गणेश पुराण – प्रथम खण्ड – अध्याय – 4

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राजा भीम का उपाख्यान कथन

सूतजी बोले-
हे शौनक! भृगु जी ने सोमकान्त से पुनः कहा-
‘हे महाराज! अब श्रीगणेश्वर का अन्य उपाख्यान तुम्हारे प्रति कहता हूँ।

विदर्भ देश की घटना है – उसकी राजधानी कौण्डिन्यपुर थी।

वहाँ भीम नामक एक प्रसिद्ध राजा राज्य करता था।

उसकी पतिव्रता पत्नी का नाम चारुहासिनी था।

उनका दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो रहा था, किन्तु बड़ी आयु होने पर भी सन्तान न होने का दुःख उन्हें पीड़ित करता था।

तब राजा ने सोचा कि इसके लिए कोई उपाय करना चाहिए।

ऐसा निश्चय कर उसने अपना राज्य अपने विश्वासपात्र अमात्य को सौंप दिया और उससे कहा-
‘जब तक मैं न लौटू तब तक सावधानी पूर्वक प्रजा-पालन और देश की सीमा की रक्षा करते रहना।’

अमात्य ने आदेश-पालन का वचन दिया तो राजा वहाँ से निश्चिन्त होकर वन को चल दिया।

वह राजा वन में भ्रमण करता हुआ विश्वामित्र जी के आश्रम में जा पहुँचा और महर्षि को प्रणाम कर बैठ गया।

महर्षि ने देखकर पूछा- ‘तुम कौन हो? यहाँ किस प्रयोजन से आये हो? अपना पूर्ण परिचय दो।’

राजा बोला-
‘प्रभो! मैं कौण्डिन्यपुर में रहता हुआ विदर्भ देश पर शासन करता था।

मेरा नाम भीम है।

मेरी वृद्धावस्था हो गई तो भी कोई संतान नहीं हुई इसीलिए आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।

मैं नहीं जानता कि मुझ जैसे कर्त्तव्यनिष्ठ एवं धर्मज्ञ व्यक्ति को भी इस दुर्भाग्य की प्राप्ति क्यों हुई है?’

महर्षि ने कहा-
‘राजन्! तुमने पूर्वजन्म में श्रीगणेश्वर का निरादर किया।

उसी के फलस्वरूप तुम इस जन्म में सन्तानहीन रहे हो।

यदि उनको प्रसन्न कर लो तो तुम्हें अब भी सन्तान की प्राप्ति हो सकती है।’

राजा ने जिज्ञासा की-
‘महामुने! मुझे मेरे पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनाने की कृपा कीजिए कि मेरे द्वारा भगवान् गणेश्वर का निरादर कैसे हो गया था?’

विश्वामित्र बोले-
‘महाराज! तुम्हारे कुल में बहुत पहले भीम नामक एक अन्य प्रतापी पुरुष हुआ था।

उसकी पत्नी अत्यन्त सुन्दर और पतिव्रता थी।

उससे एक पुत्र की प्राप्ति हुई, जो गूँगा, बहिरा और विकलांग था।

उसके शरीर से दुर्गन्ध आती थी।

माता-पिता ने उसका नाम दक्ष रखा।

अनेक प्रयत्न करने पर भी वह बालक मूकता और बधिरता के दोष से मुक्त न हो सका।’

‘हे राजन्! किसी ने राजा से कहा कि यदि बालक अपनी माता के साथ तीर्थाटन करे तो सम्भव है कि बालक का रोग दूर हो जाये।

उसके परामर्श पर राजा के आदेश से रानी अपने पुत्र को लेकर तीर्थयात्रा को चल पड़ी।

मार्ग में चोरों ने उसे लूट लिया, इसलिए उसके पास जीवन-यापन के लिए भी धन नहीं रहा।

तब उसने एक शिव-मन्दिर में शरण ली और बालक को वहीं छोड़कर भिक्षा के लिए गाँव में चली गई।

तभी उस मन्दिर में एक धर्मज्ञ ब्राह्मण आया।

उसके शरीर का स्पर्श करके प्रवाहित होने वाली वायु के स्पर्श से बालक का शरीर रोगमुक्त हो गया।

रानी लौटकर शिवालय में आई तो अपने पुत्र को सर्वाङ्ग सुन्दर और रोगमुक्त देखकर बहुत प्रसन्न हुई।

उसने ब्राह्मण देवता का पता लगाया तो ज्ञात हुआ कि वह गणेश जी का उपासक था।

उसने रानी को गणेश जी की उपासना का उपदेश दिया।

अब माता और पुत्र दोनों ने भगवान् गणेश्वर की उपासना की जिससे प्रसन्न होकर गणेश जी ने स्वप्न में कहा कि तुम मेरे परम भक्त महर्षि मुद्गल के पास जाओ, उनसे तुम्हें समस्त अभीष्टों की प्राप्ति हो सकती है।

(अभीष्ट का अर्थ है वांछित
जिस वस्तु की हमें जरूरत है अथवा
हम जिस चीज की इच्छा या कामना रखते हैं)

महर्षि भृगु ने कहा-
‘हे सोमकान्त! विश्वामित्र जी ने भीम को आगे का वृत्तान्त सुनाते हुए कहा कि वे दोनों मुद्गल आश्रम की खोज में बहुत समय तक अरण्यों में भटकते रहे, तब एक दिन बड़ी कठिनाई से उन्हें वह आश्रम मिला।

वहाँ आकर उन्होंने अपना सब वृत्तान्त सुनाया तो महर्षि ने श्रीगणेश्वर के एकाक्षरी मन्त्र ‘गं’ के अनुष्ठान का उपदेश दिया।’

राजा भीम ने जिज्ञासा की
‘महामुने! आपके मुख से यह चरित्र सुनकर मुझे आश्चर्य हो रहा है।

एक ब्राह्मण के शरीर के स्पर्श से बहने वाली वायु के स्पर्श मात्र से वह बालक रोग रहित और सुन्दर कैसे हो गया? इसका समाधान करने की कृपा कीजिए।’

विश्वामित्र बोले-
‘राजन्! प्रभु की इच्छा से जो कुछ भी हो जाय, वही सम्भव है, उसमें आश्चर्य ही कैसा?

भगवान् गजानन चाहें तो किसी भी निमित्त से अभीष्ट प्रदान कर सकते हैं।

(अभीष्ट का अर्थ है वांछित। जिस वस्तु की हमें जरूरत है अथवा हम जिस चीज की इच्छा या कामना रखते हैं)


श्रीबल्लाल विनायक कथा

देखो, एक समय की बात है –

सिन्धु देश की पल्ली नामक ग्राम में एक धनिक वैश्य रहता था, उसका नाम कल्याण था।

एक दिन वह वणिक्-पुत्र अपने मित्रों के साथ वन में गया।

वहाँ एक ऐसी शिला देखी जिस पर कोई मूर्ति-सी अङ्कित थी।

उन्होंने उसे गणेश्वर नाम देकर पूजन आरम्भ किया और सबने मिलकर वहाँ एक मण्डप बनाकर उत्सव मनाने की आयोजना की।

उस दिन से अपने सब मित्रों के साथ वह वणिक्-पुत्र रात-दिन वहीं रहकर गणेश जी की उपासना करने लगा।

जब वे घर नहीं पहुँचे तो माता-पिता को चिन्ता हुई और पता लगाने आये कि वे कहाँ हैं और क्या करते हैं?

सब बालकों को उपासना आदि में लगे देखकर उनके माता-पिता आदि ने कल्याण से कहा कि तुम्हारे पुत्र ने हमारे बालकों को भी पागल बना दिया है, जो अरण्य में पड़ी हुई शिला का पूजन आराधना कर रहे हैं।

इसलिए तुम अपने पुत्र को रोको अन्यथा हमें उसके साथ कठोरता का व्यवहार करना पड़ेगा।

यह सुनकर कल्याण ने उस मण्डप को गिरा दिया और अपने पुत्र को मारने लगा।

उसने उस गणेश-शिला को उठाकर दूर फेंका और समस्त बालकों को वहाँ से भगा दिया।


श्रीबल्लाल विनायक की स्थापना का वर्णन

हे राजन्! इससे वणिक्-पुत्र बल्लाल को बड़ा मानसिक कष्ट पहुँचा।

उसने पिता से हाथ जोड़कर निवेदन किया कि
‘पिताजी! आप मुझे कितना भी भारी दण्ड दे दीजिए, किन्तु उन सर्वात्मा भगवान् गणाध्यक्ष का निरादर मत कीजिए।

वे प्रभु समस्त कल्याणों के देने वाले हैं।

अपने भक्तों के सभी विघ्नों का भी हरण करते हैं।

उनके समान अन्य कोई बड़ा देव नहीं है।’

वैश्य ने क्रोधावेश में कहा-
‘मूर्ख! इस पत्थर को सर्वात्मा कहता है?

देखूँगा तेरा गणाध्यक्ष तेरे विघ्नों को किस प्रकार दूर करता है और तुझे बन्धन से कैसे छुड़ाता है?’

कल्याण ने अपने पुत्र को एक पेड़ से दृढ़तापूर्वक बाँध दिया और बोला-
‘अब भी अपनी भूल स्वीकार कर और गणेश की भक्ति छोड़कर अपने कार्य में लग जा।’

किन्तु पुत्र ने पिता की बात स्वीकार नहीं की तो वह उसे गाली देता चला गया।

इस बालक को अपने पिता की निष्ठुरता पर क्रोध आ गया और उसने उसे शाप दे डाला
‘तुमने मुझे इस निर्जन वन में अकेला ही निर्दयतापूर्वक बाँधकर छोड़ दिया है।

इसके फलस्वरूप तुम बहरे, गूँगे, अन्धे और विकलांग होओगे।’

बहुत समय बीत गया।

वृक्ष से बँधा रहने के कारण बालक थक गया और रस्सी के बन्धन उसके कोमल अङ्गनें में गड़ गये।

इससे अत्यन्त पीड़ित होकर वह भगवान् गजानन को पुकारने लगा और अन्त में उनकी ओर से भी निराश हो गया तो उसने आत्मघात करने का निश्चय किया।

वह वृक्ष से ही सिर मारने लगा, उससे मस्तक में क्षत हो गये।

तब वह बालक पीड़ा और निराशा के कारण रोता हुआ बोला- ‘विघ्नेश! आपके भक्त पर ऐसा महान् संकट है और आप सुनते नहीं।

पता नहीं, आप कहीं हैं भी या नहीं?

यदि हैं तो आते क्यों नहीं?’

नभी उसने देखा-एक ब्राह्मण आ रहा है।

उसने तुरन्त ही बालक के बन्धन खोले और सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-
‘वत्स! तुम्हारी पुकार सुनते ही तो वहाँ आ गया हूँ।

तुमने पिता को जो शाप दिया है, वह सत्य होगा और यह स्थान तुम्हारे नाम पर ‘बल्लाल विनायक‘ के नाम से प्रसिद्ध हो जायेगा।

इधर कल्याण का शरीर उसी समय से रोगग्रस्त हो गया, उससे दुर्गन्ध आने लगी।

वह बहरा, गूँगा और विकलांग हो गया।

उसकी दशा देखकर पत्नी को बहुत दुख हुआ।

वह पुत्र को देखने के लिए अरण्य में गई तो वहाँ उसे गणेश्वर के पूजन में लगा देखा।

इससे उसके मन में बड़ी प्रसन्नता हुई।

उसने पुत्र से कहा-
‘पुत्र! यह तो तू बड़ा मंगल कार्य कर रहा है।

परन्तु, तुम्हारे पिता की दशा बहुत दारुण हो गई है, उन्हें भी चलकर देखना चाहिए।

वत्स! माता-पिता की आज्ञा मानना भी पुत्र का परम कर्त्तव्य है।’

बल्लाल ने उसी प्रकार शान्तिपूर्वक बैठे रहकर कहा-
‘जननि! सांसारिक माता-पिता तो अनित्य हैं।

यथार्थ माता-पिता तो भगवान् गणेश्वर ही हैं, जिनकी मैंने शरण ले ली है।

इन्हीं भगवान् का निरादर करने के कारण पिताजी को ऐसी दशा प्राप्त हुई है।

अब उनकी सेवा करना तुम्हारा भी कर्त्तव्य है, क्योंकि पत्नी के लिए पति की सेवा ही सर्वोपरि है।’

माता ने कहा-
‘पुत्र! अपने जन्मदाता पिता को शाप से मुक्त कर दो।

मैं तुमसे विनय करती हूँ।’ यह सुनकर बल्लाल ने कहा- ‘जननि! मैं तो अब कुछ भी नहीं कर सकता।

अगले जन्म में तुम एक राजा की महारानी बनोगी।

किन्तु तुम्हारा पुत्र गूँगा, बहरा, विकलांग और दुर्गन्धि युक्त होगा।

उसके कारण तुम्हारा पति उस पुत्र के साथ तुम्हें भी घर से निकाल देगा।

फिर एक शिवालय में एक गणपति भक्त ब्राह्मण के स्पर्श से तुम्हारे उस दक्ष नामक पुत्र का शरीर नीरोग और सुन्दर हो जायेगा।’

हे राजन्! यह समस्त घटना-चक्र उसी वाणी के अनुसार घटित हुआ था।


विश्वामित्र बोले- ‘हे राजन्! अब आगे का वृत्तान्त सुनो।

कौण्डिन्यपुर नगर के निकट ही एक महावन था, जिसमें भगवान् गणाध्यक्ष का एक प्राचीन मन्दिर विद्यमान था।

दक्ष ने उस मन्दिर में जाकर गणेश्वर के एकाक्षरी मन्त्र का जप आरम्भ किया।

इसी मध्य उसने अपने को हाथी पर सवार देखा।

वह स्वप्न उसने माता को सुनाया तो वह बोली- ‘पुत्र! स्वप्न तो बहुत ही सुन्दर है।

हाथी के दर्शन का अर्थ हुआ भगवान् गजानन का दर्शन और हाथी की सवारी का अर्थ हुआ राज्यपद की प्राप्ति।’


काल की गति विचित्र होती है

मुनीश्वर आगे बोले- ‘राजन्! काल की गति बड़ी विचित्र है।

वह अनुकूल चलता है तो समस्त सौभाग्यों की प्राप्ति कराता है और प्रतिकूल चलता है तो नष्ट कर देता है, देखो, कौण्डिन्यपुर में उस समय चन्द्रसेन नामक राजा राज्य करता था, उसकी मृत्यु अकस्मात् हो गई।

नगर में सर्वत्र शोक छा गया, राजा की सदाचारिणी पत्नी सुलभा पति के वियोग में मूच्छित हो गई।

तभी एक वेदज्ञ ब्राह्मण ने आकर कहा-
‘जिसकी जितनी आयु होती है वह उतना ही जीवित रहता है।

इसलिए शोक व्यर्थ है।

फिर, जो मर गया, उसका संस्कार तो करना ही चाहिए अन्यथा सद्गति कैसे होगी?

जो केवल शोक का दिखावा करता है, वह अवश्य स्वार्थी है, इसलिए राजा का संस्कार करना ही उसके प्रति सच्ची प्रीति प्रदर्शित करना होगा।’

राजा के कोई पुत्र या परिवारीजन नहीं था, इसलिए प्रधान अमात्य ने उसका मृतक संस्कार किया और फिर सब अमात्य बैठकर विचार करने लगे कि किसे राजा बनाया जाय?

तभी महर्षि मुद्गल वहाँ आ गये और अमात्यों के पूछने पर महर्षि ने कहा, ‘गज अपनी सूँड़ जिसके कण्ठ में माला पहिनाए, उसी को राजा बनाना चाहिए।

इसके लिए आप लोग एक उत्सव का आयोजन करके राजा का चयन कर लो।’

महर्षि की आज्ञानुसार शुभ दिन देखकर उत्सव का आयोजन किया गया, जिसमें सहस्त्रों व्यक्ति उपस्थित हुए।

दक्ष भी उसमें दर्शक के रूप में सम्मिलित हुआ।

रानी ने पुष्कर नामक गजेन्द्र की सूँड़ में एक रत्नमाला डाली और प्रार्थना की कि
‘हे गजराज! इस माला को किसी ऐसे योग्य व्यक्ति के गले में डाल दो जो धर्मपूर्वक राज्य शासन चला सके।’

हाथी उस जनसमूह के मध्य में इधर-उधर सूँड़ हिलाता हुआ धीरे-धीरे चल पड़ा।

वह कभी-कभी रुक कर किसी विशिष्ट व्यक्ति को सूँघने लगता तो वह व्यक्ति समझता कि यह मेरे ही गले में माला डालेगा।

अनेकों उत्सुक व्यक्ति हाथी के पास इसी आशा में आने लगे।

किन्तु हाथी सबकी ओर देखता और बहुतों को सूँघता हुआ अन्त में दक्ष के पास जा पहुँचा और उसे सूंघकर, देखकर, कुछ ठहर कर अन्त में उसने उसी के गले में वह रत्नमाला डाल दी।

दक्ष राजा हो गया।

हाथी ने उसे अपनी सूँड़ से उठाकर ऊपर बैठा दिया।

सर्वत्र हर्षध्वनि और जयघोष होने लगा।

वह हाथी पर चढ़ाकर ही राजभवन में लाया गया।

वेदज्ञ ब्राह्मणों ने उसका विधिपूर्वक अभिषेक किया।

उस समय दुन्दुभि बज उठी, राजा दक्ष पर पुष्पों की वर्षा होने लगी।

राजा ने सभी को यथा पद विभिन्न प्रकार के उपहार और ब्राह्मणों को गवादि के दान किए।

हे महाराज! दक्ष का विवाह राजा वीरसेन की पुत्री से हुआ।

फिर उसके वृहद्भानु नामक एक पुत्र हुआ जिसने सुखपूर्वक उस राज्य को भोगा।

बृहद्भानु का पुत्र खड्गधर हुआ।

खड्गधर का पुत्र सुलभ, उसका पुत्र प‌द्माकर, उसका पुत्र वपुदीप्त और उसका पुत्र चित्रसेन हुआ।

हे राजन्! उस चित्रसेन से पुत्र तुम हो।’

ब्रह्माजी ने कहा –
‘हे व्यास! विश्वामित्र जी के मुख से अपना परम्परागत वंश-परिचय सुनकर राजा भीम को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने निवेदन किया-
‘प्रभो! मुझ पर भी भगवान् गणाध्यक्ष का अनुग्रह हो सके, वैसी कृपा कीजिए।’

उसकी प्रार्थना सुनकर विश्वामित्र ने कहा-
‘हे राजन्! तुम राजा दक्ष द्वारा निर्माण कराये गये गणेश मन्दिर में रहकर गणाध्यक्ष का अनुष्ठान करो तो तुम्हारे सब अभीष्ट पूर्ण हो जायेंगे।’

यह सुनकर राजा उन्हें प्रणाम करके अपने वंश-परम्परागत से उपासकीय गणेश्वर मन्दिर में जाकर उपासना करने लगा और अनुष्ठान पूर्ण होने पर उसके रुक्मांगद नामक पुत्र की प्राप्ति हुई।

कालान्तर में पिता की आज्ञा से रुक्मांगद अपने पैतृक राज्यपद पर आसीन हुआ।’

यह कहकर ब्रह्माजी चुप हो गये तो व्यासजी ने उनसे निवेदन किया, ब्रह्मन्! फिर रुक्मांगद भी गणेश भक्त हुआ या नहीं? राजा रुक्मांगद बड़ा धार्मिक और सत्यवादी हुआ था।

उसे भी एक बार बड़े संकट की प्राप्ति हुई थी, जिसकी निवृत्ति गणेश-कृपा से ही हुई।


रुक्मांगद की संकट से निवृत्ति

व्यासजी बोले-
‘प्रभो! उसे किस प्रकार से संकट की प्राप्ति और निवृत्ति हुई, सो कहने की कृपा कीजिए उसके विषय में जानने की मुझे बड़ी अभिलाषा हैं।’

यह सुनकर चतुरानन ने कहना आरम्भ किया-
हे व्यासजी! राजा रुक्मांगद सुखपूर्वक राज्य करता था।

एक दिन वह शिकार के लिए वन में गया और शिकार न मिलने पर इधर-उधर भटकने लगा।

तभी उसे वाचक्नवि ऋषि का आश्रम दिखाई दिया।

वह उस आश्रम में गया तो वहाँ ऋषि और उनकी पत्नी मुकुन्दा दिखाई दिए।

उसने दोनों को प्रणाम किया और ऋषि की आज्ञा से कुटी के एक कक्ष में विश्राम करने लगे।

इसी बीच ऋषि स्नानार्थ सरोवर पर चले गये, तभी ऋषि-पत्नी ने राजा के पास जाकर कहा कि
‘तुम अति सुन्दर हो, मैं तुमपर मोहित हो गई हूँ, मुझे प्रसन्न करो।’

राजा बोला-
‘आप पूज्य महर्षि की पत्नी हैं और मेरे लिए माता के समान हैं, अतः मैं ऐसा दुष्कर्म नहीं कर सकता।’

यह सुनकर मुकुन्दा ने उसे शाप दे दिया कि तूने मेरा तिरस्कार किया है, इसलिए कोढ़ी हो जाएगा।

राजा उसी समय कोढ़ी हो गया।

वह बड़ा दुःखी हुआ और सोचने लगा- ‘मैंने धर्म का पालन किया तो भी मेरी ऐसी दशा हुई।

अब ऐसे घृणित जीवन से कोई लाभ नहीं।’

ऐसा निश्चय कर वह एक वटवृक्ष के नीचे बैठकर प्रायोपवेशन करने लगा।

ब्रह्माजी बोले- ‘हे द्वैपायन! उसी अवसर पर नारद जी उस मार्ग से निकल रहे थे।

उन्होंने राजा को आमरण अनशन करते देखा तो उसका कारण पूछ बैठे।

राजा ने उन्हें सब बात बताई तो उसे निर्दोष जानकर दया आ गई और बोले कि ‘विदर्भ राज्य में ‘चिन्तामणि गणेश‘ नामक एक प्रसिद्ध देवालय है।

वहीं गणेश प्रतिमा के समक्ष ही गणेश-कुण्ड है।

उसमें जो कोई स्नान करता है वह रोग-मुक्त हो जाता है।

इसलिए तुम भी ऐसा ही करो।’

राजा उनके उपदेशानुसार चिन्तामणि नगर पहुँचा और उसने गणेशजी के दर्शन कर कुण्ड में स्नान किया।

इससे वह तुरन्त ही नीरोग हो गया।

तब उसने वहाँ गणेश्वर का भक्तिभाव पूर्वक षोड़शोपचार से पूजन किया और फिर ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान-दक्षिणा दी।

तभी उनके पास गणेश-दूत आकर बोले-
राजन्! भगवान् गणेश्वर की आज्ञा से हम यहाँ आये हैं।

तुम हमारे साथ उस विमान पर चढ़कर प्रभु की सेवा में चलो।’

राजा बोला-
‘प्रभु पार्षदो! मेरे माता-पिता अभी जीवित हैं, मैं उन्हें छोड़कर आपके साथ कैसे चलूँ?

तो दूत बोले-
‘तुम पुनः इस कुण्ड में स्नान और गणपति-पूजन कर उनका पुण्य अपने माता-पिता के अर्पण करो तो उन्हें भी अपने साथ ले सकते हो।’

राजा के दूतों के कहे अनुसार ही पुनः स्नान, पूजनादि किया और अपने माता-पिता को साथ लेकर गणपति धाम को चला गया।


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