गणेश पुराण – तृतीय खण्ड – अध्याय – 1

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गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)


शौनक का पुण्यव्रत-विषयक प्रश्न

शौनक बोले- ‘हे सूतजी! हे महाभाग! सुनते हैं कि एक बार भगवान् शंकर ने भगवती पार्वती को किसी सन्तानदाता व्रत का उपदेश दिया था।

वह व्रत अमोघ होने के कारण कभी निष्फल नहीं जाता।

उस व्रत का अनुष्ठान करके गिरिराजनन्दिनी भी सफल मनोरथ हुई थीं।

हे प्रभो! आप उस उपाख्यान के भी पूर्ण जानकार हैं।

अतः उसे मेरे प्रति कहने की कृपा कीजिए।’

सूतजी उस प्रश्न को सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और कुछ देर मौन रहकर उन उमा का स्मरण करने लगे।

तभी शौनक जी ने देखा कि उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु निकल रहे हैं।

सूतजी ने अपने नेत्र पोंछते हुए कहा- ‘धन्य हो शौनक! जो बार-बार भगवान् के अद्भुत चरित्रों के प्रति जिज्ञासा करते हो।

तुमने जो प्रश्न किया है उससे सम्बन्धित गाथा एक बार भगवान् श्रीनारायण ने देवर्षि नारदजी को सुनाई थी।

जगज्जननी पार्वती के अङ्क में उस व्रत के प्रभाव से साक्षात् अव्यक्त परब्रह्म ही व्यक्त हुए थे।

‘प्राचीन काल की बात है जब शैलपुत्री के साथ भगवान् शंकर का विवाह हुए कुछ ही काल व्यतीत हुआ था, भगवान् वृषध्वज उनके साथ निर्जन वन में निवास कर रहे थे तथा वहाँ उनका विहार दीर्घकाल तक चलता रहा था।

तभी एक दिन शैलनन्दिनी ने उनसे निवेदन किया- ‘प्रभो! मुझे एक अत्यन्त श्रेष्ठ पुत्र की कामना है।

क्योंकि पुत्र के बिना घर तो सूना रहता ही है, कहते हैं कि पुत्रहीन गृहस्थ को परम पुरुषार्थ की भी प्राप्ति नहीं होती।’

शिवजी ने गिरिराजपुत्री का अभिप्राय समझ लिया और बोले- ‘प्रिये! परम पुरुषार्थ की प्राप्ति तो हमें सदैव रहती है, उससे वञ्चित तो हम कभी, किसी भी स्थिति में नहीं हैं, फिर भी तुम्हें पुत्र की अभिलाषा है, उसकी प्राप्ति के लिए मैं तुम्हें एक अमोघ उपाय बतलाऊँगा।

‘देखो, एक ऐसा व्रत है, जो सभी में श्रेष्ठ तथा अभीष्टसिद्धि का बीज रूप है।

उसके द्वारा परम बल और हर्ष की प्राप्ति होती है।

यदि तुम उस व्रत को करो तो अवश्य ही अभीष्टपूर्ति होगी।

उस परम शुभदायक व्रत को ‘पुण्यक’ कहते हैं।

इसका अनुष्ठान एक वर्ष में पूर्ण होता है।’

“हरेराराधनं कृत्वा व्रतं कुरु वरानने।
व्रतञ्च पुण्यकं नाम वर्षमेकं करिष्यति।।”

पार्वती जी उस व्रत के विषय में सुनकर बहुत प्रसन्न हुईं और उन्होंने देवाधिदेव शिवजी से पूछा, ‘नाथ! यह व्रत पहिले भी किसी ने किया है क्या? यदि किया हो तो उसका उपाख्यान मुझे सुनाने की कृपा कीजिए, जिससे मुझे व्रत की विधि का भी ज्ञान हो जाय और अनुमान लगा सकूँ कि मैं उसे कर सकूँगी या नहीं।’

शिवजी बोले- ‘देवि! यह व्रत कुछ कठिन नहीं है।

पूर्व काल में इसे मनु-पत्नी शतरूपा ने किया था।

वह अधिक आयु होने पर भी सन्तान न होने के कारण बहुत दुःखी थी।

जब उसे कोई भी उपाय दिखाई न दिया तो वह पति की अनुमति से लोकपितामह के पास ब्रह्मलोक में जा पहुँची और वहाँ उनके चरणों में प्रणाम करके बोली- ‘हे प्रभो! आप समस्त संसार के कर्त्ता तथा विजय के कारणों के भी कारण हैं।

आपकी इच्छा के बिना सर्वोत्पत्ति नहीं हो सकती।

हे दयालो! मेरी इतनी आयु हो गई, किन्तु पुत्र नहीं हुआ और पुत्र के बिना गृहस्थजीवन सर्वथा नीरस एवं व्यर्थ ही रहता है।

विद्वानों का कहना है कि पुत्रहीन दम्पति का जन्म एवं वैभव किसी भी काम का नहीं होता।

यद्यपि जप, तप, दान, धर्म का पुण्य जन्मान्तर में श्रेष्ठ फल देने वाला कहा है, फिर भी इस लोक और परलोक, दोनों में ही सुख, प्रसन्नता और मोक्ष की प्राप्ति का साधन पुत्र ही है।

‘हे लोकपितामह! पुत्र के द्वारा ‘पुम्’ नामक नरक से रक्षा होती है, इसलिए वह परलोक में भी आनन्द का होने वाला कहा है।

हे देव! कृपया मुझे यह बताने का कष्ट करें कि मुझ जैसी पुत्रहीन स्त्रियों को पुत्र की प्राप्ति किस उपाय से हो? हे दीनबन्धो! मैं पुत्र के अभाव में अत्यन्त दुःखी हूँ।

अतएव कोई अमोघ उपाय बताकर मेरी अभीष्ट सिद्ध कीजिए।’

ब्रह्माजी मौन रहते हुए उसकी बात सुन रहे थे।

उसने समझा कि पितामह कुछ उत्तर नहीं दे रहे हैं तो निराश-सी होती हुई बोली- ‘प्रभो! यदि कोई उपाय नहीं हुआ तो मैं पतिदेव के साथ वन में जाना ही उचित समझेंगी।

उस स्थिति में हमारे लिए पृथ्वी के राज्य, वैभव, सुयश आदि की कुछ भी उपयोगिता नहीं रहेगी।

इसलिए उस सबको चाहे आप स्वयं सँभालें अथवा किसी अन्य को दे दें।’


पुण्यक-व्रत का विधान

यह कहकर शतरूपा अत्यन्त दुःखावेग के कारण चतुरानन के समक्ष फूट-फूट कर रोने लगी।

यह देखकर दयामय पितामह ने शतरूपा को आश्वासन देते हुए कहा- ‘देवि! रोओ मत, शान्त होकर मेरी बात सुनो।

मैं तुम्हें एक ऐसा उपाय बताता हूँ जो सभी कामनाओं की सिद्धि करने वाला है।

उसके द्वारा धन, सन्तान, सत्कीर्ति, स्त्री को पति और पुरुष को पत्नी की प्राप्ति होती है।

उसका अनुष्ठान करने पर निश्चय ही भगवान् श्रीहरि के समान पराक्रमी, ऐश्वर्य सम्पन्न एवं महिमाशाली पुत्र की प्राप्ति होती है।’

शतरूपा ने पूछा- ‘पितामह! इस व्रत का नाम क्या है तथा कब से आरम्भ करना चाहिए? इसके अनुष्ठान में किस देवता की उपासना की जाती है? सो सब मुझसे कहने की कृपा करें।’

चतुर्मुख ने बताया- ‘इस व्रत को ‘पुण्यक’ कहते हैं।

इसका अनुष्ठान माघ मास के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी से आरम्भ करना चाहिए।

इसमें समस्त भोग और मोक्ष के देने वाले परब्रह्म श्रीकृष्ण की आराधना की जाती है।

व्रतारम्भ के प्रथम दिन उपवास करना चाहिए तथा दूसरे दिन प्रातःकाल ब्राह्म मुहूर्त में उठकर शौचादि से निवृत्त होकर शुद्ध स्वच्छ जल में स्नान करे।

तदनन्तर आचमनादि करके भगवान् श्रीकृष्ण को अर्घ्य प्रदान करे।

उसके पश्चात् नित्यकर्म करे और फिर पुरोहित का वरण करके स्वस्तिवाचन, कलश स्थापन एवं व्रत का संकल्प करे।

फिर प्रथमपूजा के अधिकारी गणेश्वर का पूजन कर गोलोकधाम-निवासी भगवान् श्रीकृष्ण का षोड़शोपचार पूजन कर इस महान् व्रत का अनुष्ठान आरम्भ करे।’

तदुपरान्त सौन्दर्य, नेत्र ज्योति, पति सौभाग्य आदि की अक्षुण्णता के लिए विभिन्न वस्तुओं के समर्पण का निर्देश करते हुए पुत्र-प्राप्ति के लिए समर्पण का इस प्रकार उपदेश किया ‘देवि! पुत्र की कामना से किए जाने वाले अनुष्ठान में कूष्माण्ड, नारियल, जम्बीर और श्रीफल का समर्पण किया जाता है।

अनुष्ठान काल में प्रभु की प्रसन्नता के लिए अनेक प्रकार के संगीत वाद्यादि के साथ भगवान् श्रीहरि का गुण कीर्तन करना चाहिए।

उनकी विशेष कृपा प्राप्त करने के लिए सुगन्धित पुष्पों की एक लाख मालाएँ अर्पण करें।

उसके पुष्प सुन्दर, स्वच्छ एवं बिना टूटे हुए हों।

प्रभु को भोग रूप में अनेक प्रकार के मधुर एवं सुस्वादु व्यञ्जन समर्पित करने चाहिए।

भगवान् की परम प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए तुलसीदल युक्त शुभ गन्ध से समन्वित पुष्प भेंट करे।

यदि जन्म-जन्मान्तर में धन-धान्य की समृद्धि की कामना हो तो नित्य-प्रति एक सहस्त्र ब्राह्मणों को तृप्तिकर भोजन करावे और दक्षिणा दे।

‘नित्य-प्रति पूजा-काल में प्रभु-विग्रह के चरण कमलों में सुगन्धित पुष्यों की सौ अंजुलियाँ समर्पण करके प्रणाम करना चाहिए, व्रतारम्भ से छः मास तक अंगहीन धान, मूँग, मटर, जौ, तिल, साठी चावल, तिन्नी, दूध, घृत, शर्करा, घी में पकाया हुआ अन्न, लौंग, पीपल, जीरा, सैंधव, समुद्र लवण, मूली, बथुआ, इमली, आम, सन्तरा, कटहल, केला, हरड़, आमला इत्यादि हविष्यान्न का सेवन करे।

फिर पाँच मास तक मधुर फलों का आहार और एक पक्ष तक हविष्य का आहार करे।

शेष पन्द्रह दिन तक निराहार रहे, केवल जल का ही सेवन करे।

रात्रि में भी कुश के आसन पर जागरण करे तो अधिक फल होगा।

व्रती को संयम से रहते हुए केवल श्रीहरि में ही ध्यान लगाए रखना चाहिए।

‘व्रत पूर्ण होने पर उसका उद्यापन करे।

उसमें तीन सौ आठ डलियों में उत्तम उपहार रखकर उन सबको सुन्दर वस्त्रों से ढक कर दान करे।

भोजन के पदार्थ और यज्ञोपवीत भी दे तथा एक हजार तीन सौ आठ ब्राह्मणों को भोजन करावे और घृत की इतनी ही आहुतियों से हवन करे।

कार्य की सम्पन्नता होने पर दक्षिणा में एक हजार तीन सौ आठ सोने की मुद्राएँ तथा अन्य प्रकार की भी दक्षिणा देनी चाहिए।’

लोकपितामह से पुण्यक-व्रत एवं उसकी विधि सुनकर शतरूपा बहुत प्रसन्न हुई और उन्हें प्रणाम करके अपने स्थान पर लौट आई।

उसने उस परम शुभदायक पुण्यक व्रत का विधिपूर्वक अनुष्ठान किया।

उसी व्रत के प्रभाव से उसे प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो सुन्दर, यशस्वी और अत्यन्त पराक्रमी पुत्रों की प्राप्ति हुई।

इससे राजा मनु को बड़ी प्रसन्नता हुई।

उसके दोनों बालक आनन्द से परिपूर्ण हो गए।

शिवजी बोले-‘हे शिवे! महाभागा देवहूति ने भी इस अत्यन्त पुण्य- फल-दायक पुण्यक-व्रत का अनुष्ठान किया था।

उसके फलस्वरूप उन्हें भगवान् श्रीहरि के अंशावतार एवं सिद्धों में श्रेष्ठ कपिल देव की पुत्र रूप ‘नित्य-प्रति पूजा-काल में प्रभु-विग्रह के चरण कमलों में सुगन्धित पुष्यों की सौ अंजुलियाँ समर्पण करके प्रणाम करना चाहिए, व्रतारम्भ से छः मास तक अंगहीन धान, मूँग, मटर, जौ, तिल, साठी चावल, तिन्नी, दूध, घृत, शर्करा, घी में पकाया हुआ अन्न, लौंग, पीपल, जीरा, सैंधव, समुद्र लवण, मूली, बथुआ, इमली, आम, सन्तरा, कटहल, केला, हरड़, आमला इत्यादि हविष्यान्न का सेवन करे।

फिर पाँच मास तक मधुर फलों का आहार और एक पक्ष तक हविष्य का आहार करे।

शेष पन्द्रह दिन तक निराहार रहे, केवल जल का ही सेवन करे।

रात्रि में भी कुश के आसन पर जागरण करे तो अधिक फल होगा।

व्रती को संयम से रहते हुए केवल श्रीहरि में ही ध्यान लगाए रखना चाहिए।

‘व्रत पूर्ण होने पर उसका उद्यापन करे।

उसमें तीन सौ आठ डलियों में उत्तम उपहार रखकर उन सबको सुन्दर वस्त्रों से ढक कर दान करे।

भोजन के पदार्थ और यज्ञोपवीत भी दे तथा एक हजार तीन सौ आठ ब्राह्मणों को भोजन करावे और घृत की इतनी ही आहुतियों से हवन करे।

कार्य की सम्पन्नता होने पर दक्षिणा में एक हजार तीन सौ आठ सोने की मुद्राएँ तथा अन्य प्रकार की भी दक्षिणा देनी चाहिए।’

लोकपितामह से पुण्यक-व्रत एवं उसकी विधि सुनकर शतरूपा बहुत प्रसन्न हुई और उन्हें प्रणाम करके अपने स्थान पर लौट आई।

उसने उस परम शुभदायक पुण्यक व्रत का विधिपूर्वक अनुष्ठान किया।

उसी व्रत के प्रभाव से उसे प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो सुन्दर, यशस्वी और अत्यन्त पराक्रमी पुत्रों की प्राप्ति हुई।

इससे राजा मनु को बड़ी प्रसन्नता हुई।

उसके दोनों बालक आनन्द से परिपूर्ण हो गए।

शिवजी बोले-‘हे शिवे! महाभागा देवहूति ने भी इस अत्यन्त पुण्य- फल-दायक पुण्यक-व्रत का अनुष्ठान किया था।

उसके फलस्वरूप उन्हें भगवान् श्रीहरि के अंशावतार एवं सिद्धों में श्रेष्ठ कपिल देव की पुत्र रूप प्राणों से अधिक प्रिय, सौभाग्य-वर्द्धक एवं समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला है।’


पुण्यक-व्रत की फल-श्रुति

‘हे शिवे! इस व्रत का अनन्त फल है।

अब तक जो बताया जा चुका है, उससे असंख्य गुना शुभ प्रदान करने वाला है।

इसके द्वारा समस्त अभीष्टों की सिद्धि होती है।

इसका अनुष्ठान करने वाले के सभी विघ्नों का इसके प्रभाव से निवारण हो जाता है।

त्रिभुवन-विख्यात पुत्र एवं सतत सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

असुन्दर स्त्री-पुरुष इसके द्वारा सौन्दर्य प्राप्त कर सकते हैं।

धनहीनों को धन, भूमिहीनों को भूमि तथा पशु-वाहनादि से वंचितों को इच्छित पशु एवं वाहनादि प्राप्त होते हैं।

वस्तुतः ये महान् व्रतानुष्ठान प्रत्येक जन्म में अभीष्ट सिद्धियों की उपलब्धि कराने वाला एवं सभी व्रतों का बीज रूप है।’

भगवान् शशिशेखर द्वारा पुण्यक-व्रत की विधि और माहात्म्य सुनकर देवी पार्वती के मन में उसके अनुष्ठान करने की इच्छा हुई और उन्होंने देवाधिदेव से निवेदन किया ‘प्रभो! मैं इस व्रत को करना चाहती हूँ, किन्तु इसकी व्यवस्था किस प्रकार हो? शिवजी ने कहा- ‘शिवे! इस व्रत के साधन-भूत पुष्प और फल लाने के लिए मैं सौ ब्राह्मणों को तथा अन्यान्य सामग्री लाने के लिए सौ भृत्यों और आवश्यक संख्या में अन्य दास-दासियों को नियुक्त किए देता हूँ।

पुरोहित पद पर नियुक्ति हेतु सभी व्रत विधियों के जानने वाले वेद-वेदांगों के परम विद्वान् सर्वज्ञ परम ज्ञानी एवं हरिभक्त सनत्कुमार को बुला दूँगा।

इस प्रकार तुम इस परम श्रेष्ठ व्रत का श्रद्धाभक्ति एवं विधि सहित पालन करो।

इसका अनुष्ठान करने से तुम्हें परम दुर्लभ पुत्ररत्न की प्राप्ति अवश्य ही होगी।’


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