गणेश पुराण – चतुर्थ खण्ड – अध्याय – 4

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परशुराम द्वारा राजसभा में दूत का भेजना

दूत की भूमिका निर्वाह करने के लिए वे मुनि शीघ्र ही राजसभा में जा पहुँचे।

वहाँ उन्होंने देखा कि एक भव्य सिंहासन पर राजा कार्त्तवीर्य विराजमान हैं।

उनके निकट ही अमात्य-मण्डल, न्यायाधीशों के समूह, सेनापतियों और समस्त सांसद बैठे हुए हैं, सेवकगण राजा की और सभासदों की सेवा में लगे हैं।

प्रतिहारीगण आज्ञा की प्रतीक्षा में आदरपूर्वक खड़े हैं।

मुनिवेश के दूत के पहुँचने पर राजा ने उनका सम्मान कर यथोचित स्थान दिया और फिर आगमन का कारण पूछा- ‘मुनिवर! आप कहाँ से पधारे हैं? कहाँ जा रहे हैं? आने का प्रयोजन क्या है? यह सब कहने की कृपा करें।’

दूत ने कहा- ‘राजन्! मुझे जामदग्नेय परशुराम जी ने आपके पास भेजा है।

उनका कहना है कि आपने उनके पिता का वध कर दिया, वह भी निरपराध।

उनके वध से आपका कोई प्रयोजन भी तो सिद्ध नहीं हुआ।

आपका यह कार्य वस्तुतः दण्डनीय है, इसलिए आप अपने सब भाइयों के सहित युद्ध के लिए तैयार हो जाइए।

अपने समस्त सजातियों को भी साथ ले लीजिए, जिससे कि आपके मन में यह न रहे कि मैं अकेला ही मारा गया।

महाराज! यहाँ नर्मदा तट पर अक्षयवट विद्यमान है, वहीं भृगु ऋषि विद्यमान हैं, आपको वहीं जाकर युद्ध करना चाहिए।’

कार्त्तवीर्य ने दूत की बात शान्तिपूर्वक सुनी और बोला- ‘मुनिनाथ! वस्तुतः उस समय मैं कुछ भ्रमित-सा हो गया था, फिर भी क्षत्रियों का स्वभाव ही युद्ध करने का है।

जब महर्षि भृगु या परशुराम जी युद्ध को बुलाते हैं तो टाल भी कैसे सकता हूँ? किन्तु, एक विचार बाधक बना है-क्षत्रिय और ब्राह्मण में युद्ध कैसा?’

दूत ने कहा- ‘नरेश्वर! ब्राह्मण से युद्ध का आरम्भ तो तुम्हीं ने किया था? तुम्हीं ने निरपराध महर्षि जमदग्नि की नृशंस हत्या की थी।

उनके प्रतिशोध में परशुरामजी का निश्चय है कि इक्कीस बार इस पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर देंगे।

उन्होंने जो कहा है, वह मैंने तुमसे कह दिया है।

अब तुम्हारी इच्छा- ‘युद्ध करो या न करो।’

यह कहकर मुनि रूप दूत चले गये।

इधर राजा ने मन्त्रियों और सेनापतियों से परामर्श किया कि ‘अब क्या किया जाये? परशुराम ने युद्ध करने का निश्चय किया है तो करना ही होगा।

यदि हम स्वयं निश्चित स्थान पर नहीं पहुँचेंगे तो धर्म की हानि होगी और सम्भव है कि फिर वह यहीं आकर युद्ध करने लगें।’

अमात्यों ने कहा- ‘महाराज! वैसे तो हमारी सेना अत्यन्त प्रबल है।

यदि देवराज इन्द्र भी आकर युद्ध करने लगें तो हमसे जीत नहीं सकते।

तब वह बेचारा मुनिकुमार हमसे क्या लोहा ले सकेगा?’

सेनापतियों ने भी अमात्यों की बात का अनुमोदन किया।

इससे राजा को कुछ सान्त्वना तो मिली, किन्तु वह परशुराम के हठी स्वभाव और मन्त्र-सिद्धि से अपरिचित नहीं था, इसलिए भय, आशंका और चिन्ता के कारण अस्थिर चित्त ही रहा।


कार्त्तवीर्य और उसकी रानी का संवाद कथन

राजा की आज्ञा पाकर सेनाएँ तैयार की जाने लगीं और जब राजा ने युद्ध के लिए जाने का विचार किया, तब उनकी भार्या ने उनसे कहा- ‘प्राणनाथ! आप मुनिकुमार से युद्ध करने के लिए न जाइये।

वह बड़ा दुर्द्धर्ष और तप-सिद्ध है।

सुना है कि उसने भगवान् आशुतोष को प्रसन्न करके क्षत्रियों को नष्ट करने की योजना बनाई है।

इसलिए ऐसे व्यक्ति से युद्ध करना उचित नहीं है।’

राजा ने कहा- ‘प्रिये! यदि मैं नहीं जाऊँगा तो वही यहाँ आ जायेगा।

उस स्थिति में भी युद्ध करना ही होगा।

इसलिए अच्छा हो अपनी भूमि पर युद्ध न हो।’

रानी ने कहा- ‘स्वामिन्! आप उससे अपने अपराध की क्षमा माँग लीजिए।

शरण में जाने पर भगवान् भी अपने अपराधी को क्षमा कर देते हैं।

फिर ब्राह्मण चाहे कैसा भी क्रोधी हो, अपने सात्विक गुणों के कारण क्षमाशील भी होता है।

सम्भव है वह भी आपको क्षमा कर दें।’

राजा कार्त्तवीर्य बोला- ‘कान्ते! तुम्हारा कथन ठीक भी तो हो सकता है।

किन्तु मुझे वैसी आशा नहीं है।

परशुराम बड़ा हठी है, वह कभी क्षमा नहीं करेगा।

फिर मेरे मन और प्राण में भी इस समय क्षोभ हो रहा है, मेरा अंग-अंग फड़क रहा है युद्ध के लिए।

किन्तु, मुझे आज बहुत अशुभ स्वप्न दिखाई दिया है।

मैं अपने समस्त शरीर पर तेल लगाये हुए गधे पर सवार हूँ और पुष्प की माला गले में पड़ी है, मस्तक पर लाल चन्दन लगा है।

शरीर पर लाल रंग के ही वस्त्र हैं।

लोहे के अलंकारों से विभूषित हूँ तथा निर्वाण-अंगारों के समूह से क्रीड़ा करता हुआ हँस रहा हूँ।

समस्त शरीर पर भस्म रमी हुई है, लाल जपा पुष्पों से सजा हुआ हूँ।

नेत्रों पर ऐसा आकाश-मण्डल दिखाई दिया, जिसमें न सूर्य है, न चन्द्रमा।

इस स्वप्न में समझ लो कि क्या होने वाला है? ‘परन्तु शूर-वीरों के लिए ऐसे स्वप्न कुछ महत्त्व नहीं रखते।

उन्हें तो वीरोचित कार्य द्वारा अपने धर्म का निर्वाह करना ही होता है।

वीरों की सभा में बैठकर शोक से युक्त आर्त्तवचन कभी भी प्रशंसा के योग्य नहीं हो सकते।’

हे सुन्दरि! सुख-दुःख, भय-शोक, कलह एवं प्रीति आदि की प्राप्ति कर्मों के भोग के योग्य काल के द्वारा ही होती है।

काल द्वारा ही जन्म- मरण, यश-अपयश, हानि-लाभ की प्राप्ति होती है।

काल ही पुनर्जन्म और मोक्ष का भी दाता है।

काल से ही राजपद मिलता है, काल ही उस पद को छीन लेता है।’

‘हे प्रिये! संसार की रचना, पालन और संहार भी काल के अधीन है।

कालस्वरूप भगवान् जनार्दन ही सृष्टि की सब क्रियाओं के एकमात्र कारण हैं।

वे भगवान् श्रीकृष्ण काल के भी काल हैं।

विधाता को भी उन्होंने जन्म दिया है।’

‘हे सति! बिना उन भगवान् की इच्छा के एक भी पत्ता नहीं हिल सकता।

वे चाहें, जब चाहें जो कुछ कर सकते हैं।

वे संहार करने वाले के भी संहारकर्ता हैं।

इसलिए उनका तिरस्कार कोई भी नहीं कर सकता है।

वे ही कर्म वालों को उनके भले-बुरे कर्मों के फल दिया करते हैं।

जिसे मरना है, वह मरेगा ही और जिसका मरणकाल नहीं आया उसे कोई मार नहीं सकता।

इसलिए भगवान् को जो करना होगा, वह अवश्य होकर रहेगा, ऐसा विश्वास कर सभी चिन्ताओं को छोड़ो और उन्हीं भगवान् का चिन्तन करो।’

यह कहकर राजा कार्त्तवीर्य ने अपनी प्रियतमा रानी मनोरमा को सान्त्वना दी तथा अमात्यों को आदेश दिया कि युद्धकाल में वे राज्य की ठीक प्रकार से देखभाल और प्रजापालन का कार्य करते रहें और फिर सेनापतियों को आज्ञा दी कि सेना को नर्मदा तट की ओर प्रस्थान करने के लिए कूच का डंका बजा दिया जाये।


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