Durga Saptashati – Adhyay 10 in Hindi

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दुर्गा सप्तशती अध्याय 10 में निशुंभ के वध का वर्णन दिया गया है।

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस अध्याय में 32 श्लोक आते हैं।


इस पेज में दुर्गा सप्तशती अध्याय – 10 हिंदी में दिया गया है। इस अध्याय के संस्कृत श्लोक अर्थसहित पढ़ने के लिए क्लिक करें –

दुर्गा सप्तशती अध्याय – 10 श्लोक अर्थसहित


दुर्गा सप्तशती अध्याय 10 का ध्यान

मैं मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण करनेवाली शिवशक्तिस्वरूपा भगवती कामेश्वरीका हृदयमें चिन्तन करता (करती) हूँ।

वे तपाये हुए सुवर्णके समान सुन्दर हैं।

सूर्य, चन्द्रमा और अग्रि – ये ही तीन उनके नेत्र हैं तथा वे अपने मनोहर हाथोंमें धनुष-बाण, अंकुश, पाश और, शूल धारण किये हुए हैं।

ऊं नमश्चंडिकायैः नमः

ऋषि कहते हैं –
हे राजन्! अपने प्राणों के समान प्यारे भाई निशुम्भ को मारा गया देख तथा सारी सेना का संहार होता जान शुम्भ ने कुपित होकर कहा –

दुष्ट दुर्गे! तू बल के अभिमान में आकर झूठ-मूठ का घमंड न दिखा।

तू बड़ी मानिनी बनी हुई है, किंतु दूसरी स्त्रियोंके बल का सहारा लेकर लड़ती है।

देवी बोलीं – ऒ दुष्ट! मैं अकेली ही हूं। इस संसार में मेरे सिवा दूसरी कौन है? देख, ये मेरी ही विभूतियाँ हैं, अत: मुझमें ही प्रवेश कर रही हैं।

तदनंतर ब्रह्माणी आदि समस्त देवियां अंबिका देवी के शरीर में लीन हो गईं।

उस समय केवल अम्बिका देवी ही रह गयीं।

देवी बोलीं – मैं अपनी ऐश्वर्य शक्ति से अनेक रूपों में यहां उपस्थित हुई थी।

उन सब रूपों को मैंने समेट लिया। अब अकेली ही युद्ध में खड़ी हूं। तुम भी स्थिर हो जाऒ।

ऋषि कहते हैं – तदनंतर देवी और शुम्भ दोनों में, सब देवताऒं तथा दानवों के देखते-देखते भयंकर युद्ध छिड़ गया।

बाणों की वर्षा तथा तीखे शस्त्रों एवं दारुण अस्त्रों के प्रहार के कारण उन दोनों का युद्ध, सब लोगों के लिये बड़ा भयानक प्रतीत हुआ।

उस समय अम्बिका देवी ने, जो सैकड़ों दिव्य अस्त्र छोड़े, उसे दैत्यराज शुम्भ ने उनके निवारक अस्त्रों द्वारा काट डाला।

इसी प्रकार शुम्भ ने भी जो दिव्य अस्त्र चलाये; उन्हें परमेश्वरी ने भयंकर हुंकार शब्दके उच्चारण अदिद्वारा, खेल-खेल में ही नष्ट कर डाला।

तब उस असुर ने सैकड़ों बाणों से देवी को आच्छादित कर दिया।

यह देख क्रोध में भरी हुई उन देवीने भी, बाण मारकर उसका धनुष काट डाला।

धनुष कट जाने पर फिर दैत्यराज ने शक्ति हाथ में ली, किंतु देवी ने चक्र से उसके हाथ की शक्ति को भी काट गिराया।

तपश्चात दैत्यों के स्वामी शुम्भ ने सौ चांद वाली चमकती हुई ढाल और तलवार हाथ में ले उस समय देवी पर धावा किया।

उसके आते ही चंडिका ने अपने धनुष से छोड़े हुए तीखे बाणों द्वारा, उसकी सूर्य किरणों के समान उज्वल ढाल और तलवार को तुरंत काट दिया।

फिर उस दैत्य के घोड़े और सारथि मारे गए।

धनुष तो पहले ही कट चुका था; अब उसने अम्बिका को मारने के लिये उद्यत हो भयंकर मुदगर हाथ में लिया।

उसे आते देख देवी ने अपने तीक्ष्ण बाणों से उसका मुद्गर भी काट डाला।

तिसपर भी वह असुर मुक्का तानकर बड़े वेग से देवी की ऒर झपटा।

उस दैत्यराज ने देवी की छाती में मुक्का मारा, तब उन देवी ने भी उसकी छाती में एक चांटा जड़ दिया।

देवी का थप्पड़ खाकर दैत्यराज शुम्भ पृथ्वी पर गिर पड़ा, किंतु पुन: सहसा पूर्ववत उठकर खड़ा हो गया।

फिर वह उछला और देवी को ऊपर ले जाकर आकाश में खड़ा हो गया।

तब चंडिका आकाश में भी बिना किसी आधार के ही शुम्भ के साथ युद्ध करने लगीं।

उस समय दैत्य और चंडिका आकाश में एक-दूसरे से लडऩे लगे।

उनका वह युद्ध, सिद्ध और मुनियों को विस्मय में डालनेवाला हुआ।

फिर अम्बिका ने शुम्भ के साथ बहुत देर तक युद्ध करने के पश्चात उसे उठाकर घुमाया और पृथ्वी पर पटक दिया।

पटके जाने पर पृथ्वी पर आने के बाद वह दुष्टत्मा दैत्य, पुन: चंडिका का वध करने के लिए उनकी ऒर बड़े वेग से दौड़ा।

तब समस्त दैत्यों के राजा शुम्भ को अपनी ऒर आते देख देवी ने त्रिशूल से उसकी छाती छेदकर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया।

देवी के शूल की धार से घायल होने पर उसके प्राण-पखेरू उड़ गए और वह समुद्रों, द्वीपों तथा पर्वतों सहित, समूची पृथ्वी को कंपाता हुआ भूमि पर गिर पड़ा।

उस दुरात्मा के मारे जाने पर सम्पूर्ण जगत् प्रसन्न एवं पूर्ण स्वस्थ हो गया तथा आकाश स्वच्छ दिखाई देने लगा।

पहले जो उत्पातसूचक मेघ और उल्कापात होते थे, वे सब शांत हो गए तथा उस दैत्य के मारे जाने पर नदियाँ भी ठीक मार्ग से बहने लगीं।

उस समय शुम्भ की मृत्यु के बाद सम्पूर्ण देवताऒं का हृदय हर्ष से भर गया और गंधर्वगण मधुर गीत गाने लगे।

दूसरे गंधर्व बाजे बजाने लगे और अप्सराएँ नाचने लगीं।

पवित्र वायु बहने लगी। सूर्य की प्रभा उत्तम हो गई।

अग्निशाला की बुझी हुई आग अपने-आप प्रज्वलित हो उठी तथा सम्पूर्ण दिशाऒं के भयंकर शब्द शांत हो गए।

इस प्रकार, श्रीमार्कंडेय पुराण में सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत, देवीमाहाम्य में, शुम्भ-वध नामक, दसवां अध्याय पूरा हुआ।


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