गणेश पुराण – सप्तम खण्ड – अध्याय – 1

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सिन्दूरासुर की उत्पत्ति

द्वापर युग चल रहा था।

ब्रह्माजी निद्राग्रस्त थे, उस समय शूलपाणि उमानाथ ब्रह्मलोक में पधारे।

चचतुरानन की नींद खुली और उन्होंने एक जंभाई ली।

तभी उनके मुख से एक अत्यन्त भयंकर पुरुष प्रकट हो गया।

उसकी घोर गर्जना से समस्त दिशाएँ काँप उठीं।

दिक्पाल आश्चर्य में भर गए और शेषनाग क्षुब्ध होकर विष-वमन करने लगे।

समस्त प्राणी भय और आशंका से अत्यन्त व्याकुल हो गये थे।

उस भयंकर पुरुष का वर्ण अत्यन्त लाल था।

उसके सुन्दर एवं अनुपम शरीर से सुगन्ध निकलकर वातावरण को सुरभित बना रही थी।

वह तुरन्त ही ब्रह्माजी के समक्ष विनीत भाव से आ खड़ा हुआ।

पद्मयोनि उसे देखते ही विस्मय में भर गये, पूछने लगे- ‘तुम कौन हो? कहाँ, कैसे उत्पन्न हुए और क्या चाहते हो?’

वह पुरुष विनयपूर्वक बोला- ‘प्रभो! आप सर्वज्ञ एवं समस्त ब्रह्माण्ड के उत्पन्न करने वाले हैं।

फिर भी आप अनजान के समान मुझसे यह प्रश्न क्यों कर रहे हैं? आंपने जंभाई ली तभी आपके मुख से उत्पन्न हुआ आपका पुत्र।

इसलिए आप मुझे पुत्र रूप में स्वीकार कर मेरा नामकरण कीजिए।

फिर मुझे रहने का स्थान और आहार दीजिए।

मेरा क्या कर्त्तव्य हो यह भी निर्देश कीजिए।

ब्रह्माजी उसके सौन्दर्य और विनीत भाव पर मुग्ध एवं प्रसन्न थे।

वे बोले- ‘पुत्र! तू अत्यन्त अरुण अंग कान्ति वाला होने के कारण ‘सिन्दूर’ नाम से कहा जायेगा।

तुझमें तीनों लोकों को वश में करने की अद्भुत सामर्थ्य होगी।

तुझे पंचभूतों, देवताओं, दानवों, यक्षों और मनुष्यों से किसी प्रकार का भय नहीं होगा।

इन्द्रादि लोकपाल भी तेरा कुछ न बिगाड़ सकेंगे।

दिन हो या रात्रि, तुझे भय की प्राप्ति नहीं होगी।’

पुत्र ने आज्ञाकारी सेवक की भाँति मस्तक झुकाया।

ब्रह्माजी उससे और भी सन्तुष्ट हुए।

उन्होंने पुनः कहा- ‘बेटा! तुझे किसी भी सजीव या निर्जीव वस्तु से भय नहीं होगा।

जब तू क्रोधपूर्वक किसी को भी अपनी विशाल भुजाओं में जकड़ लेगा तब उसके शरीर के सैकड़ों खण्ड हो जायेंगे।

अब तू तीनों लोकों में जहाँ कहीं भी रहना चाहे वहाँ रह।

तुझे कोई रोक नहीं सकता।’

सिन्दूर ने श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पिता के चरणों में प्रणाम किया और

फिर कोमल वाणी से बोला- ‘अखिल ब्रह्माण्डेश्वर! आप सत्व, रज और तम तीनों गुणों के साधन द्वारा संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करते हैं।

जबकि आपके साथ ही समस्त विश्व तमसावृत होकर सो जाता है।

करोड़ों कल्पों तक घोर तपस्या करने पर भी आपके दर्शन सम्भव नहीं होते।

किन्तु मुझे वे सहज ही प्राप्त हैं।

अब इससे बढ़कर और सौभाग्य की कौन-सी बात होगी?’

यह कहकर सिन्दूर ने चतुरानन प्रभु की परिक्रमा की और चरणों में प्रणाम कर तथा उनकी आज्ञा लेकर पृथ्वी की ओर चल पड़ा।

अभी कुछ ही योजन दूर गया होगा कि उसके मन में एक शंका उत्पन्न हो गई-‘न जाने कितने जन्मों के पुण्य संचित होने पर कठोर तपश्चर्या करने पर ऐसे वरदान की प्राप्ति हो सकती होगी।

किन्तु मुझे तो बिना जप, तप और वेदाध्ययनादि किये सहज में यह दुर्लभ वर प्राप्त हो गए।

कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे पिता ब्रह्माजी ने मुझे वैसे ही बहला दिया हो।

इसलिए इसकी परीक्षा करनी चाहिए कि यह वरदान सत्य है या नहीं?’


सिन्दूर का वर की परीक्षा का प्रयत्न करना

उसने पुनः सोचा- ‘किन्तु, इनकी परीक्षा कैसे हो? यहाँ कोई भी ऐसा प्राणी दिखाई नहीं देता, जिसे पकड़कर देख लूँ कि उसके सैकड़ों खण्ड होते हैं या नहीं? अब कहाँ चलूँ? कहीं कोई भी दिखाई नहीं देता? तब क्यों न ब्रह्माजी पर ही इसका परीक्षण कर लिया जाये?’

ऐसा निश्चय कर वह पुनः ब्रह्मलोक की ओर लौटा।

उसने ब्रह्माजी के पास जाकर घोर गर्जन किया और अपनी भुजाओं को तोलने लगा।

पद्मयोनि उसके हाव-भाव देखकर ही मन की बात ताड़ गये, इसलिए भय के कारण दूर जाकर बोले- ‘कहो पुत्र! लौट कैसे आए?’

सिन्दूर ने कहा- ‘पिताजी! मैं आपके वर की परीक्षा करना चाहता हूँ।

जब मुझे कहीं भी कोई दिखाई न दिया तो यहाँ आना ही उचित प्रतीत हुआ।’ब्रह्माजी ने दूर से ही कहा- ‘पुत्र! मैंने तेरी सुन्दरता देखकर ही मोहवशात् तुझे वर प्रदान किया था।

मुझे तेरी इस कुटिलता और दुष्टता का भान नहीं था कि तू मेरे वरदान का परीक्षण मुझपर ही करेगा।

वस्तुतः विषधर को दूध पिलाने पर उसमें विष की वृद्धि ही होगी, इस सिद्धान्त की ओर मेरा ध्यान ही नहीं गया था।’

सिन्दूर फिर भी न माना, वह ब्रह्माजी की ओर बढ़ने लगा तो वे पीछे हटते हुए बोले- ‘अरे मूढ़! अब तू असुर भाव को प्राप्त होगा और तुझे मारने के लिए गजानन भगवान् अवतार लेंगे।’

शाप सुनकर अट्टहास करता हुआ सिन्दूर चतुर्मुख की ओर झटका।

यह देखकर वे प्राण लेकर भागने लगे।

पीछे-पीछे असुर भी दौड़ पड़ा।

यद्यपि ब्रह्माजी असुर की अपेक्षा दुर्बल थे तो भी प्राण के मोह से वेगपूर्वक भाग रहे थे।

भागते-भागते वे पसीने से लथपथ हो गए, किन्तु असुर ने उनका पीछा न छोड़ा।


चतुरानन का भागकर बैकुण्ठ जाना

चतुरानन बैकुण्ठ धाम तक पहुँच गये थे।

वहाँ कुछ श्रम हल्का करने के लिए रुके ही थे कि असुर आता दिखाई दिया।

वे वेग से दौड़कर भगवान् विष्णु के पास जा पहुँचे।

रमानाथ ने उनका उद्वेग देखकर तुरन्त अपने पास बैठाया और पूछने लगे- ‘विधाता! आप इतने डरे हुए क्यों हैं? आपकी देह भी स्वेद से भीग रही है।

लगता है, वेग से भागकर आये हो।’ब्रह्माजी बोले- ‘प्रभो! मुझे निद्रा आ गई थी, तभी पार्वतीपति पधारे।

मैं निद्रा से उठा तो जँभाई आ गई और मेरे मुख से लाल वर्ण का एक सुन्दर महाकाय बालक उत्पन्न हो गया।

उसने मुझसे नाम रखने और रहने का स्थान बताने की प्रार्थना की तो मैंने उसका नाम सिन्दूर रखा और रहने के लिए तीनों लोकों में इच्छित स्थान पर रहने को कह दिया।

किन्तु उसके सौन्दर्य एवं पुत्र-स्नेह से भ्रमित होकर मैंने उसे यह वर दे दिया कि तू त्रैलोक्य विजयी होगा और तू जिसे भी पकड़कर जकड़ लेगा वह वहीं चूर-चूर हो जायेगा।

अब वह दुरात्मा उस वरदान का परीक्षण मुझपर ही करने पर उतारू है।

हे दयासिन्धो! उस दुष्ट से मेरी रक्षा कीजिए।’

विष्णु बोले- ‘वाह! आपने भी कैसा सुन्दर वर दे दिया उसे बिना विचार किए हुए वर प्रदान का यही दुष्परिणाम हो सकता था।

आपका पुत्र-मोह आपको ही नहीं, तीनों लोकों को यातना-ग्रस्त कर देगा।’

दोनों में इस प्रकार वार्तालाप चल ही रहा था कि दौड़ता हुआ सिन्दूर भी वहीं आ गया और ब्रह्माजी पर झपटता हुआ बोला- ‘क्यों, यहाँ आकर छिप रहे हो? परन्तु मैं तुम्हें कहीं भी छोड़ने वाला नहीं हूँ।

आओ, चुपचाप मेरी पकड़ में आना स्वीकार कर लो।’

‘बचाओ प्रभो! बचाओ’ कहते हुए ब्रह्माजी भगवान् विष्णु के पीछे की ओर होने लगे, तभी भगवान् ने उसे समझाया- ‘पुत्र! तू अत्यन्त बलवान् और चतुरानन अल्पबल हैं, इसलिए इनसे युद्ध करने में तुम्हें सुयश नहीं मिलेगा।

वरन् इनका अनिष्ट होने पर तुम्हें अपकीर्ति ही प्राप्त होगी।

इसलिए इन्हें छोड़कर किसी अन्य से युद्ध करो।’

सिन्दूर बोला- ‘मुझे तो अपने वरदान का परीक्षण करना है, यह हों या कोई वीर।

यदि यह नहीं लड़ते तो तुम्हीं आकर युद्ध करो।’

यह कहकर वह विष्णु की ओर बढ़ा, किन्तु वे तो परम नीति-निपुण थे।

उसे भ्रमित करते हुए बोले- ‘पुत्र! मैं तो केवल सत्वगुण सम्पन्न हूँ, इसलिए लोकपालन में ही लगा रहा।’


विष्णु का सिन्दूर दैत्य को कैलास भेजना

विष्णुजी ने मुस्कराते हुए कहा- ‘कैलास पर्वत पर शिवजी निवास करते हैं।

उन्होंने अपने दृष्टिपात मात्र से कामदेव को भस्म कर दिया था।

बहुत से असुर उनके हाथ से मारे गये हैं।

वे उमानाथ सुदृढ़काय और सदैव युद्ध के लिए उत्सुक रहने वाले भी हैं।

उनसे युद्ध करो तो तुम्हें सन्तोष भी होगा और सुयश की भी प्राप्ति होगी।’

रमानाथ के नीतिपूर्ण मधुर वचन सुनकर असुर को बड़ी प्रसन्नता हुई।

उसने सोचा-‘ऐसे ही युद्धप्रिय वीर से युद्ध करने में आनन्द आ सकता है, अतः वही करना चाहिए।’और, वह वेगपूर्वक चलता हुआ कैलास-शिखर पर जा पहुँचा।

उस समय भगवान् शंकर समाधि में लीन हुए बैठे थे।

पार्वती जी उनकी सेवा में रत थीं तथा नन्दी और भृंगी आदि भी उनके निकट ही बैठे हुए थे।


सिन्दूरासुर द्वारा पार्वती को हरण करने की चेष्टा

सिन्दूर ने देखा कि एक बाघाम्बरधारी योगी तपस्या कर रहा है।

उसके समस्त शरीर पर भस्म रमी हुई है।

कन्धे पर विशाल गजचर्म और ललाट पर अर्द्धचन्द्र सुशोभित है।

इस प्रकार का वेष देखकर उसने विचार किया कि विष्णु ने अवश्य ही मेरे साथ छल किया है, अन्यथा कहाँ यह वनवासी तपस्वी और कहाँ मैं अत्यन्त शूर-वीर विशालकाय योद्धा।

इस दुर्बल के साथ कैसा युद्ध? इस प्रकार का छल करने के कारण विष्णु को ही दण्ड देना चाहिए।’

यह विचार कर वह लौटने को ही था, तभी उसकी दृष्टि जगज्जननी पार्वती जी पर पड़ी।

उनके अलौकिक रूप को वह देखता ही रह गया।

फिर उसने सोचा-खाली हाथ भी क्यों लौदूँ, इस सुन्दरी को ही क्यों न उठा ले चलूँ? ऐसा विचार कर वह जगज्जननी की ओर बढ़ा।

तभी उसका मन्तव्य समझकर पार्वती जी भय के कारण काँपने लगीं और फिर मूच्छित हो गईं।

असुर ने उनकी चोटी पकड़ी और बलपूर्वक उठाकर ले जाने लगा।

नन्दी और भृंगी आदि ने देखा तो असुर को मारने के लिए बढ़े, किन्तु वे उसका कुछ भी न बिगाड़ सके।

सिन्दूर ने उन्हें मार-मारकर भगा दिया।

वे किंकर्तव्यविमूढ़ हुए माता पार्वती जी को ले जाते देखते रहे।

असुर उन्हें ले जा रहा था, तभी वे होश में आ गईं और विलाप करने लगीं।

नन्दी आदि ने भगवान् शिव को जगाने का प्रयत्न किया।

अधिक कोलाहल होने से भी उनकी समाधि टूट चुकी थी।

उन्होंने नन्दी से प्रश्न किया कि यह कोलाहल कैसा है? तो उन्होंने असुर द्वारा पार्वतीजी को हरण कर ले जाने की बात बताई।

शिवजी ने पार्वती-हरण होता हुआ सुना तो क्रोधित हो उठे।

उन्होंने दशभुजी वेश धारण कर सभी भुजाओं में त्रिशूलादि दिव्यास्त्र धारण किये और वृषभ पर चढ़कर जिधर असुर गया था, उधर वेग से दौड़े।

कुछ ही देर में उन्होंने उसे जा पकड़ा और पुकारते हुए बोले- ‘अरे दुष्ट! मेरी प्रिया को कहाँ लिये जा रहा है? ठहर जा, अन्यथा दुष्परिणाम भोगना होगा।’

उसने पीछे फिर देखा तो अट्टहास करता हुआ बोला- ‘अरे मूर्ख तापस! क्या मच्छर के समान भिनभिनाता है? मेरे श्वास-प्रश्वास से ही सुमेरु प्रभृति पहाड़ पर्वत काँपते हैं तो तू क्या वस्तु है? जा, यदि प्राण-रक्षा चाहता है तो तुरन्त यहाँ से चला जा और किसी अन्य स्त्री से विवाह कर ले।

क्योंकि अब यह स्त्री तो तुझे मिलेगी नहीं।

अथवा कुछ बूता हो तो सामने आकर युद्ध कर।’

शिवजी भी क्रोधपूर्वक उसकी ओर बढ़े, बोले- ‘मुझ महाकाल से लड़ना चाहता है तो लड़ ले।

तब तुझे शीघ्र ही ज्ञात हो जायेगा कि दुष्कर्म का क्या फल होता है?


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