दुर्गा सप्तशती अध्याय 8 - श्लोक अर्थ सहित

Durga Saptashati – Adhyay 08 – Shlok with Meaning

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इस पेज में दुर्गा सप्तशती अध्याय – 08 के संस्कृत श्लोक अर्थसहित दिए गए है।

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दुर्गा सप्तशती अध्याय – 08 हिंदी में


दुर्गा सप्तशती अध्याय 8 में रक्तबीज-वध का प्रसंग दिया गया है।

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस अध्याय में 63 श्लोक आते हैं।


ॐ अरुणां करुणातरङ्‌गिताक्षीं
धृतपाशाङ्‌कुशबाणचापहस्ताम्।
अणिमादिभिरावृतां मयूखै-
रहमित्येव विभावये भवानीम्॥

ध्यान

मैं अणिमा आदि सिद्धिमयी किरणोंसे सुशोभित, भवानीका ध्यान करता (करती) हूँ।

उनके शरीरका रंग लाल है, नेत्रोंमें करुणा लहरा रही है तथा हाथोंमें पाश, अंकुश, बाण और धनुष शोभा पाते हैं।

ॐ ऋषिरुवाच॥१॥
चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते।
बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्‍वरः॥२॥

मेधा ऋषि कहते हैं – चंड और मुंड नामक असुरों के मारे जाने तथा बहुत-सी सेना का संहार हो जाने पर

ततः कोपपराधीनचेताः शुम्भः प्रतापवान्।
उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश ह॥३॥

असुरराज शुम्भ के मन में बड़ा क्रोध हुआ।

उसने दैत्यों की पूरी सेना को युद्ध के लिए कूच करने की आज्ञा दी।

अद्य सर्वबलैर्दैत्याः षडशीतिरुदायुधाः।
कम्बूनां चतुरशीतिर्निर्यान्तु स्वबलैर्वृताः॥४॥

शुंभ बोला – आज उदायुध नामक छियासी दैत्य-सेनापति, अपनी सेनाऒं के साथ युद्ध के लिए प्रस्थान करें।

कम्बु नाम वाले दैत्यों के चौरासी सेनानायक, अपनी वाहिनीसे घिरे हुए यात्रा करें।

कोटिवीर्याणि पञ्चाशदसुराणां कुलानि वै।
शतं कुलानि धौम्राणां निर्गच्छन्तु ममाज्ञया॥५॥

पचास कोटि वीर्य कुल के और सौ धौम्र-कुल के असुर सेनापति, मेरी आज्ञा से सेना सहित कूच करें।

कालका दौर्हृद मौर्याः कालकेयास्तथासुराः।
युद्धाय सज्जा निर्यान्तु आज्ञया त्वरिता मम॥६॥

कालक, दौहृद, मौर्य और कालकेय असुर भी युद्ध के लिए तैयार हो मेरी आज्ञा से तुरंत प्रस्थान करें।

इत्याज्ञाप्यासुरपतिः शुम्भो भैरवशासनः।
निर्जगाम महासैन्यसहस्रैर्बहुभिर्वृतः॥७॥

भयानक शासन करने वाला असुरराज शुम्भ इस प्रकार आज्ञा दे, सहस्त्रों बड़ी-बड़ी सेनाऒं के साथ युद्धके लिए चला।

आयान्तं चण्डिका दृष्ट्‌वा तत्सैन्यमतिभीषणम्।
ज्यास्वनैः पूरयामास धरणीगगनान्तरम्॥८॥

उसकी अत्यंत भयंकर सेना को आती देख चण्डिका ने अपने धनुष की टंकार से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गुंजा दिया।

ततः सिंहो महानादमतीव कृतवान् नृप।
घण्टास्वनेन तन्नादमम्बिका चोपबृंहयत्॥९॥

राजन! तदनंतर देवी के सिंह ने भी बड़े जोर-जोर से दहाडऩा आरम्भ किया, फिर अम्बिका के घंटे के शब्दों ने उस ध्वनि को और भी बढ़ा दिया।

धनुर्ज्यासिंहघण्टानां नादापूरितदिङ्‌मुखा।
निनादैर्भीषणैः काली जिग्ये विस्तारितानना॥१०॥

धनुष की टंकार, सिंह की दहाड़ और घंटे की ध्वनि से संपूर्ण दिशाएं गूंज उठीं।

उस भयंकर शब्द से काली ने अपने विकराल मुख को और भी बढ़ा लिया तथा इस प्रकार वे विजयिनी हुईं।

तं निनादमुपश्रुत्य दैत्यसैन्यैश्‍चतुर्दिशम्।
देवी सिंहस्तथा काली सरोषैः परिवारिताः॥११॥

उस तुमुल नाद को सुनकर दैत्यों की सेनाऒं ने चारों ऒर से आकर चंडिका देवी, सिंह तथा काली देवी को क्रोधपूर्वक घेर लिया।

एतस्मिन्नन्तरे भूप विनाशाय सुरद्विषाम्।
भवायामरसिंहानामतिवीर्यबलान्विताः॥१२॥

राजन! इसी बीच में असुरों के विनाश तथा देवताऒं के अभ्युदय के लिए –

ब्रह्मेशगुहविष्णूनां तथेन्द्रस्य च शक्तयः।
शरीरेभ्यो विनिष्क्रम्य तद्रूपैश्‍चण्डिकां ययुः॥१३॥

ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु तथा इंद्र आदि देवों की शक्तियां, जो अत्यंत पराक्रम और बल से सम्पन्न थीं, उनके शरीरों से निकलकर उन्हीं के रूप में चंडिका देवी के पास गयीं।

यस्य देवस्य यद्रूपं यथाभूषणवाहनम्।
तद्वदेव हि तच्छक्तिरसुरान् योद्धुमाययौ॥१४॥

जिस देवता का जैसा रूप, जैसी वेश-भूषा और जैसा वाहन है, ठीक वैसे ही साधनों से सम्पन्न हो, उनकी शक्ति असुरों से युद्ध करने के लिए आई।

हंसयुक्तविमानाग्रे साक्षसूत्रकमण्डलुः।
आयाता ब्रह्मणः शक्तिर्ब्रह्माणी साभिधीयते॥१५॥

सबसे पहले हंसयुक्त विमानपर बैठी हुई अक्षसूत्र और कमंडलु से सुशोभित, ब्रह्माजी की शक्ति उपस्थित हुई, जिसे ब्रह्माणी कहते हैं।

माहेश्‍वरी वृषारूढा त्रिशूलवरधारिणी।
महाहिवलया प्राप्ता चन्द्ररेखाविभूषणा॥१६॥

महादेवजी की शक्ति वृषभ पर आरूढ़ हो, हाथों में त्रिशूल धारण किए, महानाग का कंकण पहने, मस्तक में चंद्ररेखा से विभूषित हो वहां आ पहुंची।

कौमारी शक्तिहस्ता च मयूरवरवाहना।
योद्धुमभ्याययौ दैत्यानम्बिका गुहरूपिणी॥१७॥

कार्तिकेयजी की शक्तिरूपा जगदम्बिका, उन्हीं का रूप धारण किए, श्रेष्ठ मयूर पर आरूढ़ हो, हाथ में शक्ति लिए, दैत्यों से युद्ध करने के लिए आयीं।

तथैव वैष्णवी शक्तिर्गरुडोपरि संस्थिता।
शङ्‌खचक्रगदाशाङ्‌र्गखड्‌गहस्ताभ्युपाययौ॥१८॥

इसी प्रकार भगवान विष्णु की शक्ति गरुड़ पर विराजमान हो, शंख, चक्र, गदा, शार्ङ्ग धनुष तथा खड्ग हाथ में लिए वहां आयी।

यज्ञवाराहमतुलं रूपं या बिभ्रतो हरेः।
शक्तिः साप्याययौ तत्र वाराहीं बिभ्रती तनुम्॥१९॥

अनुपम वाराह का रूप धारण करने वाले श्रीहरि की जो शक्ति है, वह भी वाराह-शरीर धारण करके, वहां उपस्थित हुई।

नारसिंही नृसिंहस्य बिभ्रती सदृशं वपुः।
प्राप्ता तत्र सटाक्षेपक्षिप्तनक्षत्रसंहतिः॥२०॥

नारसिंही शक्ति भी नृसिंहके समान शरीर धारण करके वहां आईं।

उसकी गर्दन के बालों के झटके से आकाश के तारे बिखर पड़ते थे।

वज्रहस्ता तथैवैन्द्री गजराजोपरि स्थिता।
प्राप्ता सहस्रनयना यथा शक्रस्तथैव सा॥२१॥

इसी प्रकार इंद्र की शक्ति वज्र हाथ में लिए, गजराज ऐरावत पर बैठकर आईं।

उसके भी सहस्त्र नेत्र थे।

इन्द्रका जैसा रूप है, वैसा ही उसका भी था।

ततः परिवृतस्ताभिरीशानो देवशक्तिभिः।
हन्यन्तामसुराः शीघ्रं मम प्रीत्याऽऽहचण्डिकाम्॥२२॥

तदनंतर उन देव-शक्तियोंसे घिरे हुए महादेवजी ने चंडिका से कहा – मेरी प्रसन्नता के लिए तुम शीघ्र ही इन असुरों का संहार करो।

ततो देवीशरीरात्तु विनिष्क्रान्तातिभीषणा।
चण्डिकाशक्तिरत्युग्रा शिवाशतनिनादिनी॥२३॥

तब देवी के शरीर से अत्यंत भयानक और परम उग्र चंडिका-शक्ति प्रकट हुई, जो सैकड़ों गीदडिय़ों की भांति आवाज करनेवाली थी।

सा चाह धूम्रजटिलमीशानमपराजिता।
दूत त्वं गच्छ भगवन् पार्श्‍वं शुम्भनिशुम्भयोः॥२४॥
ब्रूहि शुम्भं निशुम्भं च दानवावतिगर्वितौ।
ये चान्ये दानवास्तत्र युद्धाय समुपस्थिताः॥२५॥

उस अपराजिता देवी ने धूमिल जटावाले महादेवजी से कहा – भगवन्! आप शुम्भ-निशुम्भ के पास दूत बनकर जाइए,

और उन अत्यंत गर्वीले दानव शुम्भ एवं निशुम्भ दोनों से कहिये। साथ ही उनके अतिरिक्त भी जो दानव युद्ध के लिए वहां उपस्थित हों, उनको भी यह संदेश दीजिए।

त्रैलोक्यमिन्द्रो लभतां देवाः सन्तु हविर्भुजः।
यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ॥२६॥

– दैत्यों! यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो पाताल को लौट जाऒ।
इंद्र को त्रिलोकी का राज्य मिल जाय और देवता यज्ञ भाग का उपभोग करें।

बलावलेपादथ चेद्भवन्तो युद्धकाङ्‌क्षिणः।
तदागच्छत तृप्यन्तु मच्छिवाः पिशितेन वः॥२७॥

यदि बल के घमंड में आकर तुम युद्ध की अभिलाषा रखते हो, तो आऒ।

मेरी शिवाएं (योगिनियाँ) तुम्हारे कच्चे मांस से तृप्त हों।”

यतो नियुक्तो दौत्येन तया देव्या शिवः स्वयम्।
शिवदूतीति लोकेऽस्मिंस्ततः सा ख्यातिमागता॥२८॥

चूंकि उस देवीने भगवान शिव को दूत के कार्य में नियुक्त किया था, इसलिए वह शिवदूती के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुईं।

तेऽपि श्रुत्वा वचो देव्याः शर्वाख्यातं महासुराः।
अमर्षापूरिता जग्मुर्यत्र कात्यायनी स्थिता॥२९॥

वे दैत्य (दानव) भी भगवान शिव के मुंह से देवी के वचन सुनकर क्रोध में भर गए और जहां कात्यायनी विराजमान थीं उस ऒर बढ़े।

ततः प्रथममेवाग्रे शरशक्त्यृष्टिवृष्टिभिः।
ववर्षुरुद्धतामर्षास्तां देवीममरारयः॥३०॥

तदनतर वे दैत्य पहले ही देवी के ऊपर बाण, शक्ति और ऋष्टि आदि अस्त्रों की वृष्टि करने लगे।

सा च तान् प्रहितान् बाणाञ्छूलशक्तिपरश्‍वधान्।
चिच्छेद लीलयाऽऽध्मातधनुर्मुक्तैर्महेषुभिः॥३१॥

तब देवी ने भी खेल-खेल में ही धनुष की टंकार की, और उससे छोड़े हुए बड़े-बड़े बाणों द्वारा दैत्यों के चलाए हुए बाण, शूल, शक्ति और फरसों को काट डाला।

तस्याग्रतस्तथा काली शूलपातविदारितान्।
खट्‌वाङ्‌गपोथितांश्‍चारीन् कुर्वती व्यचरत्तदा॥३२॥

फिर काली उनके आगे होकर, शत्रुऒं को शूल के प्रहार से विदीर्ण करने लगी और खट्वांग से उनका कचूमर निकालती हुई रणभूमि में विचरने लगीं।

कमण्डलुजलाक्षेपहतवीर्यान् हतौजसः।
ब्रह्माणी चाकरोच्छत्रून् येन येन स्म धावति॥३३॥

ब्रह्माणी भी जिस-जिस ऒर दौड़ती उस ऒर अपने कमंडलु का जल छिड़ककर, शत्रुऒं का ऒज और पराक्रम नष्ट कर देती थीं।

माहेश्‍वरी त्रिशूलेन तथा चक्रेण वैष्णवी।
दैत्याञ्जघान कौमारी तथा शक्त्यातिकोपना॥३४॥

माहेश्वरी ने त्रिशूल से तथा वैष्णवी ने चक्र से और अत्यंत क्रोध में भरी हुई कुमार कार्तिकेय की शक्तिने शक्तिसे दैत्यों का संहार आरम्भ किया।

ऐन्द्रीकुलिशपातेन शतशो दैत्यदानवाः।
पेतुर्विदारिताः पृथ्व्यां रुधिरौघप्रवर्षिणः॥३५॥

इंद्र शक्ति के वज्र प्रहार से विदीर्ण हो सैकड़ों दानव रक्त की धारा बहाते हुए पृथ्वी पर सो गए।

तुण्डप्रहारविध्वस्ता दंष्ट्राग्रक्षतवक्षसः।
वाराहमूर्त्या न्यपतंश्‍चक्रेण च विदारिताः॥३६॥

वाराही शक्ति ने कितनों को अपनी थूथुन की मार से नष्ट किया, दाढ़ों के अग्रभाग से कितनों की छाती छेद डाली तथा कितने ही दैत्य चक्र की चोट से विदीर्ण होकर गिर पड़े।

नखैर्विदारितांश्‍चान्यान् भक्षयन्ती महासुरान्।
नारसिंही चचाराजौ नादापूर्णदिगम्बरा॥३७॥

नारसिंही भी दूसरे-दूसरे महा दैत्यों को अपने नखों से विदीर्ण करके खाती और सिंहनाद से दिशाऒं एवं आकाश को गुंजाती हुई युद्ध-क्षेत्र में विचरने लगीं।

चण्डाट्टहासैरसुराः शिवदूत्यभिदूषिताः।
पेतुः पृथिव्यां पतितांस्तांश्‍चखादाथ सा तदा॥३८॥

कितने ही असुर शिवदूती के प्रचंड अट्टाहास से भयभीत हो पृथ्वी पर गिर पड़े और गिरने पर उन्हें शिवदूती ने अपना ग्रास बना लिया।

इति मातृगणं क्रुद्धं मर्दयन्तं महासुरान्।
दृष्ट्‌वाभ्युपायैर्विविधैर्नेशुर्देवारिसैनिकाः॥३९॥

इस प्रकार क्रोध में भरे हुए मातृगणों को नाना प्रकार के उपायों से बड़े-बड़े असुरों का मर्दन करते देख दैत्य सैनिक भाग खड़े हुए।

पलायनपरान् दृष्ट्‌वा दैत्यान् मातृगणार्दितान्।
योद्धुमभ्याययौ क्रुद्धो रक्तबीजो महासुरः॥४०॥

मातृगणो से पीडि़त दैत्यों को युद्ध से भागते देख रक्तबीज नामक महादैत्य, क्रोध में भरकर युद्ध करने के लिए आया।

रक्तबिन्दुर्यदा भूमौ पतत्यस्य शरीरतः।
समुत्पतति मेदिन्यां तत्प्रमाणस्तदासुरः॥४१॥

उसके शरीर से जब रक्त की बूंद पृथ्वी पर गिरती, तब उसी के समान शक्तिशाली एक दूसरा महादैत्य पृथ्वी पर पैदा हो जाता।

युयुधे स गदापाणिरिन्द्रशक्त्या महासुरः।
ततश्‍चैन्द्री स्ववज्रेण रक्तबीजमताडयत्॥४२॥

महाअसुर रक्तबीज हाथ में गदा लेकर इंद्रशक्ति के साथ युद्ध करने लगा।

तब ऐंद्री ने अपने वज्र से रक्तबीज को मारा।

कुलिशेनाहतस्याशु बहु सुस्राव शोणितम्।
समुत्तस्थुस्ततो योधास्तद्रूपास्तत्पराक्रमाः॥४३॥

वज्र से घायल होनेपर उसके शरीर से बहुत रक्त बहने लगा और उससे उसी के समान रूप तथा पराक्रम वाले योद्धा उत्पन्न होने लगे।

यावन्तः पतितास्तस्य शरीराद्रक्तबिन्दवः।
तावन्तः पुरुषा जातास्तद्वीर्यबलविक्रमाः॥४४॥

उसके शरीर से रक्त की जितनी बूंदें गिरीं उतने ही पुरुष उपन्न हो गए।
वे सब रक्तबीजके समान ही वीर्यवान, बलवान् तथा पराक्रमी थे।

ते चापि युयुधुस्तत्र पुरुषा रक्तसम्भवाः।
समं मातृभिरत्युग्रशस्त्रपातातिभीषणम्॥४५॥

वे रक्त से उपन्न होने वाले पुरुष भी भयंकर अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करते हुए वहां मातृगणों के साथ घोर युद्ध करने लगे।

पुनश्‍च वज्रपातेन क्षतमस्य शिरो यदा।
ववाह रक्तं पुरुषास्ततो जाताः सहस्रशः॥४६॥

पुन: वज्र के प्रहार से जब उसका मस्तक घायल हुआ तब रक्त बहने लगा और उससे हजारों पुरुष उपन्न हो गए।

वैष्णवी समरे चैनं चक्रेणाभिजघान ह।
गदया ताडयामास ऐन्द्री तमसुरेश्‍वरम्॥४७॥

वैष्णवी ने युद्ध में रक्तबीज पर चक्र का प्रहार किया तथा ऐंद्री ने उस दैत्य सेनापति को गदा से चोट पहुंचायी।

वैष्णवीचक्रभिन्नस्य रुधिरस्रावसम्भवैः।
सहस्रशो जगद्‌व्याप्तं तत्प्रमाणैर्महासुरैः॥४८॥

वैष्णवी के चक्र से घायल होने पर उसके शरीर से जो रक्त बहा और उससे जो उसी के बराबर आकार वाले, सहस्रों महादैत्य प्रकट हुए, उनके द्वारा संपूर्ण जगत व्याप्त हो गया।

शक्त्या जघान कौमारी वाराही च तथासिना।
माहेश्‍वरी त्रिशूलेन रक्तबीजं महासुरम्॥४९॥

कौमारी ने शक्ति से, वाराही ने खड्ग से और माहेश्वरी ने त्रिशूल से, महादैत्य रक्तबीज को घायल किया।

स चापि गदया दैत्यः सर्वा एवाहनत् पृथक्।
मातॄः कोपसमाविष्टो रक्तबीजो महासुरः॥५०॥

क्रोध में भरे हुए रक्तबीज ने भी गदा से सभी मातृ-शक्तियों पर पृथक्-पृथक् प्रहार किया।

तस्याहतस्य बहुधा शक्तिशूलादिभिर्भुवि।
पपात यो वै रक्तौघस्तेनासञ्छतशोऽसुराः॥५१॥

शक्ति और शूल आदि से अनेक बार घायल होने पर जो उसके शरीर से रक्त की धारा धरती पर गिरी, उससे भी निश्चय ही सैकड़ों असुर उत्पन्न हुए।

तैश्‍चासुरासृक्सम्भूतैरसुरैः सकलं जगत्।
व्याप्तमासीत्ततो देवा भयमाजग्मुरुत्तमम्॥५२॥

इस प्रकार उस महादैत्य के रक्त से प्रकट हुए, असुरों द्वारा सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया।

इससे उन देवताऒं को बड़ा भय हुआ।

तान् विषण्णान् सुरान् दृष्ट्‌वा चण्डिका प्राह सत्वरा।
उवाच कालीं चामुण्डे विस्तीर्णं वदनं कुरु॥५३॥

देवताऒं को उदास देख चंडिका ने काली से शीघ्रतापूर्वक कहा – “चांमुडे! तुम अपना मुख और भी फैलाऒ तथा –

मच्छस्त्रपातसम्भूतान् रक्तबिन्दून्महासुरान्।
रक्तबिन्दोः प्रतीच्छ त्वं वक्त्रेणानेन वेगिना॥५४॥

मेरे शस्त्रपात से गिरने वाले रक्त बिदुऒं और उनसे उपन्न होने वाले महादैत्यों को तुम अपने इस उतावले मुख से खा जाऒ।

भक्षयन्ती चर रणे तदुत्पन्नान्महासुरान्।
एवमेष क्षयं दैत्यः क्षीणरक्तो गमिष्यति॥५५॥

इस प्रकार रक्त से उपन्न होने वाले महादैत्यों का भक्षण करती हुई, तुम रण में विचरती रहो।

ऐसा करने से, उस दैत्य का सारा रक्त क्षीण हो जाने पर वह स्वयं भी नष्ट हो जाएगा।

भक्ष्यमाणास्त्वया चोग्रा न चोत्पत्स्यन्ति चापरे।
इत्युक्त्वा तां ततो देवी शूलेनाभिजघान तम्॥५६॥
मुखेन काली जगृहे रक्तबीजस्य शोणितम्।
ततोऽसावाजघानाथ गदया तत्र चण्डिकाम्॥५७॥

उन भयंकर दैत्यों को जब तुम खा जाऒगी, तब दूसरे नये दैत्य उपन्न नहीं हो सकेंगे।”

काली से यों कहकर चंडिका देवीने शूल से रक्तबीज को मारा और कालीने अपने मुख में उसका रक्त ले लिया।

तब उसने वहां चंडिकापर गदा से प्रहार किया।

न चास्या वेदनां चक्रे गदापातोऽल्पिकामपि।
तस्याहतस्य देहात्तु बहु सुस्राव शोणितम्॥५८॥

किंतु उस गदापात ने देवी को तनिक भी वेदना नहीं पहुंचाई।

रक्तबीज के घायल शरीर से, बहुत-सा रक्त गिरा।

यतस्ततस्तद्वक्त्रेण चामुण्डा सम्प्रतीच्छति।
मुखे समुद्गता येऽस्या रक्तपातान्महासुराः॥५९॥
तांश्‍चखादाथ चामुण्डा पपौ तस्य च शोणितम्।
देवी शूलेन वज्रेण बाणैरसिभिर्ऋष्टिभिः॥६०॥

किंतु ज्यों ही वह गिरा त्यो ही चामुंडा ने उसे अपने मुख में ले लिया।

रक्त गिरने से काली के मुख में जो महादैत्य पैदा हुए, उन्हें भी वह चट कर गयी और उसने रक्तबीज का रक्त भी पी लिया।

तदनंतर देवी ने रक्तबीज को, जिसका रक्त चामुंडा ने पी लिया था, वज्र, बाण, खड्ग तथा ऋष्टि आदि से मार डाला।

जघान रक्तबीजं तं चामुण्डापीतशोणितम्।
स पपात महीपृष्ठे शस्‍त्रसङ्घसमाहतः॥६१॥
नीरक्तश्‍च महीपाल रक्तबीजो महासुरः।
ततस्ते हर्षमतुलमवापुस्त्रिदशा नृप॥६२॥
तेषां मातृगणो जातो ननर्तासृङ्‌मदोद्धतः॥ॐ॥६३॥

राजन्! इस प्रकार शस्त्रों के समुदाय से, आहत और रक्तहीन हुआ, महादैत्य रक्तबीज पृथ्वी पर गिर पड़ा।

नरेश्वर! इससे देवताऒं को अनुपम हर्ष की प्राप्ति हुई और मातृगण उन असुरों के रक्तपान के मद से उद्धत-सा होकर नृत्य करने लगे।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
रक्तबीजवधो नामाष्टमोऽध्यायः॥८॥

इस प्रकार श्रीमार्कंडेय पुराण में, सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत, देवी माहाम्य में, रक्तबीज-वध नामक, आठवां अध्याय पूरा हुआ।


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