गणेश पुराण – प्रथम खण्ड – अध्याय – 3

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गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)


राजा द्वारा गणेश-पुराण श्रवण का संकल्प कथन

महर्षि बोले-
‘राजन्! कालान्तर में यह वृक्ष पुनः अपना पूर्वरूप धारण करेगा।

जब तक यह पुनः उत्पन्न न हो तब तक मैं तुम्हें गणेश- पुराण का श्रवण कराता रहूँगा।

तुम पुराण श्रवण के संकल्पपूर्वक आदि-देव गणेशजी का पूजन करो, तब मैं गणेश-पुराण की कथा का आरम्भ करूँगा।’

मुनिराज के आदेशानुसार राजा ने पुराण-श्रवण का संकल्प किया।

उसी समय राजा ने अनुभव किया कि उसकी समस्त पीड़ाएँ दूर हो गई हैं।

दृष्टि डाली तो कुष्ठ रोग का अब कहीं चिह्न भी शेष नहीं रह गया था।

अपने को पूर्णरूप से रोग-रहित एवं पूर्ववत् सुन्दर हुआ देखकर राजा के आश्चर्य की सीमा न रही और उसने महर्षि के चरण पकड़ लिये और निवेदन किया कि प्रभो! मुझे गणेश पुराण का विस्तारपूर्वक श्रवण कराइये।’

महर्षि ने कहा-
‘राजन्! यह गणेश पुराण समस्त पापों और संकटों को दूर करने वाला है, तुम इसे ध्यानपूर्वक सुनो।

इसका श्रवण गणपति-भक्तों को ही करना कराना चाहिए, अन्य किसी को नहीं।

कलियुग में पापों की अधिक वृद्धि होगी और लोग कष्ट-सहन में असमर्थ एवं अल्पायु होंगे।

उनके पाप दूर करने का कोई साधन होना चाहिए।’

इस विचार से महर्षि वेदव्यास ने मुझे सुनाया था।

उन्हीं की कृपा से मैं भगवान् गणाध्यक्ष के महान् चरित्रों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त कर सका था।

‘महाराज! भगवान् गजानन अपने सरल स्वभाव वाले भक्तों को सब कुछ प्रदान करने में समर्थ हैं।

निरभिमान प्राणियों पर वे सदैव अनुग्रह करते हैं, किन्तु मिथ्याभिमानी किसी को भी नहीं रहने देते।

उन्होंने गर्व होने पर महा-महिमा से सम्पन्न एवं समस्त वेद-शास्त्रों के पारंगत भगवान् वेदव्यासजी को भी तिरस्कृत कर दिया था।

उनके हृदय में अपने-पराये, बली-निर्बल या मूर्ख-विद्वान् का कोई भी भेद नहीं है।

अभिमानी मनुष्यों का अभिमान-खण्डन करना तो उन्होंने अपना बहुत आवश्यक कर्म मान लिया है।

राज ने आश्चर्य से पूछा-
‘प्रभो! भगवान् वेदव्यास जी तो समस्त दुर्गुणों, दोषों और दुर्बलताओं से परे पूर्णज्ञानी और भगवान् नारायण के ही अंशावतार माने जाते हैं, उनमें अभिमान का आविर्भाव कैसे हो गया?

कृपाकर यह सभी बातें बताने का कष्ट करें।’

महर्षि भृगु ने कहा-
‘राजेन्द्र! वेदव्यासजी ने वेद के चार विभाग कर उनकी पृथक् पृथक् संहिताएँ बना दीं, जिससे उनका रहस्य समझना कठिन नहीं रहा।

उनके उस अपूर्व कार्य की विद्वत्समाज में बड़ी प्रशंसा हुई।

इससे उन्हें अपने पर अत्यन्त गर्व होने लगा।

फिर उस वेद ज्ञान को अधिक सुलभ करने के उद्देश्य से उन्होंने पुराणों की रचना आरम्भ की।’


वेदव्यास की बुद्धि का भ्रमित होना कैसे?

महाराज! श्रीगणेशजी आदिदेव हैं, इसलिए समस्त कार्यों में गणेशजी का प्रथम स्मरण करने की परिपाटी प्राचीन काल से चली आती है।

किन्तु श्रीवेदव्यासजी अपनी पुराण-रचना के आरम्भ में भगवान् गणेश्वर की वन्दना करना भूल गये।

उसके फलस्वरूप उनकी स्मरणशक्ति क्षीण होने लगी।

वे अनेक मुख्य बातों को भूल जाते।

बहुत याद करने पर भी अनेक बातों में उन्हें सफलता न मिल पाती।

वे किंकर्त्तव्यविमूढ़-से होकर लोकपितामह ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित हुए और उनकी वन्दना कर बोले-
‘ब्रह्मन्! मैंने वेद के चार विभाग करने के पश्चात् पुराणों की रचना आरम्भ की थी, किन्तु मुझे बड़ा आश्चर्य है कि अब कुछ सूझता ही नहीं कि मैं क्या लिखूँ?

हे प्रभो! मेरे ज्ञान नष्ट होने का क्या कारण है, यह बताने की कृपा करें।’

ब्रह्माजी ने ध्यान लगाया और तब बोले-
‘व्यास! तुम अपनी विद्या के गर्व में अधिक भर गये हो, इसलिए भगवान् गणेश्वर को भी भूल गये।

तुमने पुराण रचना के आरम्भ में उन आदिदेव की वन्दना और मंगलाचरण तक नहीं किया है।

तब फिर तुम्हारा ज्ञान क्यों न नष्ट होता?

अब तुम गणेशजी को ही प्रसन्न करो।’

व्यासजी को अपनी भूल का ज्ञान तो हो गया, किन्तु उन्हें गणेशजी के विषय में अभी कुछ भी स्मरण नहीं आया।

इसलिए उन्होंने विनय-पूर्वक ब्रह्माजी से पूछा-
‘प्रभो! मुझे गणेशजी के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं है।

आप बतायें कि गणेशजी कौन हैं?

उनका स्वरूप कैसा है?

उनके चरित्र की विशेषता क्या है?’

ब्रह्माजी ने कहा-
‘सत्यवतीनन्दन! गणेशजी तो सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं महामहिम परात्पर ब्रह्म हैं।

आगम-शास्त्र में उनके सात करोड़ मन्त्र उपलब्ध हैं।

उनमें षडक्षरी और एकाक्षरी मन्त्र अधिक सरल हैं।

जो उनकी उपासना करने वाले भक्त हैं, उनके दर्शन करने से भी समस्त विघ्न नष्ट हो जाते हैं।

एक बार शिवजी ने उनकी स्थापना-विधि पर प्रकाश डाला था, उसे मैं तुम्हारे प्रति कहता हूँ।

‘हे व्यास! प्रातःकाल शौचादि से निवृत्त होकर पवित्र होकर पवित्र जल में स्नान करे और शुद्ध वस्त्र धारण करके श्रेष्ठ आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर आचमन, प्राणायाम और मानसोपचार द्वारा पूजन करके प्रणव बीज मन्त्र के सहित उनके षडक्षरी या एकाक्षरी मन्त्र का अनुष्ठान विधि पूर्वक जप करे।

जब तक भगवान् गजानन के स्वरूप के दर्शन हो जाय तब तक जप अखण्ड रूप से निरन्तर चलता रहे।

इस प्रकार की आराधना करने पर भगवान् गणेश्वर अवश्य प्रसन्न हो जाते हैं।’

ब्रह्माजी से उपासना-विधि सीखकर व्यासजी ने उन्हें प्रणाम किया और बोले-
‘ब्रह्मन्! गणेश-मन्त्र और बीज कौन-सा है?

उसका जप अब तक किस-किसने किया है और उसे क्या-क्या सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं?’

ब्रह्माजी ने कहा-
‘व्यास! श्रीगणेश्वर ओंकारमय हैं। समस्त वेद उन्हीं का गान करते हैं।

प्रणव समस्त मन्त्रों का बीज है, और उसके द्वारा भगवान् गजानन का ही जप या स्तवन होता है।

अकेले प्रणव की ही बड़ी महिमा है।

उसी का जप करके देवता, मनुष्य, ऋषि-मुनि आदि सभी अपने-अपने अभीष्ट की सिद्धि कर सकते हैं।’

व्यासजी बोले- ‘इसे कुछ विस्तार से समझाकर कहिए।

गणेशजी की महिमा के विषय में मेरी जिज्ञासा बढ़ती जा रही है।

हे पितामह! मुझ पर कृपा कीजिए।’


गणेश का त्रिदेवों को कार्य सौंपने का वर्णन

ब्रह्माजी बोले- ‘द्वैपायन! मैं तुम्हें प्राचीन काल का एक प्रसंग सुनाता हूँ –
जब संसार का प्रलयकाल उपस्थित हुआ तब जल, वायु के घोर उत्पात से सृष्टि नष्ट हो गई।

‘समस्त सृष्टि ही माया-मोह में डूबकर अदृश्य हो गई।

उस समय मैंने, विष्णु ने और शिव ने एक साथ बैठकर विचार किया कि अब क्या किया जाय ? कोई उपाय भी नहीं सूझता।

फिर पूछें भी तो किससे? कहीं कोई भी दिखाई नहीं देता था।

‘तो सत्यवतीसुवन! हम तीनों ने पाताल लोक जाकर घोर तपस्या की, किन्तु कोई फल न निकला।

हम बहुत थक गये तो वहाँ से पृथ्वी पर आकर घूमने लगे।

सर्वत्र अन्धकार था, उसमें एक जलाशय दिखायी दिया।

उसमें बड़ा तेज था, जिसकी सहायता से आकाश में गमन करने की बड़ी सुविधा प्रतीत हुई।

किन्तु भूख-प्यास से व्याकुल होने के कारण हम अधिक भ्रमण में भी असमर्थ हो गए।

हम थक कर एक स्थान पर रुके ही थे कि हमारे समक्ष करोड़ों सूर्यो के समान प्रकाश प्रकट हो गया।

हमने ध्यान से देखा तो उस प्रकाशपुञ्ज में भगवान् गणाध्यक्ष विराजमान थे।

हमने तुरन्त ही उन्हें प्रणाम कर स्तुति आरम्भ की-

नमो नमो विश्वेभृतेऽखिलेश नमो नमः कारणकारणाय।
नमो नमो वेदविदामदृश्य नमो नमः सर्ववरप्रदाय॥

हे विश्व के भरणकर्त्ता! अखिलेश्वर! आपको नमस्कार है।
हे समस्त कारणों के भी कारण! हे प्रभो! आपको नमस्कार है।
हे नाथ! आप वेदज्ञों के लिए भी अदृश्य ही रहते हैं।

हे समस्त वरों के प्रदान करने वाले परात्पर ब्रह्म! आपको नमस्कार है, नमस्कार है।

हम त्रिवेदों की स्तुति सुनकर आदिदेव गणेश्वर ने कहा-
‘त्रिदेव! मैं प्रसन्न हूँ, आप वर माँगिये।’

तब हमने प्रार्थना की-
‘प्रभो! हम क्या माँगें, यह हमारी समझ में ही नहीं आता।
इसलिए आप ही हमें उचित आदेश दीजिए, वही हमारे लिए श्रेष्ठ वर होगा।’

गणाधिपति ने मुसकराते हुए कहा-
‘ब्रह्मा! विष्णु! शिव! मैं आप तीनों को पृथक् पृथक् तीन कार्य देना उचित समझता हूँ।

चतुरानन! आप सृष्टि-रचना का कार्य करो, विष्णु उनके पालन का भार लें और अन्त में शिव उसका संहार कर दें।’

यह कहकर उन्होंने ब्रह्माजी को सृष्टि रचने की शक्ति दी और विष्णुजी को संसार के पालन की सामर्थ्य प्रदान करते हुए अपने दशाक्षरी मन्त्र ‘गं’ क्षिप्रप्रसादनाय नमः’ का उपदेश दिया।

फिर शिवजी को अपना एकाक्षरी मन्त्र ‘गं’ और षडक्षरी मन्त्र ‘वक्रतुण्डाय हुम्’ तथा समस्त आगम विद्या और संहारक शक्ति प्रदान कर दी।

तब ब्रह्माजी ने निवेदन किया-
‘हे देवाधिदेव! हे गणाध्यक्ष! हे सर्वशक्तिमान् प्रभो! मैं सृष्टि के विषय में कुछ भी नहीं जानता।

उसे मैंने कभी देखा तो क्या, सुना भी नहीं।

तब उसकी रचना कैसे कर पाऊँगा ?

गणेश्वर बोले-
‘हे चतुर्मुख! सृष्टि का दर्शन करना है तो मेरे शरीर में विद्यमान अनन्त ब्रह्माण्डों का अवलोकन करो।

फिर तो मेरी कृपा से तुम सहज रूप से ही सब कार्य स्वयं करने लगोगे।’ हे मुने! यह कहकर उन्होंने मुझे दिव्य दृष्टि दी और फिर अपने प्रवास के साथ भीतर खींच लिया।

उनके उदर में पहुँचकर मैंने अनन्त ब्रह्माण्डों के दर्शन किए।

वहाँ मैंने समस्त जीवों के साथ स्वयं को, विष्णु को और शिव को भी देखा।

जो दृश्य एक ब्रह्माण्ड में दिखाई दिया, वही अन्य ब्रह्माण्डों में भी देखे थे, जिससे मैं भ्रमित होकर गणेशजी की स्तुति करने लगा।

तव गणेशजी ने मुझे अपने निःश्वास के साथ बाहर निकाल दिया।

बाहर निकलकर मैंने देखा तो कोई नहीं था।

न विष्णु, न शिव और न भगवान् गणेश्वर ही।

तब मैं सृष्टि-रचना का संकल्प करने लगा।

मुझे ममस्त वेद-शास्त्रों का स्वतः ज्ञान हो गया था।

संसार में मेरे समान वेदज्ञ कोई था ही नहीं, इसलिए सर्वत्र मेरी प्रशंसा होने लगी, जिससे मन में बड़े भारी अभिमान की उत्पत्ति हो गई।

बस, वह अभिमान मेरे कार्य में पूर्ण रूप से बाधक बन गया।

सृष्टि-रचना के समय अनेकानेक विघ्न आ उपस्थित हुए।

तब मैं भगवान् गणेश्वर का ही ध्यान करने लगा और मैंने उनकी स्तुति करते हुए केवल इतना ही कहा- ‘प्रभो! इस विपत्ति से उबारिये।

हेरम्ब! मुझपर कृपा कीजिए।’ तभी मैंने आकाशवाणी सुनी- ‘चतुरानन! किसी वट वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या करो।

साथ ही, भगवान् गणेश्वर का ध्यान और मन्त्र जप भी करते रहो।’


ब्रह्माजी ने की, गजानन की उपासना

महर्षि भृगु ने राजा सोमकान्त के प्रति कहा-
‘राजन्! तब ब्रह्माजी ने व्यासदेव को बताया कि आकाशवाणी सुनने के पश्चात् मुझे एक स्वप्न दिखाई दिया कि प्रलय में सब कुछ लीन हो जाने पर भी केवल एक विशाल वटवृक्ष ही शेष बचा खड़ा है।

उस वृक्ष के एक पत्र पर कोई बहुत छोटा बालक लेटा हुआ है।

मैंने ध्यान से देखा तो उसका रूप भगवान् विनायक-देव के ही समान था।

उसके दर्शन कर मुझे बड़ा आनन्द हुआ और मैं पुनः गणेशमन्त्र का जप करने लगा।

हे मुनि! तभी मैंने देखा कि वह बालक धीरे-धीरे मेरे पास आ गया है।

उसने कहा-
‘चतुरानन! समस्त चिन्ताओं को त्याग कर मेरे एकाक्षरी मन्त्र का दस लाख जप करो।

जप का यह अनुष्ठान पूर्ण होने पर तुम मेरा साक्षात् दर्शन करोगे।’

बस, यह सुखद स्वप्न देखकर मेरी नींद खुल गई।

‘हे व्यास! फिर मैंने एकाक्षरी मन्त्र का जपानुष्ठान आरम्भ किया।

जिस प्रकार भी सम्भव हुआ, मैंने उन आदिदेव को पूर्ण प्रसन्न करने का प्रयास किया।

अनुष्ठान पूर्ण होने पर मुझे भगवान् गणेश्वर के साक्षात् दर्शन हुए।

उनके अत्यन्त तेजस्वी और विलक्षण रूप के समक्ष मेरे नेत्रों में चकाचौंध भर गई और स्मृति भी नष्ट हो गई।’

उसी समय मेरे कानों में भगवान् गजानन की गम्भीर वाणी सुनाई दी-
‘चतुरानन! स्वप्न में मैंने तुम्हें प्रत्यक्ष दर्शन देने का वचन दिया था, उसे मैंने पूरा कर दिया है।

अब तुम अपना अभिलषित वर मुझसे माँग लो।’

‘हे मुने! मैंने गजानन भगवान् को प्रणाम कर निवेदन किया-
प्रभो! कार्य में उपस्थित सभी विघ्न दूर हो जायें और मुझे शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति हो जिससे मैं आपके गुणानुवाद में भी समर्थ हो सकूँ, इसपर गणेश्वर प्रभु ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्धान हो गये।

महर्षि भृगु बोले- ‘हे राजन्! भगवान् गणाध्यक्ष के अदृश्य हो जाने पर ब्रह्माजी ने सर्ग-रचना का आरम्भ किया।

सर्वप्रथम उन्होंने मरीच्यादि चौदह मानस-पुत्र उत्पन्न किये और उन्हें आदेश दिया कि सृष्टि रचो।

किन्तु उन्होंने अति तपस्वी और अति ज्ञानी होने के कारण चतुरानन के आदेश पर ध्यान नहीं दिया।’ फिर विवश हुए चतुर्मुख ने स्वयं ही सृष्टि की रचना की और निश्चित होकर प्रभु-चिन्तन करने लगे।

इस प्रकार ब्रह्मा जी को सर्ग-रचना में जो सफलता प्राप्त हुई, उसका पूर्ण श्रेय भगवान् गणेश्वर की उपासना का ही है।

शौनकने सूत जी से पूछा-
प्रभो! गणेश्वर का पूजन केवल ब्रह्मा जी ने किया था, अथवा किसी अन्य देवता ने भी? विष्णु और शिव तो स्वयं सर्वशक्तिमान् प्रभु हैं।

समस्त विश्व का पालन और संहार क्रमशः यही दोनों करते हैं।

इसलिए, यह दोनों ही अपने-अपने कार्यों में समर्थ हैं, फिर यह गणेश का पूजन क्यों करते होंगे?

उनकी बात सुनकर सूतजी को हँसी आ गई, बोले-
‘हे मुने! मैं समझ रहा हूँ कि तुम ऐसे अटपटे प्रश्न क्यों कर रहे हो ? अवश्य ही तुम इन प्रश्नों के द्वारा लोक-कल्याण का साधन करना चाहते हो।

वस्तुतः तुम्हारा यह विचार समस्त विश्व के हित में होने के कारण अत्यन्त प्रशंसनीय है।

‘हे शौनक! अब मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देता हूँ, सुनो श्रीगणाध्यक्ष का पूजन समस्त देवताओं ने समय-समय पर किया है।

जब-जब, जिस-जिस देवता के कार्य में विघ्न-व्यवधान की उपस्थिति हुई तब-तब, वही-वही देवता उन प्रभु की भक्तिभाव-पूर्वक आराधना में प्रवृत्त हुए।

यहाँ तक कि समस्त शक्ति स्वरूपा देवियों ने भी उन गणपति की उपासना करके अपने-अपने अभीष्ट की प्राप्ति की हैं।’


विघ्नेश्वर की उपासना भगवान् विष्णु द्वारा

हे मुने! गणेश जी का पूजन ब्रह्मा जी ने भी किया था, उसका वर्णन तो मैं कर ही चुका हूँ।

भगवान् विष्णु ने भी संकटग्रस्त होने पर उन्हीं प्रभु की उपासना करके सिद्धि प्राप्त की थी।

इस सम्बन्ध में स्वयं श्रीब्रह्माजी ने व्यासजी को जो उपाख्यान कहा था वही महर्षि भृगु ने राजा सोमकान्त के प्रति कहा था।

उस परम हर्ष को देने वाली गाथा को मैं तुम्हारे प्रति कहता हूँ।

तुम ध्यान से सुनो-
एक बार जब ब्रह्माजी सृष्टि-रचना में लगे थे, तब भगवान् विष्णु के कानों से मधु-कैटभ नामक दो दैत्य उत्पन्न हो गए।

वे भूख से व्याकुल होकर इधर-उधर देखने लगे तो ब्रह्माजी पर दृष्टि पड़ी।

फिर क्या था, वे उन्हें ही खाद्य समझकर उनकी ओर दौड़े।

ब्रह्माजी उनकी चेष्टा देखकर भयभीत हो गए।

उन्होंने व्याकुल होकर योगमाया से निवेदन किया कि
‘भगवान् विष्णु को जगा दो देवि! अन्यथा यह असुर मुझे खा डालेंगे।’

योगमाया की प्रेरणा से भगवान् की निद्रा दूर हुई।

ब्रह्माजी पर संकट देखकर भगवान् ने अपने पाञ्चजन्य की ध्वनि की, जिसे सुनकर त्रैलोक्य काँप उठा।

उस ध्वनि को सुनकर मधु-कैटभ सचेत हुए और ब्रह्माजी को भूलकर भगवान् विष्णु पर टूट पड़े।

अब तो दोनों में घोर युद्ध होने लगा।

पाँच हजार वर्ष तक घोर युद्ध हुआ, किन्तु असुरों पर विजय न मिल सकी।

जब भगवान् का वश न चला तो उन्होंने संगीतज्ञ गन्धर्व का रूप धारण कर लिया और एक वन में जाकर वीणा पर श्रुति स्वर में गीत गाने लगे।

उनके गीत से तीनों लोक मुग्ध हो गए।

वह स्वर कैलाशपति भगवान् शंकर के भी कानों में पड़ गया।

उन्होंने निकुम्भ और पुष्पदंत को आदेश दिया कि उस संगीतज्ञ को लिवा लाओ।

शिवगण उन्हें लिवा लाये।

गन्धर्व वेशधारी विष्णु ने उन्हें प्रणाम कर, उनके आदेश पर वीणा की तान छेड़ी।

उसे सुनकर भगवान् वृषभध्वज, माता पार्वती जी, गणेश जी और कार्तिकेय तथा अन्यान्य सभी देवता मुग्ध हो गए।

शंकर ने प्रसन्न होकर कहा- ‘वर माँगो।’

विष्णु बोले-
‘वर देना चाहते हैं तो मधु-कैटभ नामक असुरों का नाश हो जाय, यह वर दीजिए।’

शम्भु हँसे, बोले- ‘तो तुम विष्णु हो?

इस वेश में यहाँ आने की क्या आवश्यकता हुई?

क्या असुरों के भय से छद्मवेश बनाये घूम रहे हो?’

विष्णु ने कहा-
‘आपको प्रसन्न करने के लिए ही यह सब करना पड़ा है आशुतोष!

अब आप शीघ्र ही वह उपाय कीजिए, जिससे असुरों का नाझ हो सके।’

“गणेशं पूजयित्वैव ब्रज युद्धाय केशव।
सच तौ माययाऽऽमोह्य वशतां प्रापयिष्यति॥”

शिवजी ने प्रसन्न मुद्रा में कहा-
‘रमानाथ! यदि असुरों पर विजय प्राप्त करनी है तो गणेश जी को प्रसन्न करो।

वे ही असुरों को अपनी माया से मोहित करके आपके वश में कर सकते हैं।’

विष्णु बोले-
‘उन्हें प्रसन्न करने की विधि बताइए पार्वतीनाथ!

बिना विधि के पूजा सफल नहीं हो पाती।’


गणेशजी के वरदान से मधु-कैटभ का वध

शिवजी ने उन्हें षोड़शोपचार युक्त गणपति-पूजन की विधि बताई।

तदुपरान्त भगवान् विष्णु ने गणेश जी की सौ दिव्य वर्षों तक उपासना की।

उनके घोर तप से प्रसन्न हुए गजवदन प्रकट हो गए।

उन्होंने कहा- ‘मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूँ। बोलो, क्या चाहते हो?’

विष्णु बोले- ‘मधु-कैटभ नामक असुर बहुत प्रबल हो गए हैं।

मेरे वश में नहीं आ रहे हैं, अतएव पार्वतीनन्दन उनके वध का उपाय कीजिए।’

श्रीगणेश जी ने कहा-
‘बैकुण्ठनाथ! यदि आपने पहिले ही मेरा पूजन किया होता तो अब तक असुर परास्त भी हो गए होते।’

विष्णु बोले-
‘गणेश्वर! मुझे आपका प्रभाव विदित नहीं था।

अब आप वही कीजिए, जिससे मैं उन असुरों का वध करने में सफल हो सकूँ।

हे नाथ! इसके साथ ही मुझे अपनी अनन्य एवं दुर्लभ भक्ति भी प्रदान करने की कृपा कीजिए हे विघ्नहरण।’

भगवान् विष्णु की प्रार्थना सुनकर गणेश्वर ने कहा-
‘यही होगा रमानाथ! आपके हाथ से वे दोनों असुर शीघ्र ही मारे जायेंगे।

इससे चतुरानन का भय भी दूर हो जायेगा और आपको महान् कीर्ति की भी प्राप्ति होगी।

हे विष्णो! अब आपके कार्य में कोई विघ्न उपस्थित नहीं होगा।’

यह वर देकर भगवान् गणेश्वर अन्तर्धान हो गए और भगवान् त्रिलोकीनाथ वहाँ से लौटकर अपने स्थान पर पहुँचे, जहाँ उन्होंने दोनों असुरों को युद्ध के लिए समुद्यत देखा।

त्रिलोकीनाथ को वहाँ आये देखकर उनकी ओर झपटते हुए बोले- ‘तुम बड़े डरपोक हो जी! जो रणक्षेत्र छोड़कर ही भाग गए।’

विष्णु हँसे और उन्होंने युद्ध करके मधु-कैटभ का संहार कर दिया।

जहाँ उन्होंने गणेश्वर की आराधना की थी, वह स्थान सिद्ध क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हो गया।


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