<< भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 55
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स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामाके साथ श्रीकृष्णका विवाह
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! सत्राजित् ने श्रीकृष्णको झूठा कलंक लगाया था।
फिर उस अपराधका मार्जन करनेके लिये उसने स्वयं स्यमन्तकमणि सहित अपनी कन्या सत्यभामा भगवान् श्रीकृष्णको सौंप दी।।१।।
राजा परीक्षित् ने पूछा – भगवन्! सत्राजित् ने भगवान् श्रीकृष्णका क्या अपराध किया था? उसे स्यमन्तकमणि कहाँसे मिली? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी?।।२।।
श्रीशुकदेवजीने कहा – परीक्षित्! सत्राजित् भगवान् सूर्यका बहुत बड़ा भक्त था।
वे उसकी भक्तिसे प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये थे।
सूर्य भगवान् ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेमसे उसे स्यमन्तकमणि दी थी।।३।।
सत्राजित् उस मणिको गलेमें धारणकर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो।
परीक्षित्! जब सत्राजित् द्वारकामें आया, तब अत्यन्त तेजस्विताके कारण लोग उसे पहचान न सके।।४।।
दूरसे ही उसे देखकर लोगोंकी आँखें उसके तेजसे चौंधिया गयीं।
लोगोंने समझा कि कदाचित् स्वयं भगवान् सूर्य आ रहे हैं।
उन लोगोंने भगवान् के पास आकर उन्हें इस बातकी सूचना दी।
उस समय भगवान् श्रीकृष्ण चौसर खेल रहे थे।।५।।
लोगोंने कहा – ‘शंख-चक्र-गदाधारी नारायण! कमलनयन दामोदर! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द! आपको नमस्कार है।।६।।
जगदीश्वर! देखिये! अपनी चमकीली किरणोंसे लोगोंके नेत्रोंको चौंधियाते हुए प्रचण्डरश्मि भगवान् सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं।।७।।
प्रभो! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकीमें आपकी प्राप्तिका मार्ग ढूँढ़ते रहते हैं; किन्तु उसे पाते नहीं।
आज आपको यदुवंशमें छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं’।।८।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! अनजान पुरुषोंकी यह बात सुनकर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण हँसने लगे।
उन्होंने कहा – ‘अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं।
यह तो सत्राजित् है, जो मणिके कारण इतना चमक रहा है।।९।।
इसके बाद सत्राजित् अपने समृद्ध घरमें चला आया।
घरपर उसके शुभागमनके उपलक्ष्यमें मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था।
उसने ब्राह्मणोंके द्वारा स्यमन्तकमणिको एक देवमन्दिरमें स्थापित करा दिया।।१०।।
परीक्षित्! वह मणि प्रतिदिन आठ भार* सोना दिया करती थी।
और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीडा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा माया-वियोंका उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था।।११।।
एक बार भगवान् श्रीकृष्णने प्रसंगवश कहा – ‘सत्राजित्! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेनको दे दो।’ परन्तु वह इतना अर्थलोलुप – लोभी था कि भगवान् की आज्ञाका उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया।।१२।।
एक दिन सत्राजित् के भाई प्रसेनने उस परम प्रकाशमयी मणिको अपने गलेमें धारण कर लिया और फिर वह घोड़ेपर सवार होकर शिकार खेलने वनमें चला गया।।१३।।
वहाँ एक सिंहने घोड़े सहित प्रसेनको मार डाला और उस मणिको छीन लिया।
वह अभी पर्वतकी गुफामें प्रवेश कर ही रहा था कि मणिके लिये ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला।।१४।।
उन्होंने वह मणि अपनी गुफामें ले जाकर बच्चेको खेलनेके लिये दे दी।
अपने भाई प्रसेनके न लौटनेसे उसके भाई सत्राजित् को बड़ा दुःख हुआ।।१५।।
वह कहने लगा, ‘बहुत सम्भव है श्रीकृष्णने ही मेरे भाईको मार डाला हो; क्योंकि वह मणि गलेमें डालकर वनमें गया था।’ सत्राजित् की यह बात सुनकर लोग आपसमें काना-फूसी करने लगे।।१६।।
जब भगवान् श्रीकृष्णने सुना कि यह कलंकका टीका मेरे ही सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहानेके उद्देश्यसे नगरके कुछ सभ्य पुरुषोंको साथ लेकर प्रसेनको ढूँढ़नेके लिये वनमें गये।।१७।।
वहाँ खोजते-खोजते लोगोंने देखा कि घोर जंगलमें सिंहने प्रसेन और उसके घोड़ेको मार डाला है।
जब वे लोग सिंहके पैरोंका चिह्न देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगोंने यह भी देखा कि पर्वतपर एक रीछने सिंहको भी मार डाला है।।१८।।
भगवान् श्रीकृष्णने सब लोगोंको बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकारसे भरी हुई ऋक्षराजकी भयंकर गुफामें प्रवेश किया।।१९।।
भगवान् ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तकको बच्चोंका खिलौना बना दिया गया है।
वे उसे हर लेनेकी इच्छासे बच्चेके पास जा खड़े हुए।।२०।।
उस गुफामें एक अपरिचित मनुष्यको देखकर बच्चेकी धाय भयभीतकी भाँति चिल्ला उठी।
उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान् क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये।।२१।।
परीक्षित्! जाम्बवान् उस समय कुपित हो रहे थे।
उन्हें भगवान् की महिमा, उनके प्रभावका पता न चला।
उन्होंने उन्हें एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्णसे युद्ध करने लगे।।२२।।
जिस प्रकार मांसके लिये दो बाज आपसमें लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान् श्रीकृष्ण और जाम्बवान् आपसमें घमासान युद्ध करने लगे।
पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार किया, फिर शिलाओंका, तत्पश्चात् वे वृक्ष उखाड़कर एक-दूसरेपर फेंकने लगे।
अन्तमें उनमें बाहुयुद्ध होने लगा।।२३।।
परीक्षित्! वज्र-प्रहारके समान कठोर घूँसोंसे आपसमें वे अट्ठाईस दिनतक बिना विश्राम किये रात-दिन लड़ते रहे।।२४।।
अन्तमें भगवान् श्रीकृष्णके घूँसोंकी चोटसे जाम्बवान् के शरीरकी एक-एक गाँठ टूट-फूट गयी।
उत्साह जाता रहा।
शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया।
तब उन्होंने अत्यन्त विस्मित – चकित होकर भगवान् श्रीकृष्णसे कहा – ।।२५।।
‘प्रभो! मैं जान गया।
आप ही समस्त प्राणियोंके स्वामी, रक्षक, पुराणपुरुष भगवान् विष्णु हैं।
आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल हैं।।२६।।
आप विश्वके रचयिता ब्रह्मा आदिको भी बनानेवाले हैं।
बनाये हुए पदार्थोंमें भी सत्तारूपसे आप ही विराजमान हैं।
कालके जितने भी अवयव हैं, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर-भेदसे भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अन्तरात्माओंके परम आत्मा भी आप ही हैं।।२७।।
प्रभो! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रोंमें तनिक-सा क्रोधका भाव लेकर तिरछी दृष्टिसे समुद्रकी ओर देखा था।
उस समय समुद्रके अंदर रहनेवाले बड़े-बड़े नाक (घड़ियाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्रने आपको मार्ग दे दिया था।
तब आपने उसपर सेतु बाँधकर सुन्दर यशकी स्थापना की तथा लंकाका विध्वंस किया।
आपके बाणोंसे कट-कटकर राक्षसोंके सिर पृथ्वीपर लोट रहे थे (अवश्य ही आप मेरे वे ही ‘रामजी’ श्रीकृष्णके रूपमें आये हैं)’।।२८।।
परीक्षित्! जब ऋक्षराज जाम्बवान् ने भगवान् को पहचान लिया, तब कमलनयन श्रीकृष्णने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमलको उनके शरीरपर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपासे भरकर प्रेम-गम्भीर वाणीसे अपने भक्त जाम्बवान् जीसे कहा – ।।२९-३०।।
‘ऋक्षराज! हम मणिके लिये ही तुम्हारी इस गुफामें आये हैं।
इस मणिके द्वारा मैं अपनेपर लगे झूठे कलंकको मिटाना चाहता हूँ’।।३१।।
भगवान् के ऐसा कहनेपर जाम्बवान् ने बड़े आनन्दसे उनकी पूजा करनेके लिये अपनी कन्या कुमारी जाम्बवतीको मणिके साथ उनके चरणोंमें समर्पित कर दिया।।३२।।
भगवान् श्रीकृष्ण जिन लोगोंको गुफाके बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिनतक उनकी प्रतीक्षा की।
परन्तु जब उन्होंने देखा कि अबतक वे गुफामेंसे नहीं निकले, तब वे अत्यन्त दुःखी होकर द्वारकाको लौट गये।।३३।।
वहाँ जब माता देवकी, रुक्मिणी, वसुदेवजी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियोंको यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण गुफामेंसे नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ।।३४।।
सभी द्वारकावासी अत्यन्त दुःखित होकर सत्राजित् को भला-बुरा कहने लगे और भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्तिके लिये महामाया दुर्गादेवीकी शरणमें गये, उनकी उपासना करने लगे।।३५।।
उनकी उपासनासे दुर्गादेवी प्रसन्न हुईं और उन्होंने आशीर्वाद दिया।
उसी समय उनके बीचमें मणि और अपनी नववधू जाम्बवतीके साथ सफलमनोरथ होकर श्रीकृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये।।३६।।
सभी द्वारकावासी भगवान् श्रीकृष्णको पत्नीके साथ और गलेमें मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्दमें मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो।।३७।।
तदनन्तर भगवान् ने सत्राजित् को राजसभामें महाराज उग्रसेनके पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित् को सौंप दी।।३८।।
सत्राजित् अत्यन्त लज्जित हो गया।
मणि तो उसने ले ली, परन्तु उसका मुँह नीचेकी ओर लटक गया।
अपने अपराधपर उसे बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा।।३९।।
उसके मनकी आँखोंके सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता।
बलवान् के साथ विरोध करनेके कारण वह भयभीत भी हो गया था।
अब वह यही सोचता रहता कि ‘मैं अपने अपराधका मार्जन कैसे करूँ? मुझपर भगवान् श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों।।४०।।
मैं ऐसा कौन-सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसें नहीं।
सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ।
धनके लोभसे मैं बड़ी मूढ़ताका काम कर बैठा।।४१।।
अब मैं रमणियोंमें रत्नके समान अपनी कन्या सत्यभामा और वह स्यमन्तकमणि दोनों ही श्रीकृष्णको दे दूँ।
यह उपाय बहुत अच्छा है।
इसीसे मेरे अपराधका मार्जन हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है’।।४२।।
सत्राजित् ने अपनी विवेक-बुद्धिसे ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिये उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तकमणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्णको अर्पण कर दीं।।४३।।
सत्यभामा शील-स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सद् गुणोंसे सम्पन्न थीं।
बहुत-से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिलें और उन लोगोंने उन्हें माँगा भी था।
परन्तु अब भगवान् श्रीकृष्णने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया।।४४।।
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने सत्राजित् से कहा – ‘हम स्यमन्तकमणि न लेंगे।
आप सूर्यभगवान् के भक्त हैं, इसलिये वह आपके ही पास रहे।
हम तो केवल उसके फलके, अर्थात् उससे निकले हुए सोनेके अधिकारी हैं।
वही आप हमें दे दिया करें’।।४५।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे स्यमन्तकोपाख्याने षट् पञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५६।।
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भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 57
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