बहुरि नहिं आवना| Kabir ke Bhajan
बहुरि नहिं आवना या देस॥
जो जो ग बहुरि नहि
आ पठवत नाहिं सेंस।
सुर नर मुनि अरु पीर औलिया
देवी देव गनेस॥
बहुरि नहिं आवना या देस॥
जो जो ग बहुरि नहि
आ पठवत नाहिं सेंस।
सुर नर मुनि अरु पीर औलिया
देवी देव गनेस॥
केहि समुझावौ सब जग अन्धा॥
इक दु होयॅं उन्हैं समुझावौं
सबहि भुलाने पेटके धन्धा।
पानी घोड पवन असवरवा
ढरकि परै जस ओसक बुन्दा॥
रे दिल गाफिल, गफलत मत कर
एक दिना जम आवेगा॥ टेक॥
सौदा करने या जग आया।
पूजी लाया मूल गॅंवाया॥
सिर पाहन का बोझा लीता।
आगे कौन छुडावेगा॥
मीरा के भजन – प्रार्थना
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो
श्याम मने चाकर राखो जी
मेरे तो गिरधर गोपाल
ऐसी लागी लगन
झीनी झीनी बीनी चदरिया
काहे का ताना काहे की भरनी।
कौन तार से बीनी चदरिया॥
इदा पिङ्गला ताना भरनी।
सुषुम्ना तार से बीनी चदरिया॥
मन लाग्यो मेरो यार, फ़कीरी में
जो सुख पाऊँ नाम भजन में
सो सुख नाहिं अमीरी में
आखिर यह तन ख़ाक मिलेगा
कहाँ फिरत मग़रूरी में
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु
किरपा कर अपनायो
जनम जनम की पूंजी पाई
जग में सभी खोवायो
श्याम मने चाकर राखो जी,
चाकर रहसूं बाग लगासूं,
नित उठ दरसण पासूं।
वृन्दावन की कुंजगलिन में
तेरी लीला गासूं॥