<< गणेश पुराण – चतुर्थ खण्ड – अध्याय – 7
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
गणेश्वर के वेद-प्रसिद्ध अष्ट नाम
‘हिमगिरिनन्दिनि! तुम्हारे पुत्र गणेश्वर तो वेदों में भी प्रसिद्ध हैं।
इनके आठ नामों में एक नाम ‘एकदन्त’ तो बहुत ही प्रसिद्ध है।
वे आठ नाम यह हैं-
“गणेशमेकदन्तं च हेरम्बं विघ्ननाशकम्।
लम्बोदरं शूर्पकर्णं गजवक्त्रं गुहाग्रजम्॥”
‘गणेश, एकदन्त, हेरम्ब, विघ्ननाशक, लम्बोदर, शूर्पकर्ण, गजवक्त्र और गुहाग्रज।
ये नाम सर्वत्र मंगल को करने वाले और सर्वत्र संकटों का नाश करने वाले होते हैं।
यह गणेश जी के नामाष्टक स्तोत्र अपने अर्थों में संयुक्त एवं शुभ करने वाला होता है।
जो भक्त इसका तीनों सन्ध्याओं में पाठ करता है वह सभी प्रकार से सुखी होता और सर्वत्र विजय प्राप्त करता है।’
‘उस स्तोत्र के पाठ से विघ्नों का नाश उसी प्रकार से हो जाता है, जैसे गरुड़ के द्वारा सर्पों का नाश होता है।
हे दुर्गे! इस स्तोत्र का परायण करने वाला गणेश्वर की कृपा से महान् ज्ञानी और बुद्धिमान् हो जाता है।
इसके प्रभाव से पुत्र की कामना वाले को पुत्र, पत्नी की अभिलाषा वाले को पत्नी और महामूर्ख को भी श्रेष्ठ विद्या की प्राप्ति होती है।
वह निश्चय ही विद्वान् और श्रेष्ठ कवि हो जाता है।’
शौनकजी ने पूछा- ‘हे सूतजी! आपने जिस नामाष्टक-स्तोत्र की इतनी महिमा कही है, वह कौन-सा है? उसे आप मेरे प्रति कहने की कृपा करें।
उसे सुनने की मुझे अत्यन्त उत्कण्ठा हो रही है।
प्रभो! मैं भी उसका अनुष्ठान करके अपने को पवित्र बनाता हुआ धन्य हो जाऊँगा।’
सूतजी बोले- ‘हे शौनक! तुम्हारा प्रश्न उचित ही है, भला कौन-सा ‘बुद्धिमान् पुरुष सहज प्राप्त उस स्तोत्र की कामना न करेगा? स्वयं भगवान् नारायण ने ही नारद जी को वह स्तोत्र भी बताया था।
नारायण ने कहा- ‘उन वामन भगवान् ने जगज्जननी उमा को वह नामाष्टक स्तोत्र इस प्रकार बतलाया था-
नामाष्टक स्तोत्र
“ज्ञानार्थवाचको गश्च णश्च निर्वाणवाचकः।
तयोरीशं परंब्रह्म गणेशं प्रणमाम्यहम्।।१।।
एकशब्दः प्रधानार्थों दन्तश्च बलवाचकः।
बलं प्रधानं सर्वस्मादेकन्दन्तं नमाम्यहम्।।२।।
दीनार्थवाचको हेश्च रम्बः पालकवाचकः।
दीनानां परिपालकं हेरम्बं प्रणमाम्यहम्॥३॥
विपत्तिवाचको विघ्नो नायकः खण्डनार्थकः।
विपत्खण्डनकारकं नमामि विघ्ननायकम्॥४॥
विष्णुदत्तैश्च नैवेद्यैर्यस्य लम्बोदरं पुरा।
पित्रा दत्तैश्च विविधैर्वन्दे लम्बोदरं च तम्॥५॥
शूर्पाकारौ च यत्कर्णौ विघ्नवारणकारणौ।
सम्पदौ ज्ञानरूपौ च शूर्पकर्णं नमाम्यहम्॥६॥
विष्णुप्रसादपुष्पं च यन्मूर्छिन मुनिदत्तकम्।
तद्गजेन्द्र-वक्त्रयुक्तं गजवक्त्रं नमाम्यहम्॥७॥
गुहस्याग्रे च जातोऽयमाविर्भूतो हरालये।
वन्दे गुहाग्रजं देवं सर्वदेवाग्रपूजितम्॥८॥
अर्थात् –
‘ग’ ज्ञानार्थवाचक और ‘ण’ निर्वाणवाचक है।
इन दोनों (ग और ण) अक्षरों के जो ईश्वर हैं, उन गणेश्वर रूप परब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ।
‘एक’ शब्द प्रधानार्थक और ‘दन्त’ शब्द बल वाचक है।
इस प्रकार जो ‘एकदन्त’ भगवान् सबसे अधिक बल-प्रधान हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ।
‘हे’ दीनार्थवाचक और ‘अम्ब’ शब्द पालक का वाचक है।
इस प्रकार दोनों का परिपालन करने वाले ‘हेरम्ब’ को मैं नमस्कार करता हूँ।
‘विघ्न’ शब्द विपत्ति वाचक और ‘नायक’ शब्द खण्डनार्थक है।
अतः जो विपत्तियों के नाशक हैं, उन ‘विघ्ननायक’ को मैं नमस्कार करता हूँ।
प्राचीनकाल में भगवान् विष्णु द्वारा प्रदत्त नैवेद्यों और पिता द्वारा समर्पित विविध प्रकार के मिष्ठान्नों के सेवन से जिनका उदर लम्बा हो गया है, उन ‘लम्बोदर’ को नमस्कार है।
जिनके कान ‘शूर्प’ के समान हैं, तथा जो विघ्नों के निवारण में कारण, समस्त सम्पदाओं के दाता तथा ज्ञान स्वरूप हैं, उन ‘शूर्पकर्ण’ गणेशजी को नमस्कार करता हूँ।
जिनके मस्तक पर मुनिप्रदत्त भगवान् विष्णु का नैवेद्य रूप पुष्प विद्यमान है और जो गजेन्द्र के मुख से सम्पन्न हैं, उन भगवान् ‘गजवक्त्र’ को मैं नमस्कार करता हूँ।
परशुराम का श्री उमा को प्रसन्न करना
गणेश के इस नामाष्टक स्तोत्र का उपदेश करने के पश्चात् भगवान् श्रीहरि ने परशुराम से कहा- ‘भृगुनन्दन! तुमने गणेश्वर का एक दाँत तोड़कर अनुचित कार्य किया है, इसलिए तुम इस दोष से तब तक मुक्त नहीं हो सकते, जब तक जगज्जननी पार्वती जी को सन्तुष्ट न कर लो।
यह गिरिराजनन्दिनी सर्व शक्ति-स्वरूपिणी, प्रकृति से परे एवं निर्गुण हैं।
इन्हीं की शक्ति से गोलोकनाथ श्रीकृष्ण भी शक्ति-सम्पन्न हुए हैं।
यह समस्त देवताओं की भी माता हैं, अतः स्तवन द्वारा उन्हें प्रसन्न करो।’
परशुराम ने भगवान् श्रीहरि की आज्ञा शिरोधार्य मानकर उन्हें प्रणाम किया।
तदनन्तर भगवान् अपने धाम को जाने के लिए प्रस्तुत होते हुए अन्तर्धान हो गये।
उसके पश्चात् परशुराम ने पवित्र जल में स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहिने और फिर जगन्माता पार्वती जी का स्तवन करने लगे।
उन्होंने माता पार्वती के चरणों में अपना मस्तक रख दिया और नेत्रों से आनन्दाश्रु प्रवाहित करते करुण प्रार्थना के अन्त में सहसा बोल उठे-
“रक्ष रक्ष जगन्मातः अपराधं क्षमस्व मे।
शिशूनामपराधेन कुतो माता हि कुप्यति॥”
‘हे जगज्जननि! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए, मेरा अपराध क्षमा कर दीजिए माता।
शिशुओं से जो अपराध हो जाता है उसपर माता कहीं क्रोध करती है? अर्थात् नहीं करती।’
इस प्रकार स्तुति करने के पश्चात् रेणुकानन्दन ने गिरिराजनन्दिनी के चरण पकड़ लिये और बालक के समान फूट-फूटकर रोने लगे।
यह देखकर माता पार्वतीजी से न रहा गया।
उनका वात्सल्य भाव उमड़ आया।
वे बोलीं- ‘वत्स! तुम चिरजीवी होओ, तुम्हें अमरत्व की प्राप्ति हो।
तुम्हें गुरुदेव परमात्मा शिव की कृपा से सुदृढ़ भक्ति प्राप्त हो तथा तुम सर्वत्र विजयी हो।
सर्वात्मा भगवान् श्रीहरि तुमपर सदैव प्रसन्न रहें।’
माता पार्वती जी से आशीर्वाद प्राप्त होने पर भृगुनन्दन परशुराम जी को बड़ी प्रसन्नता हुई।
उसी समय उन्होंने सुना सभी दिशाएँ भगवन्नाम से व्याप्त हो रही हैं।
सर्वत्र उन्हीं का जयघोष सुनाई दे रहा है।
ममतामयी पार्वती जी परम सन्तुष्ट होकर अन्तःपुर में चली गईं।
अब परशुरामजी ने भगवान् एकदन्त गणेश्वर का विविध उपचारों से पूजन किया और फिर प्रीतिपूर्वक उनका स्तवन करने लगे।
इस प्रकार गणराज की प्रसन्नता प्राप्त कर परमगुरु भगवान् शंकर को नमस्कार किया और उनसे आज्ञा लेकर तप करने के लिए तपोवन में चले गये।