<< गणेश पुराण – पंचम खण्ड – अध्याय – 11
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
उग्रेक्षण सिन्धु का जन्म
त्रेता युग था, मिथिला देश की गण्डकी नामक नगर में चक्रपाणि नामक एक धर्मात्मा राजा राज्य करता था।
उसकी पत्नी अत्यन्त सुन्दरी और पतिव्रता थी।
राज्य में आय के स्त्रोतों की कमी नहीं थी।
इस कारण राजा तो सुखी थे ही, प्रजा भी सब प्रकार से निर्भय एवं नीरोग रहती थी।
सदैव अपने राजा का जय-जयकार करती रहती।
परन्तु राजा की अधिक आयु होने पर भी उसके कोई सन्तान नहीं थी।
उन्होंने अनेक यज्ञ, दान, व्रत, अनुष्ठानादि किए, किन्तु सभी निष्फल रहे।
अन्त में राजा ने वन में जाकर तपस्या करने का विचार किया, किन्तु एक समस्या सामने थी- ‘राज्य को किसके भरोसे छोड़ा जाय?’
बहुत विचार करने पर भी इसका कुछ समाधान दिखाई नहीं देता।इसी अवसर पर वहाँ महर्षि शौनक का आगमन हुआ।
राजा ने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया और ऋषि के प्रसन्न होने पर उन्होंने अपनी व्यथा सुनाई और फिर राज्य छोड़कर वन में जाने का विचार बनाया।
महर्षि ने राजा की बात पर कुछ देर गम्भीरता से विचार किया और फिर बोले- ‘राजन्! तुम्हें वन जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
तुम्हें पुत्र की प्राप्ति यहीं हो जायेगी।’
महर्षि की बात सुनकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई।
उन्होंने पूछा- ‘पुत्र होगा तो कब? मेरी आयु ही बीती जा रही है मुनिराज! मुझे सब स्पष्ट कहने की कृपा करें।’
शौनक ने कहा- ‘नृपश्रेष्ठ! तुम्हारे भाग्य में पुत्रयोग तो है, किन्तु उसमें कोई सञ्चित पाप बाधक रहा है।
उस बाधा का निवारण करने के लिए तुम्हें भगवान् भास्कर को प्रसन्न करना होगा।’
इसके पश्चात् महर्षि ने राजा को सूर्योपासना का विधान बताया और बोले- ‘इसे अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति सहित करने पर सूर्य भगवान् की प्रसन्नता अवश्य प्राप्त होगी।
फिर पुत्र-प्राप्ति के मार्ग में कोई बाधा नहीं रहेगी।
यह व्रतानुष्ठान एक मास तक करना होगा।
नित्य प्रति किसी दैवज्ञ ब्राह्मण को एक दुधारू गाय दी जाय और एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय।
अनुष्ठान पूर्ण होने पर सूर्यदेव की पत्नी सहित एक लाख नमस्कार करना भी आवश्यक है।’
मुनि चले गये।
राजा ने अपनी भार्या के सहित सूर्य भगवान् की उपासना आरम्भ की।
अभी अनुष्ठान सम्पन्न नहीं हो पाया था कि एक दिन रानी उग्रा ने स्वप्न में सूर्य को अपने पति रूप में देखा और ब्रह्मचर्य खण्डित कर बैठी।
प्रातःकाल उसने अपने स्वप्न की बात राजा को सुनाई तो उन्हें आश्चर्य हुआ, बोले- ‘कोई बात नहीं, मन में किसी प्रकार का विकार आने से ऐसा होना सम्भव है।
किन्तु मेरे मन में कोई विकार नहीं आया है, इसलिए अनुष्ठान की सफलता निश्चित है।’
रानी चुप हो गई, किन्तु उसे लगा कि गर्भवती हो गई है।
धीरे-धीरे गर्भ बढ़ने लगा और जैसे-जैसे गर्भ बढ़ा, वैसे-वैसे उसके शरीर का तापमान तीव्र होने लगा।
शरीर में बढ़ती हुई उष्णता दाह का रूप लेने लगी, इस कारण उसके लिए शीतल उपचारों की व्यवस्था हुई।
तो भी गर्भ के कारण उत्पन्न हुई दाह को सह सकने में समर्थ न थी।
अन्त में प्राण संकट में जानकर उसने समुद्र तट पर जाकर उस गर्भ को असमय में ही गिरा दिया।राजा ने यह बात सुनी तो दुःख में भर गए।
परन्तु उग्रा की विवशता जानकर वे कुछ कह न सके।
उधर वह गिरा हुआ गर्भ नष्ट नहीं हुआ।
वह एक रौद्र रूप बालक के रूप में पड़ा हुआ रोने लगा।
उसके रुदन स्वर से धरती-आकाश काँप उठे।
उस बालक के तीन नेत्र थे, मस्तक बहुत बड़ा एवं मुख कुरूप थे।
केश लाल वर्ण के थे तथा हाथ में त्रिशूल लिये हुए उत्पन्न हुआ था।
उसके कारण समुद्री जीव भी व्याकुल हो रहे थे, अतः समुद्र स्वयं मानव रूप धारण कर और बालक को उठाकर महाराज चक्रपाणि के समक्ष उपस्थित हुआ।
उसने कहा- ‘राजन्! वह बालक तुम्हारा पुत्र है।
तुम्हारी रानी ने इसे मेरे तट पर छोड़ दिया था।
इसके रोने से ही तीनों लोक काँप उठे।
देखिए, बालक कितना तेजस्वी है, जिसकी ओर देखना भी दुष्कर है, इसे सँभालिये।’
बालक को प्राप्त करके राजा बड़े प्रसन्न हुए।
रानी ने भी हर्षित मन से उसे गोद में लेकर दुग्धपान कराया।
उसके नाम सिंधु, उग्रेक्षण और विप्रसादन रखे गए।
वह शीघ्रता से वृद्धि को प्राप्त होने लगा।
उग्रेक्षण का प्रबल पराक्रम तथा वर की प्राप्ति
उग्रेक्षण स्वभाव का क्रूर, अहंकारी और अत्यन्त बलवान् था।
बाल्यकाल में ही मनुष्यों से तो क्या, हाथियों से टक्कर लेने वाला।
उसने छोटी-सी आयु में न जाने कितने हाथी आदि केवल मुष्टि प्रहार से ही धराशायी कर दिये, न जाने कितने वृक्ष गिरा दिये।
उसके प्रबल पराक्रम को देखकर माता को बड़ा हर्ष होता था।
शीघ्र ही किशोरावस्था को प्राप्त उग्रेक्षण ने अपने माता-पिता से एक दिन कहा- ‘मैं त्रिलोकी पर अधिकार करने के उद्देश्य से वन में रहकर तपस्या करना चाहता हूँ, इसलिए मुझे ऐसा करने की आज्ञा दीजिए।’माता-पिता ने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकृति दी।
उसने घोर वन में जाकर एक सरोवर के तट पर तपस्या आरम्भ की।
वह भूखा प्यासा रहकर घोर तप करने लगा।
उसे सूर्य की उपासना करते हुए दो हजार वर्ष व्यतीत हो गए।
क्षुधा-पिपासा, धूप-वर्षा आदि सहते-सहते सूखकर काँटा हो गया।
भगवान् भास्कर प्रसन्न हुए, उन्होंने प्रकट होकर अभीष्ट वर माँगने का आदेश दिया।
उसने उनके चरणों में मस्तक रखकर निवेदन किया – ‘प्रभो! मैं सभी देवता, मनुष्य आदि को जीतकर तीनों लोकों पर आधिपत्य स्थापित कर लूँ और मेरी मृत्यु कभी न हो।’
सूर्य बोले- ‘ऐसा ही होगा।
यह अमृतपात्र ग्रहण करो, इसे कण्ठ में लगाये रखना।
इसके रहते हुए देवता, मनुष्य, नाग, पशु आदि कोई भी जीव तुम्हें दिन, रात्रि, प्रभात या सायंकाल कभी भी न मार सकेगा।
जब यह पात्र हट जायेगा तभी अपने अंगुष्ठ के नखाग्र पर करोड़ों ब्रह्माण्डों को धारण करने वाला कोई अवतारी पुरुष ही तुम्हें मारेगा।
तुम त्रिभुवन को जीतने में सफल होगे।’
वरदाता सूर्य के अन्तर्धान होने पर उग्रेक्षण ने उस अमृत-पात्र को अपने कण्ठ में धारण किया और राजभवन में जाकर अपने माता-पिता को भगवान् भास्कर से वर प्राप्ति का समाचार सुनाया, जिससे वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और उसे सब प्रकार से समर्थ देखकर उन्होंने राज-पाट सौंप दिया तथा स्वयं तपश्चर्या हेतु वन में चले गए।
उग्रेक्षण के राज्य का विस्तार होना
उग्रेक्षण ने राजा होते ही राज्य विस्तार का विचार किया और अमात्यों को कार्य संचालन का भार सौंपकर दिग्विजय के लिए चला पड़ी।
थोड़े समय में ही उसने अनेक राजा वश में कर लिये तथा जिन्होंने सामना किया उसके राज्य छीन लिये।
इस प्रकार उसने क्रूरतापूर्वक रक्तपान करते और उनके सर्वत्र आतंक फैलाते हुए समस्त पृथ्वी पर अपना अधिकार जमा लिया।
अब उसने स्वर्ग पर आक्रमण किया।
देवराज इन्द्र ने ऐरावत पर चढ़कर सामना किया, किन्तु उन्हें शीघ्र ही पराजय का मुख देखना पड़ा।
उनकी समस्त देवसेना छिन्न-भिन्न हो गई।
देव-नारियाँ सतीत्व की रक्षा के लिए पर्वतों की कन्दराओं में जा छिपीं।
उग्रेक्षण ने स्वर्ग पर अधिकार कर अपने एक विश्वासपात्र दैत्य को वहाँ का अधिकारी बना दिया।
हारकर भागते हुए इन्द्र भगवान् नारायण के पास बैकुण्ठ में जाकर पुकारने लगे।
भगवान् ने उन्हें आश्वासन दिया और गरुड़ पर विराजमान हो स्वर्ग की ओर चल दिए।
उग्रेक्षण ने उन्हें देखा तो युद्ध के लिए तत्पर हो गया।
भगवान् ने चक्र चलाया तो उसने मुष्टि-प्रहार से चक्र को दूर फेंक दिया।
उन्होंने गदा से प्रहार किया तो असुर ने उसे चूर-चूर कर दिया।
भगवान् बड़े चकित हुए, फिर वह समक्ष गए कि यह वर के कारण प्रबल हो रहा है।
इसलिए उन्होंने नीति से कार्य लेते हुए कहा- ‘असुरराज! मैं तुम्हारे पराक्रम को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हूँ, अतएव मुझसे कोई अभीष्ट वर माँग लो।’
वह बोला- ‘देवाधिदेव! यदि आप प्रसन्न हैं तो कृपाकर मेरे गण्डकी नगर में सदैव निवास करें।
बस, इतना ही वर अपेक्षित है।’
श्रीहरि ने स्वीकार कर लिया।
अब उसने बैकुण्ठ की व्यवस्था के लिए भी एक विश्वासी असुर की नियुक्ति की और भगवान् को साथ लेकर अपनी राजधानी में आया।
वहाँ एक सर्वोत्तम भवन में भगवान् को ले जाकर कहा- ‘आप चाहे जिन देवताओं के सहित यहाँ सुखपूर्वक रह सकते हैं।’भगवान् वहीं रहने लगे।
तब इन्द्रादि देवताओं ने उनसे कहा- ‘प्रभो! आप तो इस मर्त्यधाम में कारावास कर रहे हैं, अब हमारा क्या होगा जगदीश्वर?’
रमानाथ ने हँसते हुए कहा-‘काल का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता।
उसी के प्रभाव से सब देहधारी उत्पन्न होते, वृद्धि को प्राप्त होते एवं मरते हैं।
वही काल इस दैत्य का भी भक्षण कर लेगा।
किन्तु धैर्यपूर्वक उस काल की प्रतीक्षा करनी होगी।’
कभी-कभी अपने माता-पिता के पास जाकर अपनी विजयगाथा सुनाता रहता, जिससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती और वे उसे आशीर्वाद प्रदान करते रहते।
परन्तु वे यह कभी नहीं पूछते थे कि तू शासन कैसे चलाता है? कहीं \”कोई अधर्म कार्य तो नहीं करता? प्रजाजनों को सुखी रखता है या नहीं, इत्यादि।
अब उसने एक चरण और आगे बढ़ाया-घोषणा की गई कि कोई भी व्यक्ति यज्ञ, दान, उपासना आदि न करें।
मन्दिरों में स्थापित प्रतिमाएँ हटाकर जल में डुबा दी जायें अथवा धरती में गहरी गाड़ दी जायें।
उन प्रतिमाओं के स्थान पर उग्रेक्षण मूर्ति स्थापित कर उनका नित्य पूजन किया जाये।\”
राजभय से सबको वही करना पड़ा।
जो विद्वान् एवं धर्मज्ञ पुरुष, योगी, तपस्वी आदि उस प्रकार के अत्याचार को नहीं सहते थे, नगर छोड़कर जंगल में चले गये।
सर्वज्ञ असुरों का जोर बढ़ गया।
मांस-मदिरा सेवन, सतीत्वनाश, चोरी, मिथ्या भाषण, छल-कपट आदि की घटनाएँ सर्वत्र होने लगीं।
इस प्रकार जहाँ देखो वहीं आसुरी कर्म ही दिखाई देते थे।