गणेश पुराण – चतुर्थ खण्ड – अध्याय – 1

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गणेशजी ‘एकदन्त’ कैसे हो गये?

सूतजी बोले- ‘शौनक! इस प्रकार कहकर भगवान् नारायण मौन हो गए, तब नारदजी ने उनसे पुनः जिज्ञासा की- प्रभो! शिवा-सुवन गणेशजी एकदन्त क्यों हुए? उस विषय में मुझे बताने की कृपा कीजिए।’

यह सुनकर श्रीनारायण बोले-

“शृणु नारद वक्ष्येऽहमितिहासं पुरातनम्।
एकदन्तस्य चरितं सर्वमङ्गलमङ्गलम्॥”

‘हे नारद! सुनो, मैं उन एकदन्त गणेशजी के समस्त मंगलों के भी मंगल रूप परम पुरातन चरित्र रूप इतिहास को कहता हूँ।

हे मुने! एक बार की बात है-राजा कार्त्तवीर्य आखेट के लिए वन में गया और बहुत से मृगों का शिकार करके थक गया।

इसलिए उसने वह रात्रि वहीं व्यतीत की तथा उसकी विशाल सेना के पड़ाव का फैलाव महर्षि जमदग्नि के आश्रम तक पहुँच गया।

जब रात्रि व्यतीत होकर प्रातःकाल हुआ तो सभी शौचादि से निवृत्त हुए।

राजा कार्त्तवीर्य ने निकटस्थ सरोवर में स्नान कर श्रीदत्तात्रेय-प्रदत्त मन्त्र का भक्तिभावपूर्वक जप किया।

उसके पश्चात् राजा को भूख लगी तो सोचने लगा कि भोजन की व्यवस्था कैसे हो? जब कोई उपाय न सूझा तो वह महर्षि जमदग्नि के आश्रम में जा पहुँचा।

उसने वहाँ जाकर महर्षि को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा पाकर विनीत भाव से सामने की ओर बैठ गया।

महर्षि ने देखा राजा के ओष्ठ और तालु सूख गये हैं, इस कारण वह ठीक प्रकार से बोलने में भी असमर्थ है तो उन्हें दया आ गई और कुशल प्रश्न के पश्चात् उन्होंने उसे आशीर्वाद कर उसकी व्यग्रता का कारण पूछा- ‘राजन्! तुम्हारे मुख पर थकान के भाव स्पष्ट देखे जा रहे हैं, इसका कारण क्या है?’

राजा ने कहा- ‘महर्षे! मैं कल दिनभर शिकार करते-करते थक गया, उसपर भी कहीं भोजनादि की व्यवस्था नहीं हो सकी।

मेरी सेना के सब लोग भी भूख-प्यास से व्याकुल हो रहे हैं।

राजधानी बहुत दूर है और साथ में कोई साधन नहीं, अतः ऐसी स्थिति में क्या किया जाये?


जमदग्नि द्वारा कार्त्तवीर्य को निमन्त्रण देना

मुनि ने राजा की व्यथा सुनी तो सम्भ्रमपूर्वक राजा को निमन्त्रण दे बैठे।

वस्तुतः मुनि को यह पता नहीं था कि सेना की कितनी संख्या है? किन्तु बाद में पता चला तो उन्हें अपनी भूल का ज्ञान हुआ।

अब वे सोचने लगे – ‘इतने अधिक जनसमूह की तृप्ति के लिए भोजन-सामग्री कहाँ से आवे? और सामग्री प्राप्त भी हो जाय तो भोजन बनायेगा कौन?’

महर्षि के आश्रम में कामधेनु विद्यमान थी।

मुनि ने सोचा, ‘अब तो यह कामधेनु ही मेरे वचन का निर्वाह कर सकती है।

अन्यथा राजा के समक्ष मिथ्यावादी समझा जाऊँगा जिससे कुद्ध हुआ राजा कुछ अनिष्ट भी कर सकता है।’

ऐसा सोचकर महर्षि ने कामधेनु से प्रार्थना की- ‘हे सुरभे! मैंने राजा की उसकी सेना सहित भोजन का निमन्त्रण दे दिया।

परन्तु उतने बड़े जन-समूह के आहार योग्य न तो सामग्री है, न बनाने वाला रसोइया ही; इस स्थिति में बताओ कि मैं क्या करूँ?’

कामधेनु ने महर्षि की बात सुनकर उन्हें आश्वासन दिया- ‘महर्षि! आप चिन्ता क्यों करते हैं? यह राजा और इसकी सेना तो क्या, मैं समस्त विश्व को भोजन कराने में समर्थ हूँ।

आप निश्चिन्त होकर राजा को सेना सहित बुला लीजिए।

फिर आप जिस-जिस द्रव्य की इच्छा करेंगे, वही-वही द्रव्य प्राप्त हो जायेगा।

चाहे वह त्रैलोक्य में भी दुर्लभ क्यों न हो।’

यह सुनकर महर्षि बड़े प्रसन्न हुए।

उन्होंने शिष्य को आदेश दिया कि ‘राजा को सेना सहित भोजन के लिए बुला लाओ।’

शिष्य ने राजा को मुनि का सन्देश दिया और तब राजा प्रसन्नतापूर्वक अपने समस्त सैनिकों के सहित आश्रम में आ गये।

परन्तु छोटा-सा आश्रम, उसमें कोई विशेष सामग्री नहीं, यह देखकर राजा ने सोचा- ‘मैंने बड़ी भूल की जो इनका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया।

बेचारे इतने बड़े जन-समूह को भोजन कराने के लिए कैसे व्यवस्था करेंगे? अच्छा होता कि मैं अकेला ही यहाँ आता।’

राजा के मन की उथल-पुथल महर्षि से छिपी न रही।

उन्होंने कहा- ‘महाराज! आप चिन्ता न करें।

यहाँ सभी को इच्छित पदार्थों से भोजन कराने की व्यवस्था है।’

राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ।

सभी को भोजन और वह भी इच्छित पदार्थ का? कहीं महर्षि किसी भ्रम में तो नहीं हैं? फिर भी, राजा शान्त होकर बैठ गये।

अन्य सबने भी पंक्तियाँ लगा लीं।

तभी देखा कि सभी के समक्ष पत्तलें लग गयी हैं और उनपर वे ही पदार्थ हैं, जिनकी इच्छा खाने वालों ने की थी।

अर्थात् जिनकी इच्छा मिष्ठान्न की थी उसकी इच्छित मिष्ठान्न और जिसकी इच्छा नमकीन की थी उसकी पत्तल पर इच्छित नमकीन रखी थी।

जो रोटी चाहता उसे रोटी, पूड़ी चाहता उसे पूड़ी और मेवा चाहता उसे मेवा की प्राप्ति हुई।

एक-एक कर सभी इच्छित पदार्थ पत्तलों पर आते रहे।

यह पता नहीं चला कि उन्हें कौन, कब रख गया! थोड़ी देर में ही सेना सहित राजा पूर्ण रूप से तृप्त हो गया।

वस्तुतः भोजन में प्राप्त सभी वस्तुएँ दुर्लभ थीं।

राजा जानता था कि उन सबका निर्माण इतने अल्प समय में राजभवन में भी नहीं हो सकता था।

राजा उस अवस्था से अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया और मुनि के पास से अन्यत्र जाकर उसने अपने सचिव को बुलाकर कहा-

“द्रव्याण्येतानि सचिव दुर्लभान्यश्रुतानि च।
ममासाध्यानि सहसा क्वागतान्यवलोकय॥”

‘हे सचिव! भोजन में परोसे हुए सभी पदार्थ अत्यन्त दुर्लभ हैं।

उनमें बहुत से तो ऐसे थे, जिनके विषय में कभी सुना भी नहीं था।

ऐसे अद्भुत एवं अत्यन्त स्वादिष्ट पदार्थों को तो मैं भी सहसा साध्य नहीं कर सकता।

इसलिए तुम मुनि के आश्रम में जाकर यह पता लगाओ कि यह सब वस्तुएँ यहाँ आईं कहाँ से?’

राजा की आज्ञा सुनकर ‘जो आज्ञा’ कहता हुआ सचिव मुनि के आश्रम के भीतरी भाग में जा पहुँचा और सर्वत्र देखभाल करने के पश्चात् राजा के पास लौट आया और राजा से निवेदन करने लगा- ‘महाराज! आपकी आज्ञा से मुनि के आश्रम में भीतर जाकर मैंने एक-एक चप्पा-चप्पा भूमि छान डाली, किन्तु कहीं भी भोजन-सामग्री तो क्या उसके लिए पात्र भी दिखाई नहीं दिया।

मुनि के घर में केवल यज्ञीय काष्ठ, कुश, पुष्प, फल, आज्य एवं यज्ञाग्नि के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं मिला।

वहाँ कृष्णाजिन, सुक्-स्बुवा एवं शिष्यों का समूह भी देखा।

किन्तु तैजस् आधार रूप शस्यादि कहीं भी दिखाई नहीं दिया।

आश्रम के सभी निवासी वृक्षों की छाल के वस्त्र धारण किए हुए एवं जटा-जूट से युक्त पाये गये।

आश्रम के एक स्थान में एक सुन्दर गाय बँधी हुई थी, जो कि चन्द्रमा के समान शुभ्र अङ्ग वाली, अरुण नेत्रों से युक्त एवं देखने में अत्यन्त सुन्दर है।

सभी आश्रमवासी उसे ‘कपिला’ नाम से पुकारते हैं।

हे राजन्! मुझे तो वह गाय ही समस्त पदार्थों, शस्यों, विभिन्न ऐश्वर्यों से युक्त एवं गुणों की आधार प्रतीत होती है।

इसलिए आप चाहें तो मुनि से उस धेनु की ही याचना कीजिए।

सम्भव है कि वही इस सिद्धि का मुख्य कारण हो।’


कार्तवीर्य का जमदग्नि से कामधेनु की माँग करना

राजा को सचिव का परामर्श युक्तियुक्त प्रतीत हुआ।

उसने सोचा-‘अवश्य ही यह गाय ही आहार की सिद्धि में प्रमुख कारण है।

इसलिए मुनि से इसी की याचना करनी चाहिए।’

ऐसा विचार कर राजा महर्षि जमदग्नि के पास जाकर बोला-

“भिक्षां देहि कल्पतरो कामधेनुञ्च कामदाम्।
महां भक्ताय भक्तेश भक्तानुग्रहकारक॥”

‘हे भक्तों के स्वामिन्! हे भक्तों पर अनुग्रह करने में सदैव तत्पर रहने वाले मुनीश्वर! मुझ भक्त पर कृपा करके कल्पतरु रूप एवं सर्व कामनाओं के पूर्ण करने वाली कामधेनु की मुझे भिक्षा दीजिए।

हे नाथ! आपके समान श्रेष्ठ दाताओं के लिए ऐसी कोई वस्तु नहीं जो अदेय हो।

देखिये, प्राचीनकाल का वृत्तान्त है कि देवताओं की याचना पर महर्षि दधीचि ने अपनी अस्थियाँ तक दान कर दी थीं।’

‘हे तपोधन! हे तपस्या की राशि से पूर्ण सम्पन्न मुनिनाथ! आप अपनी भ्रूभंगिमा द्वारा लीला मात्र से सहस्त्रों-लाखों कामधेनुओं के समूह का सृजन करने में समर्थ हैं।

हे प्रभो! मुझपर कृपा कीजिए, इस कामधेनु की मेरे जैसे अधिक जनसमूह वाले के लिए बड़ी आवश्यकता है, जबकि वह आपके लिए कोई विशेष महत्त्व की नहीं है।’

मुनि ने राजा की बात का कोई उत्तर नहीं दिया।

सोचा, स्वयं ही समझ जायेगा कि नहीं देना चाहते।

किन्तु राजा तो काल के वशीभूत हो रहा था।

उसे उत्तर प्राप्त हुए बिना चैन कहाँ था? एक महाप्रतापी क्षत्रिय होकर ब्राह्मण से दान माँगते हो? दान लेना तो ब्राह्मण का कार्य है, क्षत्रिय का नहीं।

क्षत्रिय तो सदैव दान देते आये हैं।

फिर तुम क्यों धर्म-विरुद्ध चेष्टा करते हो? राजा ने कहा- ‘मुनीश्वर! धरती पर विद्यमान सभी वस्तुओं का स्वामी राजा ही होता है।

वही सबके प्राणों का भी अधिकारी है।

चाहे जिससे इच्छित वस्तु प्राप्त करने का उसे पूर्ण अधिकार प्राप्त है।

इसलिए आप मेरे ईश्वरप्रदत्त अधिकार को ध्यान में रखकर कपिला धेनु मुझे सौंप दीजिए।

इसी में आपका और आपके समस्त आश्रमवासियों का कल्याण निहित है।’


मुनि द्वारा गौ देने को अस्वीकार करना

मुनि ने कुछ रुष्ट होते हुए कहा- ‘अरे नृपाधम! तू तो अत्यन्त दुष्ट और वञ्चक प्रतीत होता है।

आज तक किसी भी रांजा ने किसी ब्राह्मण की वस्तु पर दृष्टि नहीं लगाई, किन्तु आज तू मेरी प्राणों से भी प्रिय कपिला धेनु को ले जाना चाहता है? देख, यह कामधेनु भगवान् श्रीकृष्ण ने गोलोक में श्रीब्रह्मा जी को प्रदान की थी।

ब्रह्माजी ने इसे महर्षि भृगु को दिया और उन्होंने मुझे।

इस प्रकार यह धेनु मेरी पैतृक सम्पत्ति है।

इसका प्राकट्य गोलोक में भगवान् के ही द्वारा हुआ है, यह त्रैलोक्य में कहीं भी मिलनी सम्भव नहीं।

ऐसी दुर्लभ धेनु का लीला मात्र से ही कैसे उत्पन्न कर सकता हूँ?’

राजा ने पुनः कहा- ‘मुनिनाथ! यह गौ तो मुझे लेनी ही है।

उचित यही है कि आप किसी प्रकार की सहमति व्यक्त करते हुए इसे मुझे दे दें।

क्योंकि ऐसी गौ आप जैसे मुनियों के काम की नहीं, वरन् राजाओं के ही काम की हो सकती है।

हठ करने से आपका कोई प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है।’

जमदग्नि बोले- ‘अरे मूढ़ नरपाल! मैं कोई हल चलाने वाला तो हूँ नहीं जो तेरी धमकियों में आ जाऊँगा।

मैं तुझे अतिथि समझकर ही, इतनी बातें सहन कर रहा हूँ, अन्यथा एक क्षण में ही समस्त सेना के सहित तुझे भस्म कर सकता हूँ।

इसीलिए उचित यही है कि मेरे क्रोध की वृद्धि न कर और शीघ्र ही यहाँ से अपनी राज धानी लौट जा।’

राजा को कुछ क्रोध आ गया, किन्तु क्रोध को रोकता हुआ पुनः बोला- ‘मुनीश्वर! मैं तुम्हें ब्राह्मण होने के कारण ही छोड़े दे रहा हूँ, अन्यथा मेरी बात न मानने पर मृत्यु दण्ड ही दिया जाता है।

अब तुम अपनी गाय मुझे तुरन्त दे दो, अन्यथा परिणाम ठीक नहीं निकलेगा।’

इसपर मुनि को भी क्रोध आ गया, किन्तु अप्रिय घटना न घटे, ऐसा विचार करते हुए बोले-

“गृहं गच्छ गृहं गच्छ मत्कोपं नैव वर्द्धय।
पुत्रदारादिकं पश्य देवबाधितपामर।।”

‘अरे, देवबाधित! अरे पामर, मेरे क्रोध को अब और अधिक न बढ़ा, जा, घर जा और वहाँ अपने पुत्र-स्त्री आदि परिवारीजनों को देख।

व्यर्थ ही वाद-विवाद करके नष्ट क्यों होना चाहता है?’


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