Devi Kavach – Durga Kavach – Meaning in Hindi
देवी माहात्म्य के इस देवी कवच – दुर्गा कवच अध्याय में 56 श्लोक आते है।
श्लोक 1 से 16 तक
देवी के कुछ स्वरूपों और वाहनों के बारे में
संक्षिप्त जानकारी दी गयी है।
साथ ही साथ यह भी बताया गया है की
देवी माँ अपने हाथोंमें
विभिन्न अस्त्र-शस्त्र क्यों धारण करती हैं।
बाद में श्लोक 17 से
दुर्गा देवी कवच प्रारम्भ होता है,
जिसमें भक्त,
माँ दुर्गा के स्वरूपों से और उनके भिन्न भिन्न शस्त्रों से
अपने शरीर के प्रत्येक अंग, प्रत्येक भाग की
रक्षा के लिए प्रार्थना करता है।
बाद में श्लोक 43 से
देवी कवच का पाठ कब करना चाहिए
(जैसे की यात्रा से पहले) और
कवच के पाठ के लाभ क्या है
(जैसे की भय से मुक्ति, इच्छाओं की पूर्ति आदि)
यह बताया गया है
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माँ दुर्गा को प्रणाम
इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात
इस लेख में दुर्गा कवच अध्याय के
सभी 56 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।
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देवी कवच अध्याय के मुख्य प्रसंग
1. देवी कवच विनियोग
2. दुर्गा कवच का पाठ क्यों करना चाहिए?
3. देवियोंके के विभिन्न वाहन और देवीके स्वरुप
4. देवी कवच आरम्भ करने से पहले प्रार्थना
5. देवी कवच आरम्भ
6. देवी कवच पाठ के लाभ
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देवी माँ को प्रणाम
देवी कवच विनियोग
[expand]
अथ देवी कवच
ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः,
अनुष्टुप् छन्दः, चामुण्डा देवता,
अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्,
दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे
सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।
[/expand]
ॐ नमश्चण्डिकायै॥
ॐ इस श्रीचण्डीकवचके,
ब्रह्मा ऋषि,
अनुष्टुप् छन्द,
चामुण्डा देवता,
अङ्गन्यासमें कही गई माताएं बीज,
दिग्बन्ध देवता तत्व है।
श्रीजगदम्बाजी की कृपा के लिए
सप्तशती के पाठ के जपमें,
इसका विनियोग किया जाता है।
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ॐ चण्डिका देवीको नमस्कार है।
देवी कवच का पाठ क्यों करना चाहिए
मनुष्योंकी सब प्रकारसे, रक्षा करनेवाला, दुर्गा कवच
[expand]
मार्कण्डेय उवाच –
ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
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मार्कण्डेयजीने कहा –
पितामह! जो इस संसारमें परम गोपनीय
तथा मनुष्योंकी सब प्रकारसे रक्षा करनेवाला है और
जो अबतक आपने दूसरे किसीके सामने प्रकट नहीं किया हो,
ऐसा कोई साधन मुझे बताइये॥१॥
सभी प्राणियोंका का उपकार करनेवाला, और पवित्र, देवी कवच
[expand]
ब्रह्मोवाच –
अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥
[/expand]
ब्रह्माजी बोले –
ब्रह्मन्! ऐसा साधन तो एक देवीका कवच ही है,
जो गोपनीयसे भी परम गोपनीय,
पवित्र तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका उपकार करनेवाला है।
महामुने! उसे श्रवण करो॥२॥
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अम्बा माता को नमस्कार
1. शैलपुत्री, 2. ब्रह्मचारिणी, 3. चन्द्रघण्टा, 4. कूष्माण्डा
[expand]
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥३॥
[/expand]
देवीकी नौ मूर्तियाँ हैं, जिन्हें – नवदुर्गा – कहते हैं।
उनके पृथक्-पृथक् नाम बतलाये जाते हैं।
प्रथम नाम शैलपुत्री है।
दूसरी मूर्तिका नाम ब्रह्मचारिणी है।
तीसरा स्वरूप चन्द्रघण्टा के नामसे प्रसिद्ध है।
चौथी मूर्तिको कूष्माण्डा कहते हैं।
5. स्कन्दमाता, 6. कात्यायनी, 7. कालरात्रि, 8. महागौरी
[expand]
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥
[/expand]
पाँचवीं दुर्गाका नाम स्कन्दमाता है।
देवीके छठे रूपको कात्यायनी कहते हैं।
सातवाँ कालरात्रि और आठवाँ स्वरूप महागौरी के नामसे प्रसिद्ध है।
9. सिद्धिदात्री
[expand]
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥
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नवीं दुर्गाका नाम सिद्धिदात्री है।
ये सब नाम
सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान्के द्वारा ही
प्रतिपादित हुए हैं॥५॥
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नवदुर्गा को प्रणाम
देवीकी कृपा से, सारे दुःख और संकट, दूर हो जाते है, और, भय नहीं लगता
[expand]
अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥
न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥७॥
[/expand]
जो मनुष्य अग्निमें जल रहा हो,
रणभूमिमें शत्रुओंसे घिर गया हो,
विषम संकटमें फँस गया हो तथा
इस प्रकार भयसे आतुर होकर
जो भगवती दुर्गाकी शरणमें प्राप्त हुए हों,
उनका कभी कोई अमंगल नहीं होता॥६॥
युद्धके समय संकटमें पड़नेपर भी,
उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं आती और
उन्हें शोक, दुःख और भयकी प्राप्ति नहीं होती॥७॥
देवी का चिंतन करनेवालों की, देवी सदैव रक्षा करती है
[expand]
यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥
[/expand]
जिन्होंने भक्तिपूर्वक देवीका स्मरण किया है,
उनका निश्चय ही अभ्युदय होता है।
देवेश्वरि! जो तुम्हारा चिन्तन करते हैं,
उनकी तुम निःसन्देह रक्षा करती हो॥८॥
माँ दुर्गा को प्रणाम
देवियोंके के विभिन्न वाहन और देवीके स्वरुप
चामुण्डादेवी, वाराही, ऐन्द्री, वैष्णवीदेवी
[expand]
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥
[/expand]
चामुण्डादेवी,
प्रेतपर आरूढ़ होती हैं।
वाराही,
भैंसेपर सवारी करती हैं।
ऐन्द्री का वाहन,
ऐरावत हाथी है।
वैष्णवीदेवी,
गरुडपर ही आसन जमाती हैं॥९॥
माहेश्वरी, कौमारीका, लक्ष्मीदेवी
[expand]
माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥
[/expand]
माहेश्वरी,
वृषभपर आरूढ़ होती हैं।
कौमारी का वाहन,
मयूर है।
भगवान् विष्णुकी प्रियतमा लक्ष्मीदेवी,
कमलके आसनपर विराजमान हैं और
हाथोंमें कमल धारण किये हुए हैं॥१०॥
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चामुंडा देवी को प्रणाम
ईश्वरीदेवी, ब्राह्मीदेवी
[expand]
श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ॥११॥
[/expand]
वृषभपर आरूढ़ ईश्वरीदेवीने,
श्वेत रूप धारण कर रखा है।
ब्राह्मीदेवी,
हंसपर बैठी हुई हैं और
सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हैं॥११॥
योगशक्तियोंसे सम्पन्न सभी देवी के रूप
[expand]
इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ॥१२॥
[/expand]
इस प्रकार ये सभी माताएँ
सब प्रकारकी योगशक्तियोंसे सम्पन्न हैं।
इनके सिवा और भी बहुत-सी देवियाँ हैं,
जो अनेक प्रकारके आभूषणोंकी शोभासे युक्त
तथा नाना प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित हैं॥१२॥
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माँ भवानी को प्रणाम
देवियोंके शस्त्र-धारण करने का उद्देश्य
[expand]
दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥१३॥
[/expand]
(देवियोंके शस्त्र-धारणका उद्देश्य श्लोक 13 – 15 में)
ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोधमें भरी हुई हैं और
भक्तोंकी रक्षाके लिये
रथपर बैठी दिखायी देती हैं।
ये शंख, चक्र, गदा, शक्ति, हल और मुसल, और …
भक्तों की रक्षा के लिए, देवी माँ के हाथों में, विभिन्न अस्त्र-शस्त्र
[expand]
खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥१४॥
[/expand]
खेटक और तोमर, परशु
तथा पाश, कुन्त और त्रिशूल
एवं उत्तम शार्ङ्गधनुष आदि अस्त्र-शस्त्र,
अपने हाथोंमें धारण करती हैं।
देवी के अस्त्र शस्त्रों से, राक्षसों का संहार और, भक्तों की रक्षा
[expand]
दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै॥१५॥
[/expand]
दैत्योंके शरीरका नाश करना,
भक्तोंको अभयदान देना और
देवताओंका कल्याण करना –
यही उनके शस्त्र-धारणका उद्देश्य है॥१३-१५॥
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जगतजननी माँ भगवती को प्रणाम
देवी कवच आरम्भ करने से पहले प्रार्थना
[expand]
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ॥१६॥
[/expand]
कवच आरम्भ करनेके पहले
इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये –
महान् रौद्ररूप, अत्यन्त घोर पराक्रम,
महान् बल और महान् उत्साहवाली देवि!
तुम महान् भयका नाश करनेवाली हो,
तुम्हें नमस्कार है॥१६॥
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कल्याणदायिनी शिवा को नमस्कार
देवी कवच आरम्भ
माँ जगदम्बा, ऐन्द्री (इन्द्रशक्ति), अग्निशक्ति
[expand]
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥
[/expand]
तुम्हारी ओर देखना भी कठिन है।
शत्रुओंका भय बढ़ानेवाली जगदम्बिके!
मेरी रक्षा करो।
पूर्व दिशामें, ऐन्द्री (इन्द्रशक्ति),
मेरी रक्षा करे।
अग्निकोणमें, अग्निशक्ति, और… ॥१७॥
- अग्निकोण अर्थात –
- पूर्व और दक्षिण के बीच की दिशा
- पूर्व और दक्षिण का कोना, उपदिशा
वाराही, खड्गधारिणी, वारुणी और मृगवाहिनी
[expand]
दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥
[/expand]
दक्षिण दिशामें वाराही
तथा नैर्ऋत्यकोणमें खड्गधारिणी,
मेरी रक्षा करे।
- नैर्ऋत्यकोण अर्थात –
- दक्षिण पश्चिम उपदिशा
- दक्षिण और पश्चिम के मध्य की दिशा
पश्चिम दिशामें वारुणी और
वायव्यकोणमें मृगपर सवारी करनेवाली देवी,
मेरी रक्षा करे॥१८॥
- वायव्यकोण अर्थात –
- उत्तर और पश्चिम के बीच की दिशा
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विश्वेश्वरि, विश्व का पालन करने वाली,
देवी माँ हमारी रक्षा करो
कौमारी, शूलधारिणीदेवी, ब्रह्माणि, वैष्णवीदेवी
[expand]
उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥१९॥
[/expand]
उत्तर दिशामें कौमारी और
ईशान-कोणमें शूलधारिणीदेवी,
रक्षा करे।
- ईशान-कोण अर्थात –
- उत्तर और पूर्व के बीच की उपदिशा
ब्रह्माणि, तुम ऊपरकी ओरसे मेरी रक्षा करो और
वैष्णवीदेवी, नीचेकी ओरसे मेरी रक्षा करे॥१९॥
चामुण्डादेवी, जया, विजया
[expand]
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना।
जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥
[/expand]
इसी प्रकार चामुण्डादेवी,
दसों दिशाओंमें, मेरी रक्षा करे।
- इस प्रकार दस दिशाएं –
- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण
- ईशान्य (उत्तर और पूर्व का मध्य),
- आग्नेय (पूर्व और दक्षिण का बीच),
- नैर्ऋत्य (दक्षिण और पश्चिम के बीच)
- वायव्य (उत्तर और पश्चिम का मध्य),
- ऊर्ध्व (ऊपर),
- अधः (निचे)
जया, आगेसे और
विजया, पीछेकी ओरसे मेरी रक्षा करे॥२०॥
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अजिता, अपराजिता, उद्योतिनी
[expand]
अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥
[/expand]
वामभागमें, अजिता और
दक्षिणभागमें, अपराजिता, रक्षा करे।
- वामभाग अर्थात –
- बाई ओर, बाएं तरफ
उद्योतिनी शिखाकी रक्षा करे।
- शिखा अर्थात –
- सिर का सबसे ऊपरी भाग
उमा, मेरे मस्तकपर विराजमान होकर रक्षा करे॥२१॥
मालाधरी, यशस्विनी देवी, त्रिनेत्रा, यमघण्टा देवी
[expand]
मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥
[/expand]
ललाटमें, मालाधरी रक्षा करे और
यशस्विनीदेवी, मेरी भौंहोंका संरक्षण करे।
- ललाट मतलब –
- माथा, भाल
- forehead
भौंहोंके मध्यभागमें, त्रिनेत्रा और
नथुनोंकी, यमघण्टादेवी रक्षा करे॥२२॥
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शरणागत वत्सला देवी माँ को नमस्कार
शंखिनी, द्वारवासिनी, कालिकादेवी, भगवती शांकरी
[expand]
शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी ।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी॥२३॥
[/expand]
दोनों नेत्रोंके मध्यभागमें, शंखिनी और
कानोंमें, द्वारवासिनी रक्षा करे।
कालिकादेवी, कपोलोंकी तथा
भगवती शांकरी, कानोंके मूलभागकी रक्षा करे॥२३॥
सुगन्धा, चर्चिका देवी, अमृतकला, सरस्वतीदेवी
[expand]
नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥
[/expand]
नासिकामें, सुगन्धा और
ऊपरके ओठमें, चर्चिकादेवी रक्षा करे।
नीचेके ओठमें, अमृतकला तथा
जिह्वामें, सरस्वतीदेवी रक्षा करे॥२४॥
कौमारी, चण्डिका, चित्रघण्टा, महामाया
[expand]
दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥२५॥
[/expand]
कौमारी, दाँतोंकी और
चण्डिका, कण्ठप्रदेशकी रक्षा करे।
चित्रघण्टा, गलेकी घाँटीकी और
महामाया, तालुमें रहकर रक्षा करे॥२५॥
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वैष्णवी शक्ति रूपा नारायणि देवी को प्रणाम
कामाक्षी, सर्वमंगला, भद्रकाली, धनुर्धरी
[expand]
कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥२६॥
[/expand]
कामाक्षी, ठोढ़ीकी और
सर्वमंगला, मेरी वाणीकी रक्षा करे।
- ठोढ़ी अर्थात –
- chin
- चेहरे का निचला सामनेवाला भाग
भद्रकाली, ग्रीवामें (गलेमें) और
धनुर्धरी, मेरुदण्ड (पृष्ठवंश) में रहकर रक्षा करे॥२६॥
नीलग्रीवा, नलकूबरी, खड्गिनी, वज्रधारिणी
[expand]
नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी॥२७॥
[/expand]
कण्ठके बाहरी भागमें, नीलग्रीवा और
कण्ठकी नलीमें, नलकूबरी रक्षा करे।
दोनों कंधोंमें, खड्गिनी और
मेरी दोनों भुजाओंकी, वज्रधारिणी रक्षा करे॥२७॥
दण्डिनी, अम्बिका, शूलेश्वरी, कुलेश्वरी
[expand]
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ॥२८॥
[/expand]
दोनों हाथोंमें, दण्डिनी और
अंगुलियोंमें, अम्बिका रक्षा करे।
शूलेश्वरी, नखोंकी रक्षा करे।
कुलेश्वरी, कुक्षि (पेट) में रहकर रक्षा करे॥२८॥
महादेवी, शोकविनाशिनी देवी, ललितादेवी, शूलधारिणी
[expand]
स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥
[/expand]
महादेवी, दोनों स्तनोंकी और
शोकविनाशिनीदेवी, मनकी रक्षा करे।
ललितादेवी, हृदयमें और
शूलधारिणी, उदरमें रहकर रक्षा करे॥२९॥
कामिनी, गुह्येश्वरी, पूतना और कामिका, महिषवाहिनी
[expand]
नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी॥३०॥
[/expand]
नाभिमें, कामिनी और
गुह्यभागकी, गुह्येश्वरी रक्षा करे।
पूतना और कामिका, लिंगकी और
महिषवाहिनी, गुदाकी रक्षा करे॥३०॥
भगवती, विन्ध्यवासिनी, महाबलादेवी
[expand]
कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥३१॥
[/expand]
भगवती, कटिभागमें और
विन्ध्यवासिनी, घुटनोंकी रक्षा करे।
सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली महाबलादेवी
दोनों पिण्डलियोंकी रक्षा करे॥३१॥
नारसिंही, तैजसीदेवी, श्रीदेवी, तलवासिनी
[expand]
गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ॥३२॥
[/expand]
नारसिंही, दोनों घुट्ठियोंकी और
तैजसीदेवी, दोनों चरणोंके पृष्ठभागकी रक्षा करे।
श्रीदेवी, पैरोंकी अंगुलियोंमें और
तलवासिनी, पैरोंके तलुओंमें रहकर रक्षा करे॥३२॥
दंष्ट्राकराली देवी, ऊर्ध्वकेशिनी देवी, कौबेरी, वागीश्वरी देवी
[expand]
नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥३३॥
[/expand]
अपनी दाढ़ोंके कारण भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकरालीदेवी, नखोंकी और
ऊर्ध्वकेशिनीदेवी, केशोंकी रक्षा करे।
रोमावलियोंके छिद्रोंमें, कौबेरी और
त्वचाकी, वागीश्वरीदेवी रक्षा करे॥३३॥
पार्वतीदेवी, कालरात्रि, मुकुटेश्वरी
[expand]
रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती ।
अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥३४॥
[/expand]
पार्वतीदेवी, रक्त, मज्जा, वसा,
मांस, हड्डी और मेदकी रक्षा करे।
आँतोंकी, कालरात्रि और
पित्तकी, मुकुटेश्वरी रक्षा करे॥३४॥
पद्मावतीदेवी, चूडामणिदेवी, ज्वालामुखी, अभेद्यादेवी
[expand]
पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु ॥३५॥
[/expand]
मूलाधार आदि कमल-कोशोंमें, पद्मावतीदेवी और
कफमें, चूडामणिदेवी स्थित होकर रक्षा करे।
नखके तेजकी, ज्वालामुखी रक्षा करे।
जिसका किसी भी अस्त्रसे भेदन नहीं हो सकता, वह अभेद्यादेवी,
शरीरकी समस्त संधियोंमें रहकर रक्षा करे॥३५॥
ब्रह्माणि!, छत्रेश्वरी, धर्मधारिणी देवी
[expand]
शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥
[/expand]
ब्रह्माणि, आप मेरे वीर्यकी रक्षा करें।
छत्रेश्वरी, छायाकी
तथा धर्मधारिणी-देवी, मेरे अहंकार, मन और
बुद्धिकी रक्षा करे॥३६॥
वज्रहस्तादेवी, भगवती कल्याणशोभना
[expand]
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥
[/expand]
हाथमें वज्र धारण करनेवाली वज्रहस्तादेवी,
मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान वायुकी रक्षा करे।
कल्याणसे शोभित होनेवाली भगवती कल्याणशोभना,
मेरे प्राणकी रक्षा करे॥३७॥
योगिनीदेवी, नारायणीदेवी
[expand]
रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३८॥
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रस, रूप, गन्ध, शब्द और स्पर्श –
इन विषयोंका अनुभव करते समय,
योगिनीदेवी रक्षा करे तथा
सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी रक्षा सदा,
नारायणीदेवी करे॥३८॥
वाराही, वैष्णवी, लक्ष्मी
[expand]
आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥
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वाराही, आयुकी रक्षा करे।
वैष्णवी, धर्मकी रक्षा करे
तथा चक्रिणी (चक्र धारण करनेवाली) देवी,
यश, कीर्ति, लक्ष्मी, धन तथा विद्याकी रक्षा करे॥३९॥
इन्द्राणि, चंडिका, महालक्ष्मी, भैरवी
[expand]
गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥४०॥
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इन्द्राणि, आप मेरे गोत्रकी रक्षा करें।
चण्डिके!, तुम मेरे पशुओंकी रक्षा करो।
महालक्ष्मी, पुत्रोंकी रक्षा करे और
भैरवी, पत्नीकी रक्षा करे॥४०॥
सुपथा, क्षेमकरी, महालक्ष्मी, विजयादेवी
[expand]
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥
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मेरे पथकी, सुपथा तथा
मार्गकी, क्षेमकरी रक्षा करे।
राजाके दरबारमें, महालक्ष्मी रक्षा करे
तथा सब ओर व्याप्त रहनेवाली विजयादेवी,
सम्पूर्ण भयोंसे मेरी रक्षा करे॥४१॥
पापनाशिनी देवी, मेरी सब ओर से रक्षा करों
[expand]
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥
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देवि! जो स्थान कवचमें नहीं कहा गया है,
अतएव रक्षासे रहित है,
वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो;
क्योंकि तुम विजयशालिनी और पापनाशिनी हो॥४२॥
देवी कवच पाठ के लाभ
यात्रा के पहले दुर्गा कवच का पाठ
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पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥४३॥
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यदि अपने शरीरका भला चाहे,
तो मनुष्य बिना कवचके कहीं एक पग भी न जाय –
कवचका पाठ करके ही यात्रा करे॥४३॥
क्योंकि…
धन लाभ, विजय और इच्छाओं की पूर्ति
[expand]
तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥४४॥
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कवचके द्वारा सब ओरसे सुरक्षित मनुष्य,
जहाँ-जहाँ भी जाता है,
वहाँ-वहाँ उसे धन-लाभ होता है
तथा सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धि करनेवाली
विजयकी प्राप्ति होती है।
वह जिस-जिस वस्तुका चिन्तन करता है,
उस-उसको निश्चय ही प्राप्त कर लेता है।
वह पुरुष इस पृथ्वीपर तुलनारहित,
महान् ऐश्वर्यका भागी होता है॥४४॥
पराजय, शोक और भय से मुक्ति
[expand]
निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥४५॥
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कवचसे सुरक्षित मनुष्य
निर्भय हो जाता है।
युद्धमें उसकी पराजय नहीं होती
तथा वह तीनों लोकोंमें पूजनीय होता है॥४५॥
नियमित, श्रद्धापूर्वक देवी कवच का पाठ
[expand]
इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्।
यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥
दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः।
जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ॥४७॥
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देवीका यह कवच
देवताओंके लिये भी दुर्लभ है।
जो प्रतिदिन नियमपूर्वक, तीनों संध्याओंके समय,
श्रद्धाके साथ इसका पाठ करता है, उसे…॥४६॥
दैवी कला प्राप्त होती है तथा
वह तीनों लोकोंमें कहीं भी पराजित नहीं होता।
इतना ही नहीं,
वह अपमृत्युसे रहित हो,
सौ से भी अधिक वर्षोंतक जीवित रहता है॥४७॥
सभी व्याधियों और रोगों से मुक्ति
[expand]
नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४८॥
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उसकी सम्पूर्ण व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं।
सभी प्रकारके विष दूर हो जाते हैं और
उनका कोई असर नहीं होता॥४८॥
देवी कवच, सभी बुरी चीजों से रक्षा करता है
[expand]
अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले।
भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चोपदेशिकाः ॥४९॥
सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः॥५०॥
ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः ।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥५१॥
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम् ॥५२॥
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इस पृथ्वीपर, मारण-मोहन आदि जितने आभिचारिक प्रयोग होते हैं
तथा इस प्रकारके जितने मन्त्र-यन्त्र होते हैं,
वे सब इस कवचको हृदयमें धारण कर लेनेपर,
उस मनुष्यको देखते ही नष्ट हो जाते हैं।
—-
ये ही नहीं,
पृथ्वीपर विचरनेवाले ग्रामदेवता,
आकाशचारी देवविशेष,
जलके सम्बन्धसे प्रकट होनेवाले गण,
उपदेशमात्रसे सिद्ध होनेवाले निम्नकोटिके देवता,
अपने जन्मके साथ प्रकट होनेवाले देवता,
कुलदेवता, माला (कण्ठमाला आदि),
डाकिनी, शाकिनी,
अन्तरिक्षमें विचरनेवाली अत्यन्त बलवती भयानक डाकिनियाँ,
ग्रह, भूत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस,
ब्रह्मराक्षस, बेताल, कूष्माण्ड और अनिष्टकारक देवता भी,
हृदयमें कवच धारण किये रहनेपर,
उस मनुष्यको देखते ही भाग जाते हैं।
—-
कवचधारी पुरुषको,
राजासे सम्मान-वृद्धि प्राप्त होती है।
यह कवच मनुष्यके तेजकी
वृद्धि करनेवाला और उत्तम है॥४९-५२॥
सुयश, वृद्धि और परिवार के लिए देवी माँ का कवच
[expand]
यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले।
जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥५३॥
यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् ।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥
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कवचका पाठ करनेवाला पुरुष,
अपनी कीर्तिसे विभूषित भूतलपर,
अपने सुयशके साथ-साथ वृद्धिको प्राप्त होता है।
जो पहले कवचका पाठ करके,
उसके बाद, सप्तशती चण्डीका पाठ करता है, उसकी
जबतक वन, पर्वत और काननों सहित, यह पृथ्वी टिकी रहती है,
तबतक यहाँ, पुत्र-पौत्र आदि संतान परम्परा, बनी रहती है॥५३-५४॥
परमपद की प्राप्ति
[expand]
देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥
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फिर देहका अन्त होनेपर वह पुरुष,
भगवती महामायाके प्रसादसे,
उस नित्य परमपदको प्राप्त होता है,
जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है॥५५॥
भगवान् शिव के चरणों में जगह
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लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥५६॥
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वह सुन्दर दिव्य रूप धारण करता और
कल्याणमय शिवके साथ आनन्दका भागी होता है॥५६॥
इति देव्याः कवचं सम्पूर्णम्।
दुर्गा सप्तशती
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