गणेश पुराण – अष्टम खण्ड – अध्याय – 1

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गणपति के आठ अवतार

श्री आदिदेव गणेशजी के चरित्रों को सुनकर अत्यन्त आनन्द में भरे शौनकजी बार-बार उन कथाओं का स्मरण करते-करते स्नेह-विह्वल होने लगे।

कभी उन्हें रोमाञ्च होता तो कभी नेत्रों से प्रेमाश्रु प्रवाहित होने लगते।

तभी उनके कानों में सूतजी के अमृतोपम वचन सुनाई दिए।

वे उनकी ओर देखकर मन्द-मन्द मुसकाते हुए कह रहे थे- ‘हे प्रभुभक्त शौनक! तुम धन्य हो जो भगवान् गणेश्वर के प्रेम में ऐसे सराबोर हो रहे हो।

वत्स! गणाधीश के अनन्त चरित्र हैं, उन सभी का वर्णन किया जाना तो सम्भव नहीं है, फिर भी उनमें जो प्रमुख चरित्र थे वे मैंने तुम्हारे प्रति कह दिए हैं।

तुम उन चरित्रों का गान करते ही सर्वाभीष्ट को प्राप्त हो जाओगे।

क्योंकि प्रभु चरित्र के कीर्तन करने से इहलौकिक और पारलौकिक सभी सुखों की प्राप्ति सहज हो जाती है।’

‘हे हरिप्रेमी शौनक! प्रभु चरित्र एवं नाम संकीर्तन में बड़ी शक्ति है।

इसलिए उसकी बड़ी महिमा मानी जाती है।

जहाँ परब्रह्म श्रीगणेश्वर का चरित्रगान किया जाता है वहाँ समस्त ऋद्धि-सिद्धियाँ निवास करती हैं।

उस स्थान पर भूत-प्रेत, पिशाचादि तो कभी फटकते भी नहीं।

आधि-व्याधि भी दूर से ही पलायन कर जाती है।

समस्त संकट-विपत्तियों का सहज में ही निवारण हो जाता है।

राजभय, शत्रुभय, ग्रहभय की भी आशंका नहीं रहती।

जो लोग प्रभु की भक्ति चाहते हैं, उनको दृढ़ भक्ति की प्राप्ति होती है।

मुमुक्षुओं को मोक्ष प्राप्ति का भी यह परम साधन है।

शौनकजी ने सूतजी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बोले-

‘हे सूतजी! हे भगवन्! परात्पर ब्रह्म श्रीगणेश्वर के अनेक अवतार हुए बताये जाते हैं।

उन सब अवतारों में भी प्रभु ने अनेक महाकर्म किये हैं।

हे प्रभो! मुझे उन अवतारों की कथा सुनाने की कृपा कीजिए, मेरे मन में उन सब चरित्रों के श्रवण की अत्यन्त उत्कण्ठा है।’

सूतजी बोले- ‘शौनक! तुमने बड़ा सुन्दर प्रश्न किया है।

तुम्हारे ऐसे प्रश्नों के द्वारा मैं भी अत्यन्त आनन्द प्राप्त करता हूँ।

देखो वत्स! विघ्न- विनाशक गणेशजी के अनन्त अवतार हुए हैं।

उन सबका वर्णन किया जाना कदापि सम्भव नहीं है।

क्योंकि सौ वर्षों में भी वे उपाख्यान पूर्ण नहीं हो सकते।

तो भी उन सबमें आठ अवतार अधिक प्रमुख माने जाते हैं-१. वक्रतुण्ड, २. एकदन्त, ३. महोदर, ४. गजानन, ५. लम्बोदर, ६. विकट, ७. विघ्नराज और ८. धूम्रवर्ण।

उन अवतारों की विशेषता एवं चरित्र निम्न प्रकार हैं:


वक्रतुण्डावतार

\”वक्रतुण्डावतारश्च देहानां ब्रह्मधारकः।

मत्सरासुरहन्ता स सिंहवाहनः स्मृतः॥\”

हे शौनक! भगवान् गणेश्वर का ‘वक्रतुण्ड’ नामक अवतार देह ब्रह्म का धारक है।

उसके द्वारा मत्सरासुर का संहार हुआ था।

वे भगवान् सिंह पर आरूढ़ होने वाले कहे गये हैं।

एक समय की बात है कि देवराज इन्द्र के प्रमाद से एक भयंकर असुर की उत्पत्ति हुई और वह शीघ्र ही बढ़ता चला गया।

मद से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम मत्सरासुर हुआ।

वह असुर भयंकर और दुराधर्ष था।

उसने सोचा- ‘मैं किस देवता की उपासना करूँ, जिससे मुझे संसार पर प्रभुत्व प्राप्त हो सके।’

तभी उसे दैत्यगुरु शुक्राचार्य का ध्यान आया और वे परम विद्वान् गुरुदेव ही मुझे इस सबका निर्देश कर सकते हैं।

ऐसा निश्चय कर वह उनकी शरण में पहुँचा।

मत्सरासुर ने उनसे निवेदन किया ‘गुरुदेव! मुझे वह उपाय बताने की कृपा कीजिए, जिससे मैं तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर सकूँ।

हे मुनिनाथ! आप समस्त विद्याओं के ज्ञाता, वेदादि में पारंगत तथा सर्व- समर्थ हैं।

आपके लिए अविदित कुछ भी नहीं है।’

शुक्राचार्य बोले- ‘वत्स! सभी प्रकार के ऐश्वर्यों की प्राप्ति से तपश्चर्या होती है, इसलिए भगवान् त्रिलोचन की प्रसन्नता के लिए तप करो तो तुम्हें अभीष्ट की प्राप्ति हो सकती है।’

मत्सर ने कहा- ‘प्रभो! मैं अवश्य ही तपश्चर्या करने को प्रस्तुत हूँ।

आप मुझे विधि बताने की कृपा कीजिए।’

दैत्यगुरु ने उपदेश दिया- ‘वत्स! पवित्र जल में स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण कर, श्रद्धापूर्वक आशुतोष भगवान् शंकर की षोड़शोपचारों से पूजा करो।

तदुपरान्त शिव के पंचाक्षरी मन्त्र ‘ॐ नमः शिवाय’ का जप करते हुए कठोर व्रत का संयमपूर्वक निर्वाह करो।

तप के समाप्त होने पर तुम भगवान् शंकर की कृपा प्राप्त करोगे।

मत्सरासुर शिव का पञ्चाक्षरी मन्त्र पाकर बहुत प्रसन्न हुआ और गुरु-चरणों में प्रणाम कर निर्जन वन में चला गया।

वहाँ उसने शुक्राचार्य जी की बताई विधि से भगवान् शंकर का पूजन किया और पञ्चाक्षरी मन्त्र का जप करते हुए घोर तपश्चर्या करने लगा।

वह हजारों वर्षों तक निराहार रहा, केवल जल ही पीता था।

फिर जल भी छोड़कर वायु के सहारे ही जीवनचर्या चलाता रहा।

उसकी कठिन तपस्या पर भगवान् शंकर प्रसन्न हुए और उन्होंने जगज्जननी पार्वती जी के सहित आकर उसे दर्शन दिया।

उनके तेजोमय स्वरूप के समक्ष एक बार तो असुर के नेत्र मुँद गये, किन्तु भगवान् की अमृतमयी वाणी सुनकर उसने साहसपूर्वक नेत्र खोल दिये।

देखा सामने सौम्य मूर्ति शिव-शिवा वृषभ पर सवार हुए खड़े हैं और कह रहे हैं- ‘वत्स! मैं तुम्हारे तप से सन्तुष्ट हूँ तुम जो अभीष्ट चाहो, वही मुझसे माँग लो।’

असुर ने शिव-शिवा के चरणों में प्रणाम किया और फिर गद्गद कण्ठ से स्तुति करने लगा ‘प्रभो! आप समस्त देवताओं के अधीश्वर के स्वामी हैं।

जगत् के सर्ग, पालन और विनाश के कारण भी आप ही हैं।

आपकी इच्छा के बिना कहीं कोई भी कार्य नहीं होता।

हे नाथ! आप वाणी से अगोचर कहे जाते हैं, इसलिए आपकी किस प्रकार स्तुति करूँ यह मुझे ज्ञात नहीं है।

हे नाथ! मेरी जो अभिलाषा है वह आप सर्वज्ञ से छिपी नहीं है।

फिर भी आपसे निवेदन करता हूँ कि मैं समस्त संसार पर अधिकार करने में समर्थ हो जाऊँ।’

भगवान् शंकर ‘ऐसा ही हो’ कहकर अन्तर्धान हो गए।

इधर वर पाकर प्रसन्न हुआ मत्सरासुर शुक्राचार्य जी के पास लौटा और उनसे वर प्राप्ति का समाचार सुनाया।

तब उन्होंने उस दैत्य को दैत्यराज पद पर अभिषेक किया और बोले- ‘वत्स! भगवान् शंकर का वर अमोघ है, वह कभी निष्फल नहीं हो सकता।

तू अवश्य ही त्रैलोक्य विजयी और अधीश्वर बनेगा।


मत्सरासुर की त्रैलोक्य विजय

मत्सरासुर को शिव वर की प्राप्ति का समाचार शीघ्र ही फैल गया।

इसलिए अनेक दैत्य उसकी कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से उसकी परिचर्या करने लगे।

इस प्रकार धीरे-धीरे उसके पास दैत्यों का समुदाय दिन-पर-दिन बढ़ने लगा।

एक दिन उसके साथियों ने उसे परामर्श दिया- ‘प्रभो! आपको अपने राज्य का विस्तार करना चाहिए।

इस समय आपके पास दैत्य-वीरों की पर्याप्त सेना एकत्र हो गई है।

उसके बल पर आप सहज में ही अनेक राजाओं को हराकर उनके राज्य और वैभव पर अधिकार कर सकते हैं।’

मत्सरासुर को उनका परामर्श उचित प्रतीत हुआ और तब उसने अपने वीरों को साथ लेकर सर्वप्रथम असुर, राक्षस और दैत्यों को ही वश में किया।

इस प्रकार समस्त असुरादि ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

इससे उसका दल बढ़ता चला गया।

तदुपरान्त उसने विशाल दैत्य सेना लेकर पृथ्वी पर राज्य करने वाले राजाओं पर एक-एक कर आक्रमण कर दिया।

जो राजा दुर्बल थे उन्होंने बिना युद्ध के ही आत्मसमर्पण कर दिया, जिन्होंने युद्ध किया वे या तो हार गये या प्राण लेकर भागे।

इस प्रकार समस्त पृथ्वी उसके अधिकार में आ गई।

फिर उस विजयोन्मत्त दैत्य ने नागलोक पर आक्रमण कर दिया।

उस भयंकर युद्ध में असुर-सेना कम और नागसेना बहुत अधिक मारी गई।

यह देखकर अधिक विनाश रोकने की दृष्टि से नागराज शेषजी ने विनयपूर्वक उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

जब धरती और पाताल दोनों पर विजय प्राप्त हो गई, तब उसका साहस और अधिक बढ़ गया और उसने देवताओं को अधीन करने के लिए अमरावती पर आक्रमण कर दिया।

असुरों ने बलपूर्वक सुरपुर में प्रविष्ट होकर भाँति-भाँति के अत्याचार आरम्भ किए।

यह देखकर वरुण के नेतृत्व में देवताओं ने असुरों का सामना किया।

उस युद्ध में बहुत से देवता मारे गये और बहुत से आहत हुए और जो शेष बचे वे भाग गये।

१४ वरुण के हारने पर यम और कुबेर ने रणक्षेत्र में पहुँचकर दैत्यों को रोका।

भीषण युद्ध के पश्चात् उन्हें भी पराजय का मुख देखना पड़ा।

उनकी सेना की भी वही दशा हुई, जो वरुण के नेतृत्व वाली सेना की हुई थी।

अब देवराज इन्द्र स्वयं गजराज ऐरावत पर आरूढ़ होकर अपनी विशाल देवसेना के साथ दैत्यसेना से युद्ध करने के लिए आए।

पहिले तो ऐसा लगा, जैसे दैत्य-सेना उनके समक्ष हार रही है।

किन्तु बाद में दैत्यों के घोर आक्रमण के समक्ष उनके पाँव न टिक सके और अन्त में उनकी पराजय हुई।

देवगण स्वर्गलोक को छोड़कर भाग निकले।

मत्सरासुर ने अमरावती पर अधिकार कर लिया और अपने एक विश्वासपात्र दैत्य अधिकारी को वहाँ का प्रशासक नियुक्त करके अपनी राजधानी को लौट आया।

इस प्रकार वह तीनों लोकों का अधीश्वर बन गया।

उधर देवराज इन्द्र अपने राज्य से हीन होकर ब्रह्माजी के पास पहुँचे और उनसे निवेदन किया- ‘ब्रह्मन्! मत्सरासुर ने स्वर्ग पर भी अधिकार कर लिया है।

सभी देवता अपने घर-द्वार से वञ्चित होकर उस दैत्य के भय से मारे-मारे फिर रहे हैं।

इसलिए हे प्रभो! आप उसके वध का कुछ उपाय कीजिए।’

ब्रह्माजी बोले- ‘देवराज! इसका उपाय तो बैकुण्ठनाथ से पूछना चाहिए।

क्योंकि वे ही प्रभु असुरों के संहार में पूर्ण समर्थ हैं।

इस बार भी वे सहायता करेंगे।

चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।’

इन्द्रादि देवताओं के साथ ब्रह्माजी बैकुण्ठधाम में पहुँचे और रमानाथ को मत्सरासुर की प्रबलता और उसके द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों की बात उन्हें सुनाई।

लक्ष्मीकान्त ने समस्त विवरण जानने के पश्चात् कहा- ‘इसका उपाय तो उन्हीं भोलानाथ से पूछो, जिन्होंने असुर को अपने बल से इतना प्रबल और दुराधर्ष बना दिया है।

वे और आप दोनों ही बिना समझे-सोचे तुरन्त वर दे डालते हैं और उसका परिणाम भोगना पड़ता है समस्त संसार को।

चतुरानन! चलो, कैलास पर्वत पर पहुँचकर ही इस विषय पर विस्तार से विचार करेंगे।’

सब लोग कैलास पहुँचे।

उस समय भगवान् शंकर गिरिराजनन्दिनी के साथ एक रत्नसिंहासन पर विराजमान थे।

उनके गण उन्हें घेरे हुए बैठे थे।

विष्णु, ब्रह्मा आदि देवताओं को आये देखकर शिवजी ने उठकर उनका स्वागत किया और सभी को यथायोग्य स्थानों पर बैठाकर स्वयं भगवान् विष्णु और ब्रह्माजी के निकट जा बैठे।

विष्णु ने उनसे कहा- ‘आशुतोष! आपने मत्सरासुर को ऐसा अमोघ वर दे डाला है कि वह विजयोन्मत्त हुआ भाँति-भाँति के अत्याचार कर रहा है।

उसने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया है, इससे समस्त संसार त्रस्त हो उठा है।

अब कोई ऐसा उपाय करना चाहिए, जिससे असुर का अन्त हो सके।’

शंकर बोले- ‘त्रिलोकीनाथ! आप समस्त उपायों के आश्रय है।

आपकी ही इच्छा से इस संसार की सभी क्रियाएँ होती हैं।

उन सब क्रियाओं के चलते रहने के लिए ही आपने कालचक्र निर्माण किया है।

विश्व में होने वाले उत्थान-पतन का कारण भी एकमात्र आप ही हैं।

अब आपके द्वारा नियुक्त वह काल उस असुर के अन्त का कारण बनेगा तभी तो उसका संहार हो सकेगा।

प्रभो! हे दीनबन्धो! मेरी मति के अनुसार तो हमें उसका पतन देखने के लिए काल की प्रतीक्षा करनी चाहिए।’

इस प्रकार सभी कुछ काल की निर्भरता पर टल गया।

परन्तु मत्सरासुर के गुप्तचर सर्वत्र नियुक्त थे।

उन्होंने असुर को कैलास पर होने वाले गोपनीय वार्तालाप का समाचार दे दिया।

इससे वह अत्यन्त कुपित होकर लाल-लाल लोचन निकालता हुआ बोला, ‘दैत्यवीरो! अपनी वाहिनी तैयार कर कैलास पर चढ़ चलो और उस भंगड़ी को बन्दी बना लो।

चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।’

और अपनी विशाल असुरसेना के सहित उसने कैलास पर आक्रमण कर दिया।

शिवगणों और प्रमथगणों ने उनका सामना किया, किन्तु वे असुर को आगे बढ़ने से न रोक सके।

अन्त में भवानीपति से वर प्राप्त मत्सरासुर ने भवानीपति को ही पाश में बाँध लिया और अपने ज्येष्ठ पुत्र को वहाँ पर शासन-भार सौंप दिया।

अब उसने बैकुण्ठ पर भी चढ़ाई कर दी।

लक्ष्मीनाथ तो उसके वर-प्रबल होने से परिचित ही थे।

अतः वहीं अन्तर्धान हो गए।

असुर को बिना युद्ध किए ही वहाँ का आधिपत्य प्राप्त हो गया।

अपने एक पुत्र को उसने वहाँ का शासनाधिकारी बनाया।

इसी प्रकार ब्रह्मलोक पर भी अधिकार कर लिया।

वहाँ भी अन्य पुत्र को नियुक्त कर दिया।

स्वयं अपनी राजधानी में रहते हुए ही वह तीनों लोकों पर निर्बाध रूप से शासन करने लगा।

इस प्रकार उसके अत्याचार का ताण्डव चलता रहा।

इधर एक गोपनीय स्थान में समस्त देवगण एकत्र हुए और मत्सरासुर के मारने के विषय में विचार करने लगे।

उसी समय भगवान् दत्तात्रेय भ्रमण करते हुए आ पहुँचे।

उनसे देवताओं ने निवेदन किया- ‘प्रभो! हम सब मत्सरासुर के अत्याचारों से अत्यन्त त्रस्त हो रहे हैं।

उसके संहार का कोई अमोघ उपाय बताने की कृपा कीजिए।’


देवताओं को ‘ग’ मन्त्र जप का उपदेश

दत्तात्रेय बोले- ‘देवताओ! परब्रह्म परमेश्वर ही उसे मारने में समर्थ हैं।

वे ही प्रभु सब प्राणियों के दुःखों को दूर करने में समर्थ हैं।

तुम उनके वक्रतुण्ड स्वरूप का ध्यान करते हुए एकाक्षरी मन्त्र ‘गं’ मन्त्र के जपानुष्ठान करो।

वे भगवान् तुम्हें अवश्य ही इस घोर संकट से छुड़ा देंगे।’

देवताओं ने भगवान् दत्तात्रेय से वक्रतुण्ड की उपासना और उनके ‘गं’ मन्त्र के जपानुष्ठान की विधि सीखी और फिर उनके द्वारा उपदिष्ट विधान से अनुष्ठान करने लगे।

उनकी कठिन आराधना से भगवान् वक्रतुण्ड ने सन्तुष्ट होकर दर्शन दिए।

उनके अद्वितीय तेज के कारण सभी के नेत्र मुँदे जा रहे थे।

तभी भगवान् वक्रतुण्ड ने कहा- ‘देवगण! मैं प्रसन्न हूँ।

जो अभीष्ट हो वह वर माँगो।’

देवताओं ने उनके प‌द्मों में प्रणाम करके हाथ जोड़ते हुए निवेदन किया – ‘प्रभो! हम सब मत्सरासुर के भय से सर्वत्र मारे-मारे फिर रहे हैं।

उससे निस्तार का कोई उपाय नहीं सूझता।

कृपा कर हमें संकट से मुक्त कीजिए।’वक्रतुण्ड बोले- ‘देवताओ! तुम चिन्ता का त्याग करो।

मैं मत्सरासुर का समस्त गर्व खण्डित कर दूँगा।’

यह कहकर उन्होंने गणों का स्मरण किया, जिससे असंख्य गण प्रकट हो गए।

उस समस्त सेना को और देवताओं को साथ लेकर वे प्रभु मत्सरासुर की राजधानी पर जा पहुँचे।

असुरों ने दौड़कर मत्सरासुर को सूचित किया- ‘राजन्! असंख्य वीरों ने आकर आपकी राजधानी को घेर लिया है और वे शीघ्र ही नगर में प्रवेश करना चाहते हैं।

इसका शीघ्र ही प्रतिकार कीजिए अन्यथा बाद में स्थिति पर नियन्त्रण असम्भव होगा।’

मत्सरासुर ने सेनापति को बुलाकर आदेश दिया- ‘शत्रुओं को मार डालो।

उनका जो अधीश्वर हो उसे बन्दी बनाकर मेरे समक्ष उपस्थित करो अथवा उसका वध कर दो।

सेनापति ने ‘जो आज्ञा’ कहकर सिर झुकाया और विशाल असुर- वाहिनी के साथ नग के बाहर आकर वक्रतुण्ड के गणों को ललकारता हुआ बोला- ‘मूर्खे! प्राणों का भय नहीं लगता तुम्हें जो यहाँ मरने के लिए चले आये हो।

जिन महाराज मत्सरासुर की सेना के भय से ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी अपने असंख्य सेवकों के सहित भागे-भागे फिरते हैं तो तुम्हारी क्या गणना है? इसलिए तुरन्त ही अपने-अपने प्राण लेकर भाग जाओ।’

तभी समस्त गणों ने एक साथ मिलकर ‘वक्रतुण्ड’ का जयघोष किया और दैत्य-सेना पर प्रहार करने लगे।

भयंकर युद्ध छिड़ गया, किन्तु असुरसेना हारने लगी।

बहुत से दैत्य रथी, महारथी, गजारूढ़,

अश्वारूढ़ प्रमुख वीर मारे गये।

यह देखकर दैत्यसेना भागने लगी।

सेनापति के बहुत कहने पर रणक्षेत्र में कोई दैत्यवीर न टिका।

यह संवाद जैसे ही त्रैलोक्य विजेता मत्सरासुर के पास पहुँचा कि वह आग-बबूला हो उठा।

उसने कहा, ‘शत्रुओं का यह साहस! मेरे ही नगर पर आकर मेरी सेना को परास्त कर दें।

वीरो! अब विलम्ब का काम नहीं, जैसे भी हो शत्रु को नष्ट करना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है।

चाहे हमारे प्राण चले जायें, किन्तु शत्रु को आगे नहीं बढ़ने देंगे।

उसे भगाकर छोड़ेंगे।’

अमात्यों ने हाथ जोड़कर निवेदन किया- ‘प्रभो! हमारे वीरों ने शत्रु- सेना में एक भयंकर रूप वाला योद्धा देखा है।

वह अपनी समस्त सेना का सञ्चालन कर रहा है।

वह बड़ा दुराधर्ष वीर है, जिधर बढ़ जाता है, उधर ही सब कुछ शून्य हो जाता है।

इसलिए राजन्! हमारे विचार में तो उससे सन्धि कर लेनी चाहिए।

क्योंकि बुद्धिमानी इसी में है कि अवसर देखकर कार्य किया जाये।’

उनकी बात सुनकर दैत्यराज लाल-पीला पड़ गया और क्रोध से आँखें निकालकर बोला- ‘कायरपुरुषों! तुम मुझे शत्रु के सामने झुकने का परामर्श दे रहे हो? इससे तो युद्ध में मर मिटना ही श्रेयस्कर है।’

फिर उसने प्रधान सेनाध्यक्ष को आदेश दिया- ‘शत्रु का सामना करने के लिए विशाल सेना लेकर आगे बढ़ो।

मैं भी तैयार होकर आ रहा हूँ।

यह घोषणा कर दो कि रणभूमि में मैदान छोड़कर कोई भी न हटे, अन्यथा उसे मृत्यु-दण्ड दिया जायेगा।’

69 प्रधान सेनाध्यक्ष ने समस्त सेनाओं को तैयार होने का आदेश दिया और उक्त राजाज्ञा भी सुना दी।

मत्सरासुर स्वयं उस असंख्य दल के साथ राजधानी से बाहर निकला।

उसके सुन्दर ‘प्रिय और विषयप्रिय’ नामक दो पुत्र भी साथ थे।

जिन्होंने सुनियोजित ढंग से वक्रतुण्ड के गणों पर भीषण आक्रमण कर दिया था।

गणों और असुरों के मध्य इतना भयानक युद्ध हुआ कि दोनों पक्षों को भारी क्षति उठानी पड़ी।

किन्तु विजय या पराजय किसी की भी न हुई।

इस प्रकार युद्ध चलते हुए पाँच दिन हो गए थे।

इसी बीच भवानीपति को मत्सरासुर के पुत्रों ने प्रहार द्वारा मूच्छित कर दिया।

फिर भी वक्रतुण्ड के दो गण आगे बढ़े और उन असुरों से भिड़ गए।

उनके प्रहार से वे दोनों असुर मारे गए।

अपने पुत्रों का मरण हुआ देखकर मत्सरासुर व्याकुल हो उठा और वह युद्धस्थल छोड़कर चला गया।

राजभवन में भी उसके कारण शोक व्याप्त हो गया, तब अमात्यों ने उसे समझाया- ‘राजन्! शोक करने से तो कुछ होगा नहीं, आपके मरे हुए पुत्र शोक से लौट नहीं सकते।

अब तो शोक का एक ही प्रतिकार है-शत्रुओं से प्रतिशोध लेना।’


मत्सरासुर का गणेशजी की शरण में जाना

मत्सरासुर पुनः रणभूमि में पहुँचा।

उसने वक्रतुण्ड का सामना करते हुए कहा- ‘मूर्ख! यहाँ मरने के लिए क्यों आ गया? क्या तू मेरी शक्ति से परिचित नहीं?’

वक्रतुण्ड ने हँसते हुए उत्तर दिया- ‘दुष्ट राक्षस! मैं यहाँ मरने के लिए नहीं, तुझे मारने के लिए आया हूँ।

तेरी शक्ति से भी भली प्रकार परिचित हूँ।

तू उन्हीं के वर से अत्यन्त प्रबल हो गया था, जिन्हें तूने पाश में बाँध लिया था।

परन्तु अब तेरा ह्रास-काल आ गया है।

इसलिए निश्चय मारा जायेगा।

फिर भी यदि तुझे प्राण अधिक प्यारा है तो मेरी शरण में आ जा।’

मत्सरासुर ने देखा कि वस्तुतः वक्रतुण्ड अत्यन्त प्रबल हैं, जिनका सामना करने से मरण होना सम्भव है, तो वह उनके प्रस्ताव पर विचार करने लगा और अमात्यों से परामर्श किया कि ‘ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए?’

अमात्यों ने कहा- ‘महाराज! वक्रतुण्ड ने आपको शरण देने का प्रस्ताव कर अपनी उदारता का परिचय दिया है।

इसलिए प्रभो! उनकी शरण लेना ही अधिक कल्याणकारी होगा।’

असुर का भी यही विचार था इसलिए वह शीघ्र ही वक्रतुण्ड की शरण में जाकर उनकी स्तुति करने लगा- ‘प्रभो! मैं आपके पराक्रम से पहले अनजान था।

अब मुझे ज्ञात हो गया है कि आप कोई साधारण देवता नहीं वरन् सर्वसमर्थ परात्पर ब्रह्म हैं।

हे नाथ! मुझ अज्ञानी के अपराध को क्षमा करके अपनी शरण में स्थान दीजिए और साथ ही अपनी सुदृढ़ भक्ति भी।’

यह कहकर उसने वक्रतुण्ड के चरण पकड़ लिये।

इससे वे भगवान् सन्तुष्ट होकर बोले- ‘असुरराज! मैं तुझपर प्रसन्न हूँ।

अब तू निर्भय होकर अपना राज्य-कार्य कर, किन्तु विस्तार-लिप्सा को त्याग दे।

देवताओं, नागों आदि के स्थान इन्हें लौटा दे और जितने स्थान में रह सके, उतना ही सीमा से रहता हुआ सदैव मेरी भक्ति में लगा रह।

अपने अनुयायियों को आदेश दे कि वे निरीह प्राणियों पर किसी भी प्रकार का अत्याचार न करें।’

मत्सरासुर ने तुरन्त स्वीकार किया कि वैसा ही किया जायेगा।

इससे सभी देवगण आनन्द मग्न हो गये और उन्होंने भक्तिभाव से वक्रतुण्ड की स्तुति की।

उन्होंने देवताओं को भी अभय प्रदान किया और तुरन्त ही अन्तर्धान हो गये।


असुर दम्भ की उत्पत्ति

सूतजी बोले- ‘हे शौनक! उन दयामय भगवान् वक्रतुण्ड ने मत्सरासुर को क्षमा कर दिया और उसे अपना भक्त बना लिया।

इस प्रकार का एक अन्य उपाख्यान दम्भासुर का है, उसे भी भगवान् वक्रतुण्ड ने क्षमा दान दिया था।’

शौनक जी बोले- ‘हे सूतजी! हे प्रभो! मुझे दम्भासुर का उपाख्यान भी सुनाने की कृपा कीजिए।

हे दयालु! मुझे गणेश्वर के विभिन्न चरित्रों के श्रवण में बड़ा आनन्द आ रहा है।’

सूतजी बोले- ‘शौनक! वह उपाख्यान सर्गारम्भ काल का है।

जब ब्रह्माजी ने सृष्टि-रचना का कार्य आरम्भ किया, तब उसमें उन्हें अनेक विघ्नों का सामना करना पड़ा।

तब लोकपितामह ने सोचा- ‘इन विघ्नों का निवारण वे वक्रतुण्ड गणाधिपति ही कर सकते हैं।

इसलिए उन्हीं प्रभु को प्रसन्न करना चाहिए।’

ऐसा निश्चय कर उन्होंने गणेश्वर का भक्तिभाव से पूजन आरम्भ कर उनके षडक्षरी मन्त्र ‘वक्रतुण्डाय हुम्’ का जपानुष्ठान आरम्भ किया और अनुष्ठान की समाप्ति कर विधिपूर्वक ब्राह्मण भोजन कराया एवं दक्षिणा आदि प्रदान की।

ब्रह्माजी के अनुष्ठान से प्रसन्न हुए वक्रतुण्ड भगवान् ने प्रकट होकर कहा- ‘चतुरानन! मैं प्रसन्न हूँ।

अपना अभीष्ट वर माँग लो।’

ब्रह्माजी ने निवेदन किया-‘प्रभो! सृष्टिकार्य में उपस्थित विघ्नों को दूर कर दीजिए, यही, मेरा अभीष्ट है।’

वक्रतुण्ड ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्हित हो गये।

तदुपरान्त लोकपितामह ने निर्विघ्न रूप से सृष्टि-कार्य सम्पन्न किया, किन्तु उस समय पितामह के कम्प से दम्भ नामक एक विकराल शिशु उत्पन्न हुआ, जो शीघ्र ही बड़ा हो गया।

उसने अपने उत्कर्ष के लिए घोर तपश्चर्या आरम्भ की।

उस कठोर तप को देखकर लोकस्रष्टा बड़े प्रसन्न हुए।

उन्होंने उसे दर्शन देकर कहा- ‘वत्स! वर माँगो।’

तपस्वी दम्भ ने उन्हें प्रणाम किया और बोला- ‘प्रभो! मैं त्रैलोक्य विजयी बनूँ और सदैव निर्भय रहूँ।

मेरा तिरस्कार कोई भी सांसारिक प्राणी या देवता, दैत्य, नागादि न कर सके।’

पितामह ने कहा- ‘वत्स! तेरी कामना अवश्य पूरी होगी।’

तब दम्भासुर शुक्राचार्य के पास गया, जिन्होंने उसे दैत्येश्वर के पद पर अभिषिक्त कर दिया।

अब दम्भासुर ने एक अत्यन्त सुन्दर नगर बनवाया और उसी नगर में रहने लगा।

वह नगर चारों ओर सुदृढ़ प्राकार और खाई आदि के द्वारा सुदृढ़ था।

वहीं उसने दैत्यों को बुला-बुलाकर उनकी सेना एकत्र करना आरम्भ किया।

उसने भी अपने राज्य-विस्तार की नीति अपनाई और मत्सरासुर के ही समान प्रथम वसुन्धरा, फिर पाताल और उपरान्त स्वर्ग पर विजय प्राप्त कर ली और जीते हुए विभिन्न स्थानों पर अपने अधिकारी नियुक्त कर दिए।

इसके पश्चात् बैकुण्ठ और कैलास पर भी अधिकार कर लिया।देवताओं पर पूर्ववत् ही विपत्तियों का पर्वत टूट पड़ा।

वे अत्यन्त दुःखित होकर गिरि-खोहों और निर्जन वनों में छिपकर रहते हुए अपनी प्राण-रक्षा करने लगे।

एक दिन उन्होंने विचार किया कि ‘लोकपितामह ब्रह्माजी के पास चलकर विपत्ति से मुक्त होने का उपाय पूछना चाहिए।’

उन्होंने ब्रह्माजी के पास जाकर कहा- ‘प्रभो! दम्भासुर आपके वर के कारण अत्यन्त प्रबल हो उठा है और अनेक प्रकार के अत्याचार कर रहा है।

उससे हमारी रक्षा कीजिए।’

ब्रह्माजी बोले- ‘देवताओ! इस संकट से छुटकारा पाने के लिए हमें भगवान् वक्रतुण्ड की उपासना करनी चाहिए।

तुम्हारे साथ मैं भी उनके एकाक्षरी मन्त्र का जप आरम्भ कर रहा हूँ।’

यह कहकर देवताओं के साथ लोकपितामह ने भगवान् वक्रतुण्ड का पूजन कर उनके मन्त्र का जप किया।

अनुष्ठान पूर्ण होने पर वक्रतुण्ड ने प्रकट होकर कहा- ‘चतुरानन! मैं प्रसन्न हूँ।

आप अपना अभीष्ट वर माँग लीजिए।’

ब्रह्माजी बोले- ‘हे प्रभो! आप समस्त दुःख-दारिद्रों को दूर करने में समर्थ हैं।

दुष्ट दम्भासुर हमें अत्यन्त पीड़ित कर रहा है, अतएव हमें उसके भय से मुक्त कीजिए।’

वरदेव वक्रतुण्ड ने अभय प्रदान किया- ‘कमलासन! मैं दम्भासुर की पराजय कर दूँगा।

समस्त देव-समाज भय को त्यागकर निश्चिन्त हो जाये।

देवराज के द्वारा दम्भासुर को सन्देश भेज दो कि या तो वह मेरी शरण में आ जाय, अन्यथा मैं उसका विनाश कर दूँगा।’

आज्ञा पाकर इन्द्र दूत रूप में दम्भासुर के पास जाकर बोले- ‘असुरराज! मुझे महाप्रभु वक्रतुण्ड ने यहाँ भेजा है।

तुम देवताओं को और समस्त अधीनस्थ राज्यों को स्वतन्त्र कर दो और परम प्रभु की शरण में जाओ अन्यथा तुम्हारा विनाश सन्निध है।’

दम्भासुर ने क्रोधपूर्वक कहा- ‘अपने प्रभु से कह दो कि उसका और उसके साथियों का अहंकार नष्ट करने में मैं पूर्ण समर्थ हूँ।

यदि प्राण-रक्षा चाहते हो तो मेरी शरण में आ जाओ।’

इन्द्र ने लौटकर वक्रतुण्ड की सेवा में उपस्थित होकर दम्भासुर की दम्भोक्ति से उन्हें अवगत किया, जिसे सुनकर उन्होंने गणों का स्मरण किया और देवताओं को भी सुसज्जित होकर आगे बढ़ने का आदेश दिया।

उधर दम्भासुर दैत्यगुरु शुक्राचार्य के पास पहुँचा और उन्हें प्रणाम कर बोला- ‘प्रभो! वक्रतुण्ड के दूत रूप से इन्द्र ने आकर कहा है कि या तो वक्रतुण्ड की शरण में जाओ, अन्यथा वे तुम्हारा संहार कर देंगे।

तो वक्रतुण्ड कौन है? क्या स्थिति है उसकी? क्या उसमें इतनी शक्ति है कि वह हमारा सामना कर सके?’

शुक्राचार्य बोले- ‘राजन्! भगवान् वक्रतुण्ड अमित महिमामय और अभूतपूर्व पराक्रमी हैं।

वे गणाध्यक्ष साक्षात् परात्पर ब्रह्म के ही अवतार हैं।

यदि तुम दम्भ का त्याग करके उनकी शरण में जाओ तो निश्चय ही तुम्हारा कल्याण होगा।

फिर तुम्हें किसी प्रकार का भय रह ही नहीं सकता।’

यह सुनकर दम्भासुर ने व्यर्थ के दम्भ का त्याग कर दिया और अत्यन्त श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उनकी शरण में जाने का निश्चय किया।

उसका विचार जानकर अनेक दैत्यों ने विरोध प्रकट किया, किन्तु दम्भासुर ने उनकी बात नहीं मानी और वह तुरन्त ही उनकी शरण में जा पहुँचा।

दैत्यराज को अपने चरणों में पड़ा देखकर वक्रतुण्ड भगवान् ने उसे अभय और अपनी भक्ति प्रदान की और क्षमा दान देकर दम्भासुर ने सब राजाओं के राज्य लौटा दिए तथा कैलास, बैकुण्ठ एवं स्वर्गादि देवधामों को स्वतन्त्र कर दिया।

अब उसका शासन धर्म और न्याय-नीति से सम्पन्न हो गया था।


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गणेश पुराण – अष्टम खण्ड – अध्याय – 2


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