गीता के अनुसार मनुष्य का भविष्य कैसे बनता है?

मनुष्य की गति – मन के विचार और उनके परिणाम

भगवद्गीता के कुछ श्लोकों के जरिए भगवान् ने यह बताया कि
कैसे मनुष्य के विचार और उसका आचरण
उसका भविष्य निर्धारित करते है और
उसकी क्या गति होती है।

इस पोस्ट में
गीता के उन श्लोकों का अर्थ दिया गया है और
धर्मग्रंथों और संतों के प्रवचनों के आधार पर
उपाय दिया गया है।


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ऊपर की इमेज में दिए गए शब्द

मनुष्य योनि –

  • 0 – मनुष्य – मनुष्य जीवन

पशु योनि का कारण –

  • 1 – लोभ – जैसे मुझे 10 रुपये चाहिए
  • 2 – मोह – 10 रुपये मिलने के बाद, मुझे और 100 रुपये चाहिए
  • 3 – आसक्ति – ये मेरा पैसा, ये मेरा घर, ये मेरा बच्चा
  • 4 – घमंड – मैने किया, मैने कमाया, मैने घर बनाया
  • 5 – अहंकार – मै, मेरा, मेरी कोई गलती नही, मै सबसे अच्छा

द्वेष, क्रोध जैसे जहर की वजह से जहरीले पशु योनि का कारण –

  • 6 – ईर्ष्या – उसके पास मेरे से ज्यादा कैसे
  • 7 – द्वेष, घृणा – उसने मेरे साथ ऐसे किया, उसने मेरे को ऐसा बोला

फिर राक्षस लोक, नरक लोक का कारण –

  • 8 – क्रोध – मैंने उसके लिए इतना किया और उसने मेरे साथ ऐसा किया, इसलिए क्रोध और झगड़ा
  • 9 – क्रोध, लोभ की वजह से स्थितियां – जैसे चोरी, हत्या, मारना आदि

बार-बार आसुरी योनि, घोर नरक का कारण –

  • 10 – गलतियों का अहसास ना होना,
    अपनी गलतियों के लिए, अपराध के लिए,
    ईश्वर से माफ़ी ना मांगना

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
हे ईश्वर! हमें सद्बुद्धि दो।


गीता के श्लोकों में मन के विचारों का वर्णन

भगवद्गीता के कुछ श्लोकों में
मन में उठने वाले विचार और
उसके परिणामों के बारें में दिया गया है।

उनमे से कुछ श्लोक है –

अध्याय 16 – श्लोक 15 से 21,
अध्याय 13 – श्लोक 21 और
अध्याय 14 – श्लोक 15

निचे उन श्लोकों के
प्रत्येक शब्द का अर्थ और
भावार्थ दिया गया है।

जिसे पढ़ने पर हमें पता चलता है कि
भगवान् ने हमें इन विचारों के बारे में क्या बताया है।


इसका उपाय क्या है?

प्रत्येक क्षण हमारे अंतर्मन में
इनमे से कुछ ना कुछ विचार उठते ही रहते है।

कभी पैसे के लोभ का,
कभी सांसारिक चीजों की इच्छा का,
कभी अहंकार और घमंड का,
तो कभी द्वेष का विचार
हर समय हमारे मन में उठते ही रहते है।

ये विकार जन्म जन्मांतर से
अंतर्मन में इतने गहरे बेठे है,
कि इनको निकालना इतना आसान नहीं है।

—-

तो इन विकारों से कैसे बच सकते है?

इसके लिए हमें ईश्वर, प्रभु, भगवान्,
परमपिता परमेश्वर की सहायता लेनी पड़ती है।

इसलिए सभी धर्मों के ग्रंथो में
प्रार्थना, पश्चाताप को इतना महत्व दिया गया है।

सभी संतों ने ईश्वर से प्रार्थना और
बार बार अपनी गलतियों के लिए
ईश्वर से माफ़ी मांगने के बारे कहा है।

प्रार्थना के कुछ वाक्य जैसे की –

हे ईश्वर! मेरे मन और अंतर्मन को
पवित्र कर देना।

हे ईश्वर! मेरी गलतियां और
मेरे अपराध माफ करना।

—-

हे प्रभु! मेरे मन से द्वेष, घृणा,
ईर्ष्या के विचार (विकार) मिटा दो।

हे ईश्वर! मेरे मन में कभी किसी के लिए
द्वेष, बुरे विचार, घृणा ना आए।

—-

हे ईश्वर! मेरे मन से अहंकार, घमंड
जैसे विकार मिटा दो।

हे परमेश्वर! मेरे मन में कभी
घमंड, अहंकार ना जागे।

—-

हे ईश्वर! मुझे सदबुद्धी दो। मुझे अपने चरणों में जगह दो।
हे ईश्वर! अपने चरणों में हमको सदा रखना।


चित्तानुपश्यना

इसलिए यह महत्वपूर्ण है की
मनुष्य को अपने विचार और आचरण के प्रति
हर क्षण सतर्क रहना जरूरी है।

जैसे विपश्यना के एक अंग
चित्तानुपश्यना (चित्त अनुपश्यना) में
हमें मन के प्रति जागृत रहना पड़ता है और
मन को और प्रत्येक विचार को देखना पड़ता है।

इसका भी ख़याल रखना पड़ता है कि
क्या हमारे कर्म से,
हम जो काम कर रहे है
उससे किसी को दुःख पहुंच रहा है क्या?

क्या मन में किसी के लिए
द्वेष, घृणा के विचार आ रहे है?

क्या मन में खुद के किये हुए कामों का
अहंकार, घमंड आ रहा है।
जैसे मैंने पैसा कमाया, मैंने घर बनाया,
मैंने इतने काम किये, मैं सब कर रहा हूँ आदि।

ॐ नमः शिवाय
हे ईश्वर! हमें सब बन्धनों से मुक्त कर दो।


अध्याय 16

15

आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥

आढ्यः – बड़ा धनी (और)
अभिजनवान् – बड़े कुटुम्बवाला
अस्मि – हूँ।
मया – मेरे
सदृशः – समान
अन्यः – दूसरा
कः – कौन
अस्ति – है?
यक्ष्ये – मैं यज्ञ करूँगा,
दास्यामि – दान दूँगा (और)
मोदिष्ये – आमोद-प्रमोद करूँगा।

मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ।
मेरे समान दूसरा कौन है?
मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और
आमोद-प्रमोद करूँगा॥15॥

आगे श्लोक 16 में
भगवान् ने यह बताया कि
ऐसे अज्ञानी और घमंडी पुरुषों की क्या गति होती है,
यानी की उन्हें बाद में किस प्रकार का जीवन मिलता है।


अहंकार और घमंड

अहंकार, घमंड और अभिमानके परायण होकर
अज्ञानी मनुष्य सोचता है की –
कितना धन मेरे पास है,
कितना सोनाचाँदी, मकान, खेत और
जमीन मेरे पास है।

कितने ऊँचे पदाधिकारी मेरे पक्षमें हैं।
मै धन और लोगोके बलपर,
रिश्वत और सिफारिशके बलपर
जो चाहें वही कर सकता हूँ।

मैं कितना दान देता हूँ,
लोगो का भला करता हूँ।
दानसे मेरा नाम अखबारोंमें छपेगा।

धर्मशाला बनवाऊंगा और
उसमें मेरा नाम खुदवाया जायेगा,
जिससे मेरी यादगारी रहेगी।

इस प्रकार अध्याय 16 के
13, 14, और 15 श्लोकमें वर्णित मनोरथ करनेवाले
यानी की इच्छा वाले मनुष्य अज्ञानसे मोहित रहते हैं।

मूढ़ताके कारण ही
उनकी ऐसे मनोरथवाली वृत्ति होती है।


अहंकार वाले मूढ़ विचार मन में क्यों आते है?

अध्याय 3 श्लोक 38 में भगवान् ने कहा था कि,
जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और
मैल से दर्पण ढँका जाता है,
वैसे ही अज्ञान और इच्छाओं द्वारा ज्ञान ढँका रहता है और
इसी अज्ञान की वजह से ही इस प्रकार के
मूढ़ विचार, अहंकारी विचार उनके मन में आते रहते है।

हरे राम हरे कृष्ण
हे ईश्वर! सब सुखी हों, सबका मंगल हो।


16

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥

इति – इस प्रकार
अज्ञानविमोहिताः – अज्ञानसे मोहित रहनेवाले (तथा)
अनेकचित्तविभ्रान्ताः – अनेक प्रकारसे भ्रमित चित्तवाले
मोहजालसमावृताः – मोहरूप जालसे समावृत (और)
कामभोगेषु – विषयभोगोंमें
प्रसक्ताः – अत्यन्त आसक्त (आसुरलोग)
अशुचौ – महान् अपवित्र
नरके – नरकमें
पतन्ति – गिरते हैं।

इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले
तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले
मोहरूप जाल से समावृत और
विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुरलोग
महान्‌ अपवित्र नरक में गिरते हैं॥16॥


इच्छाएं और मोहजाल

अनेकचित्तविभ्रान्ताः अर्थात
इस प्रकार लोभी और अहंकारी पुरुषों के मन में
कई प्रकार की इच्छाएं और कामनायें जागृत होती रहती है।

और उस एकएक इच्छाकी पूर्तिके लिये
वे अनेक तरहके उपाय ढूंढते हैं
तथा उन उपायोंके विषयमें
निरंतर उनके मन में चिंतन चलता रहता है,
निरंतर मन भटकता रहता है।

मोहजालसमावृताः यानी की
मोहजालसे वे ढके रहते हैं।
जैसे मछली जाल मे फंसी रहती है,
उसी प्रकार वो मनुष्य बंधनों के और
माया के जाल में फंसा रहता है।


इच्छाओं की पूर्ति के बाद भय और फिर दुःख

ऐसे मनुष्यों में
क्रोध और अभिमानके साथसाथ,
संग्रह किये हुए धन को बचाये रखने का भय भी बना रहता है।

शुरुआत में
वह धन और संग्रह की हुई चीजें, सुखदायी लगती है,
बड़ी अच्छी लगती है,
किन्तु कुछ वर्षो के बाद
वही चीजें उसके लिए दुःख का कारण बनती जाती है।

पतन्ति नरकेऽशुचौ अर्थात
मोहजाल उनके लिये जीतेजी ही नरक बन जाता है और
मरनेके बाद उन्हें नरकोंकी प्राप्ति होती है।
उन नरकोंमें भी वे घोर यातनावाले नरकोंमें गिरते हैं।

नरके अशुचौ कहनेका तात्पर्य यह है कि
जिन नरकोंमें महान् असह्य यातना और भयंकर दुःख दिया जाता है,
ऐसे घोर नरकोंमें वे गिरते हैं।

क्योंकि जिनकी जैसी स्थिति होती है,
मरनेके बाद भी उनकी वैसी (स्थितिके अनुसार) ही गति होती है।


17

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्‌॥

ते – वे
आत्मसम्भाविताः – अपने-आपको ही श्रेष्ठ माननेवाले
स्तब्धाः – घमण्डी पुरुष
धनमानमदान्विताः – धन और मानके मदसे युक्त होकर
नामयज्ञैः – केवल नाममात्रके यज्ञोंद्वारा
दम्भेन – पाखण्डसे
अविधिपूर्वकम् – शास्त्रविधिरहित
यजन्ते – यजन करते हैं।

वे अपने-आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष
धन और मान के मद से युक्त होकर
केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा
पाखण्ड से शास्त्रविधिरहित यजन करते हैं॥17॥

ॐ गं गणपतये नमः
हे ईश्वर! अपने चरणों में हमको सदा रखना।


18

अहङ्‍कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥

अहङ्कारम् – अहंकार,
बलम् – बल,
दर्पम् – घमण्ड,
कामम् – कामना, (और)
क्रोधम् – क्रोधादिके
संश्रिताः – परायण
– और
अभ्यसूयकाः – दूसरोंकी निन्दा करनेवाले पुरुष
आत्मपरदेहेषु – अपने और दूसरोंके शरीरमें (स्थित)
माम् – मुझ अन्तर्यामीसे
प्रद्विषन्तः – द्वेष करनेवाले होते हैं।

(द्वेष करनेवाले नराधमोंको आसुरी योनियोंकी प्राप्ति।)

वे अहंकार, बल,
घमण्ड, कामना और

क्रोधादि के परायण और
दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष

अपने और दूसरों के शरीर में स्थित
मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं॥18॥

हे प्रभु, मुझे पवित्र कर दो।


19

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्‌।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥

तान् – उन
द्विषतः – द्वेष करनेवाले
अशुभान् – पापाचारी (और)
क्रूरान् – क्रूरकर्मी
नराधमान् – नराधमोंको
अहम् – मैं
संसारेषु – संसारमें
अजस्रम् – बार-बार
आसुरीषु – आसुरी
योनिषु – योनियोंमें
एव – ही
क्षिपामि – डालता हूँ।

(आसुरी स्वभाववालोंको अधोगति प्राप्त होनेका कथन।)

उन द्वेष करने वाले पापाचारी और
क्रूरकर्मी नराधमों को
मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ॥19॥

हे ईश्वर! हमारे सब दु:ख दुर्गुण दूर कर दो।


20

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्‌॥

कौन्तेय – हे अर्जुन!
मूढाः – वे मूढ
माम् – मुझको
अप्राप्य – न प्राप्त होकर
एव – ही
जन्मनि – जन्म-
जन्मनि – जन्ममें
आसुरीम् – आसुरी
योनिम् – योनिको
आपन्नाः – प्राप्त होते हैं, (फिर)
ततः – उससे भी
अधमाम् – अति नीच
गतिम् – गतिको
यान्ति – प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकोंमें पड़ते हैं।

(आसुरी सम्पदाके प्रधान लक्षण—काम, क्रोध और लोभको नरकके द्वार बतलाना।)

हे अर्जुन!
वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर
जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं,
फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं
अर्थात्‌ घोर नरकों में पड़ते हैं॥20॥

हे ईश्वर! अज्ञानता से हमे बचाये रखना।


21

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥

काम, क्रोध तथा लोभ –
ये तीन प्रकार के नरक के द्वार
आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं।

अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥21॥

(सर्व अनर्थों के मूल और
नरक की प्राप्ति में हेतु होने से
यहाँ काम, क्रोध और लोभ को
“नरक के द्वार” कहा है)

ॐ नमः शिवाय

हे ईश्वर! सब संकटों से हमारी रक्षा करो।


अध्याय 14

15

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्‍गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते॥

रजसि – रजोगुणके बढ़नेपर
प्रलयम् – मृत्युको
गत्वा – प्राप्त होकर
कर्मसङ्गिषु – कर्मोंकी आसक्तिवाले मनुष्योंमें
जायते – उत्पन्न होता है;
तथा – तथा
तमसि – तमोगुणके बढ़नेपर
प्रलीनः – मरा हुआ मनुष्य (कीट, पशु आदि)
मूढयोनिषु – मूढयोनियोंमें
जायते – उत्पन्न होता है।

रजोगुण के बढ़ने पर
मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा
तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य
कीट, पशु आदि मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है॥


अध्याय 13

21

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्‍क्ते प्रकृतिजान्गुणान्‌।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥

प्रकृतिस्थः – प्रकृतिमें स्थित
हि – ही
पुरुषः – पुरुष
प्रकृतिजान् – प्रकृतिसे उत्पन्न
गुणान् – त्रिगुणात्मक पदार्थोंको
भुङ्क्ते – भोगता है (और इन)
गुणसङ्गः – गुणोंका संग (ही)
अस्य – इस जीवात्माके
सदसद्योनिजन्मसु – अच्छी-बुरी योनियोंमें जन्म लेनेका
कारणम् – कारण है

प्रकृति में (भगवान की त्रिगुणमयी माया) स्थित ही
पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और
इन गुणों का संग ही
इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।

सत्त्वगुण के संग से देवयोनि में एवं
रजोगुण के संग से मनुष्य योनि में और
तमोगुण के संग से पशु आदि नीच योनियों में जन्म होता है।॥