गणेश पुराण – अष्टम खण्ड – अध्याय – 7

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विघ्नराज अवतार

सूतजी बोले- ‘हे मुने! मैंने तुम्हें भगवान् के विकटावतार की कथा सुना दी।

अब तुम्हें उनके विघ्नराज रूप का उपाख्यान सुनाता हूँ।

ध्यान देकर सुनो-

“विघ्नराजावतारश्च शेषवाहन उच्यते।
ममतासुरहन्ता स विष्णुब्रह्मेति वाचकः॥”

‘हे शौनक! भगवान् गणपति का जो ‘विघ्नराज’ नामक अवतार है, वह शेषवाहन कहा जाता है।

वह ममतासुर का संहारक और विष्णु-ब्रह्मा का वाचक है।

इसकी कथा इस प्रकार है- पुराकाल की बात है।

गिरिराजनन्दिनी पार्वती जी का विवाह हो चुका था।

वे उपवन में अपनी सखियों के साथ बैठी हुई वार्तालाप कर रही थीं।

तभी किसी एक बात पर उन्हें जोर की हँसी आ गई और उनकी उस हँसी से ही एक पर्वताकार किन्तु अत्यन्त मनोरम पुरुष उत्पन्न होकर उनके सामने आ खड़ा हुआ।उस पुरुष को देखकर गिरिजा को बड़ा आश्चर्य हुआ।

सोचने लगीं- ‘यह कौन, कहाँ से आया?’

और फिर भी प्रश्न उन्होंने उस पुरुष से किया और अन्त में बोलीं- ‘तुम्हारा प्रयोजन क्या है?


पार्वती के मान से ममतासुर की उत्पत्ति

पुरुष ने हाथ जोड़कर निवेदन किया- ‘माता! मैं आपके हास्य से उत्पन्न हुआ हूँ।

आपका पुत्र होने के कारण आपकी कृपा का भी अधिकारी हूँ।

आप मुझे जो आज्ञा देंगी, उसका पालन करूँगा।’

पार्वती बोलीं- ‘वत्स! मैं उस समय अपने प्राणप्रिय शिवजी से रूठकर उपवन में बैठी थी, उसी मान की अवस्था में मुझे हँसी आ गई, जिससे तेरा जन्म हो गया।

इसलिए मान-परायण होने से तेरा नाम मम अथवा ममता होगा।

अब तुम गणेश्वर का स्मरण करो, जिससे तुम्हें अभीष्ट की प्राप्ति हो।’

यह कहकर शैलपुत्री ने उसे गणेश का षडक्षरी मन्त्र, ‘वक्रतुण्डाय हुम्’ का उपदेश किया।

तब वह उनके चरणों में प्रणाम कर तपस्या करने के लिए अरण्य में चला गया, जहाँ उसकी भेंट दैत्यराज शम्बरासुर से हो गई।

गिरिजापुत्र ने दैत्यराज से पूछा- ‘आप कौन हैं? यहाँ किसलिए आये हैं? यदि अनुचित न समझें तो मुझे अपना पूर्ण वृत्तान्त बताने की कृपा करें।’

शम्बरासुर ने उत्तर दिया- ‘महाभाग! मेरा नाम शम्बर है।

मैं अनेक विद्याओं का ज्ञाता हूँ।

यदि तुम चाहो तो वे विद्याएँ मैं तुम्हें दे सकता हूँ, जिससे तुम अवश्य ही अत्यन्त सामर्थ्यवान् बन जाओगे।’

ममतासुर बहुत प्रसन्न हुआ।

उसने शम्बरासुर से समस्त आसुरी विद्याएँ सीख लीं, जिनके अभ्यास से वह स्वयं कामरूप हो गया।

तब उसने शम्बरासुर को प्रणाम कर निवेदन किया- ‘महाभाग! मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी इस अ‌द्भुत कृपा के लिए सदैव आभारी रहूँगा।

अब आप मुझे आदेश दें कि मैं क्या करूँ?’

शम्बरासुर ने कहा- ‘वत्स! अब तुम अपूर्व शक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से भगवान् विघ्नराज को प्रसन्न करो।

जब वे सन्तुष्ट होकर वर माँगने को कहें, तब तुम केवल समस्त ब्रह्माण्ड का राज्य और अमरत्व ही माँगना, और कुछ भी न माँगना।

जब तुम्हें वर प्राप्त हो जाय तब पुनः मेरे पास लौट आना।’

यह कहकर शम्बरासुर वहाँ से चला गया और ममतासुर ने वहीं रहकर तपस्या आरम्भ की।

वह निराहार एवं निर्जल रहता हुआ कठोर तप कर रहा था।

भगवान् गजानन के ध्यान में लीन रहना और विनायक के षडक्षरी मन्त्र का जप करना ही उसका कार्यक्रम था।

इस प्रकार तपश्चर्या करते हुए उसे एक हजार दिव्य वर्ष व्यतीत हो गए।

तब वरदराज गणेश्वर ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए और कहा- ‘भक्तराज! वर माँगो।’

उसने भगवान् विघ्नराज के दर्शन किए तो हर्ष-विह्वल हो गया और उनके चरणों में प्रणाम कर गद्गद कण्ठ से धीरे-धीरे बोला- ‘हे प्रभो! हे वरदायक विघ्नेश्वर! मैं क्या माँगूँ? यह मेरी समझ में नहीं आता।

आप सर्व ऐश्वर्य निधान से कोई निम्न कोटि की वस्तु माँगूँ तो मेरा वह कार्य उपहास के योग्य ही होगा।

अतएव हे नाथ! आप मुझे ब्रह्माण्ड का राज्य प्रदान कीजिए और अमर बना दीजिए।

मैं शिव, विष्णु आदि से भी युद्ध में पराजित न हो सकूँ।

हे प्रभो! आप मुझे अमोघ शस्त्रधारी कर दें।

मेरे समक्ष कभी कोई विघ्न उपस्थित न हो।’

भगवान् विघ्नराज ने कहा- ‘असुरेन्द्र! तेरी कामना दुःसाध्य होते हुए भी पूर्ण करूँगा।’

यह कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गए।

ममतासुर उनसे वर पाकर अत्यन्त प्रसन्न हो उठा।

उसने शम्बरासुर के पास जाकर समस्त वृत्तान्त कहा तो वह बहुत प्रसन्न हुआ।

उसने अपनी अत्यन्त सुन्दर कन्या ‘मोहिनी’ का विवाह ममतासुर के साथ कर दिया।

कुछ दिन उसने आनन्दोपभोग में व्यतीत किए और तब एक दिन शम्बर की प्रेरणा से वह दैत्यगुरु शुक्राचार्य जी के पास जा पहुँचा।

उसने आचार्य को प्रणाम कर विघ्नराज से वर प्राप्त होने की बात सुनाई।

इससे शुक्राचार्य जी को बड़ी प्रसन्नता हुई।

उन्होंने कहा- ‘असुरेश्वर! तूने विघ्नराज को प्रसन्न कर लिया, यह बहुत अच्छा किया है।’

ममतासुर के आग्रह पर दैत्यगुरु उसके भवन में पधारे और वहाँ उसे दैत्यराज के पद पर प्रतिष्ठित किया तथा अत्यन्त पराक्रमी पाँच बलवान् दैत्य उसके प्रधान नियुक्त कर दिए, जिसके नाम प्रेत, काल, कलाप, कलाजित् और धर्महा थे।उस समय अनेकों बड़े-बड़े दैत्य, दानव एवं राक्षसराज वहाँ उपस्थित थे।

ममतासुर ने सभी को अनेक प्रकार की परिचर्याओं और उपहारों से सन्तुष्ट किया।

फिर वे सभी अपने-अपने स्थान को लौट गए।

इधर ममतासुर ने चिन्तानाशक निर्ममपुरी को अपनी राजधानी बनाया और वहीं एक अत्यन्त वैभवशाली भव्य भवन में रहने लगे।

उसके दो पुत्र हुए, नाम रखे गए धर्म और अधर्म।

वे धीरे-धीरे बड़े होने लगे।

इस प्रकार असुरराज निश्चिन्त एवं निर्भय हुआ सुखपूर्वक गृहस्थ सुख-भोग रहा था।


शम्बरासुर की प्रेरणा से दिग्विजय करना

किन्तु शम्बर को चैन कहाँ? उसने ममतासुर को त्रैलोक्य-विजय के लिए प्रेरित किया।

बोला- ‘वत्स! तुम विघ्नराज गणेश्वर से ब्रह्माण्ड के राज्य की प्राप्ति कर वर पा चुके हो।

इसलिए उसमें पूर्ण समर्थ भी हो, तब तुम्हें उसकी प्राप्ति कर लेनी चाहिए।

देखो, कार्य तो करने से ही होगा, बिना किए तो कुछ मिलता नहीं।’

ममतासुर ने निवेदन किया- ‘आप विश्वास रखें, मैं शीघ्र ही समस्त ब्रह्माण्ड पर विजय प्राप्त कर लूँगा।

मेरे पास असंख्य असुरों की सेना, आपकी दी हुई विद्याएँ सब विघ्नराज प्रदत्त विजय वर विद्यमान हैं, तब मेरी गति कौन रोक सकता है?’

दूसरे दिन उन्होंने शुक्राचार्य से निवेदन किया- ‘प्रभो! मैं अब ब्रह्माण्ड विजय के लिए यात्रा करना चाहता हूँ।

आप मुझपर कृपा करें और अपना शुभ आशीर्वाद प्रदान करें।’

शुक्राचार्य ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा- ‘राजन्! तुम्हें सफलता मिले, किन्तु एक बात ध्यान में रखना कि भगवान् विघ्नराज की कृपा से तुम्हें इतने महान् पराक्रम के वैभव की उपलब्धि हुई है, इसलिए उनसे कभी विरोध मत करना।’

ममतासुर ने उनकी आज्ञा पालन का वचन दिया और प्रणाम कर असुरसेना को तैयार होने की आज्ञा दी।

उसने सर्वप्रथम पृथ्वी के नरेशों पर आक्रमण कर उनपर एक-एक कर विजय प्राप्त की।

इस प्रकार समस्त भूमि को जीतने में उसे अधिक समय नहीं लगा।

अब उसने पाताल-लोक पर चढ़ाई की और शीघ्र ही वहाँ अधिकार कर इन्द्रलोक पर आक्रमण कर दिया।

जहाँ वज्रायुध से घोर युद्ध करना पड़ा।

यद्यपि देवगण अधिक संगठित और पराक्रमी थे तो भी विघ्नराज के वर से प्रबल ममतासुर के समक्ष वे टिक न सके।

अन्त में स्वर्ग पर भी उसका शासन स्थापित हो गया।

इसके बाद उसने विष्णुलोक और शिवलोक को भी अपने अधीन कर लिया।

सर्वत्र उसका निरंकुश शासन स्थापित हो चुका था।

उसके राज्य में धर्म-कर्म का लोप और अधर्म की वृद्धि हो रही थी।

इससे तीनों लोकों में भय व्याप्त हो गया था।

सभी देवता बहुत दुःखित होकर ममतासुर के अत्याचारों से रक्षा का उपाय सोचने लगे।

उस समय भगवान् विष्णु ने कहा, ‘यदि हमें अपना श्रेय साधन करना है तो भगवान् विघ्नराज की उपासना करनी चाहिए।

ये ही प्रभु इस असुर को परास्त कर सकते हैं।’उनकी बात मानकर सब देवता विघ्नराज की प्रसन्नता के लिए तप करने लगे।

फिर जब भाद्रशुक्ला चतुर्थी आई, तब मध्याह्नकाल में भगवान् विघ्नराज ने दर्शन दिए।

देवताओं ने प्रसन्नतापूर्वक उनका स्तवन किया तथा अपने कष्ट की बात सुनाई और फिर अपनी रक्षा की प्रार्थना की।

भगवान् गणेश्वर ने आश्वासन दिया- ‘देवताओ! निश्चिन्त रहो।

मैं ममतासुर को पराजित करूँगा।’

यह कहकर भगवान् गणेश्वर अन्तर्धान हो गए।

महर्षि नारद ने ममतासुर को देवताओं के तप और विघ्नराज के वरदान की बात बताई और फिर कहा- ‘राजन्! भगवान् विघ्नेश्वर अधर्म के अत्यन्त शत्रु हैं और धर्म से प्रसन्न रहते हैं।

किन्तु अब तुम्हें अधर्म, अनाचार आदि का त्याग कर भगवान् विघ्नराज की शरण में जाना चाहिए।

उन भगवान् ने मेरे द्वारा यह सन्देश प्रेषित किया है।’

दैत्यगुरु भी वहीं बैठे थे, उन्होंने भी यही परामर्श दिया।

किन्तु उसके साथी असुरों ने उसे परामर्श दिया- ‘प्रभो! हम इतने बलवान् हैं कि अकेला विघ्नराज कुछ भी नहीं कर सकता।

उसकी क्या शक्ति है वह हमारे समक्ष युद्ध कर सके।

इसलिए आप उससे दबिए मत, आप ब्रह्माण्ड के अधिपति के वश में काल भी रहता है।’

ममतासुर अपने सहयोगी दैत्यों और मन्त्रियों के भ्रमपूर्ण वचनों से भ्रमित हो गया।

इसलिए बोला ‘ऋषिराज! यदि विघ्नराज मुझपर आक्रमण करना चाहते हैं तो वीर धर्म के अनुसार मैं भी उनका सामना करूँगा।’

महर्षि ने भगवान् विघ्नराज को ममतासुर का उत्तर जा सुनाया।

उन्होंने क्रोधपूर्वक कहा- ‘मैं ममतासुर का गर्व नष्ट कर दूँगा।’


ममतासुर का पराजित होना

भगवान् की आज्ञा से युद्ध आरम्भ हो गया।

असुरराज भी अपने दोनों पुत्रों और वाहिनियों के साथ रणांगण में आ उपस्थित हुआ।

भगवान् विघ्नराज ने उसके आयुध स्तम्भित कर दिए।

वह ज्योंही हथियार उठाता त्योंही वे धरती पर गिर जाते।

फिर भगवान् ने अपना दिव्य कमल असुर- सेना के मध्य छोड़ दिया।

उस कमल की गन्ध से सभी असुर मूच्छित हो गए।

ममतासुर भी मूच्छित हुआ पड़ा रहा।

फिर जब उसे होश आया, तब वह कमल को देखकर कम्पायमान हो उठा और विघ्नराज की स्तुति करने लगा।

तब वे भगवान् प्रसन्न हो गए उन्होंने ममतासुर को आदेश दिया- ‘असुरश्रेष्ठ! तू देवताओं को अपने-अपने पद का उपभोग करने दे।

ऋषि-मुनियों और ब्राह्मणों को धर्माचरण की स्वतन्त्रता रहना आवश्यक है।

तू भी अधर्म कार्यों का त्याग कर और अपने को सीमित रख।

जहाँ मेरा पूजन, स्मरण न किया जाता हो वहीं लोगों को मोहित करके उनके हृदय पर अपना राज्य स्थापित कर।

किन्तु मेरे भक्तों के समक्ष सेवक के समान रहता हुआ, उनके सम्मान में लगा रह।’

असुरराज ने उनकी आज्ञा स्वीकार की और फिर चरणों में प्रणाम एवं परिक्रमा कर वहाँ से चला गया।

इससे समस्त देवता और ऋषि-मुनि आदि प्रसन्न होंकर उनकी स्तुति करने लगे।


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