गणेश पुराण – प्रथम खण्ड – अध्याय – 8

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देवराज इन्द्र के विमान का पतन वर्णन

सूतजी बोले-
‘हे शौनक! फिर चतुरानन ने व्यास जी को राजा शूरसेन का उपाख्यान कहा –
जिसे महर्षि भृगु ने राजा सोमकान्त को इस प्रकार बताया-
‘हे राजन्! मध्यदेश में सहस्त्र नामक एक विख्यात नगर था, जिसमें रहकर राजा शूरसेन राज्य करता था।

यह राजा अत्यन्त पराक्रमी, शत्रुजेता और विद्वान् था।

एक दिन राजा अपनी राज-सभा में श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान था, तभी उसने कुछ दूर पर एक विमान गिरता देखा।

राजा ने अपने दूतों को उसका पता लगाने का आदेश दिया तो उन्होंने लौटकर बताया-
‘महाराज! वह विमान देवराज इन्द्र का है।’

यह सुनकर राजा तुरन्त वहाँ पहुँचा और उसने देवराज से विमान के गिरने का कारण पूछा।

इन्द्र ने उत्तर दिया-
‘राजन्! मैं गणेश रूप भृशुण्डि ऋषि के दर्शन करके लौट रहा था,
तभी मेरे विमान पर तुम्हारे एक कुष्ठी दूत की दृष्टि गई, उसी से यह विमान गिर गया है।’

राजा शूरसेन ने कहा-
‘प्रभो! भृशुण्डि ऋषि कौन है?
उनके दर्शनों की ऐसी क्या महिमा है, जिससे आप जैसे महा-महिम भी उनके दर्शनार्थ पधारे!

यह सब मुझे बताने की कृपा करें।’

इन्द्र बोले-
‘राजन्! इस वर्णन का आरम्भ एक इतिहास से करना होगा।

दण्डकारण्य में नाभा एक अत्यन्त क्रूर लुटेरा कोल रहता था।

वह मनुष्य, देवता, ऋषि आदि कोई भी क्यों न हो, सभी को लूटता फिरता था।

उस दस्यु ने एक बार महर्षि मुद्गल के आश्रम पर आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि के भय-रहित एवं सौम्य स्वरूप को देखकर उसका हृदय धड़कने लगा और हाथ काँपने लगे।

उसका मानसिक उद्वेग इतना बढ़ा कि शरीर से स्वेद की धारा ही बह उठी।

(स्वेद अर्थात पसीना)

निकट ही गणेश-तीर्थ था, उसने सोचा कि शरीर में स्फूर्ति लाने के लिए पहिले स्नान कर लूँ।

‘इसलिए उसने उस कुण्ड में गोता लगाया ही था कि उसकी वृत्ति बदल गई।

अब उसने महर्षि मुद्गल के पास जाकर उनके चरण पकड़ लिये और अपने अपराध की क्षमा माँगने लगा।

हे महाराज! ऋषि तो दयालु थे ही, उन्होंने उस दस्यु को क्षमा कर दिया, तब उसने निवेदन किया-
‘भगवन्! मैंने अब तक बहुत पाप किए हैं, उनसे निवृत्ति का कुछ उपाय बताइए।’

यह सुनकर महर्षि ने उसे गणेश का सप्ताक्षरी मन्त्र ‘ॐ गणेशाय नमः’ का उपदेश किया और फिर बोले,
वत्स! मैं! यहाँ एक काष्ठ गाड़ देता हूँ उसके अंकुरित होने तक तुम तपस्या करते रहोगे तो अभीष्ट की अवश्य पूर्ति होगी।’

वह महर्षि को प्रणाम कर वन में मन्त्र जपता हुआ तपस्या करने लगा।

उसे तप करते-करते एक सहस्त्र वर्ष व्यतीत हो गये।

तब सहसा वह लकड़ी अंकुरित हो गई।

उसी समय महर्षि मुद्गल ने उसे दर्शन दिये और उसे सुन्दर एवं दिव्य देह युक्त करके अपना पुत्र बना लिया।

तदुपरान्त उन्होंने उसे गणेश्वर का एकाक्षरी बीज मन्त्र दिया।

उसने उस मन्त्र का अत्यन्त भक्तिभाव से अनुष्ठान किया तथा अनुष्ठान के सम्पन्न होने पर उसकी भृकुटी से एक सूँड़ निकल पड़ी।

तभी से उसका नाम भृशुण्डी हो गया।

हे राजन्! तदुपरान्त महर्षि ने उसे वर दिया कि
‘जो कोई तुम्हारा दर्शन करेगा, वही मोक्ष को सहज ही प्राप्त कर लेगा और तुम एक लाख कल्प तक जीवित रहोगे।’

तब से वह कोल परम सिद्ध महाज्ञानी एवं महर्षि हो गया।

संसार भर के बड़े-बड़े महर्षि एवं देवता आदि उनके दर्शन को आने लगे।

मैं भी उनकी महिमा सुनकर उनके दर्शनार्थ आया था।

राजा शूरसेन ने यह इतिहास सुनकर पुनः पूछा-
‘प्रभो! अब आपका यह विमान किस प्रकार उठने योग्य होगा?’

इसपर इन्द्र बोले-
‘राजन्! तुम्हारे राज्य में कोई संकष्टीव्रत करने वाला पुण्यात्मा जब अपने एक वर्ष का पुण्य देगा, तभी यह उठेगा।’


गणेश्वर के संकष्टी-व्रत का इतिहास वर्णन

जब राजा ने पूछा कि ‘देवराज! वह व्रत किस प्रकार किया जाता है?’

तो उन्होंने उत्तर दिया- ‘नृपेश्वर! मैं तुम्हें एक इतिहास सुनाता हूँ।

पुरा काल में कृतवीर्य नामक एक राजा हो गया है।

उसकी पत्नी सुगन्धा अति रूपवती और साध्वी थी।

उससे कोई सन्तान नहीं हुई।

राजा ने अनेक पुत्र्येष्टि यज्ञ किए तो भी कोई फल नहीं निकला।

अमात्यों ने परामर्श दिया-
‘महाराज! अब तो निवासपूर्वक तपश्चर्या कीजिए।’

राजा को परामर्श उचित प्रतीत हुआ।

उसने अमात्यों को राज्य की रक्षा का भार सौंपा और पत्नी सहित वन में चला गया।

इस प्रकार दम्पति घोर तपस्या करने लगे।

एक दिन नारद जी पितृलोक गये थे तो वहाँ उनकी भेंट कृतवीर्य के पितरों से हुई।

उनके कुशलक्षेम पूछने पर नारद जी ने कहा कि
‘कृतवीर्य को जब तक स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाले पुत्र की प्राप्ति न होगी, तब तक वह पत्नी सहित कठिन तप करता रहेगा और यदि पुत्र की प्राप्ति न हुई तो वह इसी प्रकार अपने प्राण दे देगा।’

तदुपरान्त देवर्षि यमलोक में पहुँचे, वहाँ उन्होंने भृशुण्डी ऋषि के माता-पिता को अग्निमय कुम्भीपाक में दग्ध होते हुए देखा।

उनको बड़ी दया आई।

उन्होंने भृशुण्डी ऋषि के पास जाकर उनकी दशा का वर्णन करने के पश्चात् कहा- ‘मुनिवर! आपके माता-पिता कुम्भीपाक नरक में पड़े हुए घोर दुःख भोग रहे हैं, उनके उद्धार का कुछ उपाय कीजिए।’

तब भृशुण्डी ऋषि ने अपने संकष्टी व्रत का पुण्य सभी पितरों के लिए दिया, जिससे उनके माता-पिता सहित अन्य सब पितर भी मुक्त हो गये।’

राजा ने पूछा-
‘हे देवेन्द्र! आपने भृशुण्डी के पितरों के मुक्त होने का वृत्तान्त तो कहा, किन्तु उतवीर्य के विषय में बताया कि उसके पितरों ने नारद जी को क्या उत्तर दिया?’

वह भी बताने की कृपा कीजिए।

देवराज बोले- ‘नरेन्द्र! उसका भी उत्तर सुनो।

उन राजा के पिता ने नारद जी से तो यह कहा कि ‘उसका उपाय करेंगे’ और फिर वह तुरन्त ही ब्रह्माजी के पास गया और उन्हें प्रणाम कर निवेदन किया, ब्रह्मन्! मेरा पुत्र तो अत्यन्त धार्मिक और ईश्वर-भक्त है, उसको पुत्र की प्राप्ति क्यों नहीं हुई?

यह सुनकर ब्रह्माजी बोले-
‘तुम्हारे पुत्र ने पूर्व जन्म में ब्रह्महत्या की थी।

वह नन्दुर नामक नगर में निवास करता था उसने धन के लोभ में बारह वेदज्ञ ब्राह्मणों को मार डाला और उनका धन लेकर अपने घर आ गया।

उस दिन माघकृष्णा चतुर्थी थी तथा जब वह घर आया था उस समय चन्द्रोदय हो चुका था, उसने अपने समस्त परिवारीजनों के साथ बैठकर अपने पुत्र गणेश को पुकारा।

जब वह आ गया तब सभी ने भोजन किया।

तदुपरान्त उसकी मृत्यु हो गई।

हे राजन्! उस दिन वह दिनभर भूखा रहा और गणेश का उच्चारण कर भोजन किया! उसे संकष्टी चतुर्थी में दिनभर भूखे रहने से व्रत का और ‘गणेश’ उच्चारण से नाम स्मरण का पुण्य प्राप्त हो गया।

जिसके फलस्वरूप तुम पुण्यवान् नरेश के यहाँ उसका जन्म हुआ और तुम्हारे पश्चात् उसे राज्यपद की प्राप्ति हो गई।

अब यदि वह संकष्ट चतुर्थी का व्रत करे तो उसकी ब्रह्म-हत्या छूटकर पुत्र-लाभ हो सकता है।’

यह सुनकर कृतवीर्य का पिता अपने स्थान पर लौट आया और अपने पुत्र को संकष्ट चतुर्थी व्रत करने की स्वप्न में प्रेरणा दी।

तब राजा ने यह व्रत करके गणेश जी का और चन्द्रमा का पूजन किया, जिसके प्रभाव से उसे सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हो गई।

ब्रह्माजी बोले-
‘हे व्यास! इन्द्रदेव से गणेशजी के पूजन-व्रत, जप आदि की ऐसी महिमा सुनकर राजा शूरसेन ने अपने राज्य में ढिंढोरा पिटवा कर घोषणा की कि जिस किसी ने संकष्टी व्रत किया हो, वह राजा के समक्ष उपस्थित हो, राजा उसे अभीष्ट धन प्रदान करेंगे।

यद्यपि उस राज्य में गणेशजी का उक्त व्रत करने वाले कई गणेश भक्तों का निवास था, तथापि उन्हें उस घोषणा से यह आशंका हुई कि कहीं राजा कोई दण्ड न दे बैठे, सम्भव है कि अभीष्ट धन देने की बात लोभ दिलाने के लिए ही कहलाई हो।’

हे द्वैपायन! इस भय से कोई भी राजसभा में जाने को इच्छुक नहीं था, किन्तु तब भी एक व्यक्ति वहाँ पहुँच कर बोला- ‘राजन्! मैंने निरन्तर कई वर्षों तक संकष्टी चतुर्थी में व्रत किये हैं।

यदि आप मेरे कार्य को ठीक समझते हों तो आज्ञा कीजिए कि मैं क्या करूँ?

यदि कहीं आपने प्रलोभन देकर दण्ड देने के उद्देश्य से मुझे बुलाया है तो भी मैं प्रस्तुत हूँ।’

दण्ड की बात सुनकर राजा को हँसी आ गई।

उसने उस व्यक्ति को सम्मान सहित बैठाकर सुरेश्वर के विमान गिरने की घटना बताई और अपना एक वर्ष का पुण्य प्रदान करने का उससे निवेदन किया।

राजा की बात सुनकर उसने सहर्ष अपने एक वर्ष के संकष्टी-व्रत दान का संकल्प कर दिया।

हे द्वैपायन! उसके संकल्प करते ही इन्द्रदेव का विमान ऊपर उठ गया।

इस प्रकार देवराज अपने लोक को गये।

तब राजा ने उस व्यक्ति को अभीष्ट धन देकर ससम्मान विदा किया और फिर स्वयं भी प्रति वर्ष संकष्टी व्रत करने लगा, जिसके प्रभाव से इहलोक और परलोक में पूर्ण आनन्द की प्राप्ति हुई।

व्यासजी ने पूछा-
‘हे ब्रह्मन्! संकष्टी व्रत का आपने इतना अधिक माहात्म्य बताया है, किन्तु कुछ विद्वान् अन्य चतुर्थियों में व्रत करना श्रेष्ठ मानते हैं?

तब कौन-सी बात ठीक है?’

ब्रह्माजी बोले-
‘हे द्वैपायन! सभी चतुर्थियों के व्रतों का बहुत माहात्म्य है।

जिस पर जो व्रत बन जाय, वह उसी को करके अपने अभीष्ट की प्राप्ति कर सकता है।

परन्तु व्रत के विधान में अन्तर अवश्य है।

श्रावण मास की चतुर्थी में सात मोदक खाकर रहे,
भाद्रपद की चतुर्थी में दोनों का सेवन करे और
आश्विन की चतुर्थी में पूर्ण उपवास।

कार्तिक में दुग्धाहार करे और मार्गशीर्ष में निराहार रहे।

पौष मास में गोमूत्र, माघ में तिल और फाल्गुन में घृत-शर्करा सेवन करे।

चैत्र में पंचगव्य, वैशाख में शतपत्र, ज्येष्ठ में केवल घृत और आषाढ़ में केवल मधु खाना चाहिए।

यह प्रत्येक मास की चतुर्थी के व्रत का विधान मैंने तुम्हें बता दिया है।


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