<< गणेश पुराण – पंचम खण्ड – अध्याय – 8
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
विनायक का अभिनन्दन-पूजन
काशी नगरी पर आए दिन दैत्यों के आक्रमण होने और विनायक द्वारा उनका संहार किए जाने से समस्त प्रजाजनों, ऋषि-मुनियों, राज- परिवारियों, विशिष्टजनों आदि को यह विश्वास हो चला था कि अवश्य ही इन भगवान् गजानन ने असुरों और दुष्कर्मियों को नष्ट करने के लिए अवतार धारण किया है।
इसलिए सभी का यह विचार हुआ कि इनका यथा विधान अभिनन्दन एवं पूजन किया जाये।
अतएव एक दिन अनेक प्रजाजन सूर्योदय से पूर्व ही राजभवन के द्वार पर जा पहुँचे।
काशीनरेश ने उनका सत्कार करते हुए पूछा- ‘आप लोगों ने किसलिए कष्ट किया है? जो कार्य हो, निःसंकोच बताइये।
क्योंकि प्रजा के कष्टों को सुनना और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करना राजा का परम धर्म है।
यदि कोई कष्ट न हो तो भी जो मन्तव्य हो, उसे स्पष्ट कीजिए।’
प्रजाजनों ने विनम्र निवेदन किया- ‘राजन्! अत्यन्त सौभाग्य का विषय है कि कुछ दिनों से भगवान् गजानन यहाँ विराजमान हैं, जिससे इस पुरी पर आने वाले समस्त संकट शीघ्घ्र दूर हो जाते हैं।
लगता है कि इनका आगमन काशी निवासियों की विपत्तियाँ दूर करने के लिए ही हुआ है।
इसलिए उनकी पूजा का सामूहिक रूप से अवसर मिल सके तो यह हमारा परम सौभाग्य होगा।
हमें आशा है कि यह प्रार्थना अवश्य स्वीकार की जायेगी।’
महाराज के स्वीकार कर लेने पर उनका हार्दिक अभिनन्दन किया गया।
तदुपरान्त धार्मिक और निर्धन सभी यह चाहने लगे कि विनायक भगवान् हमारे घर पधार कर भोजन करें।
काशी में निवास करने वाले एक वेद-शास्त्रों के ज्ञाता शुक्ल शर्मा नामक तपस्वी ब्राह्मण थे।
उनकी पतिव्रता पत्नी का नाम विदुमा था।
यह ब्राह्मण अत्यन्त निर्धन थे।
जो कुछ दैवेच्छा से स्वतः प्राप्त हो जाता, उसी में जीवनयापन किया करते थे।
शुक्ल शर्मा ने विनायक से आतिथ्य स्वीकार करने का आग्रह किया।
भगवान् तो किसी के ऐश्वर्य के भूखे नहीं, भावना के भूखे हैं।
उन विद्रुमा ने भिक्षा में प्राप्त रूखे-सूखे समस्त अन्न को एक साथ पीसकर पिष्ठी-सी बनाकर पका डाली तथा कुछ चावलों को पानी के साथ पकाकर पतला भात बना लिया था।
उसे शंका थी कि क्या भगवान् विनायक उसका अस्वादु भोजन अंगीकार करेंगे? इसलिए यह बहुत चिन्तातुर थी।
विनायकदेव पधारे।
विद्रुमा ने उठकर भावात्मक ढंग से उनकी स्तुति की, किन्तु लज्जा के कारण भोजन नहीं परोसा।
भगवान् से भला क्या छिपा था? उन्होंने स्वयं कहा- ‘माता! लाओ, तुमने जो कुछ बनाया है वह खाने को दो।’
‘माता’ के सम्बोधन ने विद्रुमा को निहाल कर दिया।
उसने ही पात्रों में रखी पिष्ठी और पतले भात को सामने ला रखा।
विनायक ने उन्हें बड़े स्वाद से खाया और बोले- ‘वाह, कैसा अद्भुत स्वाद था, इतना सुस्वादु भोजन तो मैंने आज तक नहीं किया।’
भोजन के पश्चात् उन्होंने जल से हाथ धोकर कुल्ला किया और फिर बोले- ‘निष्पाप विप्रवर! मैं तुम्हारी भक्ति से अत्यन्त प्रसन्न हूँ।
अतएव इच्छित वर माँग लो।’
शुक्ल शर्मा ने निवेदन किया- ‘प्रभो! आपने सम्पन्न लोगों के आग्रह की उपेक्षा करके मुझ रंक को दर्शन देकर कृतार्थ किया है, यह मेरा परम सौभाग्य ही है।
हे नाथ! मैं आपकी अनन्य भक्ति माँगता हूँ।
अतः कृपा कर वही मुझे दीजिए।’
‘ऐसा ही हो’ कहकर भगवान् विनायक वहाँ से चल दिए।
शुक्ल-दम्पती ने उन्हें पहुँचाने के लिए बाहर तक साथ आने की चेष्टा की तो वे उनकी द्रुत गति का साथ न दे सके।
उन्हें लगा कि भगवान् विनायकदेव अन्तर्धान हो गए हैं।
उस दिन वे भगवान् विनायक का ही स्मरण करते रहे।
रात्रि में भूखे ही सो गए, किन्तु प्रातःकाल उठे तो उनके आश्चर्य की सीमा न रही।
उनका पुराना टूटा-फूटा घर न जाने कहाँ गया था।
आँख खुलते ही उन्होंने स्वयं को एक अत्यन्त वैभवशाली भवन में पाया।
वे सोचने लगे कि हम कब, कैसे यहाँ आ गये? तभी कुछ सेवकों ने वहाँ आकर कहा-‘हम सब आपके सेवक हैं, आज्ञा कीजिए क्या करें?’
शुक्ल शर्मा समझ गए कि यह सब विनायकदेव की ही कृपा है, अन्यथा मेरी यह जीर्ण-शीर्ण कुटी इन्द्र भवन के समान कैसे हो जाती तथा यह सेवक-सेविकाएँ कहाँ से आ जाते? उन सर्वज्ञ प्रभु ने प्रत्यक्ष में तो कुछ नहीं दिया, किन्तु परोक्ष रूप में हमें अतुलनीय वैभव प्रदान कर दिया।
‘धन्य हो प्रभो! आपकी कृपा का वर्णन करने के लिए हमारे पास शब्द भी तो नहीं हैं।
आपके चरणों में हमारा बारम्बार नमस्कार है.।’
ऐसा कहते-कहते शुक्ल दम्पती भाव-विभोर हो गए और उन्हें अपने शरीर की भी सुधि न रही।
काशीनगरी पर नरान्तक का आक्रमण
नरान्तक महापराक्रमी तो था ही, कूटनीति में भी अत्यन्त कुशल था।
उसने शूर और चपल नामक दो गुप्तचर काशी में भेज रखे थे, जो केवल गुप्तचरी ही नहीं करते थे, विनायकदेव को मार डालने के अवसर की भी ताक में रहते थे।
वे वहाँ रहते हुए नागरिकों में पूर्ण रूप से घुल-मिल गये थे, इसलिए उनके प्रति किसी प्रकार का सन्देह भी नहीं होता था।
एक दिन विनायकदेव पालकी में बैठे हुए राजभवन की ओर जा रहे थे।
उस समय पालकी उठाने वाले दो सेवकों के अतिरिक्त अन्य किसी को न देखकर शूर और चपल ने परस्पर परामर्श किया कि विनायक को मारने के लिए यह अवसर अधिक उपयुक्त है।
इसलिए वे दोनों घोर गर्जन करते हुए पालकी पर टूट पड़े।
सेव कों के हाथ से पालकी के हत्थे छूट गये और पालकी धरती पर जा गिरी।
सेवक भय से काँपते-सिकुड़ते एक ओर खड़े हो गए।
उन्होंने समझ लिया कि आज प्राणों की कुशल नहीं है।
किन्तु विनायकदेव पहले से ही सावधान थे।
उन्होंने पालकी से उठकर दोनों को हाथों से पकड़ लिया और चक्र के समान घुमाने लगे।
राक्षसों को उनके बल का क्या पता था? यदि उन्हें अपनी पराभव की कल्पना होती तो वे ऐसा कदापि न करते, परन्तु अब तो उन्हें अपने ही प्राणों पर संकट दिखाई देने लगा।
इसलिए ‘त्राहि माम्-त्राहि माम्’ की पुकार करने लगे।
विनायक ने उनकी याचना सुनी तो दयार्द्र हो उठे।
उन्हें अपनी पकड़ से छोड़ते हुए बोले- ‘तुम कौन हो? अपना यथार्थ परिचय दो, अन्यथा प्राणदान नहीं मिलेगा।’
उन दोनों ने कहा- ‘प्रभो! हम नरान्तक के गुप्तचर हैं, हमें आपको मार डालने के लिए ही यहाँ रखा गया था।
अब हम यहाँ नहीं रहेंगे, इसलिए हमें मारिये मत।’
प्रजागणों के कहने पर भी उन्होंने राक्षसों को नहीं मारा।
बोले- ‘मैं इन्हें अभय दे चुका हूँ, इसलिए मारूँगा नहीं।
हाँ, इन्हें तुरन्त ही नगरी छोड़कर चले जाना होगा।’
वे दोनों तुरन्त ही चल दिये।
नरान्तक की सभा में जाकर उन्होंने अभिवादन किया और फिर विनायक पर अपने आक्रमण की विफलता का समाचार यथावत् सुना दिया और अन्त में बोले- ‘महाराज! उस ऋषिकुमार को कोई जीत नहीं सकता, इसलिए उससे शत्रुता त्याग देने में ही भलाई है।’
परन्तु नरान्तक को तो अपने बल का गर्व था।
उसने गुप्तचरों की बात नहीं मानी और बोला- ‘सेनापति! चतुरंगिणी सेना लेकर काशी पर आक्रमण कर दो।
मैं स्वयं ही तुम्हारे साथ चलूँगा।
फिर देखता हूँ कि वह कैसे अपने प्राण बचाता है?’
आदेश मिलते ही तैयारी आरम्भ हो गई।
दैत्यों और वीरों में रणोन्माद छा गया।
दिगन्तव्यापी युद्ध-वाद्य बजने लगे।
जब गजाश्वारूढ़ सेनापतियों, महारथियों, पदातियों की विशाल सेना एकत्र हो गई तब प्रस्थान का डङ्का बज उठा।
समूची रणवाहिनी काशी की ओर द्रुतगति से चल दी।
काशिराज को दूत के द्वारा दैत्यसेना की चढ़ाई का समाचार मिला।
वे उस समय भोजन करने बैठे ही थे, कि शत्रु के आक्रमण की बात सुनकर अन्न का स्पर्श मात्र करके तुरन्त उठ खड़े हुए और प्रधान सेनाध्यक्ष को बुलाकर बोले-तुरन्त सेना को राज्य सीमा पर भेजो, जिससे कि बढ़ता ही चला न आवे।
मैं भी शीघ्र ही आ रहा हूँ।’
महाराज ने तुरन्त ही वीरवेश धारण किया और फिर आज्ञा लेने के लिए विनायक के पास पहुँचे।
विनायक ने कहा- ‘राजन्! वीरतापूर्वक शत्रु का सामना करो, तुम्हारा कल्याण होगा।’
‘जय विनायक!’ कहते हुए काशिराज अश्व पर सवार होकर रणक्षेत्र की ओर बढ़े।
उनकी सेना भी तैयार होकर वेगपूर्वक आगे बढ़ी।
तभी गुप्तचर ने समाचार दिया- ‘महाराज! दैत्यसेना असंख्य है, वह समुद्र के समान अत्यंत वेग से उमड़ती आ रही है।
अपने सीमित साधनों और अल्प सैनिकों के द्वारा उनका सामना करना किसी प्रकार सम्भव नहीं है।
वही स्थिति है महाराज! जो सूर्य के सामने खद्योतों की होती है।
इसलिए राक्षसों से सन्धि कर लेने में ही भलाई है।’
काशीनरेश को चिन्ता
महाराज ने अपने अमात्यों से परामर्श किया तो एक वृद्ध अनुभवी अमात्य बोला- ‘राजन्! स्थिति बहुत ही शोचनीय है।
वे लोग टिड्डी दलों के समान बढ़े चले आ रहे हैं तो हमसब काल के गाल में चले जायेंगे और हमारा राज्य शत्रुओं की विलास-भूमि बन जायेगा।’
काशिराज द्वारा उपाय पूछने पर उसने पुनः कहा- ‘महाराज! हमें सन्धि का प्रस्ताव लेकर अपने प्रतिनिधि भेजने चाहिए।
प्रबल शत्रु से निर्बल का युद्ध कितनी देर चलेगा।
नीति-वचन है, यदि शत्रु को अनुकूल बनाना आवश्यक हो तो उसके साथ सहभोजन, प्रेम, सम्भाषण, कन्यादान, वस्त्र-दान, धनदान, नमस्कार एवं स्तुति आदि में भी संकोच नहीं करना चाहिए।
इसलिए यदि दैत्यराज विनायक को प्राप्त करके भी प्रसन्न होता तो उन्हें भी दे देना अनुचित नहीं होगा।’
अन्य सभी अमात्यों, सेनाध्यक्षों आदि ने वृद्ध अमात्य की उक्त बात का ही अनुमोदन किया तथा सभी कहने लगे- ‘महाराज! जैसे भी दैत्यराज प्रसन्न हो सकें, वह कार्य तुरन्त कीजिए।’अभी यह विचार चल ही रहा था कि काशिराज की सेना का घेरा तोड़कर दैत्यसेना ने तीव्रतम आक्रमण कर दिया।
उन्होंने कहीं आग लगाई, कहीं लूटमार की और कहीं स्त्रियों का अपहरण आरम्भ कर दिया।
सर्वत्र विपत्ति ही दृष्टिगोचर हो रही थी।
चीत्कार के कारण आकाश भी गुंजायमान हो गया।
अनेक महिलाओं का सतीत्व नष्ट किया गया और अनेक महिलाएँ अपने सतीत्व की रक्षा के लिए आत्मघात करने लगीं।
दैत्यसेना की विजय
महाराज को अपनी प्रजा की दुर्दशा देखकर बड़ा दुःख हुआ और वे अपने अमात्यों और सेनापतियों को सम्बोधित करते हुए तीव्र स्वर में बोले- ‘वीरो! अब सन्धि का समय नहीं है।
जब तक हम जीवित हैं, तब तक शत्रु को आगे बढ़ने और उत्पात मचाने से रोकना हमारा प्रमुख कर्त्तव्य है।
अतएव शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ो और अपने प्राणों की बाजी लगा दो।
कायर बनकर मरने से तो युद्ध में प्राण देकर मरना ही श्रेयस्कर है।’
महाराज का इतना कहना था कि उसकी सेना तेजी से आगे बढ़कर शत्रु के समक्ष जा डटी।
उसने दैत्यसेना का आगे बढ़ना रोक दिया।
कुशल सेनापतियों ने डटकर लोहा लिया कि असुरदल गाजर-मूली के समान कट-कटकर गिरने लगा।
कुछ सेना नगर-रक्षा के कार्य में जुट गई।
उसने नगर में घुसे हुए दैत्यों को पकड़कर मार डाला।
नरान्तक को यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि काशिराज की अल्प सेना ने उसकी अत्यन्त विशाल सेना को काट डाला।
अब दैत्य-सेना हथियार फेंक फेंककर भाग रही थी।
बहुत रोकने पर भी कोई नहीं रुकता था।
परन्तु काशिराज के सैनिक विजय गर्व में इतना गर्वित हो गये कि उन्हें अपनी सुरक्षा का भी ध्यान नहीं रहा।
काशिराज स्वयं भी यह भूल गये कि दैत्यगण बहुत छली-प्रपंची होते हैं।
वे हारकर भी पुनः आक्रमण कर सकते हैं।
और, हुआ भी यही।
दैत्यसेना का शिविर पीछे हटाकर लगा दिया गया था और काशिराज एवं उनकी सेना की प्रत्येक गतिविधि पर दृष्टि रखी जा रही थी।
अवसर पाते ही सैकड़ों दैत्य उनके व्यूह में घुसे और काशिराज को पकड़कर ले गये।
उनके साथ दो अमात्य-पुत्र भी थे जो बन्दी बना लिये गए।
अब नरान्तक बहुत प्रसन्न था।
उसने काशी में प्रवेश करने का विचार कर काशीनरेश और अमात्य-पुत्रों को बन्दी वेश में आगे-आगे पैदल चलाया और पीछे-पीछे अपनी पुनर्गठित विशाल सेना को चलने का आदेश दिया।
विजयमद में झूमती हुई सेना काशी में प्रविष्ट हो गई।
उसके अत्या चारों से नगरवासियों के हृदय काँप उठे।
लूटमार, अपहरण, सतीत्वनाश, अग्निदाह आदि का ताण्डव आरम्भ हो गया।
यह देखकर काशिराज के तरुण सैनिकों में ग्लानि उत्पन्न हुई और युद्ध के लिए कटिबद्ध हो गये।
दैत्यसेना राजभवन के समीप पहुँची सुनी तो महारानी का हृदय काँप उठा।
वे रोने लगीं, क्योंकि दैत्यों से धन-वैभव तो क्या, लाज बचाना भी सम्भव नहीं था।
महाराज के बन्दी होने के समाचार ने तो उनपर विपत्ति का पहाड़ ही डाल दिया था।
महारानी का करुण विलाप विनायक के कानों में पड़ा तो वे क्रोधित हो उठे।
उन्होंने घोर गर्जन कर सिद्धि का स्मरण किया।
वह तुरन्त ही उपस्थित होकर बोली- ‘क्या आदेश है देव?’
उन्होंने कहा- ‘दैत्य बढ़े चले आ रहे हैं और तुम आदेश पूछती हो देवि? अपने कर्त्तव्य का स्वयं निश्चय करो।’
सिद्धि ने उनका मन्तव्य समझ लिया।
उनके संकेतमात्र पर अत्यन्त भयानक मुख, हल जैसे दाँत, सर्प जैसी जिह्वा, कुठार जैसे नख और पर्वत-शिखर जैसे मस्तक वाले असंख्य आयुधधारी सैनिक प्रकट हो गये।
उन्होंने विनायक के समक्ष आकर मस्तक झुकाये और विनीत स्वर में निवेदन किया – ‘परमेश्वर! हमें बड़ी भूख लगी और अन्न प्रदान कीजिए और कार्य बताइये।’
विनायक बोले- ‘तुम समस्त दैत्यसेना को खा जाओ और फिर नरान्तक का मस्तक काटकर मेरे समक्ष उपस्थित करो।’
‘जो आज्ञा’ कहते हुए वे वीर गर्जन करते हुए दैत्यसेना की ओर बढ़ चले।
उन्होंने तुरन्त ही राक्षसों को काटना और उदरस्थ करना आरम्भ कर दिया।
उनके सामने राक्षसी सेना किंकर्तव्यविमूढ़ हुई प्राणविहीन होने लगी।
किसी को कहीं भागने का अवसर नहीं था।
अपने असंख्य सैनिकों और वाहनों को इस प्रकार बात की बात में विनाश हुआ देखकर नरान्तक व्याकुल हो उठा और दिव्य वीरों पर भयंकर बाण-वर्षा करने लगा।
किन्तु उसका सभी प्रयत्न निष्फल था।
इसी समय दिव्य वीरों के प्रधान ने नरान्तक को पकड़ लिया और उससे कहा- ‘दुष्ट! मैं तुझे छोड़ नहीं सकता, चाहूँ तो अभी तेरा मस्तक पृथक् कर दूँ।
किन्तु एक अवसर देने के लिए तुझे विनायक भगवान् की सेवा में लिये चलता हूँ।
अब भी गर्व छोड़कर उनकी चरण-शरण को प्राप्त कर ले तो तेरे समस्त पाप नष्ट हो सकते हैं।’
यह कहकर उसने नरान्तक को विनायक के समक्ष उपस्थित किया और चरणों में प्रणाम करता हुआ बोला- ‘प्रभो! आपके आदेशानुसार इस दैत्य की समस्त सेना को उदरस्थ कर लिया गया।
यह राक्षस आपकी सेवा में उपस्थित है, इसे मोक्ष प्राप्त करावें।
और मुझे सोने के लिए कोई उपयुक्त स्थान प्रदान करें।’
विनायक बोले- ‘तुम मेरे मुख में घुसकर जहाँ चाहो, वहाँ विश्राम करो।’
यह कहकर अपना मुख खोल दिया।
तभी वह दिव्य पुरुष उनके मुख में प्रविष्ट होकर विलीन हो गया।
काशिराज ने विनायक के चरण पकड़ लिए और भावविभोर होकर स्तुति करने लगा-
“त्वमेव ब्रह्मा विष्णुश्च महीशो भानुरेव च।
त्वमेव पृथिवी वायुरन्तरिक्षं दिशो द्रुमाः।
पर्वतैः सहिताः सिद्धा गन्धर्वा यक्षराक्षसाः॥”
हे नाथ! आप ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं सूर्य हैं, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, दिशा, वृक्षों सहित पर्वत, सिद्ध, गन्धर्व, यक्ष और राक्षस सभी कुछ आप हैं।
यह समस्त जड़-चेतन समुदाय आपका ही रूप है।
प्रभो! आप सर्व समर्थ, सर्वाधार, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञ हैं।’
७५ तदुपरान्त काशिराज ने विनायकदेव का षोड़शोपचार पूजन किया और ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के दान दिये।
सर्वत्र विजयोल्लास में उत्सव मनाये गये।
घर-घर में मंगलाचार होने लगा।
जिधर देखो ‘विनायक भगवान् की जय’ का घोष सुनाई देता था।’
नरान्तक का संहार
नरान्तक को विनायकदेव की आज्ञा से राजभवन में ही बन्दी अवस्था में रखा गया था।
उसके साथ सम्मान का व्यवहार किया गया तथा भोजन-शयनादि की भी ठीक व्यवस्था रखी गई।
लोगों ने कहा- ‘इस दुष्ट को तड़पा-तड़पा कर भूखा मार देना चाहिए।
क्योंकि अत्याचारी को दण्ड दिया ही जाना चाहिए।’
विनायक ने कहा- ‘इस प्रकार शत्रु का वध करना कायरता होगी।
हमारा कर्त्तव्य है कि बन्दी अवस्था में भी उसे कोई कष्ट न होने दें।
इस प्रकार विनायक की आज्ञा का पालन किया गया।
नरान्तक समझ गया कि ‘यह बालक कोई ईश्वर-भक्त तो है ही, जिसने दिव्य सेना उत्पन्न करके उसके द्वारा समस्त दैत्यसेना का भक्षण करा दिया।
यदि यह चाहे तो सभी कुछ कर सकता है।
परन्तु मुझे इसके साथ युद्ध तो करना ही चाहिए।
यदि इसके हाथ से मारा गया तो मोक्ष मिलेगा अथवा यह मुझसे हार गया तो फिर मैं समस्त मनुष्य लोक का स्वामी रहूँगा ही।’
उसने विनायक से मिलने की इच्छा प्रकट की तो वे उसके समक्ष पहुँच गए।
उन्हें देखते ही दैत्यराज बोला- ‘अरे बालक! तूने तो बड़ा इन्द्रजाल दिखाया! किन्तु, तू जानता नहीं कि हम दैत्यगण स्वभाव से ही ऐन्द्रजालिक होते हैं।
अकेले मेरे से ही समस्त ब्रह्माण्ड कम्पायमान रहते हैं।
मेरे भू-विक्षेप मात्र से वायु चलती, वर्षा होती और काल की गति नियन्त्रण में रहती है।
सूर्य-चन्द्रमा भी मेरी आज्ञा के बिना गति नहीं कर सकते।
तब तू मेरे क्या अनिष्ट कर सकता है?’
विनायक बोले-‘अब भी तेरा गर्व नष्ट नहीं हुआ? अरे मूढ़! तू अपनी सेना को नष्ट होती हुई स्वयं देख चुका है, फिर भी तेरे नेत्र नहीं खुले? उस समय तेरा पराक्रम कहाँ था जब तू पकड़कर यहाँ लाया गया था?’
नरान्तक ने कहा- ‘मेरे पराक्रम को चुनौती देता है मूर्ख! मैं तुझे अभी नष्ट किये देता हूँ।’
यह कहकर वह सहसा उठा और विनायक पर झपट पड़ा।
तभी काशीनरेश ने उसे ललकारा ‘निर्लज्ज! अभी भी तेरा अहंकार मरा नहीं? जेबरी जल गई, किन्तु बल नहीं गया।
अरे मूर्ख! तू निरर्थक अपने प्राण क्यों खोना चाहता है?’
नरान्तक क्रोधित होकर बोला- ‘अरे कायर! इस बालक की ओट लेकर वीर बनना चाहता है।
परन्तु तेरे जैसे नरों को मारने में समर्थ होने के कारण ही मेरा नाम नरान्तक हुआ है।
काशिराज बोले- ‘देवप्राप्त वर और पुण्य तभी तक कार्य करते हैं जिनका भोग अथवा अवधि समाप्त नहीं हो जाती।
तेरे नर की अवधि और पुण्य दोनों ही समाप्त हो चुके हैं।
क्योंकि तू साक्षात् भगवान् विनायक के प्रति अपशब्दों का प्रयोग करता हुआ उनसे व्यर्थ ही शत्रुतां मोल ले रहा है।’
बस, इतना सुनते ही दैत्यराज अत्यन्त उग्र हो उठा।
उसने झपट कर काशिराज का धनुष छीना और उसके दो टुकड़े करके फेंक दिए।
फिर उन्हें धक्का देकर उनके वक्षःस्थल पर चढ़ बैठा और मारने का प्रयत्न करने लगा।विनायक ने काशीनरेश को इस प्रकार दुर्दशाग्रस्त देखा तो नरान्तक के विशाल मस्तक पर परशु प्रहार किया जिससे वह दैत्य कुछ समय के लिए मूच्छित हो गया, किन्तु चेतना लौटने पर उठकर घोर युद्ध करने लगा।
उसने दौड़कर बड़े-बड़े वृक्ष उखाड़कर विनायक पर फेंके, पर यह देखकर उसे अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि उसके द्वारा फेंके जाने वाले सभी वृक्ष विनायक के परशु की धार का स्पर्श पाते ही चूर्ण-विचूर्ण हो जाते थे।
अब उसने आसुरी माया फैलाई और विविध रूप धारण कर प्रकट होने लगा।
विनायक ने उसकी माया को नष्ट कर दोनों हाथ काट डाले।
किन्तु वर-प्राप्ति के कारण उसके नवीन हाथ उत्पन्न हो गए।अब विनायक ने उसका मस्तक काट दिया, किन्तु वह भी नया उत्पन्न हो गया।
इस प्रकार उसके साथ और मस्तक बार-बार कटने पर भी नवीन उत्पन्न हो जाते।
इस प्रकार वह दैत्य किसी भी प्रकार वश में नहीं आ रहा था।
यह देखकर विनायकदेव ने तीक्ष्ण बाणों की मार से उसके दोनों पाँव काट दिये।
वे पाँव तुरन्त ही आकाश-मार्ग में उड़ते हुए स्वर्ग में देवान्तक के समीप आ गिरे।
इधर उसके पाँव भी नवीन निकल आये।
उन्होंने उसका मस्तक पुनः काटा, जोकि उसके पिता रुद्रदेव के सम्मुख जाकर गिरा।
दैत्यराज को नवीन मस्तक की पुनः प्राप्ति हो गई।
यह देखकर विनायकदेव ने सोचा कि अब इसे अन्य उपाय से वश में करना होगा।
उन्होंने तुरन्त ही मोहनास्त्र का प्रयोग किया, जिससे दैत्यराज इतना मोहित हो गया कि उसे दिन-रात्रि का भी ध्यान नहीं रहता।
वह यह भी नहीं समझ पा रहा था कि मैं जिस बालक से युद्ध कर रहा हूँ वह स्त्री या पुरुष अथवा मनुष्य है या पशु।
तभी उसे ध्यान आया- ‘जब भगवान् शंकर ने वर प्रदान किया था, तब अन्त में यह भी कहा था कि तेरी मृत्यु तभी होगी जब मतिभ्रम उत्पन्न हो जाएगी।
उसने सोचा तो क्या मेरा मरणकाल उपस्थित है?’
वस्तुतः वह उसका मरणकाल ही था।
भगवान् विनायक ने विराट् रूप धारण कर लिया और नरान्तक को हाथों में उठाकर पुष्प के समान मसल डाला।
इस प्रकार दैत्यराज का अस्थिपंजर बिखर गया और उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।
पिता रुद्रदेव का शोकित होना
काशिराज प्रसन्न हो गए।
सर्वत्र हर्षोल्लास छा गया।
‘विनायक भगवान् की जय’ का घोष गूंज उठा।
सभी ने उनके चरणों में प्रणाम किया और इनका विधिवत् पूजन कर महाराज ने ब्राह्मणों को उनकी इच्छित वस्तुएँ दान कीं।
इस प्रकार नरान्तक के मरने से धरती का आधा बोझ उतर गया।
उधर विप्रवर रुद्रकेतु और उनकी साध्वी पत्नी शारदा ने अपने प्रतापी पुत्र का कटा हुआ मस्तक देखा तो अत्यन्त ही व्याकुल हो उठे।
आरम्भ में तो उन्हें अपने पुत्रों का आचरण अच्छा नहीं लगा, किन्तु त्रैलोक्य विजय कर लेने और सर्वत्र आधिपत्य स्थापित कर लेने के कारण उनकी अप्रसन्नता दूर हो चुकी थी।
रुद्रकेतु और शारदा दोनों ही नरान्तक के लिए विलाप करने लगे।
फिर वे देवान्तक के पास स्वर्ग में पहुँचे जहाँ देवान्तक भी अपने अनुज के दोनों कटे हुए पाँव देखकर चिन्तातुर हो रहा था।
उसने गुप्तचर भेजकर पता लगाया तो मृत्यु का विश्वास होने पर वह भी रोने लगा।
तभी उनके अमात्यों ने कहा- ‘महाराज! युद्धक्षेत्र में हार या जीत तो होती ही है।
शत्रु के प्राण लेना या उनके हाथों स्वयं मर जाना सामान्य बात है।
फिर पृथ्वी पर तो आयु भी सौ वर्ष की ही मानी जाती है, इसलिए अब न मरते तो शतायुष्य होने पर तो मृत्यु आ ही सकती थी।
इसलिए अपने भाई की मृत्यु का शोक न करके शत्रु से प्रतिशोध करना चाहिए।’
देवान्तक को भी प्रतिशोध की बात समझ में आई और उसने अपने माता-पिता से कहा-‘जो कुछ हो गया, वह तो अब मिट नहीं सकता, इसलिए शोक को त्यागिये और मुझे आज्ञा दीजिए कि शत्रु का वध करने के लिए स्वयं जाऊँ।
आप विश्वास कीजिए कि मैं उसे अवश्य मार डालूँगा।
मेरी भृकुटि की वक्रता देखकर त्रिलोकी काँप उठती है, तब वह बेचारा अल्प बल काशिराज उस बालक की रक्षा कैसे कर पायेगा?’
यह कहकर उसने घोर गर्जना की और अमात्यों एवं सेनापतियों को बुलाकर सेना तैयार करने का आदेश दिया।
कुछ ही समय में विशाल दैत्य-सेना प्रस्थान के लिए तैयार हो गई।
कूच का डङ्का बज उठा और दैत्यों की हलचल से ब्रह्माण्ड काँपने लगा।