धन, मन, कर्म और ईश्वर की प्राप्ति

उपनिषद् का मन्त्र :
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌॥

मंत्र का अर्थ:
अखिल ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड़ चेतनस्वरूप जगत है,
यह समस्त ईश्वरसे व्याप्त है।

उस ईश्वर से मिली हुई वस्तुओं का
अर्थात इस सृष्टि के पदार्थों का मनुष्य
आवश्यकतानुसार, बिना आसक्ति के साथ भोग करें।

यह सब मेरा है के भाव से उनका संग्रह ना करे,
क्योंकि यह भोग्य पदार्थ किसका है, अर्थात किसीका भी नहीं हैं। 


स्वामी दर्शनानंद सरस्वती के व्याख्यान से प्रश्न – उत्तर (प्रश्नोत्तर) के रूप में –


सर्वव्यापी ईश्वर

जो कुछ इस नाशवान, अनित्य संसार में वस्तुएं है,
उन सबमें ईश्वर व्याप्त है, ईश्वर से ढकी हुई है,
अर्थात प्रत्येक वस्तु में ईश्वर विद्यमान है।

कोई पर्वत की गहरी से गहरी गुफा नहीं,
जिसमें ईश्वर विद्यमान न हो,
कोई समुद्र की गहरी से गहरी तह नहीं,
जहाँ परमात्मा न हो।

कोई पर्वत को चोटी ऐसी नहीं,
जहाँ परमात्मा न हो।

सूर्यलोक, चन्द्रलोक, तारागण इत्यादि
जितने भी लोक लोकान्तर हैं,
सब स्थानों में परमात्मा व्यापक है।

किसी स्थान पर मनुष्य
परमात्मा से छिप नहीं सकता।


कर्मों के अनुसार भोग

जो ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध करते हैं
अर्थात् ईश्वर को छोड़ देते हैं;
वे जन्म-मरण के दुःखों को भोगते हैं।

इसलिये प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि
परमात्मा को सब जगह व्यापक जाने,
तो उसके विरुद्ध करने से
दुःख की उत्पत्ति को समझकर
कभी पाप करने के लिये उद्यत न हो।

किसीका धन लेने की इच्छा न करे;
क्योंकि परमात्मा का नियम है कि
प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार भोग मिलता है और
कोई मनुष्य उसके विरुद्ध अपनी इच्छा से भोग प्राप्त नहीं कर सकता।

इसलिये दूसरे का धन लेने की इच्छा से पाप तो अवश्य होगा और
भोग में कुछ भी अन्तर नहीं आयेगा।

इसीको बिना लाभ का पाप कहते हैं।


ईश्वर कहाँ है?

प्रश्न:
यद्यपि वेद-मंत्र से ईश्वर का सर्व-व्यापी होना पाया जाता है;
परन्तु हम ईश्वर को कहीं नहीं देखते।
वेद-मंत्र को माने या अपनी आँखों से देखी हुई वस्तुओं का विश्वास करें।
यदि ईश्वर है, तो कहाँ है?

उत्तर:
बहुत सी वस्तुएँ हैं, जो सूक्ष्मता और
दूरी इत्यादि के कारण प्रतीत नहीं होती,
लेकिन उनकी सत्ता को सब मनुष्य मानते हैं,
जैसे बुद्धि, आत्मा, दुख इत्यादि हैं।

इससे सिद्ध है कि संसार में ऐसी वस्तुएँ विद्यमान हैं,
जिनको मनुष्य इन्द्रियों से नहीं जान सकते;
उनमें से एक ईश्वर है।

यह प्रश्न कि ईश्वर कहाँ है; नितान्त अशुद्ध है,
क्योंकि कहाँ का शब्द एक देशी के लिये आता है और
वेद-मंत्र ने ईश्वर को सर्वव्यापक बताया है।

जैसे कोई कहे कि दूध में घी
या मिश्री में मिठास कहाँ है;
तो उत्तर होगा सर्वत्र।

इससे कहाँ का आक्षेप
एक देशी वस्तुओं के लिये उचित प्रतीत होता है।
सर्वव्यापी के लिये नहीं।


ईश्वर में आस्था और धन

प्रश्न:
जो मनुष्य ईश्वर को नहीं मानते,
वे अधिक धनी प्रतीत होते हैं;
इससे प्रतीत होता है कि ईश्वर के मानने से
दरिद्रता और दुख प्राप्त होते हैं।

उत्तर:
प्रथम तो यह प्रश्न ठीक नहीं कि
नास्तिक मनुष्य अधिक धनी होते हैं।

क्योंकि ईसाई. यहूदी जो ईश्वर की सत्ता को मानते हैं,
बड़े-बड़े धनी देखे जाते हैं।

दूसरे धनी होना कोई अच्छी बात नहीं;

किन्तु जितने धनी देखे जाते हैं,
उन सबमें और अधिक बुराइयाँ देखी जाती हैं।

वेदों के मानने वाले तो इस प्रकार के धन को
जिससे मुक्ति के मार्ग में बाधा के अतिरिक्त
अन्य कोई लाभ प्राप्त नहीं होता, बुरा मानते हैं।


धन, लोभ, मोह और साथ में ईश्वर की प्राप्ति, क्या संभव है?

प्रश्न:
क्या कोई मनुष्य बिना धन के
सिद्ध मनोरथ हो सकता है?

उत्तर:
संसार में तो मनुष्य के लिये धन की आवश्यकता प्रतीत होती है,
परन्तु उससे मनुष्य अपने नियत स्थान से नितान्त दूर हो जाता है।

जो लोग संसार और ईश्वर दोनों एक साथ प्राप्त करना चाहते हैं,
वे बड़े मुर्ख है।


धन संग्रह और मुक्ति

प्रश्न:
क्या वेदों में धन कमाने की आज्ञा नहीं है?

उत्तर:
वेदों में प्रत्येक वस्तु के विषय में,
जिससे जीवन का काम पड़ता है वर्णन है।

नीच मनुष्य ही सिर्फ धन की इच्छा करते है।

परन्तु वेदों में धन को
कहीं मुक्ति का कारण नहीं लिखा।

किन्तु योगाभ्यास और वैराग्य को
मुक्ति का कारण बताया है।

वैराग्य का अर्थ सब सांसारिक वस्तुओं की इच्छा छोड़ना है।

जो मनुष्य सांसारिक वस्तुओं की इच्छा में फँसे हैं, वही ईश्वर
की आज्ञा के विरुद्ध कार्य करते हैं।
जितने झगड़े संसार में फैले हैं;
उन सबका कारण दूसरों का अधिकार लेना है।

यदि मनुष्य केवल इसी वेद-मंत्र के समान आचरणवाले हो जावें,
तो लड़ाई-झगड़े सब दूर हो जावें;
चोरी, लूट-मार और ठगी का नितान्त अन्त हो जावे।

तात्पर्य यह है कि जितनी बुराइयाँ संसार में दिखाई देती हैं,
कहीं उनका चिन्ह भी न दिखाई दे और
प्रत्येक मनुष्य संसार में स्वर्ग से बढ़कर आनन्द उठाये।


कर्म – अच्छे और बुरे कर्म

प्रश्न:
क्या ईश्वर के भय से वैराग्य ग्रहण करके
कर्मों को नितान्त त्याग देना चाहिये?

उत्तर:
इस वेद-मंत्र में परमात्मा
जीव को इस बात का उपदेश करते हैं कि, हे जीवो!
तुम इस संसार में सौ वर्ष तक
कार्य करते हुए जीने को इच्छा करो,
अर्थात् पूर्ण आयु पर्यंत कार्य करते रहो।

तुम्हारे लिये सबसे अच्छा मार्ग यही है।

क्योंकि अच्छे कर्म, जीव के बन्धन का कारण नहीं होते।

बहुत से मनुष्य यह कहते है कि
मंत्र में तो केवल कर्म लिखे हैं,
अच्छे किस प्रकार कहते हो;

तो इसका उत्तर यह है कि ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध
दूसरों का अधिकार लेनेवाले कर्मों के करने का निषेध
पिछले मंत्र में हो चुका है।

उनको छोड़कर जो कर्म हैं,
वह सब ईश्वर की आज्ञा के अनुसार होने से शुभ ही हैं।

किसी प्रकार की बुराई हो नहीं सकती,
क्योंकि ईश्वर कभी दुःखदायक कर्म के करने का उपदेश
जीव को नहीं करते और
कर्म के उपदेश का तात्पर्य भी यही है।


मनुष्य प्रत्येक क्षण कर्म करता है

मनुष्य सदा अच्छा या बुरा
कुछ न कुछ कार्य करता रहता है,
इसलिये कर्म के उपदेश की कोई आवश्यकता न थी;

परन्तु पहले मंत्र में
किसीका अधिकार न लेनेवाले कर्मों का उपदेश
इसलिये किया कि बिना शुभ कर्मों के किये
मनुष्य बुरे कर्मों से बच नहीं सकता।

बुरे कर्मों से सदा दुःख उत्पन्न होता है और
कोई मनुष्य दुःख की इच्छा से कोई कार्य नहीं करता।

इस सब बुराई को दूर करने के लिये उपदेश किया कि
किसी समय भी शुभ कार्य से वंचित न रहो,
जिससे अवकाश मिलने से बुरे कार्य का विचार ही उत्पन्न न हो;
क्योंकि मन सदा कर्म करता रहता है।

वह किसी समय भी कर्म से पृथक् नहीं होता।

जिस समय उसे शुभ कार्य से छुट्टी मिलेगी,
उसी समय मनुष्य के नाश करनेवाले कार्यों में लग जायगा।


मन और कर्म

इसलिये उस मन को परोपकार के कार्य में लगाये बिना,
संसार को बुराइयों से बच नहीं सकते।

और बुरे कार्य छोड़े बिना,
जिसके अंत में आपत्ति और दुःख है,
किसी शुभ परिणाम की आशा नहीं कर सकते।

मनुष्य के अपने कार्य इतने कम हैं कि
मन उनको बहुत शीघ्र समाप्त कर लेता है।

भगवान रामचन्द्रजी ने भी
हनुमानजी को यही उपदेश किया था कि
इच्छा की नदी शुभ और अशुभ इच्छा रूप दो मार्गों पर जाती है।

जो इच्छा ईश्वर की आज्ञा के अनुसार हो वह शुभ है और
जो उसके विरुद्ध है, बुरी इच्छा है।


बुरे कर्मों से बचने का सरल तरीका

इसलिये ईश्वर को सर्व व्यापी समझकर और
यह सोचकर कि उसकी आज्ञा के विरुद्ध कार्य करने से दुःख भोगना पड़ेगा स्वार्थता और दूसरों का अधिकार छीनने को छोड़कर
परोपकार और दूसरों की भलाई के कार्य करना चाहिये।

जो मनुष्य दूसरों को भलाई के कार्य करते हैं,
वह सदा सुख से रहते हैं।

इसलिये परोपकार की इच्छा, जो अच्छी है,
सदा मन में रखकर संसार के उपकार पर कमर बाँधनी चाहिये।

जब तक प्राण रहें,
कभी उस उपकार के कार्य से पृथक् होकर
जीवन व्यतीत नहीं करना चाहिये,

क्योंकि मनुष्य-जीवन इतना बहुमूल्य है कि
उसका बारबार मिलना अत्यन्त कठिन है।

जो मनुष्य ईश्वर की चिन्ता न करके
मनुष्य-जीवन को व्यर्थ कार्यों में खो रहे हैं;
उनसे बढ़कर मूर्ख कोई नहीं और

जो दूसरों को हानि पहुँचाकर
लाभ प्राप्त करना चाहते हैं, वह पूरे पशु हैं।

वही मनुष्य बुद्धिमान् कहलाते हैं,
जो सदा परोपकार के कार्यों में लगे रहते हैं,
जिनके जीवन का उद्देश्य ही दूसरों की भलाई करना है और
जो बिना स्वार्थ संसार के उपकार में लगे रहते हैं।

वही प्राणी ईश्वर-ज्ञान को पाते हैं,
जो शुभ कार्य दूसरों की भलाई के लिये करते हैं।

वह कभी बंधन का कारण नहीं होते।

बंधन के कारण वही कर्म होते हैं,
जो ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध किये जाते हैं और
जिनमें दूसरों का अधिकार लेने का विचार उपस्थित है।

बस, जो मनुष्य अपने जीवन को परोपकार में बितायेगे,
वही संसार के बुरे कर्मों से बचकर
शुभ कर्मों से मन को शुद्ध करके
तत्त्वज्ञान को ग्रहण करके मुक्ति के अधिकारी होंगे

स्वामी दर्शनानंद सरस्वती