भगवान् शिव के विभिन्न स्वरूपोंका और गुणोंका ध्यान

ध्यान के लिए उपयोगी – भगवान् शिव के विभिन्न स्वरूपोंका और गुणोंका ध्यान

भगवान् शिव का ध्यान करने वालों के लिए
यह पेज बहुत उपयोगी है।

क्योंकि इस पेज में
भगवान् शिव के 15 स्वरूपों का, जैसे की
भगवान् सदाशिव, महामहेश्वर, भगवान् शंकर,
भगवान् महाकाल, श्रीनीलकण्ठ, महामृत्युञ्जय आदि का
सरल शब्दों में ध्यान दिया गया है।

ॐ नमः शिवाय


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में भगवान् शिव के
सभी 15 स्वरूपों के बारे में 
संस्कृत श्लोक और उनके अर्थ दिए गए हैं।

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भगवान् सदाशिव

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यो धत्ते भुवनानि सप्त गुणवान् स्रष्टा
रज:संश्रय: संहर्ता तमसान्वितो गुणवतीं
मायामतीत्य स्थित:। 
सत्यानन्दमनन्तबोधममलं ब्रह्मादिसंज्ञास्पदं नित्यं
सत्त्वसमन्वयादधिगतं पूर्णं शिवं धीमहि॥

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भगवान् सदाशिव

जो रजोगुणका आश्रय लेकर
संसारकी सृष्टि करते हैं,

सत्त्वगुणसे सम्पन्न हो
सातों भुवनोंका धारण- पोषण करते हैं,

तमोगुणसे युक्त हो
सबका संहार करते हैं

तथा त्रिगुणमयी मायाको लाँघकर
अपने शुद्ध स्वरूपमें स्थित रहते हैं,

उन सत्यानन्दस्वरूप, अनन्त बोधमय,
निर्मल एवं पूर्णब्रह्म शिवका हम ध्यान करते हैं।

वे ही सृष्टिकालमें ब्रह्मा,
पालनके समय विष्णु और
संहारकालमें रुद्र नाम धारण करते हैं
तथा सदैव सात्त्विकभावको अपनानेसे ही प्राप्त होते हैं।

भगवान् सदाशिव को नमस्कार

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परमात्मप्रभु शिव

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वेदान्तेषु यमाहुरेकपुरुषं व्याप्य स्थितं
रोदसी यस्मिन्नीश्वर इत्यनन्यविषय: शब्दो यथार्थाक्षर:। 
अन्तर्यश्च मुमुक्षुभिर्नियमित- प्राणादिभिर्मृग्यते स
स्थाणु: स्थिरभक्तियोगसुलभो नि:श्रेयसायास्तु व:॥

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परमात्मप्रभु शिव

वेदान्तग्रन्थोंमें जिन्हें
एकमात्र परम पुरुष परमात्मा कहा गया है,

जिन्होंने समस्त पृथ्वीको अन्तर्बाह्य –
सर्वत्र व्याप्त कर रखा है।

जिन एकमात्र महादेवके लिये “ईश्वर ” शब्द
अक्षरश: यथार्थरूपमें प्रयुक्त होता है और
जो किसी दूसरेके विशेषणका विषय नहीं बनता,

अपने अन्तर्हृदयमें समस्त प्राणोंको निरुद्ध करके
मोक्षकी इच्छावाले योगीजन
जिनका निरन्तर चिन्तन और
अन्वेषण करते रहते हैं,

वे नित्य एक समान सुस्थिर रहनेवाले,
महाप्रलयमें भी विक्रियाको प्राप्त न होनेवाले और
भक्तियोगसे शीघ्र प्रसन्न होनेवाले भगवान् शिव
सभीका परम कल्याण करें।

परमात्मप्रभु शिव को नमस्कार

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मङ्गलस्वरूप भगवान् शिव

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कृपाललितवीक्षणं स्मितमनोज्ञवक्त्राम्बुजं
शशाङ्ककलयोज्ज्वलं शमितघोरतापत्रयम्। 
करोतु किमपि स्फुरत्परमसौख्यसच्चिद्वपु-
र्धराधरसुताभुजोद्वलयितं महो मङ्गलम्॥

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मंगलस्वरूप भगवान् शिव

जिनकी कृपापूर्ण चितवन बड़ी ही सुन्दर है,
जिनका मुखारविन्द मन्द मुसकानकी छटासे
अत्यन्त मनोहर दिखायी देता है,
जो चन्द्रमाकी कला- जैसे परम उज्ज्वल हैं,

जो आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंको
शान्त कर देनेमें समर्थ हैं,

जिनका स्वरूप सच्चिन्मय
एवं परमानन्दरूपसे प्रकाशित होता है

तथा जो गिरिराजनन्दिनी पार्वतीके
भुजापाशसे आवेष्टित हैं,

वे शिव नामक अनिर्वचनीय तेज:पुंज
सबका मंगल करें।

मंगलस्वरूप भगवान् शिव को प्रणाम

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भगवान अर्धनारीश्वर

[expand]

नीलप्रवालरुचिरं विलसत्त्रिनेत्रं
पाशारुणोत्पलकपालत्रिशूलहस्तम्। 
अर्धाम्बिकेशमनिशं प्रविभक्तभूषं
बालेन्दुबद्धमुकुटं प्रणमामि रूपम्॥

यो धत्ते निजमाययैव भुवनाकारं विकारोज्झितो
यस्याहुः करुणाकटाक्षविभवौ स्वर्गापवर्गाभिधौ।
प्रत्यग्बोधसुखाद्वयं हृदि सदा पश्यन्ति यं
योगिन- स्तस्मै शैलसुताञ्चितार्धवपुषे शश्वन्नमस्तेजसे॥

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भगवान् अर्धनारीश्वर

श्रीशंकरजीका शरीर नीलमणि और
प्रवालके समान सुन्दर (नीललोहित) है,
तीन नेत्र हैं,
चारों हाथोंमें पाश, लाल कमल,
कपाल और त्रिशूल हैं,
आधे अंगमें अम्बिकाजी और आधेमें महादेवजी हैं।

दोनों अलग- अलग श्रृंगारोंसे सज्जित हैं,
ललाटपर अर्धचन्द्र है और
मस्तकपर मुकुट सुशोभित है,
ऐसे स्वरूपको नमस्कार है।

जो निर्विकार होते हुए भी
अपनी मायासे ही
विराट् विश्वका आकार धारण कर लेते हैं,
स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष)
जिनके कृपा- कटाक्षके ही वैभव बताये जाते हैं
तथा योगीजन जिन्हें सदा अपने हृदयके भीतर
अद्वितीय आत्मज्ञानानन्दस्वरूपमें ही देखते हैं,

जिनका आधा शरीर शैलराजकुमारी पार्वतीसे सुशोभित है,
उन तेजोमय भगवान् शंकरको,
निरन्तर मेरा नमस्कार है।

भगवान् अर्धनारीश्वर को नमस्कार

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भगवान् शंकर

[expand]

वन्दे वन्दनतुष्टमानसमतिप्रेमप्रियं प्रेमदं
पूर्णं पूर्णकरं प्रपूर्णनिखिलैश्वर्यैकवासं शिवम्। 
सत्यं सत्यमयं त्रिसत्यविभवं सत्यप्रियं सत्यदं
विष्णुब्रह्मनुतं स्वकीयकृपयोपात्ताकृतिं शंकरम्॥

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भगवान् शंकर

वन्दना करनेसे जिनका मन प्रसन्न हो जाता है,
जिन्हें प्रेम अत्यन्त प्यारा है,
जो प्रेम प्रदान करनेवाले, पूर्णानन्दमय,
भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करने- वाले,
सम्पूर्ण ऐश्वर्योंके एकमात्र आवासस्थान और
कल्याणस्वरूप हैं।

सत्य जिनका श्रीविग्रह है,
जो सत्यमय हैं,
जिनका ऐश्वर्य त्रिकालाबाधित है,
जो सत्यप्रिय एवं सत्यप्रदाता हैं,
ब्रह्मा और विष्णु जिनकी स्तुति करते हैं,
स्वेच्छानुसार शरीर धारण करनेवाले
उन भगवान् शंकरकी मैं वन्दना करता हूँ।

भगवान् अर्धनारीश्वर को नमस्कार

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गौरीपति भगवान् शिव

[expand]

विश्वोद्भवस्थितिलयादिषु हेतुमेकं
गौरीपतिं विदिततत्त्वमनन्तकीर्तिम्। 
मायाश्रयं विगतमायमचिन्त्यरूपं
बोधस्वरूपममलं हि शिवं नमामि॥

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गौरीपति भगवान् शिव

जो विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और
लय आदिके एकमात्र कारण हैं,

गौरी गिरिराजकुमारी उमाके पति हैं,

तत्त्वज्ञ हैं, जिनकी कीर्तिका कहीं अन्त नहीं है,

जो मायाके आश्रय होकर भी
उससे अत्यन्त दूर हैं

तथा जिनका स्वरूप अचिन्त्य है,
उन विमल बोधस्वरूप भगवान् शिवको
मैं प्रणाम करता हूँ।

गौरीपति भगवान् शिव को नमस्कार

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महामहेश्वर

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ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्ंग परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्। 
पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं
वसानं विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्॥

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महामहेश्वर

चाँदीके पर्वतके समान जिनकी श्वेत कान्ति है,
जो सुन्दर चन्द्रमाको आभूषणरूपसे धारण करते हैं,
रत्नमय अलंकारोंसे जिनकाशरीर उज्ज्वल है,

जिनके हाथोंमें परशु तथा मृग,
वर और अभय मुद्राएँ हैं,

जो प्रसन्न हैं,
पद्मके आसनपर विराजमान हैं,

देवतागण जिनके चारों ओर खड़े होकर
स्तुति करते हैं,

जो बाघकी खाल पहनते हैं,

जो विश्वके आदि, जगत्‌की उत्पत्तिके बीज और
समस्त भयको हरनेवाले हैं,

जिनके पाँच मुख और
तीन नेत्र हैं, उन महेश्वरका
प्रतिदिन ध्यान करना चाहिये।

भगवान् महामहेश्वर को नमस्कार

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पञ्चमुख सदाशिव

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मुक्तापीतपयोदमौक्तिकजवावर्णैर्मुखै:
पञ्चभि- स्त्र्यक्षैरञ्चितमीशमिन्दुमुकुटं पूर्णेन्दुकोटिप्रभम्। 
शूलं टङककृपाणवज्रदहनान् नागेन्द्रघण्टाङ्कुशान्
पाशं भीतिहरं दधानममिताकल्पोज्ज्वलं चिन्तयेत्॥

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पंचमुख सदाशिव

जिन भगवान् शंकरके पाँच मुखोंमें क्रमश:
ऊर्ध्वमुख गजमुक्ताके समान हलके लाल रंगका,
पूर्व- मुख पीतवर्णका,
दक्षिण- मुख सजल मेघके समान नील- वर्णका
पश्चिम- मुख मुक्ताके समान कुछ भूरे रंगका और
उत्तर- मुख जवापुष्पके समान प्रगाढ़ रक्तवर्णका है,

जिनकी तीन आँखें हैं और
सभी मुखमण्डलोंमें नीलवर्णके मुकुटके साथ
चन्द्रमा सुशोभित हो रहे है,

जिनके मुखमण्डलकी आभा
करोड़ों पूर्ण चन्द्रमाके तुल्य आह्लादित करनेवाली है,

जो अपने हाथोंमें क्रमश:
त्रिशूल टंक (परशु), तलवार, वज्र,
अग्नि नागराज, घण्टा, अंकुश, पाश
तथा अभयमुद्रा धारण किये हुए हैं

एवं जो अनन्त कल्पवृक्षके समान कल्याणकारी हैं,
उन सर्वेश्वर भगवान् शंकरका ध्यान करना चाहिये।

भगवान् पंचमुख सदाशिव को नमस्कार

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अम्बिकेश्वर

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आद्यन्तमङ्गलमजातसमानभाव- मार्यं
तमीशमजरामरमात्मदेवम्। 
पञ्चाननं प्रबलपञ्चविनोदशीलं सम्भावये
मनसि शंकरमम्बिकेशम्॥

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अम्बिकेश्वर

जो आदि और अन्तमें (तथा मध्यमें भी) नित्य मंगलमय हैं,
जिनकी समानता अथवा तुलना कहीं भी नहीं है,

जो आत्माके स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले देवता (परमात्मा) हैं,
जिनके पाँच मुख हैं और
जो खेल- ही- खेलमें – अनायास
जगत्‌की रचना, पालन और संहार
तथा अनुग्रह एवं तिरोभावरूप पाँच प्रबल कर्म करते रहते हैं,

उन सर्वश्रेष्ठ अजर- अमर
ईश्वर अम्बिकापति भगवान् शंकरका
मैं मन- ही- मन चिन्तन करता हूँ।

भगवान् अम्बिकेश्वर को नमस्कार

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पार्वतीनाथ भगवान् पञ्चानन

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शूलाही टङ्कघण्टासिश्रृणिकुलिशपाशाग्न्यभीतीर्दधानं
दोर्भिः शीतांशुखण्डप्रतिघटितजटाभारमौलिं त्रिनेत्रम्। 
नानाकल्पाभिरामापघनमभिमतार्थप्रदं
सुप्रसन्नं पद्मस्थं पञ्चवक्त्रं स्फटिकमणिनिभं
पार्वतीशं नमामि॥

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पार्वतीनाथ भगवान् पंचानन

जो अपने करकमलों में क्रमश:
त्रिशूल, सर्प, टंक (परशु), घण्टा, तलवार
अंकुश वज्र, पाश, अग्नि तथा अभयमुद्रा धारण किये हुए हैं,

जिनका प्रत्येक मुखमण्डल द्वितीया के चन्द्रमासे युक्त
जटाओंसे सुशोभित हो रहा है,

जिनके चन्द्रमा सूर्य और अग्नि – ये तीन नेत्र हैं,
जो अनेक कल्पवृक्षोंके समान
अपने भक्तोंको स्थिर रहनेवाले मनोरथोंसे
परिपूर्ण कर देते हैं और
जो सदा अत्यन्त प्रसन्न ही रहते हैं,

जो कमलके ऊपर विराजित हैं,
जिनके पाँच मुख हैं
तथा जिनका वर्ण स्फटिकमणिके समान
दिव्य प्रभासे आभासित हो रहा है,
उन पार्वतीनाथ भगवान् शंकरको मैं नमस्कार करता हूँ।

पार्वतीनाथ भगवान् पंचानन को नमस्कार

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भगवान् महाकाल

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स्रष्टारोऽपि प्रजानां प्रबलभवभयाद् यं नमस्यन्ति
देवा यश्चित्ते सम्प्रविष्टोऽप्यवहितमनसां ध्यानमुक्तात्मनां च। 
लोकानामादिदेव: स जयतु भगवाञ्छ्रीमहाकालनामा
बिभ्राण: सोमलेखामहिवलययुतं व्यक्तलिङ्गं कपालम्॥

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भगवान् महाकाल

प्रजाकी सृष्टि करनेवाले प्रजापति देव भी
प्रबल संसार- भयसे मुक्त होनेके लिये
जिन्हें नमस्कार करते हैं,

जो सावधानचित्तवाले
ध्यानपरायण महात्माओंके हृदयमन्दिरमें
सुखपूर्वक विराजमान होते हैं

और चन्द्रमाकी कला, सर्पोंके कंकण
तथा व्यक्त चिह्नवाले कपालको धारण करते हैं,

सम्पूर्ण लोकोंके आदिदेव
उन भगवान् महाकालकी जय हो।

भगवान् महाकाल को नमस्कार

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श्रीनीलकण्ठ

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बालार्कायुततेजसं धृतजटाजूटेन्दुखण्डोज्ज्वलं
नागेन्द्रैः कृतभूषणं जपवटीं शूलं कपालं करैः। 
खट्वाङ्गं दधतं त्रिनेत्रविलसत्पञ्चाननं सुन्दरं।
व्याघ्रत्वक्परिधानमब्जनिलयं श्रीनीलकण्ठं भजे॥

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श्रीनीलकण्ठ

भगवान् श्रीनीलकण्ठ
दस हजार बालसूर्योंके समान तेजस्वी हैं,
सिरपर जटाजूट, ललाटपर अर्धचन्द्र और
मस्तकपर सर्पोंका मुकुट धारण किये हैं,
चारों हाथोंमें जपमाला, त्रिशूल,
नर- कपाल और खट्‌वांग- मुद्रा है।

तीन नेत्र हैं, पाँच मुख हैं,
अति सुन्दर विग्रह है, बाघम्बर पहने हुए हैं और
सुन्दर पद्मपर विराजित हैं।

इन श्रीनीलकण्ठदेवका भजन करना चाहिये।

भगवान् श्रीनीलकण्ठ को प्रणाम

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पशुपति

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मध्याह्नार्कसमप्रभं शशिधरं भीमाट्टहासोज्ज्वलं
त्र्यक्षं पन्नगभूषणं शिखिशिखाश्मश्रुस्फुरन्मूर्धजम्। 
हस्ताब्जैस्त्रिशिखं समुद्‌गरमसिं शक्तिं दधानं
विभुं दंष्ट्राभीमचतुर्मुखं पशुपतिं दिव्यास्त्ररूपं स्मरेत्॥

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पशुपति

जिनकी प्रभा मध्याह्नकालीन सूर्यके समान
दिव्य रूपमें भासित हो रही है,

जिनके मस्तकपर चन्द्रमा विराजित है,

जिनका मुखमण्डल
प्रचण्ड अट्टहाससे उद्‌भासित हो रहा है,

सर्प ही जिनके आभूषण हैं
तथा चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि –
ये तीन जिनके तीन नेत्रोंके रूपमें अवस्थित हैं,

जिनकी दाढ़ी और सिरकी जटाएँ
चित्र- विचित्र रंगके मोरपंखके समान स्फुरित हो रही हैं,

जिन्होंने अपने करकमलोंमें त्रिशूल, मुद्‌गर,
तलवार तथा शक्तिको धारण कर रखा है और
जिनके चार मुख तथा दाढ़ें भयावह हैं,

ऐसे सर्वसमर्थ, दिव्य रूप
एवं अस्त्रोंको धारण करनेवाले
पशुपतिनाथका ध्यान करना चाहिये।

भगवान् पशुपतिनाथ को नमस्कार

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भगवान् दक्षिणामूर्ति

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मुद्रां भद्रार्थदात्रीं सपरशुहरिणां बाहुभिर्बाहुमेकं
जान्वासक्तं दधानो भुजगवरसमाबद्धकक्षो वटाध:। 
आसीनश्चन्द्रखण्डप्रतिघटितजट: क्षीरगौरस्त्रिनेत्रो
दद्यादाद्यैः शुकाद्यैर्मुनिभिरभिवृतो भावशुद्धिं भवो व:॥

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भगवान् दक्षिणामूर्ति

जो भगवान् दक्षिणामूर्ति अपने करकमलोंमें
अर्थ प्रदान करनेवाली भद्रामुद्रा,
मृगीमुद्रा और परशु धारण किये हुए हैं और
एक हाथ घुटनेपर टेके हुए हैं,

कटिप्रदेशमें नागराजको लपेटे हुए हैं
तथा वटवृक्षके नीचे अवस्थित हैं,

जिनके प्रत्येक सिरके ऊपर जटाओंमें
द्वितीयाका चन्द्रमा जटित है और
वर्ण धवल दुग्धके समान उज्ज्वल है,

सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि –
ये तीनों जिनके तीन नेत्रके रूपमें स्थित हैं,

जो सनकादि एवं शुकदेव [नारद]
आदि मुनियोंसे आवृत हैं,

वे भगवान् भव शंकर हृदयमें
विशुद्ध भावना (विरक्ति) प्रदान करें।

भगवान् दक्षिणामूर्ति को नमस्कार

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महामृत्युञ्जय

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हस्ताभ्यां कलशद्वयामृतरसैराप्लावयन्तं शिरो
द्वाभ्यां तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्यां वहन्तं परम्। 
अङ्कन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकान्तं शिवं
स्वच्छाम्भोजगतं नवेन्दुमुकुटं देव त्रिनेत्रं भजे॥

हस्ताम्भोजयुगस्थकुम्भयुगलादुद्‌धृत्य तोयं शिर:
सिञ्चन्तं करयोर्युगेन दधतं स्वाङ्के सकुम्भौ करौ।
अक्षस्रङ्मृगहस्तमम्बुजगतं मूर्धस्थचन्द्रस्रव-
त्पीयूषार्द्रतनुं भजे सगिरिजं त्र्यक्षं च मृत्युञ्जयम्॥

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महामृत्युंजय

त्र्यम्बकदेव अष्टभुज हैं।

उनके एक हाथमें अक्षमाला और
दूसरेमें मृगमुद्रा है,
दो हाथोंसे कलशोंमें अमृतरस लेकर
उससे अपने मस्तकको आप्लावित कर रहे हैं और
दो हाथोंसे उन्हीं कलशोंको थामे हुए हैं।

शेष दो हाथ उन्होंने
अपने अंकपर रख छोड़े हैं और
उनमें दो अमृतपूर्ण घट हैं।

वे श्वेत पद्मपर विराजमान हैं,
मुकुटपर बालचन्द्र सुशोभित है,
मुखमण्डलपर तीन नेत्र शोभायमान हैं।

ऐसे देवाधिदेव कैलासपति श्रीशंकरकी
मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

जो अपने दो करकमलोंमें रखे हुए
दो कलशोंसे जल निकालकर
उनसे ऊपरवाले दो हाथोंद्वारा
अपने मस्तकको सींचते हैं।

अन्य दो हाथोंमें दो घड़े लिये उन्हें अपनी गोदमें रखे हुए हैं
तथा शेष दो हाथोंमें रुद्राक्ष एवं मृगमुद्रा धारण करते हैं,
कमलके आसनपर बैठे हैं,
सिरपर स्थित चन्द्रमासे निरन्तर झरते हुए
अमृतसे जिनका सारा शरीर भीगा हुआ है
तथा जो तीन नेत्र धारण करनेवाले हैं,
उन भगवान् मृत्युंजयका,
जिनके साथ गिरिराजनन्दिनी उमा भी विराजमान हैं,
मैं भजन (चिन्तन) करता हूँ।

भगवान् महामृत्युंजय को नमस्कार