्रकार वैकुण्ठसे भी श्रेष्ठ वह वृन्दावनधाम उनके चरणचिह्नोंसे और भी रमणीय बन गया है।।५।।
परीक्षित्! यह वंशीध्वनि जड, चेतन – समस्त भूतोंका मन चुरा लेती है।
गोपियोंने उसे सुना और सुनकर उसका वर्णन करने लगीं।
वर्णन करते-करते वे तन्मय हो गयीं और श्रीकृष्णको पाकर आलिंगन करने लगीं।।६।।
गोपियाँ आपसमें बातचीत करने लगीं – अरी सखी! हमने तो आँखवालोंके जीवनकी और उनकी आँखोंकी बस, यही – इतनी ही सफलता समझी है; और तो हमें कुछ मालूम ही नहीं है।
वह कौन-सा लाभ है? वह यही है कि जब श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलराम ग्वालबालोंके साथ गायोंको हाँककर वनमें ले जा रहे हों या लौटाकर व्रजमें ला रहे हों, उन्होंने अपने अधरोंपर मुरली धर रखी हो और प्रेमभरी तिरछी चितवनसे हमारी ओर देख रहे हों, उस समय हम उनकी मुख-माधुरीका पान करती रहें।।७।।
अरी सखी! जब वे आमकी नयी कोंपलें, मोरोंके पंख, फूलोंके गुच्छे, रंग-बिरंगे कमल और कुमुदकी मालाएँ धारण कर लेते हैं, श्रीकृष्णके साँवरे शरीरपर पीताम्बर और बलरामके गोरे शरीरपर नीलाम्बर फहराने लगता है, तब उनका वेष बड़ा ही विचित्र बन जाता है।
ग्वालबालोंकी गोष्ठीमें वे दोनों बीचो-बीच बैठ जाते हैं और मधुर संगीतकी तान छेड़ देते हैं।
मेरी प्यारी सखी! उस समय ऐसा जान पड़ता है मानो दो चतुर नट रंगमंचपर अभिनय कर रहे हों।
मैं क्या बताऊँ कि उस समय उनकी कितनी शोभा होती है।।८।।
अरी गोपियो! यह वेणु पुरुष जातिका होनेपर भी पूर्वजन्ममें न जाने ऐसा कौन-सा साधन-भजन कर चुका है कि हम गोपियोंकी अपनी सम्पत्ति – दामोदरके अधरोंकी सुधा स्वयं ही इस प्रकार पिये जा रहा है कि हमलोगोंके लिये थोड़ा-सा भी रस शेष नहीं रहेगा।
इस वेणुको अपने रससे सींचनेवाली ह्रदिनियाँ आज कमलोंके मिस रोमाञ्चित हो रही हैं और अपने वंशमें भगवत्प्रेमी सन्तानोंको देखकर श्रेष्ठ पुरुषोंके समान वृक्ष भी इसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर आँखोंसे आनन्दाश्रु बहा रहे हैं।।९।।
अरी सखी! यह वृन्दावन वैकुण्ठलोकतक पृथ्वीकी कीर्तिका विस्तार कर रहा है।
क्योंकि यशोदानन्दन श्रीकृष्णके चरणकमलोंके चिह्नोंसे यह चिह्नित हो रहा है! सखि! जब श्रीकृष्ण अपनी मुनिजनमोहिनी मुरली बजाते हैं तब मोर मतवाले होकर उसकी तालपर नाचने लगते हैं।
यह देखकर पर्वतकी चोटियोंपर विचरनेवाले सभी पशु-पक्षी चुपचाप – शान्त होकर खड़े रह जाते हैं।
अरी सखी! जब प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण विचित्र वेष धारण करके बाँसुरी बजाते हैं, तब मूढ़ बुद्धिवाली ये हरिनियाँ भी वंशीकी तान सुनकर अपने पति कृष्णसार मृगोंके साथ नन्दनन्दनके पास चली आती हैं और अपनी प्रेमभरी बड़ी-बड़ी आँखोंसे उन्हें निरखने लगती हैं।
निरखती क्या हैं, अपनी कमलके समान बड़ी-बड़ी आँखें श्रीकृष्णके चरणोंपर निछावर कर देती हैं और श्रीकृष्णकी प्रेमभरी चितवनके द्वारा किया हुआ अपना सत्कार स्वीकार करती हैं।’ वास्तवमें उनका जीवन धन्य है! (हम वृन्दावनकी गोपी होनेपर भी इस प्रकार उनपर अपनेको निछावर नहीं कर पातीं, हमारे घरवाले कुढ़ने लगते हैं।
कितनी विडम्बना है!)।।१०-११।।
अरी सखी! हरिनियोंकी तो बात ही क्या है – स्वर्गकी देवियाँ जब युवतियोंको आनन्दित करनेवाले सौन्दर्य और शीलके खजाने श्रीकृष्णको देखती हैं और बाँसुरीपर उनके द्वारा गाया हुआ मधुर संगीत सुनती हैं, तब उनके चित्र-विचित्र आलाप सुनकर वे अपने विमानपर ही सुध-बुध खो बैठती हैं – मूर्च्छित हो जाती हैं।
यह कैसे मालूम हुआ सखी? सुनो तो, जब उनके हृदयमें श्रीकृष्णसे मिलनेकी तीव्र आकांक्षा जग जाती है तब वे अपना धीरज खो बैठती हैं, बेहोश हो जाती हैं।
उन्हें इस बातका भी पता नहीं चलता कि उनकी चोटियोंमें गुँथे हुए फूल पृथ्वीपर गिर रहे हैं।
यहाँतक कि उन्हें अपनी साड़ीका भी पता नहीं रहता, वह कमरसे खिसककर जमीनपर गिर जाती है।।१२।।
अरी सखी! तुम देवियोंकी बात क्या कह रही हो, इन गौओंको नहीं देखती? जब हमारे कृष्ण-प्यारे अपने मुखसे बाँसुरीमें स्वर भरते हैं और गौएँ उनका मधुर संगीत सुनती हैं, तब ये अपने दोनों कानोंके दोने सम्हाल लेती हैं – खड़े कर लेती हैं और मानो उनसे अमृत पी रही हों, इस प्रकार उस संगीतका रस लेने लगती हैं? ऐसा क्यों होता है सखी? अपने नेत्रोंके द्वारसे श्यामसुन्दरको हृदयमें ले जाकर वे उन्हें वहीं विराजमान कर देती हैं और मन-ही-मन उनका आलिंगन करती हैं।
देखती नहीं हो, उनके नेत्रोंसे आनन्दके आँसू छलकने लगते हैं! और उनके बछड़े, बछड़ोंकी तो दशा ही निराली हो जाती है।
यद्यपि गायोंके थनोंसे अपने-आप दूध झरता रहता है, वे जब दूध पीते-पीते अचानक ही वंशीध्वनि सुनते हैं तब मुँहमें लिया हुआ दूधका घूँट न उगल पाते हैं और न निगल पाते हैं।
उनके हृदयमें भी होता है भगवान् का संस्पर्श और नेत्रोंमें छलकते होते हैं आनन्दके आँसू।
वे ज्यों-के-त्यों ठिठके रह जाते हैं।।१३।।
अरी सखी! गौएँ और बछड़े तो हमारी घरकी वस्तु हैं।
उनकी बात तो जाने ही दो।
वृन्दावनके पक्षियोंको तुम नहीं देखती हो! उन्हें पक्षी कहना ही भूल है! सच पूछो तो उनमेंसे अधिकांश बड़े-बड़े ऋषि-मुनि हैं।
वे वृन्दावनके सुन्दर-सुन्दर वृक्षोंकी नयी और मनोहर कोंपलोंवाली डालियोंपर चुपचाप बैठ जाते हैं और आँखें बंद नहीं करते, निर्निमेष नयनोंसे श्रीकृष्णकी रूप-माधुरी तथा प्यार-भरी चितवन देख-देखकर निहाल होते रहते हैं, तथा कानोंसे अन्य सब प्रकारके शब्दोंको छोड़कर केवल उन्हींकी मोहनी वाणी और वंशीका त्रिभुवनमोहन संगीत सुनते रहते हैं।
मेरी प्यारी सखी! उनका जीवन कितना धन्य है!।।१४।।
अरी सखी! देवता, गौओं और पक्षियोंकी बात क्यों करती हो? वे तो चेतन हैं।
इन जड नदियोंको नहीं देखतीं? इनमें जो भँवर दीख रहे हैं, उनसे इनके हृदयमें श्यामसुन्दरसे मिलनेकी तीव्र आकांक्षाका पता चलता है? उसके वेगसे ही तो इनका प्रवाह रुक गया है।
इन्होंने भी प्रेमस्वरूप श्रीकृष्णकी वंशीध्वनि सुन ली है।
देखो, देखो! ये अपनी तरंगोंके हाथोंसे उनके चरण पकड़कर कमलके फूलोंका उपहार चढ़ा रही हैं और उनका आलिंगन कर रही हैं; मानो उनके चरणोंपर अपना हृदय ही निछावर कर रही हैं।।१५।।
अरी सखी! ये नदियाँ तो हमारी पृथ्वीकी, हमारे वृन्दावनकी वस्तुएँ हैं; तनिक इन बादलोंको भी देखो! जब वे देखते हैं कि व्रजराजकुमार श्रीकृष्ण और बलरामजी ग्वालबालोंके साथ धूपमें गौएँ चरा रहे हैं और साथ-साथ बाँसुरी भी बजाते जा रहे हैं, तब उनके हृदयमें प्रेम उमड़ आता है।
वे उनके ऊपर मँड़राने लगते हैं और वे श्यामघन अपने सखा घनश्यामके ऊपर अपने शरीरको ही छाता बनाकर तान देते हैं।
इतना ही नहीं सखी! वे जब उनपर नन्हीं-नन्हीं फुहियोंकी वर्षा करने लगते हैं तब ऐसा जान पड़ता है कि वे उनके ऊपर सुन्दर-सुन्दर श्वेत कुसुम चढ़ा रहे हैं।
नहीं सखी, उनके बहाने वे तो अपना जीवन ही निछावर कर देते हैं!।।१६।।
अरी भटू! हम तो वृन्दावनकी इन भीलनियोंको ही धन्य और कृतकृत्य मानती हैं।
ऐसा क्यों सखी? इसलिये कि इनके हृदयमें बड़ा प्रेम है।
जब ये हमारे कृष्ण-प्यारेको देखती हैं, तब इनके हृदयमें भी उनसे मिलनेकी तीव्र आकांक्षा जाग उठती है।
इनके हृदयमें भी प्रेमकी व्याधि लग जाती है।
उस समय ये क्या उपाय करती हैं, यह भी सुन लो।
हमारे प्रियतमकी प्रेयसी गोपियाँ अपने वक्षःस्थलोंपर जो केसर लगाती हैं, वह श्यामसुन्दरके चरणोंमें लगी होती है और वे जब वृन्दावनके घास-पातपर चलते हैं, तब उनमें भी लग जाती है।
ये सौभाग्यवती भीलनियाँ उन्हें उन तिनकोंपरसे छुड़ाकर अपने स्तनों और मुखोंपर मल लेती हैं और इस प्रकार अपने हृदयकी प्रेम-पीड़ा शान्त करती हैं।।१७।।
अरी गोपियो! यह गिरिराज गोवर्द्धन तो भगवान् के भक्तोंमें बहुत ही श्रेष्ठ है।
धन्य हैं इसके भाग्य! देखती नहीं हो, हमारे प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण और नयनाभिराम बलरामके चरणकमलोंका स्पर्श प्राप्त करके यह कितना आनन्दित रहता है।
इसके भाग्यकी सराहना कौन करे? यह तो उन दोनोंका – ग्वालबालों और गौओंका बड़ा ही सत्कार करता है।
स्नान-पानके लिये झरनोंका जल देता है, गौओंके लिये सुन्दर हरी-हरी घास प्रस्तुत करता है, विश्राम करनेके लिये कन्दराएँ और खानेके लिये कन्द-मूल फल देता है।
वास्तवमें यह धन्य है!।।१८।।
अरी सखी! इन साँवरे-गोरे किशोरोंकी तो गति ही निराली है।
जब वे सिरपर नोवना (दुहते समय गायके पैर बाँधनेकी रस्सी) लपेटकर और कंधोंपर फंदा (भागनेवाली गायोंको पकड़नेकी रस्सी) रखकर गायोंको एक वनसे दूसरे वनमें हाँककर ले जाते हैं, साथमें ग्वालबाल भी होते हैं और मधुर-मधुर संगीत गाते हुए बाँसुरीकी तान छेड़ते हैं, उस समय मनुष्योंकी तो बात ही क्या अन्य शरीरधारियोंमें भी चलनेवाले चेतन पशु-पक्षी और जड नदी आदि तो स्थिर हो जाते हैं, तथा अचल-वृक्षोंको भी रोमांच हो आता है।
जादूभरी वंशीका और क्या चमत्कार सुनाऊँ?।।१९।।
परीक्षित्! वृन्दावनविहारी श्रीकृष्णकी ऐसी-ऐसी एक नहीं, अनेक लीलाएँ हैं।
गोपियाँ प्रतिदिन आपसमें उनका वर्णन करतीं और तन्मय हो जातीं।
भगवान् की लीलाएँ उनके हृदयमें स्फुरित होने लगतीं।।२०।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे१ वेणुगीतं नामैकविंशोऽध्यायः।।२१।।
Next.. (आगे पढें…..) >> भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 22
भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 22
Krishna Bhajan, Aarti, Chalisa
- ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन - आध्यात्मिक महत्व
- आरती कुंज बिहारी की - श्री कृष्ण आरती - अर्थ सहित
- अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं
- मेरा आपकी कृपा से, सब काम हो रहा है
- नन्द के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की (Updated)
- मधुराष्टकम - अर्थ साहित - अधरं मधुरं वदनं मधुरं
- मैं आरती तेरी गाउँ, ओ केशव कुञ्ज बिहारी
- सांवली सूरत पे मोहन, दिल दीवाना हो गया - अर्थ सहित
- हे गोपाल कृष्ण, करूँ आरती तेरी - आध्यात्मिक महत्व
- श्याम रंग में रंगी चुनरिया, अब रंग दूजो भावे ना
- बता मेरे यार सुदामा रे - भाई घणे दीना में आया
- काली कमली वाला, मेरा यार है
- ज़री की पगड़ी बाँधे, सुंदर आँखों वाला
- अरे द्वारपालों, कन्हैया से कह दो
- फूलो में सज रहे हैं, श्री वृन्दावन बिहारी
- देना हो तो दीजिए, जनम जनम का साथ - अर्थ सहित
- मुझे अपने ही रंग में रंगले, मेरे यार सांवरे
- नटवर नागर नंदा, भजो रे मन गोविंदा