गणेश पुराण – चतुर्थ खण्ड – अध्याय – 7

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गणेश्वर के ‘एकदन्त’ होने का वर्णन

इस प्रकार जामदग्नेय परशुराम जी गणेश्वर की सूँड़ में घूमते हुए अन्त में पृथ्वी के अङ्क में आ गिरे।

उस समय उनको चेत हो गया तथा गणेश्वरकृत स्तम्भन से भी वे मुक्त हो गए।

तभी उन्होंने जगद्‌गुरु शंकर-प्रदत्त भगवान् श्रीकृष्ण के देव-दुर्लभ स्तोत्र और कवच का स्मरण किया तथा समस्त शक्ति से सम्पन्न होकर अपने परशु से उन्होंने समस्त विघ्ननाशक गणाधिराज पर प्रहार कर दिया।

किन्तु गणराज ने अपने पूज्य पिताजी के अमोघ अस्त्र का सम्मान करने की दृष्टि से उसे अपने ही बाँये दाँत से पकड़ लिया जिसके फलस्वरूप उस तेजस्वी परशु ने गणेशजी का दाँत मूल सहित काट दिया और वह परशु भृगुनन्दन के हाथ में पुनः जा पहुँचा।

गणेश्वर का दाँत टूटते ही अत्यन्त भयंकर शब्द हुआ।

धरती, आकाश के साथ समस्त दिशाएँ काँप उठीं।

पर्वत हिल गये और समुद्र में ज्वार आ गया।

गणेश्वर के मुख से रक्त का फव्वारा छूट निकला।

लोहित धार के साथ टूटा हुआ दाँत धरती पर आ गिरा।

उससे समूचे कैलास-शिखर पर कोलाहल होने लगा।

कार्तिकेय, वीरभद्र, भैरव, नन्दीश्वर एवं समस्त प्रमथगण ‘क्या हुआ? क्या हुआ?’

करते हुए दौड़ पड़े।

शून्य में देवता अत्यन्त भयभीत हो रहे थे।

भगवान् शंकर उस समय निद्रित अवस्था में थे।

उस शब्द से उनकी निद्रा भंग हो गई।

गिरिराजनन्दिनी ने वह शब्द सुना तो तुरन्त दौड़ी आईं और द्वार- लोहित देखकर क्षुब्ध होती हुई बोलीं- पुत्र! यह क्या हुआ? तेरे मुख से रक्त बह रहा है और धरा भी रक्तमयी हो रही है?’

परन्तु गणेश्वर जी कुछ लज्जित-से, कुछ रुआँसे-से, मौन एवं शान्त सिर झुकाये खड़े रहे, उन्होंने माता को कुछ उत्तर न दिया।

तब पार्वती जी ने कुमार कार्तिकेय से पूछा- ‘पुत्र! तुम्हीं बताओ, यह क्या हुआ? इसका दाँत कैसे टूट गया?’

कार्तिकेय वहाँ उपस्थित थे ही, उन्होंने सब कुछ स्वयं देखा ही था, इसलिए सब विवरण आद्योपान्त सुनाते हुए बोले- ‘क्षण भर में ही ऋषि ने परशु-प्रहार कर दिया, अन्यथा

मैं ऐसा कदापि न होने देता।’

इसी समय शिवजी भी वहाँ आ गये।

पार्वती जी ने दुःखित मन से इनसे निवेदन किया- ‘स्वामिन्! आप समदर्शी हैं, मेरे पुत्र गणेश्वर और आपके शिष्य परशुराम में से दोष किसका है, यह निर्णय आप स्वयं ही कर सकते हैं।

हे प्रभो! श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न नारी तो अपने निन्दित, पतित, मूर्ख, दरिद्र, रोगी एवं जड़ पति को भी सदैव भगवान् के ही समान समझती है।

पतिव्रता नारी के तेज की समानता तेजस्वियों में श्रेष्ठ अग्नि और भगवान् भास्कर भी नहीं कर सकते।

इसलिए मेरे लिए भी आपके समान कोई नहीं है।

तब आपके अतिरिक्त इसका निर्णय भी अन्य कौन कर सकता है?’


उमा का परशुराम पर क्रोध करना

उधर परशुराम ने भगवान् शंकर को देखा तो उनके चरणों में प्रणत हो, भय-रहित रूप से उनकी सेवा करने लगे।

यह देखकर पार्वतीजी ने परशुराम से कहा- ‘महाभाग! हे राम! तुम महर्षि जमदग्नि के अंश से उत्पन्न परम सती देवी रेणुका के पुत्र तथा देवाधिदेव परमात्मा त्रिपुरारि के शिष्य हो।

तुम्हारा मन शुद्ध है, इसलिए अशुद्धता का कोई कारण नहीं समझ रही हूँ।

वत्स! तुमने जगद्गुरु सर्वेश्वर से जो अमोघ परशु प्राप्त किया था उसकी प्रथम परीक्षा क्षत्रियों पर की और अब दूसरी परीक्षा गुरुपुत्र पर ही कर बैठे!’ ‘पुत्र! श्रुतियों का निर्देश है कि गुरु को गुरु-दक्षिणा देनी चाहिए, किन्तु तुमने तो गुरुपुत्र का ही एक दाँत निर्दयतापूर्वक समूल काट डाला! यदि यही अभीष्ट था तो फिर इसका मस्तक ही क्यों नहीं काट दिया? चराचर विश्व के आत्मा रूप भगवान् शंकर का अमोघ अस्त्र पाकर तो एक शृगाल भी वनराज सिंह का वध करने में समर्थ हो जायेगा।\”

‘देखो परशुराम! गणेश साक्षात् श्रीकृष्ण का ही अंश है, वह जितेन्द्रिय पुरुषों में श्रेष्ठ होने के कारण तुम्हारे समान लाखों-करोड़ों जीवों का वध करने में समर्थ है।

किन्तु वह हिंसा में विश्वास न करने के कारण कभी किसी पर हाथ नहीं उठाता।

यही सभी देवताओं में प्रमुख होने के कारण ही प्रथमपूजा का अधिकारी बना है।’

परशुराम को निरुत्तर देखकर गिरिराजनन्दिनी को क्रोध आ गया और वे मुनिवर को मारने के लिए प्रस्तुत हुईं।

यह देखकर भयभीत हुए परशुराम ने मन-ही-मन अपने गुरुदेव भगवान् शंकर को प्रणाम किया और फिर गोलोकनाथ भगवान् श्रीकृष्ण का स्मरण करने लगे।

वामन भगवान् का प्रकट होना वर्णन

तभी भगवती पार्वतीजी ने अपने समक्ष करोड़ों सूर्यों के समान तेज वाले एक ब्राह्मण बालक को आता हुआ देखा।

उसके परिधान, छत्र, दण्ड, यज्ञोपवीत आदि सभी उज्ज्वल थे।

मस्तक पर भी चन्द्रमा की कान्ति के समान चमकता हुआ तिलक लगा था।

कण्ठ में तुलसी की माला, माथे पर शुभ रत्नजटित मुकुट और कानों में कुण्डल सुशोभित थे।

उसके अंगों पर रत्नाभरण थे तथा वह मन्द मन्द मुसकाता हुआ माता पार्वती जी की ओर ही देख रहा था।

वह ब्राह्मण बालक अत्यन्त तेजस्वी था।

उसके व्यक्तित्व में अद्भुत आकर्षण था।

कैलासवासी आबाल-वृद्ध स्त्री-पुरुष सभी उसकी ओर टकटकी लगाये-निर्निमेष नेत्रों से देख रहे थे।

भगवान् शंकर ने उसे देखते ही मस्तक झुकाकर प्रणाम किया।

यह देखकर भगवती गिरिजा भी उसे प्रणाम किए बिना न रह सकीं।

वस्तुतः वे साक्षात् श्रीहरि थे।

भगवान् शंकर ने उनके विराजमान होने को रत्नमय सिंहासन प्रस्तुत किया।

उनके स्थित होने पर विविध उपचारों से पूजन एवं स्तवन किया।

उस पूजन से सन्तुष्ट हुए भगवान् श्रीहरि ने गम्भीर स्वर में कहना आरम्भ किया – ‘चन्द्रमौलि! यहाँ की वर्तमान परिस्थिति के कारण मुझे यहाँ आना पड़ा है।

मैं नहीं चाहता कि मेरे किसी भक्त का कहीं कुछ अमंगल हो और इसीलिए मेरा सहस्त्रार सुदर्शन उनकी रक्षा में सदैव उपस्थित रहता है।’

‘परन्तु यदि कोई गुरु की अवहेलना करे तो वह चाहे जो हो, मेरा कृपा-पात्र नहीं रहता और उसके प्रतिकार के लिए मैं विवश हो जाता हूँ।

गुरु विद्या और मन्त्र का देने वाला होने के कारण इष्टदेव से भी सौ गुना श्रेष्ठ है।

इसी कारण गुरु से अधिक कोई देवता नहीं माना गया है।

वैसे भी भगवान् शंकर महादेव हैं, इनसे बड़ा कोई देव नहीं और न गिरिराजनन्दिनी से बढ़कर कोई पतिव्रता ही है।

गणेश्वर से अधिक कोई जितेन्द्रिय नहीं और परशुराम के समान कोई गुरु-भक्त शिष्य नहीं है।

किन्तु, परशुराम द्वारा आज गुरुपुत्र की जो अवहेलना हुई है, उसका मार्जन करने के विचार से मुझे यहाँ आना पड़ा है।’

‘हे शिवे! शिवप्रिये! आप जगज्जननी हैं।

गणेश्वर, कार्तिकेय और परशुराम भी आपके पुत्र के समान हैं।

आपके और शिवजी के मन में परशुराम के प्रति कोई भेदभाव नहीं है इसलिए बालकों के इस विवाद में आप जो कुछ करेंगी, वह किसी भी प्रकार उपयुक्त नहीं होगा।

इन बालकों के मध्य जो विवाद उठ खड़ा हुआ है, उसमें किसी का दोष नहीं है।

दैव सर्वत्र ही बहुत प्रबल है और प्रस्तुत विवाद भी दैव-योग का ही प्रतिफल है।

इसलिए दोष भी किसे दिया जाये? यह भी एक प्रबल विवाद का ही विषय बन जायेगा।’


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