गणेश पुराण – षष्ठ खण्ड – अध्याय – 4

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गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)


वृकासुर का वध

गणपति की आयु का छठा वर्ष चल रहा था, तभी एक दिन शिवजी के आश्रम में विश्वकर्मा का आगमन हुआ।

मयूरेश्वर खेलने के लिए गये थे और लौट आये।

तभी विश्वकर्मा ने उनके चरणों में प्रणाम किया और बोले- ‘प्रभो! आपके प्रकट होने का समाचार जानकर दर्शनार्थ यहाँ उपस्थित हुआ हूँ।’

गणेश बोले- ‘बड़ी कृपा की आपने, किन्तु यह तो बताइये कि मेरे लिए उपहार क्या लाये हैं?’

विश्वकर्मा ने विनीत भाव से उत्तर दिया- ‘यद्यपि आप चराचर नाथ के लिए मैं क्या उपहार दे सकता हूँ? तथापि सभी शत्रुओं के संग्रामार्थ तीक्ष्ण परशु, पाश, पद्म और अंकुश लाया हूँ, जो प्रस्तुत हैं।’

‘वाह! कितना सुन्दर उपहार है? यही तो चाहता था मैं।

असुरों के उपद्रव बढ़ रहे हैं, देवगण उनके भय से त्रस्त हुए छिपे हैं और रमानाथ गण्डकी नगर में बन्दी जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

ऐसी स्थिति में असुरों से युद्ध भी करना पड़ेगा।’

मयूरेश्वर ने विश्वकर्मा को समझाया।

विश्वकर्मा उनकी परिक्रमा करके चले गये।

गणेशजी उन दिव्यास्त्रों के चलाने का अभ्यास करने लगे।

एक दिन उग्रेक्षण द्वारा भेजा हुआ एक महादैत्य वहाँ आया, जिसका नाम वृकासुर था।

उसने गणेशजी को देखते ही उनपर आंक्रमण कर दिया, तभी उन्होंने विश्वकर्मा प्रदत्त अंकुश का भयंकर प्रहार कर दैत्य की जीवन लीला समाप्त की और स्वधाम में भेज दिया।


उपनयन-संस्कार मयूरेश्वर का

सातवें वर्ष गणपति का उपनयन संस्कार हुआ।

जोर-शोर से तैयारी आरम्भ हुई।

सभी देवता, यक्ष, किन्नर, चारण एवं अट्ठासी हजार ऋषियों ने उस उत्सव में भाग लिया।

शिवजी ने सबका सहर्ष स्वागत किया।

संस्कार के समय, जब मुनिगण मन्त्र पाठ करने लगे, तभी वहाँ कृतान्त और काल नामक दो भयंकर राक्षस मदमाते हाथी का रूप बनाकर आ गये।

उन्होंने वहाँ उपद्रव आरम्भ किया तो शिवगणों ने उन्हें रोका।

किन्तु वे शिवगणों को भी मारते-मारते मण्डप के निकट जा पहुँचे।

उन्होंने स्तम्भों में टक्कर मारकर गिराने की चेष्टा की तो भयभीत हुए मुनिकुमार, देवगण एवं ऋषि-पत्नियाँ वहाँ से प्राण बचाकर भागे।

उनका यह कौतुक देखकर बटु गंशेणजी ने एक हाथी की सूँड़ पकड़कर उमेठ डाली और फिर उसपर घोर मुष्टि प्रहार किया, जिससे पीड़ित होकर चीत्कार करता हुआ वह हाथी तीव्रता से पीछे को मुड़ा कि तभी उसकी जोर की टक्कर अपने साथी (दूसरे हाथी) से हुई।

उसके कारण दूसरा हाथी भी आहत हो गया।

तब विनायक ने उस पर भी मुष्टि प्रहार किया, जिससे वह व्याकुल हो गया।

किन्तु गणेशजी ने उन्हें सँभलने का अवसर ही नहीं दिया।

वे उनपर प्रहार-पर-प्रहार करते जा रहे थे, जिससे उनके अस्थिपंजर बिखर गये और वे प्राणहीन होकर धरती पर जा गिरे।

यह देखकर सब आश्वस्त हुए और बालक के पराक्रम की प्रशंसा करने लगे।तदुपरान्त मयूरेश्वर का विधिवत् उपनयन संस्कार सम्पन्न हुआ।

देवताओं, मुनियों आदि ने उन्हें अनेक प्रकार के अलंकार भेंट किये और फिर सब अपने-अपने स्थानों को लौट गये।

तदुपरान्त उनका वेदाध्ययन आरम्भ हुआ।

गणेश के मुख से होने वाला सस्वर वेदगान सभी को मुग्ध करता था।

पशु-पक्षी आदि भी उसे सुनकर आनन्दित होते थे।


राक्षस नूतन वध

उग्रेक्षण ने गणेश की हत्या करने के लिए नूतन नामक एक विकराल राक्षस को आज्ञा दी।

उसने त्रिसन्ध्या क्षेत्र में पहुँचकर अत्यन्त भयंकर हिंसक पशु का रूप बनाया और जहाँ गणेशजी द्वारा देवगान चल रहा था वहाँ पहुँचकर सिंहनाद करने लगा।

उस नाद ने वातावरण को अत्यन्त विक्षुब्ध कर दिया जिससे पर्वत भी काँप उठा और गुफाएँ फटने लगीं।राक्षस के तीन मुख, चार कान, चार सींग, पाँच नेत्र, दो पूँछ और आठ पाँव थे, वह गणेशजी के सामने आकर नृत्य करने लगा।

गणेशजी उठकर उसकी ओर बढ़े तो वह तुरन्त उड़कर आकाश में चला गया।

इस प्रकार वह कभी उनके पास आ खड़ा होता और कभी उड़कर अदृश्य हो जाता था।

उसके इस उपक्रम से सभी भयभीत थे।

गणेशजी समझ गये कि राक्षस का अन्त समय आ गया है।

वे उठकर उसे पकड़ने को दौड़े तो वह वन की ओर भागा।

गणेशजी उसके पीछे-पीछे चलते गये।

इसी बहाने से वह उन्हें घोर अरण्य में ले गया और फिर गर्जन करता हुआ आकाश में उड़ गया।उसकी गर्जना से धरती काँप उठी, नक्षत्र टूटने लगे, मेघ बिखर गये।

फिर वह जैसे ही धरती पर आया, वैसे ही मयूरेश्वर ने पाश फेंका, जिसके कारण उसकी समस्त माया नष्ट हो गई और वह उसमें बँधकर धराशायी हो गया।

उसका विशाल शरीर चूर-चूर हो गया तथा प्राण पलायन कर गये।


अण्डा से निकले पक्षी के वध का वर्णन

एक दिन आम के वन में गणेशजी अपने साथियों के साथ खेल रहे थे।

वे वृक्षों से आम के फल गिरा-गिराकर खाने लगे।

कुछ मुनिकुमार परस्पर व्यंग्य करते हुए एक-दूसरे पर फल फेंकने लगे।

एक फल उचटकर अण्डे की रक्षा करती हुई एक स्त्री के सिर पर जोर से जा लगा।

वह स्त्री क्रोधपूर्वक आकर पूछने लगी जिसने यह फल फेंककर मुझे मारा है, वह बालक कहाँ है? उसे देखकर गणेशजी उस वृक्ष के कोटर में जा छिपे।

वहाँ उन्होंने एक चमकता हुआ श्वेत अण्डा उठाकर देखा तो वह फूट गया और उससे एक विशालकाय पक्षी निकल आया।

उसके विशाल पंख और नीला कण्ठ था, उसके मुख से अग्नि की लपटें निकल रही थीं।

उसके पंख हिलाते हुए पृथ्वी काँप उठी और समुद्र क्षुब्ध हो गया।

वह विशाल पक्षी भागते हुए मुनिकुमार पर पंखों से प्रहार करने लगा।

यह देखकर गणेशजी ने शीघ्रता से कोटर से कूदकर उसके पंख पकड़ लिये।

पक्षी भी प्रबल था, उसने किसी प्रकार अपने पंख छुड़ा लिये।

अब गणेशजी और पक्षी में युद्ध छिड़ गया, अन्त में वह अत्यन्त पराक्रमी पक्षी उनके मुष्टि-प्रहार से मारा गया।

यह देखकर वह स्त्री गणेशजी की स्तुति करती हुई बोली-प्रभो! मैं! महर्षि कश्यप की भार्या विनता हूँ।

उनका पुत्र यह शिखण्डी (मयूर) आपके सेवक रूप में समर्पित है।

महर्षि ने पहिले ही बता दिया था कि इस अण्डे को जो फोड़ेगा, वही इसका स्वामी होगा।

मेरे जटायु, श्येन और सम्पाति तीन पुत्रों को कटु-पुत्र ने नागलोक में बन्दी बनाया हुआ है, कृपाकर उन्हें मुक्त कराने का कष्ट करें।’

गणेशजी ने आश्वासन दिया- ‘माता! आप चिन्ता न करें।

मैं तुम्हारे पुत्रों को छुड़ाने का शीघ्र ही प्रयत्न करूँगा।’

तदुपरान्त उन्होंने मयूर से कहा- ‘तुम पर प्रसन्न हूँ, कोई इच्छित वर माँग लो।’

मयूर बोला- ‘प्रभो! मुझे तो आपकी भक्ति ही चाहिए।

हाँ, एक इच्छा और है, वह यह कि आपके नाम से पूर्व मेरा नाम लगाया जाये, लोक में आपकी प्रसिद्धि मयूरेश्वर के नाम से हो।”ऐसा ही हो’ कहकर गणेशजी मयूर पर चढ़कर अपने आश्रम में पहुँचे।

माता पार्वती ने सब वृत्तान्त सुना तो वे बहुत प्रसन्न हुईं।

ऋषिकुमार भी उनकी प्रशंसा करते हुए अपने-अपने घरों को चले गये।


अश्वासुर का वध

गणेशजी की आयु ग्यारह वर्ष की हो रही थी।

आम्र-वन में विद्यमान सरोवर के किनारे मुनिकुमारों के साथ गणेशजी खेल रहे थे, तभी उग्रेक्षण के द्वारा भेजा हुआ एक राक्षस विशालकाय घोड़े के रूप में आकर उपद्रव करने लगा।

उसकी भयंकर आकृति और आक्रमण चेष्टा देखकर कुछ मुनिकुमार सरोवर में कूदे, कुछ वृक्षों पर चढ़े और कुछ प्राण लेकर कहीं अन्यत्र जा छिपे।

तभी गणेशजी ने उस पर वज्र तुल्य मुष्टिका का प्रहार किया।

पहले तो उसने सामना किया, किन्तु बार-बार के मुष्टिका प्रहार में उसका शरीर अत्यन्त पीड़ित हो गया तो वह प्राण बचाने के लिए सरोवर में जा कूदा।

यह देखकर गणपति ने भी छलाँग लगाई और उस घोड़े को जल में ही जा दबोचा तथा मर्दन कर मार डाला और उसका मृत शरीर उछालकर सरोवर से बाहर फेंक दिया।

राक्षस को मरा देखकर सभी मुनिकुमार प्रसन्नता व्यक्त करने लगे।


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