भागवत पुराण – तृतीय स्कन्ध – अध्याय – 18

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हिरण्याक्षके साथ वराहभगवान् का युद्ध

श्रीमैत्रेयजीने कहा—तात! वरुणजीकी यह बात सुनकर वह मदोन्मत्त दैत्य बड़ा प्रसन्न हुआ।

उसने उनके इस कथनपर कि ‘तू उनके हाथसे मारा जायगा’ कुछ भी ध्यान नहीं दिया और चट नारदजीसे श्रीहरिका पता लगाकर रसातलमें पहुँच गया।।१।।

वहाँ उसने विश्वविजयी वराहभगवान् को अपनी दाढ़ोंकी नोकपर पृथ्वीको ऊपरकी ओर ले जाते हुए देखा।

वे अपने लाल-लाल चमकीले नेत्रोंसे उसके तेजको हरे लेते थे।

उन्हें देखकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘अरे! यह जंगली पशु यहाँ जलमें कहाँसे आया’।।२।।

फिर वराहजीसे कहा, ‘अरे नासमझ! इधर आ, इस पृथ्वीको छोड़ दे; इसे विश्वविधाता ब्रह्माजीने हम रसातलवासियोंके हवाले कर दिया है।

रे सूकररूपधारी सुराधम! मेरे देखते-देखते तू इसे लेकर कुशलपूर्वक नहीं जा सकता।।३।।

तू मायासे लुक-छिपकर ही दैत्योंको जीत लेता और मार डालता है।

क्या इसीसे हमारे शत्रुओंने हमारा नाश करानेके लिये तुझे पाला है? मूढ़! तेरा बल तो योगमाया ही है और कोई पुरुषार्थ तुझमें थोड़े ही है।

आज तुझे समाप्तकर मैं अपने बन्धुओंका शोक दूर करूँगा।।४।।

जब मेरे हाथसे छूटी हुई गदाके प्रहारसे सिर फट जानेके कारण तू मर जायगा, तब तेरी आराधना करनेवाले जो देवता और ऋषि हैं, वे सब भी जड़ कटे हुए वृक्षोंकी भाँति स्वयं ही नष्ट हो जायँगे’।।५।।

हिरण्याक्ष भगवान् को दुर्वचन-बाणोंसे छेदे जा रहा था; परन्तु उन्होंने दाँतकी नोकपर स्थित पृथ्वीको भयभीत देखकर वह चोट सह ली तथा जलसे उसी प्रकार बाहर निकल आये, जैसे ग्राहकी चोट खाकर हथिनीसहित गजराज।।६।।

जब उसकी चुनौतीका कोई उत्तर न देकर वे जलसे बाहर आने लगे, तब ग्राह जैसे गजका पीछा करता है, उसी प्रकार पीले केश और तीखी दाढ़ोंवाले उस दैत्यने उनका पीछा किया तथा वज्रके समान कड़ककर वह कहने लगा, ‘तुझे भागनेमें लज्जा नहीं आती? सच है, असत् पुरुषोंके लिये कौन-सा काम न करनेयोग्य है?’।।७।।

भगवान् ने पृथ्वीको ले जाकर जलके ऊपर व्यवहारयोग्य स्थानमें स्थित कर दिया और उसमें अपनी आधारशक्तिका संचार किया।

उस समय हिरण्याक्षके सामने ही ब्रह्माजीने उनकी स्तुति की और देवताओंने फूल बरसाये।।८।।

तब श्रीहरिने बड़ी भारी गदा लिये अपने पीछे आ रहे हिरण्याक्षसे, जो सोनेके आभूषण और अद् भुत कवच धारण किये था तथा अपने कटुवाक्योंसे उन्हें निरन्तर मर्माहत कर रहा था, अत्यन्त क्रोधपूर्वक हँसते हुए कहा।।९।।

श्रीभगवान् ने कहा—अरे! सचमुच ही हम जंगली जीव हैं, जो तुझ-जैसे ग्रामसिंहों (कुत्तों)-को ढूँढ़ते फिरते हैं।

दुष्ट! वीर पुरुष तुझ-जैसे मृत्युपाशमें बँधे हुए अभागे जीवोंकी आत्मश्लाघापर ध्यान नहीं देते।।१०।।

हाँ, हम रसातलवासियोंकी धरोहर चुराकर और लज्जा छोड़कर तेरी गदाके भयसे यहाँ भाग आये हैं।

हममें ऐसी सामर्थ्य ही कहाँ कि तेरे-जैसे अद्वितीय वीरके सामने युद्धमें ठहर सकें।

फिर भी हम जैसे-तैसे तेरे सामने खड़े हैं; तुझ-जैसे बलवानोंसे वैर बाँधकर हम जा भी कहाँ सकते हैं?।।११।।

तू पैदल वीरोंका सरदार है, इसलिये अब निःशंक होकर—उधेड़-बुन छोड़कर हमारा अनिष्ट करनेका प्रयत्न कर और हमें मारकर अपने भाई-बन्धुओंके आँसू पोंछ।

अब इसमें देर न कर।

जो अपनी प्रतिज्ञाका पालन नहीं करता, वह असभ्य है—भले आदमियोंमें बैठने लायक नहीं है।।१२।।

मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! जब भगवान् ने रोषसे उस दैत्यका इस प्रकार खूब उपहास और तिरस्कार किया, तब वह पकड़कर खेलाये जाते हुए सर्पके समान क्रोधसे तिलमिला उठा।।१३।।

वह खीझकर लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगा, उसकी इन्द्रियाँ क्रोधसे क्षुब्ध हो उठीं और उस दुष्ट दैत्यने बड़े वेगसे लपककर भगवान् पर गदाका प्रहार किया।।१४।।

किन्तु भगवान् ने अपनी छातीपर चलायी हुई शत्रुकी गदाके प्रहारको कुछ टेढ़े होकर बचा लिया—ठीक वैसे ही, जैसे योगसिद्ध पुरुष मृत्युके आक्रमणसे अपनेको बचा लेता है।।१५।।

फिर जब वह क्रोधसे होठ चबाता अपनी गदा लेकर बार-बार घुमाने लगा, तब श्रीहरि कुपित होकर बड़े वेगसे उसकी ओर झपटे।।१६।।

सौम्यस्वभाव विदुरजी! तब प्रभुने शत्रुकी दायीं भौंहपर गदाकी चोट की, किन्तु गदायुद्धमें कुशल हिरण्याक्षने उसे बीचमें ही अपनी गदापर ले लिया।।१७।।

इस प्रकार श्रीहरि और हिरण्याक्ष एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छासे अत्यन्त क्रुद्ध होकर आपसमें अपनी भारी गदाओंसे प्रहार करने लगे।।१८।।

उस समय उन दोनोंमें ही जीतनेकी होड़ लग गयी, दोनोंके ही अंग गदाओंकी चोटोंसे घायल हो गये थे, अपने अंगोंके घावोंसे बहनेवाले रुधिरकी गन्धसे दोनोंका ही क्रोध बढ़ रहा था और वे दोनों ही तरह-तरहके पैतरे बदल रहे थे।

इस प्रकार गौके लिये आपसमें लड़नेवाले दो साँड़ोंके समान उन दोनोंमें एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छासे बड़ा भयंकर युद्ध हुआ।।१९।।

विदुरजी! जब इस प्रकार हिरण्याक्ष और मायासे वराहरूप धारण करनेवाले भगवान् यज्ञमूर्ति पृथ्वीके लिये द्वेष बाँधकर युद्ध करने लगे, तब उसे देखनेके लिये वहाँ ऋषियोंके सहित ब्रह्माजी आये।।२०।।

वे हजारों ऋषियोंसे घिरे हुए थे।

जब उन्होंने देखा कि वह दैत्य बड़ा शूरवीर है, उसमें भयका नाम भी नहीं है, वह मुकाबला करनेमें भी समर्थ है और उसके पराक्रमको चूर्ण करना बड़ा कठिन काम है, तब वे भगवान् आदिसूकररूप नारायणसे इस प्रकार कहने लगे।।२१।।

श्रीब्रह्माजीने कहा—देव! मुझसे वर पाकर यह दुष्ट दैत्य बड़ा प्रबल हो गया है।

इस समय यह आपके चरणोंकी शरणमें रहनेवाले देवताओं, ब्राह्मणों, गौओं तथा अन्य निरपराध जीवोंको बहुत ही हानि पहुँचानेवाला, दुःखदायी और भयप्रद हो रहा है।

इसकी जोड़का और कोई योद्धा नहीं है, इसलिये यह महाकण्टक अपना मुकाबला करनेवाले वीरकी खोजमें समस्त लोकोंमें घूम रहा है।।२२-२३।।

यह दुष्ट बड़ा ही मायावी, घमण्डी और निरंकुश है।

बच्चा जिस प्रकार क्रुद्ध हुए साँपसे खेलता है; वैसे ही आप इससे खिलवाड़ न करें।।२४।।

देव! अच्युत! जबतक यह दारुण दैत्य अपनी बल-वृद्धिकी वेलाको पाकर प्रबल हो, उससे पहले-पहले ही आप अपनी योगमायाको स्वीकार करके इस पापीको मार डालिये।।२५।।

प्रभो! देखिये, लोकोंका संहार करनेवाली सन्ध्याकी भयंकर वेला आना ही चाहती है।

सर्वात्मन्! आप उससे पहले ही इस असुरको मारकर देवताओंको विजय प्रदान कीजिये।।२६।।

इस समय अभिजित् नामक मंगलमय मुहूर्तका भी योग आ गया है।

अतः अपने सुहृद् हमलोगोंके कल्याणके लिये शीघ्र ही इस दुर्जय दैत्यसे निपट लीजिये।।२७।।

प्रभो! इसकी मृत्यु आपके ही हाथ बदी है।

हमलोगोंके बड़े भाग्य हैं कि स्वयं ही अपने कालरूप आपके पास आ पहुँचा है।

अब आप युद्धमें बलपूर्वक इसे मारकर लोकोंको शान्ति प्रदान कीजिये।।२८।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे हिरण्याक्षवधेऽष्टादशोऽध्यायः।।१८।।


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