गणेश पुराण – सप्तम खण्ड – अध्याय – 6

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राजा वरेण्य का पश्चात्ताप वर्णन

राजा वरेण्य ने अपने पुत्र के द्वारा सिन्दूरासुर का वध हुआ सुना तो वे बड़े प्रसन्न हुए और वहाँ आकर भगवान् को ‘दैत्य-विमर्दन’ नाम से सम्बोधित करते हुए कहा- ‘प्रभो! मैं आपकी ही माया के वश होकर आपके प्रभाव से अनभिज्ञ था।

जिन अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के अधीश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और रूप को ब्रह्मादि देवता भी जानने में असमर्थ हैं, उन सर्वात्मा ब्रह्म को मैं अज्ञानी किस प्रकार जान सकता था? मैंने अपनी मूर्खता से ही घर में प्राप्त कामधेनु और कल्पवृक्ष रूप आप प्राणप्रिय परमात्मा को बाहर निकाल दिया था, अपने उस अनर्थ के लिए वस्तुतः मैं क्षमा किए जाने के योग्य नहीं हूँ।

फिर भी मैं आपसे क्षमा के लिए प्रार्थना करता हूँ।’

राजा वरेण्य को पश्चात्ताप करते देख भगवान् वरदराज प्रसन्न हुए और राजा को अपनी भुजाओं से आलिंगन कर अभय देते हुए बोले- ‘राजन्! संसार में जो कुछ भी होता है वह मेरी ही इच्छा से होता है।

तुम्हारा इसमें कोई दोष नहीं है।

पूर्व कल्प में तुमने अपनी भार्या के साथ दिव्य सहस्त्र वर्ष तक घोर तपश्चर्या की थी, जिससे प्रसन्न होकर मैंने दर्शन देकर वर माँगने को कहा था।

किन्तु तुम मुझ मोक्षदाता से मोक्ष न माँगकर मुझे ही पुत्र रूप में प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की थी।

इसलिए तुम्हारे पुत्र रूप से प्रकट होकर मैंने सिन्दूर का वध किया और मुनिजनों, सन्तों, भक्तों, देवताओं का अभीष्ट सिद्ध किया है।

महाराज! मेरे अवतार धारण का कार्य पूर्ण हो चुका है इसलिए मुझे अब स्वधाम गमन करना है।’

भगवान् के स्वधाम गमन की बात सुनकर राजा वरेण्य व्याकुल हो गये और उन्होंने हाथ जोड़कर निवेदन किया- ‘प्रभो! मैं इस भवसागर से मुक्त होना चाहता हूँ।

इसलिए कृपा कर मुझे इसका उपाय बताने का कष्ट करें।’

गजानन को राजा पर दया आ गई।

वे वहीं आसन पर विराजमान हुए और सामने राजा को बैठाकर उनके मस्तक पर अपना त्रिपातनाशक वरदहस्त रखा और उन्हें सारभूत ज्ञानोपदेश प्रदान किया।

उस परम प्रभु की सन्निधि का स्पर्श एवं सुधोपम उपदेश से महाराज को वैराग्य उत्पन्न हो गया।

तभी भगवान् गजानन सभी के देखते अन्तर्धान हो गए।

उधर राजा ने राजधानी में लौटकर अमात्यों को राज्य की बागडोर सौंप दी और स्वयं वन में तपश्चर्या करने चले गए।


कलियुग में धूम्रकेतु अवतार का वर्णन

‘भगवान् गजानन का कलियुग में जो अवतार होगा, उसकी प्रसिद्धि ‘धूम्रकेतु’ नाम से होगी।

जब कलियुग आयेगा तब सभी मनुष्य आचरणहीन एवं मिथ्यावादी हो जायेंगे।

ब्राह्मण वेदाध्ययन, नित्य- नैमित्तिक कर्म, यज्ञ, तप, दान आदि का लोप हो जायेगा।

सर्वत्र पाप- कर्म होने लगेंगे।

परधन एवं परस्त्री-लोलुपता, काम-क्रोध, मोहादि की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जायेगी।

समय पर वर्षा नहीं होगी तथा नदियों के किनारे खेती होने लगेगी।’

बलवान लोग बलहीनों को सताने लगेंगे।

उनकी धन-सम्पत्ति, स्त्री आदि को छीन लेंगे।

ब्राह्मणों का कार्य अन्य वर्ण और अन्य वर्णों के कर्म ब्राह्मण करेंगे।

सभी विद्वान् मूर्ख और धनहीन हो जायेंगे।

लोग दूसरे के धन को लेकर हड़पने लगेंगे।

सर्वत्र हाहाकार मच जायेगा।

दूसरे से धन माँगने में किसी को संकोच नहीं होगा।

लोग झूठी गवाही देने में संकोच नहीं करेंगे।

मिथ्या धर्म उठाना एक साधारण बात होगी।

सज्जनों की निन्दा और दुष्टों की सर्वत्र प्रशंसा होगी।

छल-कपट सर्वत्र दिखाई देगा।

धर्मज्ञों का अपकर्ष और अधर्मियों का उत्कर्ष होगा।

मनुष्यों में देवपूजन के प्रति अरुचि और भूत-प्रेत, पिशाच की पूजा में उत्साह रहेगा।

धूर्त लोग छद्मवेश बनाकर अपनी उदर-पूजा करेंगे।

ब्राह्मण अपने कर्म को छोड़कर केवल पेटू बन जायेंगे।

क्षत्रिय वीर धर्म को त्यागकर भिक्षाटन करने लगेंगे।

वैश्य भी व्यवसाय बुद्धि से विरत होकर बिना परिश्रम किये धन बटोरने में लगे रहेंगे।

माता-पिता और गुरुजनों के सम्मान का लोप हो जायेगा।

सन्तान वर्णसंकर होने लगेगी।

घोर कलियुग उपस्थित होने पर उक्त दोष अधिक बढ़ जायेंगे।

स्त्रियाँ पथभ्रष्ट होने लगेंगी।

अच्छे मनुष्यों के आचरण भी म्लेच्छों के समान हो जायेंगे।

पृथ्वी की उर्वरा शक्ति का ह्रास होगा और वृक्षों में रस नहीं रहेगा।

स्त्री-पुरुषों की पूर्ण आयु सोलह वर्ष की रह जायेगी।

पाँच-छः वर्ष की आयु में प्रसव होने लगेंगे।

देवताओं और तीर्थों का लोप हो जायेगा।

धन का अर्जन ही जीवन का प्रमुख उद्देश्य रहेगा।

ईर्ष्या-द्वेष, अहंकार एवं मानसिक ज्वाला सदैव दग्ध करती रहेगी।

सर्वत्र अधर्म, अन्याय, अत्याचार, दुराचार आदि का बोलबाला रहेगा।

जब कलियुग अपनी दारुण स्थिति पर पहुँच जायेगा, तब समस्त प्राणी अत्यन्त पीड़ित होंगे।

उनमें वासनादि का विक्षेप अपनी चरम सीमा पर होगा।

स्वाहा, स्वधा, वषट्‌कार के न होने के कारण देवताओं को भूखे रहना होगा।

वे अत्यन्त त्रस्त हो जायेंगे और उपाय करके भी उस स्थिति से छुटकारा नहीं पा सकेंगे।

तब उन्हें एक ही उपाय श्रेयस्कर प्रतीत होगा-भगवान् गजानन की शरण में जाना।

वे सब एकत्र होकर उनकी शरण में आ जायेंगे और उन महाप्रभु को बारम्बार नमस्कार करते हुए, उनका अनेक उपचारों से पूजन करेंगे।

उनका स्तवन करके, परिक्रमा आदि के द्वारा उन्हें सब प्रकार से प्रसन्न कर लेंगे।

तब से परात्पर परमात्मा उनके संकट निवारण का आश्वासन देकर सभी को भय-रहित करेंगे।

तदुपरान्त समय पाकर वे दयामय विनायक प्रभु पृथ्वी पर अवतार लेंगे।

वे ‘शूर्पकर्ण’ एवं ‘धूम्रवर्ण’ के नाम से प्रसिद्ध होंगे।

वे ‘धूम्रकेतु’ भी कहलायेंगे।

उनका वाहन नीला अश्व होगा।

शत्रुओं का संहार करने वाले वे प्रभु क्रोधावेश के कारण अत्यन्त तेजस्वी होंगे।

उनकी देह से दिव्य ज्वाला निकली हुई प्रतीत होगी।

तीक्ष्णतम खड्ग हाथ में लेकर वे भगवान् अपने अश्व पर चढ़कर इच्छानुसार अकेले चल पड़ेंगे।

अथवा आवश्यकतानुसार सेना और अमोघ शस्त्रास्त्रों को स्वयं प्रकट कर लेंगे।

महाप्रभु शूर्पकर्ण अपने तेज से समस्त पापों और पापियों को नष्ट करने में समर्थ होंगे।

वे अपने परम तेज और सेना द्वारा म्लेच्छों के विनाश में शीघ्र ही सफल होंगे।

जो लोग म्लेच्छों के समान आचरण करने वाले होंगे वे भी उन प्रभु के द्वारा संहार को प्राप्त होंगे।

जब तक धर्म की स्थापना नहीं होगी, तब तक वे अपने नेत्रों से अग्नि-वर्षा ही करते रहेंगे।

वे सर्वात्मा एवं सर्वाधार भगवान् श्रीगणेश उस समय भय के कारण गिरि-गुहाओं और निविड़ वनों में छिपकर, जंगली कन्द-मूल, फलादि पर निर्वाह करने वाले, ब्राह्मणों का भय दूर कर उनका सत्कार कर सत्कर्म और श्रेष्ठ धर्मपालन के लिए प्रोत्साहित करेंगे।

इस प्रकार धर्माचरण का सम्पादन होने लगेगा और सतयुग का आरम्भ हो जायेगा।


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