<< गणेश पुराण – चतुर्थ खण्ड – अध्याय – 9
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
देवान्तक-नरान्तक के जन्म-वृत्तान्त
अंगदेश के किसी नगर में एक वेद-शास्त्रों के ज्ञाता रुद्रदेव नामक ब्राह्मण हुए।
वे समस्त निगमागम में पूर्ण पारंगत, देवता, ब्राह्मण और गौओं की पूजा करने वाले तथा भगवत्-भक्त थे।
उनकी पत्नी शारदा अनुपम रूप-लावण्यमयी एवं पतिव्रता थी।
पति की भी पत्नी के प्रति अत्यन्त प्रीति थी, इसलिए वे उसकी सभी इच्छाओं को पूर्ण करने का प्रयत्न करते रहते।
शारदा गर्भवती हुई और नौ मास पूर्ण होने पर उसने दो यमज पुत्रों को जन्म दिया, जिन्हें देख कर रुद्रदेव बहुत प्रसन्न हुए और सोचने लगे कि आज मेरा मनुष्य-जीवन और तपश्चर्या सफल है।
इन अलौकिक दो पुत्र-रत्नों की प्राप्ति से मेरा वंश धन्य हो गया।
रुद्र देव ने अत्यन्त उल्लासपूर्वक पुत्रों के जातकर्मादि संस्कार कराये।
अर्ध्यादि के द्वारा ब्राह्मणों का सत्कार कर मंगलमूर्ति श्रीगणेश का पूजन, स्वस्तिवाचन, मातृका पूजन, आभ्युदयिक श्राद्ध आदि सभी कार्य विधिपूर्वक सम्पन्न किये गए।
संस्कार सम्पन्न होने पर उन्होंने अत्यन्त भक्तिभाव से ब्राह्मणों का पूजन कर, उन्हें रत्नादि धन प्रदान किए।
घर-घर शर्करा बँटवाई और धूमधाम से उत्सवार्थ सुखद ध्वनि वाले बाजे बजवाये गये।
फिर नामकरणार्थ ज्योतिषयों को बुलवाकर उनका भी अर्ध्यादि से सत्कार कर निवेदन किया – ‘दैवज्ञगण! कृपया इन बालकों का नाम निर्देश कीजिए।’
ज्योतिषियों ने गणना आदि के द्वारा निष्कर्ष निकाला- ‘विप्रश्रेष्ठ! यह दौनों बालक निस्संदेह बड़े पराक्रमी और प्रबल प्रतापी होंगे।
इनका नाम देवान्तक और नरान्तक रहेगा।’
रत्नादि दक्षिणा से सन्तुष्ट कर रुद्रदेव ने ज्योतिषियों को विदा किया।
उनके दोनों बालक अत्यन्त सुन्दर थे और वे जो बालक्रीड़ा करने लगे, उससे माता-पिता को बड़ा आनन्द होता।
धीरे-धीरे उनकी क्रीड़ाओं में साहस का भी समावेश होने लगा।
इस कारण जो भी उनकी क्रीड़ाओं को देखता वही आश्चर्यचकित रह जाता।
सभी उन बालकों के साहस की प्रशंसा करते हुए रुद्रदेव को भाग्यवान् बताते।
एक बार विप्रवर रुद्रदेव के घर देवर्षि नारदजी पधारे।
विप्र-दम्पति ने अर्घ्य-पाद्यादि द्वारा सत्कार कर श्रद्धापूर्वक श्रेष्ठ आसन दिया।
देवर्षि विराजमान हो गये।
तब उनकी सेवा में दोनों बालक उपस्थित किये गये तथा बालक से उन्हें प्रणाम कराया गया।महामुनि नारदजी ने उन बालकों को देखकर कहा-‘रुद्रदेव! तुम्हारे दोनों पुत्र बहुत शूर-वीर, प्रबल प्रतापी तथा तीनों लोकों के विजेता होंगे।
वस्तुतः ऐसे यशस्वी पुत्र उत्पन्न होने के कारण तुम बधाई के पात्र हो।’
नारदजी के वचन सुनकर रुद्रदेव और शारदा को बड़ी प्रसन्नता हुई।
उन्होंने देवर्षि से निवेदन किया- ‘मुनिवर! आप इन बालकों पर कृपा कर दीर्घजीवी होने का आशीर्वाद दें तथा यह भी अनुग्रह करें कि यह शत्रुओं को पराजित करके तीनों लोकों में प्रसिद्धि पावें।’
प्रार्थना सुनकर नारदजी ने बालकों के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- ‘यदि यह शिवजी को प्रसन्न कर लें तो सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी।’
तदुपरान्त देवर्षि ने बालकों को शिवजी के पंचाक्षरी मन्त्र (नमः शिवाय) का उपदेश दिया और वीणा पर हरिगुण-गान करते हुए ब्रह्मलोक के लिए चल पड़े।’
देवान्तक और नरान्तक को वर प्रदान करना
दोनों बालक शीघ्र ही बड़े हो गये और उन्होंने माता-पिता के चरणों में प्रणाम कर निवेदन किया- ‘पूज्य पिताजी! आदरणीया माताजी! हम भगवान् शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तप करना चाहते हैं, इसलिए आज्ञा दीजिए।’
रुद्रदेव तो यह चाहते ही थे, क्योंकि नारदजी ने शिवजी की प्रसन्नता में ही बालकों का अभ्यदुय बताया था।
अतः उन्होंने पत्नी से परामर्श कर दोनों को वन में जाने की अनुमति दी।
तब प्रसन्न मन से दोनों भाई वहाँ से चल दिए।
घोर वन में घूमते हुए उन्हें एक ऐसा स्थान मिला, जहाँ अनेक विशाल कन्दराएँ थीं तथा सर्वत्र सुन्दर फल-फूलों से लदे हुए वृक्षों के कारण प्राकृतिक सौन्दर्य बिखरा पड़ा था।
निकट ही एक झरना था, जिससे जल सदैव प्रवाहित होता रहता।
उस स्थान को ही उन्होंने अपनी तपश्चर्या के लिए उपयुक्त समझा।
दोनों ने तपस्या आरम्भ की।
आहार छोड़कर केवल कुछ पत्ते खाकर और पानी पीकर रह जाते।
फिर केवल पानी पीकर ही बहुत दिनों तक तप करते रहे।
तदुपरान्त पानी भी छोड़ दिया।
अब केवल शिवजी का ध्यान करते हुए एक पाँव के अँगूठे से खड़े हुए।
उस समय उनका चित्त एकाग्र था और जिह्वा पर केवल पंचाक्षरी मन्त्र चल रहा था।
इस प्रकार एक पाँव के अँगूठे से खड़े हुए तथा केवल वायुपान करते हुए उन्हें दो हजार वर्ष व्यतीत हो गए।
ज्यों-ज्यों समय बढ़ता गया, त्यों-त्यों उनकी तपस्या उग्र होती गई।
सभी प्रकार की तपश्चर्या को मिलाकर दस हजार वर्ष व्यतीत हो गए।
उनका शरीर कृश होता जा रहा था, किन्तु मुख पर तेज बढ़ता गया।
उनके तेज से वह वन प्रायः अँधेरी रातों में भी जगमगाया रहता।भक्तों की अविचल भक्ति देखकर भगवान् उमानाथ का आसन डगमगाने लगा।
उन्होंने समझ लिया कि अब अधिक विलम्ब करना उचित नहीं है, इसलिए भारी-भरकम वृषभ पर आरूढ़ हुए और उसी वन-प्रान्त की ओर चल पड़े।
परन्तु उनका इस प्रकार जाना कोई देख नहीं सकता था।
भगवान् शंकर देवान्तक-नरान्तक के समक्ष प्रकट हुए तो वे दोनों उन्हें एकटक देखने लगे।
उनके पंचमुख, त्रिलोचन, दशभुज एवं शीश पर गंगा तथा माथे पर अर्द्धचन्द्र युक्त रूप को देखकर दोनों को विश्वास हो गया कि यही हमारे उपास्यदेव हैं और तब उन्होंने आनन्दातिरेक में भरकर पहिले तो नृत्य किया और फिर प्रणाम करने के लिए शिवजी के समक्ष धरती पर लेट गये।
तदुपरान्त कुछ स्वस्थ होकर भक्तिभावपूर्वक शिवजी की स्तुति करने लगे- ‘हे देवाधिदेव महादेव! आपके अलभ्य दर्शन प्राप्त करके हम दोनों अत्यन्त धन्य हो गए।
हे प्रभो! सनकादि मुनिगण एवं सहस्त्रमुख वाले शेष भगवान् भी आपकी ठीक प्रकार से स्तुति करने में असमर्थ हैं, तो हम अज्ञानी बालक ही आपकी स्तुति कैसे कर सकते हैं? हे नाथ! आप सर्व समर्थ हैं।
आपकी कृपा प्राप्त करके ही सर्वथा दीन-हीन व्यक्ति भी सर्वांग सुन्दर बन जाते हैं।
न जाने कितने रंकों को आपने राजा बना दिया है।
हे भक्तवत्सल! आपके लिए कहीं, कुछ भी तो असम्भव नहीं है।’
कहते-कहते दोनों तपस्वियों के कण्ठ गद्गद हो गए।
उनके मुख से शब्द भी नहीं निकल रहे थे।
यह देखकर प्रसन्न हुए भगवान् वृषभध्वज ने उनसे कहा- ‘विप्रतनयो! तपस्वियो! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, अतएव अपना अभीष्ट वर माँगो।’
देवान्तक-नरान्तक ने भगवान् आशुतोष को अपने ऊपर प्रसन्न जानकर निवेदन किया-‘देवाधिदेव! जगदीश्वर! यदि आप प्रसन्न हैं और वर देना चाहते हैं तो हमें यह वर दीजिए कि कोई भी मनुष्य, यक्ष, राक्षस,देवता, देवाधिपति इन्द्र, गन्धर्व, किन्नर, भूत-पिशाच आदि हमें मार न सकें।
हम किसी से भी पराजित न हों।
पशु, ग्रह, नक्षत्र, सर्प, कृमि, कीट आदि के द्वारा भी हमारी मृत्यु न हो।
हम किसी शस्त्र अस्त्रादि से न मारे जायें।
वन, ग्राम या नगर आदि में कहीं भी हमारी हिंसा न हो सके।
इसके साथ ही हे सर्वेश्वर! हमें तीनों लोकों का राज्य और चरणारविन्दों की सुदृढ़ भक्ति प्रदान कीजिए।’
भगवान् शंकर ने अपना कर-कमल उनके मस्तकों पर फिराते हुए कहा- ‘भक्तो! तुम्हारे सभी अभीष्ट पूर्ण होंगे।
तीनों लोकों पर तुम भय-रहित रूप से शासन करोगे।’
दोनों भाइयों ने हर्ष-विभोर होकर भगवान् भूतनाथ के चरणों में पुनः प्रणाम किया और तभी उनके देखते-देखते वे अन्तर्धान हो गये।
वरदान की प्राप्ति से सन्तुष्ट एवं सफल मनोरथ हुए दोनों विप्रपुत्र घर लौटे और माता-पिता के चरणों में साष्टांग प्रणामकर भगवान् आशुतोष से वर प्राप्ति का समाचार उन्हें सुनाया।पुत्रों की तपस्या सफल हुई सुनकर रुद्रदेव और उनकी पत्नी शारदा को बड़ी प्रसन्नता हुई।
उन्होंने पुत्रों को गोद में भरकर उनके मस्तक सूँघते हुए कहा – ‘पुत्रो! तुमने अपना जीवन पवित्र बना लिया तथा कुल को भी यशस्वी बना डाला।’
तदुपरान्त उन विप्र-श्रेष्ठ ने अनेक ब्राह्मणों और तपस्वियों को बुलाकर उनका विधिवत् पूजन किया तथा अनेक प्रकार के सुस्वादु भोजन कराकर रत्नादि युक्त दक्षिणा दी।
तब वे ब्राह्मण और तपस्वी उनकी प्रशंसा करते हुए अपने-अपने स्थानों को गये।