गणेश पुराण – प्रथम खण्ड – अध्याय – 2

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हरि अनन्त हरि चरित अनन्ता

सुतजी बोले-
‘हे शौनक जी! गणेशजी बड़े दयालु हैं। देवता भी कार्य में विघ्न उपस्थित होने पर उन विघ्नराज का आश्रय लेते है।

नाम तो शिवजी का ही आशुतोष है,
किन्तु सर्वात्मा और सर्वरक्षक गणेशजी तो शिवजी की अपेक्षा शीघ्र ही प्रकट हो जाते हैं।

उनका भक्त कभी किसी संकट में नहीं पड़ता।

यदि प्रारब्ध-वश कभी किसी विपत्ति में पड़ भी जाता है तो, गणेश्वर की उपासना करने पर उनके अनुग्रह से उनके समस्त दुःख दूर होकर परम सुख की प्राप्ति होती है।

शौनक ने कहा-
‘हे सूतजी! हे महाभाग! हे प्रभो! मैं गणेश जी के विभिन्न चरित्रों का अध्ययन करना चाहता हूँ तो मुझे बताइए कि किस ग्रन्थ का अवलोकन करूँ?

हे दयामय! आपको तो उनके समस्त चरित्र विदित हैं ही, यदि आप ही उन्हें सुनाने की कृपा करें तो मेरा अत्यधिक उपकार होगा।

सूतजी बोले-
‘हे शौनक! भगवान् गणेश्वर के इतने चरित्र हैं, कि उन सबका कथन इस जिह्वा से सम्भव नहीं, क्योंकि ‘प्रभु अनन्त प्रभु चरित अनन्ता’ वाली बात समस्त विद्वान् ऋषि-मुनि कहते हैं।

फिर भी गणेश जी प्रथमपूजा के अधिकारी होने के कारण समस्त देव-चरित्रों में जुड़े हुए हैं।

इसलिए उनका प्रभाव भी सर्वाधिक व्यापक है।

हे मुने! हे शौनक! वे भगवान् सर्व समर्थ हैं, वे सभी का तिरस्कार करने में समर्थ हैं, किन्तु उनका तिरस्कार कोई भी नहीं कर सकता।

यह त्रैलोक्य उन्हीं भगवान् के संकेत पर नृत्य करता है।

इसकी समस्त क्रियाएँ उन्हीं की इच्छा पर आश्रित हैं।

हे शौनक! भगवान् गणेश्वर स्वयं कहते हैं-

शिवे विष्णौ च शक्तौ च सूर्ये मयि नराधिप।
यो भेदबुद्धिर्योगः स सम्यग्योगो मतो मम॥

हे नरेश्वर! हे वरेण्य! शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और मुझ गणेश में जो अभेद बुद्धियोग हैं, मेरे मत में वही सम्यक् योग है।

इससे यह भी सिद्ध है, कि समस्त देवता उन्हीं के स्वरूप हैं।

वे ही भगवान् विभिन्न कार्य-रूपों के अनुसार अपना भिन्न-भिन्न नाम रखते हैं।

हे मुनिश्रेष्ठ! उन सब देवताओं के चरित्र भी उन्हीं गणराज के चरित्र हैं।

यद्यपि सब चरित्र एक ही ग्रंथ में मिलने सम्भव नहीं हैं, फिर भी गणेश्वर के अनेकों प्रमुख चरित्रों का वर्णन गणेश-पुराण में हुआ है।


राजा सोमकान्त का वृत्तान्त-कथन

शौनक जी ने पूछा- ‘हे प्रभो! गणेश पुराण का आरम्भ किस प्रकार हुआ?

यह मुझे बताने की कृपा करें।

इसपर सूत जी कहने लगे- ‘हे शौनक! यद्यपि गणेश पुराण है तो बहुत प्राचीन, क्योंकि भगवान् गणेश्वर तो आदि हैं, न जाने कब से गणेश जी अपने उपासकों पर कृपा करते चले आ रहे हैं।

उनके अनन्त चरित्र हैं जिनका संग्रह एक महापुराण का रूप ले सकता है।

उसे एक बार भगवान् नारायण ने नारद जी को और भगवान् ने शंकर और जगज्जननी पार्वती जी को सुनाया था।

बाद में वही पुराण संक्षेप रूप में ब्रह्माजी ने महर्षि वेदव्यास को सुनाया और फिर व्यास जी से महर्षि भृगु ने सुना।

भृगु ने कृपा करके सौराष्ट्र के एक राजा सोमकान्त को सुनाया था।

तब से वह पुराण अनेक कथाओं में विस्तृत होता और अनेक कथाओं से रहित होता हुआ अनेक रूप में प्रचलित है।

शौनक जी ने पूछा-
भगवन्! आप यह बताने का कष्ट करें कि राजा सोमकान्त कौन था?

उसने महर्षि से गणेश पुराण श्रवण कहाँ किया था?

उस पुराण के श्रवण से उसे क्या-क्या उपलब्धियाँ हुईं?

हे नाथ! मुझे श्रीगणेश्वर की कथा के प्रति उत्कण्ठा बढ़ती ही जा रही है।

सूतजी बोले-
‘हे शौनक! सौराष्ट्र के देवनगर नाम की एक प्रसिद्ध राजधानी थी।

वहाँ का राजा सोमकान्त था।

वह अपनी प्रजा का पुत्र के समान पालन करता था।

वह वेदज्ञान सम्पन्न, शस्त्र विद्या में पारंगत एवं प्रबल प्रतापी राजा समस्त राजाओं में मान्य तथा अत्यन्त वैभवशाली था।

उसका ऐश्वयं कुबेर के भी ऐश्वर्य को लज्जित करता था।

उसने अपने पराक्रम से अनेकों देश जीत लिए थे।

उसकी पत्नी अत्यन्त रूपवती, गुणवती, धर्मज्ञा एवं पतिव्रत-धर्म का पालन करने वाली थी।

वह सदैव अपने प्राणनाथ की सेवा में लगी रहती थी।

उसका नाम सुधर्मा था।

जैसे वह पतिव्रता थी, वैसे ही राजा भी एक पत्नीव्रत का पालन करने वाला था।

उसके हेमकान्त नामक एक सुन्दर पुत्र था।

वह भी सभी विद्याओं का जाता और अस्त्र-शस्त्रादि के अभ्यास में निपुण हो गया था।

यह सभी श्रेष्ठ लक्षणों से सम्पन्न, सद्गुणी एवं प्रजाजनों के हितों का अत्यन्त पोषक था।

इस प्रकार राजा सोमकान्त स्त्री-पुत्र, पशु-वाहन, राज्य एवं प्रतिष्ठा आदि से सब प्रकार सुखी था।

उसे दुःख तो था ही नहीं।

सभी राजागण उसका हार्दिक सम्मान करते थे तथा उसकी श्रेष्ठ कीर्ति भी संसारव्यापी थी।

परन्तु युवावस्था के अन्त में सोमकान्त को घृणित कुष्ठरोग हो गया।

उसके अनेक उपचार किये गए, किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ।

रोग शीघ्रता से बढ़ने लगा और उसके कीड़े पड़ गये।

जब रोग की अधिक वृद्धि होने लगी और उसका कोई उपाय न हो सका तो राजा ने मन्त्रियों को बुलाकर कहा- ‘सुव्रतो! जाने किस कारण यह रोग मुझे पीड़ित कर रहा है।

अवश्य ही यह किसी पूर्व जन्म के पाप का फल होगा।

इसलिए मैं अब अपना समस्त राज-पाट छोड़कर वन में रहूँगा।

मेरे पुत्र हेमकान्त को मेरे समान मानकर राज्य शासन का धर्मपूर्वक संचालन कराते रहें।’

यह कहकर राजा ने शुभ दिन दिखवाकर अपने पुत्र हेमकान्त को राज्यपद पर अभिषिक्त किया और अपनी पत्नी सुधर्मा के साथ निर्जन वन की ओर चल दिया।

प्रजापालक राजा के वियोग में समस्त प्रजाजन अश्रु बहाते हुए उनके साथ चले।

राज्य की सीमा पर पहुँचकर राजा ने अपने पुत्र, अमात्यगण और प्रजाजनों को समझाया-
‘आप सब लोग धर्म के जानने वाले, श्रेष्ठ आचरण में तत्पर एवं सहृदय हैं।

यह संसार तो वैसे भी परिवर्तनशील है।

जो आज है, वह कल नहीं था और आने वाले कल में भी नहीं रहेगा।

इसलिए मेरे जाने से दुःख का कोई कारण नहीं है।

मेरे स्थान पर मेरा पुत्र सभी कार्यों को करेगा, इसलिए आप सब उसके अनुशासन में रहते हुए उसे सदैव सम्मति देते रहें।’ फिर पुत्र से कहा- ‘बेटा! यह स्थिति सभी के समक्ष आती रही है।

हमारे पूर्व पुरुष भी परम्परागत रूप से वृद्धावस्था आने पर वन में जाते रहे हैं।

मैं कुछ समय पहिले ही वन में जा रहा हूँ तो कुछ पहिले या पीछे जाने में कोई अन्तर नहीं पड़ता।

‘यदि कुछ वर्ष बाद जाऊँ तब भी मोह का त्याग करना ही होगा।

इसलिए, हे वत्स! तुम दुःखित मत होओ और मेरी आज्ञा मानकर राज्य-शासन को ठीक प्रकार चलाओ।

ध्यान रखना, क्षत्रिय धर्म का कभी त्याग न करना और प्रजा को सदा सुखी रखना।’

इस प्रकार राजा सोमकान्त ने सभी को समझा-बुझाकर वहाँ से वापस लौटाया और स्वयं अपनी पतिव्रता भार्या के साथ वन में प्रवेश किया।

पुत्र हेमकान्त के आग्रह से उसने सुबल और ज्ञानगम्य नामक दो अमात्यों को भी साथ ले लिया।

उन सबने एक समतल एवं सुन्दर स्थान देखकर वहाँ विश्राम किया।

तभी उन्हें एक मुनिकुमार दिखाई दिया।

राजा ने उससे पूछा-
‘तुम कौन हो? कहाँ रहते हो?
यदि उचित समझो तो मुझे बताओ।’

मुनि-बालक ने कोमल वाणी में कहा-
‘मैं महर्षि भृगु का पुत्र हूँ, मेरा नाम च्यवन है।

हमारा आश्रम निकट में ही है।

अब आप भी अपना परिचय दीजिए।’

राजा ने कहा-‘मुनिकुमार! आपका परिचय पाकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।

मैं सौराष्ट्र के देवनगर नामक राज्य का अधिपति रहा हूँ।

अब अपने पुत्र को राज्य देकर मैंने अरण्य की शरण ली है।

मुझे कुष्ठ रोग अत्यन्त पीड़ित किए हुए है, उसकी निवृत्ति का कोई उपाय करने वाला हो तो कृपाकर मुझे बताइए।’

मुनिकुमार ने कहा-
‘मैं अपने पिताजी से अपना वृत्तान्त कहता हूँ, फिर वे जैसा कहेंगे, आपको बताऊँगा।’

यह कहकर मुनि-बालक चला गया और कुछ देर में ही आकर बोला-
‘राजन्! मैंने आपका वृत्तान्त अपने पिताजी को बताया।

उनकी आज्ञा हुई है कि आप सब मेरे साथ आश्रम में चलकर उनसे भेंट करें तभी आपके रोग के विषय में भी विचार किया जायेगा।’


राजा सोमकान्त के पूर्व जन्म का वृत्तान्त भृगुद्वारा वर्णन

राजा अपनी पत्नी और अमात्यों के सहित च्यवन के साथ-साथ भृगु आश्रम में जा पहुँचा और उन्हें प्रणाम कर बोला-
‘हे भगवन्! हे महर्षि! मैं आपकी शरण हूँ, आप मुझ कुष्ठी पर कृपा कीजिए।’

महर्षि बोले-
‘राजन्! यह तुम्हारे किसी पूर्वजन्मकृत पाप का ही उदय हो गया है।

इसका उपाय मैं विचार करके बताऊँगा।

आज तो तुम सब स्नानादि से निवृत्त होकर रात्रि विश्राम करो।’

महर्षि की आज्ञानुसार सबने स्नान, भोजन आदि के उपरान्त रात्रि व्यतीत की और प्रातः स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर महर्षि की सेवा में उपस्थित हुए।

महर्षि ने कहा- ‘राजन्! मैंने तुम्हारे पूर्वजन्म का वृत्तान्त जान लिया है और यह भी विदित कर लिया है कि किस पाप के फल से तुम्हें इस घृणित रोग की प्राप्ति हुई है।

यदि तुम चाहो तो उसे सुना दूँ।’

राजा ने हाथ जोड़कर निवेदन किया-
‘बड़ी कृपा होगी मुनिनाथ! मैं उसे सुनने के लिए उत्कण्ठित हूँ।’

महर्षि ने कहा- ‘तुम पूर्व जन्म में एक धनवान वैश्य के लाड़ले पुत्र थे।

वह वैश्य विंध्याचल के निकट कौल्हार नामक ग्राम में निवास करता था।

उसकी पत्नी का नाम सुलोचना था।

तुम उसी वैश्य-दम्पति के पुत्र हुए।

तुम्हारा नाम ‘कामद’ था।

‘तुम्हारा लालन-पालन बड़े लाड़-चाव से हुआ।

उन्होंने तुम्हारा विवाह एक अत्यन्त सुन्दरी वैश्य-कन्या से कर दिया था जिसका नाम कुटुम्बिनी था।

यद्यपि तुम्हारी भार्या सुशीला थी और तुम्हें सदैव धर्म में निरत देखना चाहती थी, किन्तु तुम्हारा स्वभाव वासनान्ध होने के कारण दिन-प्रतिदिन उच्छृङ्खल (धृष्टतापूर्वक व्यवहार, मनमाना काम करनेवाला, स्वेच्छाचारी, निरंकुश) होता जा रहा था।

किन्तु माता-पिता भी धार्मिक थे, इसलिए उनके सामने तुम्हारी उच्छ्ङ्खलता (धृष्टता) दबी रही।

परन्तु माता-पिता की मृत्यु के बाद तुम निरंकुश हो गये और अपनी पत्नी की बात भी नहीं मानते थे।

तुम्हें अनाचार में प्रवृत्त देखकर उसे दुःख होता था, तो भी उसका कुछ वश न चलता था।

‘तुम्हारी उन्मत्तता चरम सीमा पर थी।

अपनों से भी द्वेष और क्रूरता का व्यवहार किया करते थे।

हत्या आदि करा देना तुम्हारे लिए सामान्य बात हो गई।

पीड़ित व्यक्तियों ने तुम्हारे विरुद्ध राजा से पुकार की।

अभियोग चला और तुम्हें राज्य की सीमा से भी बाहर चले जाने का आदेश हुआ।

तब तुम घर छोड़कर किसी निर्जन वन में रहने लगे।

उस समय तुम्हारा कार्य लोगों को लूटना और हत्या करना ही रह गया।

‘एक दिन मध्याह्न काल था।

गुणवर्धक नामक एक विद्वान् ब्राह्मण उधर से निकला।

बेचारा अपनी पत्नी को लिवाने के लिए ससुराल जा रहा था।

तुमने उस ब्राह्मण युवक को पकड़ कर लूट लिया।

प्रतिरोध करने पर उसे मारने लगे तो वह चीत्कार करने लगा मुझे मत मार, मत मार।

देख, मेरा दूसरा विवाह हुआ है, मैं पत्नी को लेने के लिए जा रहा हूँ।

किन्तु तुम तो क्रोधावेश में ऐसे लीन हो रहे थे कि तुमने उसकी बात सुनकर भी नहीं सुनी।

जब उसे मारने लगे तो उसने शाप दे दिया-
‘अरे हत्यारे! मेरी हत्या के पाप से तू सहस्त्र कल्प तक घोर नरक भोगेगा।’

तुमने उसकी कोई चिन्ता न की और सिर काट लिया।

राजन्! तुमने ऐसी-ऐसी एक नहीं, बल्कि अनेक निरीह हत्याएँ की थीं, जिनकी गणना करना भी पाप है।

‘इस प्रकार इस जन्म में तुमने घोर पाप कर्म किये थे, किन्तु बुढ़ापा आने पर जब अशक्त हो गये तब तुम्हारे साथ जो क्रूरकर्मा थे वे भी किनारा कर गये।

उन्होंने सोच लिया कि अब तो इसे खिलाना भी पड़ेगा, इसलिए मरने दो यहीं।’


अमोघ प्रभाव गणेश-उपासना का कथन

‘राजन्! अब तुम निरालम्ब थे, चल-फिर तो सकते ही नहीं थे, भूख से पीड़ित रहने के कारण रोगों ने भी घेर लिया।

उधर से जो कोई निकलता, तुम्हें घृणा की दृष्टि से देखता हुआ चला जाता।

तब तुम आहार की खोज में बड़ी कठिनाई से चलते हुए एक जीर्णशीर्ण देवालय में जा पहुँचे।

उसमें भगवान् गणेश्वर की प्रतिमा विद्यमान थी।

तब न जाने किस पुण्य के उदय होने से तुम्हारे मन में गणेशजी के प्रति भक्ति-भाव जाग्रत् हुआ।

तुम निराहार रहकर उनकी उपासना करने लगे।

उससे तुम्हें सबकुछ मिला और रोग भी कम हुआ।

‘राजन्! तुमने अपने साथियों की दृष्टि बचाकर बहुत-सा धन एक स्थान पर गाड़ दिया था।

अब तुमने उस धन को उसे देवालय के जीर्णोद्धार में लगाने का निश्चय किया।

शिल्पी बुलाकर उस मन्दिर को सुन्दर और भव्य बनवा दिया।

इस कारण कुख्याति सुख्याति में बदलने लगी।

‘फिर यथासमय तुम्हारी मृत्यु हुई।

यमदूतों ने पकड़कर तुम्हें यमराज के समक्ष उपस्थित किया।

यमराज तुमसे बोले-
‘जीव! तुमने पाप और पुण्य दोनों ही किए हैं और दोनों का ही भोग तुम्हें भोगना है।

किन्तु पहले पाप का फल भोगना चाहते हो या पुण्य का?’

इसके उत्तर में तुमने प्रथम अपने पुण्यकर्मों के भोग की इच्छा प्रकट की और इसीलिए उन्होंने तुम्हें राजकुल में जन्म लेने के लिए भेज दिया।

पूर्व जन्म में तुमने भगवान् गणाध्यक्ष का सुन्दर एवं भव्य मन्दिर बनवाया था, इसलिए तुम्हें सुन्दर देह की प्राप्ति हुई है।’

यह कहकर महर्षि भृगु कुछ रुके, क्योंकि उन्होंने देखा कि राजा को इस वृत्तान्त पर शंका हो रही है।

तभी महर्षि के शरीर में असंख्य विकराल पक्षी उत्पन्न होकर राजा की ओर झपटे।

उनकी चोंच बड़ी तीक्ष्ण थी, जिनसे वे राजा के शरीर को नोच-नोच कर खाने लगे।

उसके कारण उत्पन्न असह्य पीड़ा से व्याकुल हुए राजा ने महर्षि के समक्ष हाथ जोड़कर निवेदन किया-
‘प्रभो! आपका आश्रम तो समस्त दोष, द्वेष आदि से परे है और यहाँ मैं आपकी शरण में बैठा हूँ तब यह पक्षी मुझे अकारण ही क्यों पीड़ित कर रहे हैं?

हे मुनिनाथ! इनसे मेरी रक्षा कीजिए।’

महर्षि ने राजा के आर्त्तवचन सुनकर सान्त्वना देते हुए कहा-
‘राजन्! तुमने मेरे वचनों में शंका की थी और जो मुझ सत्यवादी के कथन में शंका करता है, उसे खाने के लिए मेरे शरीर से इसी प्रकार पक्षी प्रकट हो जाते हैं, जो कि मेरे हुंकार करने पर भस्म हो जाया करते हैं।’

यह कहकर महर्षि ने हुंकार की और तभी वे समस्त पक्षी भस्म हो गये।

राजा श्रद्धावनत होकर उनके समक्ष अश्रुपात करता हुआ बोला-
‘प्रभो! अब आप पाप से मुक्त होने का उपाय कीजिए।’

महर्षि ने कुछ विचार कर कहा-
‘राजन्! तुमपर भगवान् गणेश्वर की कृपा सहज रूप से है और वे ही प्रभु तुम्हारे पापों को भी दूर करने में समर्थ हैं।

इसलिए तुम उनके पाप नाशक चरित्रों का श्रवण करो।

गणेश-पुराण में उनके चरित्रों का भले प्रकार वर्णन हुआ है, अतएव तुम श्रद्धाभक्तिपूर्वक उसी को सुनने में चित्त लगाओ।’

राजा ने प्रार्थना की-
‘महामुने! मैंने गणेश पुराण का नाम भी आज तक नहीं सुना तो उनके सुनने का सौभाग्य कैसे प्राप्त कर सकूँगा?

हे नाथ! आपसे अधिक ज्ञानी और प्रकाण्ड विद्वान और कौन हो सकता है?

आप ही मुझपर कृपा कीजिए।’

महर्षि ने राजा की दीनता देखकर उसके शरीर पर अपने कमण्डलु का मन्त्रपूत जल छिड़का।

तभी राजा को एक छींक आई और नासिका से एक अत्यन्त छोटा काले वर्ण का पुरुष बाहर निकल आया।

देखते-देखते वह बढ़ गया।

उसके भयंकर रूप को देखकर राजा कुछ भयभीत हुआ, किन्तु समस्त आश्रमवासी वहाँ से भाग गये।

वह पुरुष महर्षि के समक्ष हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

भृगु ने उसकी ओर देखा और कुछ उच्च स्वर में बोले-
‘तू कौन है? क्या चाहता है?’

वह बोला-
‘मैं साक्षात् पाप हूँ, समस्त पापियों के शरीर में मेरा निवास है।

आपके मन्त्रपूत जल के स्पर्श से मुझे विवश होकर राजा के शरीर से बाहर निकलना पड़ा है।

अब मुझे बड़ी भूख लगी है, बताइये, क्या खाऊँ और कहाँ रहूँ?’

महर्षि बोले-
‘तू उस आम के अवकाश स्थान में निवास कर और उसी वृक्ष के पत्ते खाकर जीवन-निर्वाह कर।’

यह सुनते ही वह पुरुष आम के वृक्ष के पास पहुँचा, किन्तु उसके स्पर्श मात्र से वह वृक्ष जलकर भस्म हो गया।

फिर जब पाप पुरुष को रहने के लिए कोई स्थान दिखाई न दिया तो वह भी अन्तर्हित हो गया।


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