<< गणेश पुराण – तृतीय खण्ड – अध्याय – 9
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
पाद्मकल्प में घटित घटना का वर्णन
नारदजी का प्रश्न सुनकर भगवान् नारायण बोले- ‘देवर्षे! तुम्हारा प्रश्न उचित है, स्वाभाविक है।
मैं तुम्हें गजमुख लगाने का कारण बताता हूँ।
यह विषय सभी वेदों, पुराणों में भी गोपनीय ही है।
परन्तु इसे जो कोई कहता या सुनता है, उसके समान कोई भाग्यशाली भी नहीं है, क्योंकि यह सभी को दुःखों से छुड़ाता और ऐश्वर्य प्रदान करता है।
इसके सुनने-कहने से समस्त विपत्तियाँ और पाप दूर हो जाते हैं।
हे नारद! अब तुम ध्यान लगाकर सुनो –
“शृणु तात प्रवक्ष्येऽहमितिहासं पुरातनम्।
रहस्यं पाद्मकल्पस्य पुरा तातमुखात् श्रुतम्॥
‘हे तात! सुनो, मैं इस पुराने इतिहास को तुम्हारे प्रति कहता हूँ।
यह रहस्यमय उपाख्यान पाद्मकल्प में घटित हुआ था, तथा इसे मैंने अपने पिता के मुख से सुना था।
एक बार की बात है-देवराज इन्द्र पुष्पभद्रा नामक नदी के तट पर ठहरे हुए थे।
उस समय वे अपने ऐश्वर्यमद से मदान्वित और राज्यश्री से सम्पन्न थे।
नदी तट का वह स्थान अत्यन्त निर्जन और एकान्त था।
मनुष्यादि की तो बात ही क्या, कोई जीव-जन्तु भी वहाँ नहीं था।
परन्तु विविध प्रकार के सुन्दर पुष्पों से युक्त वृक्ष वहाँ विद्यमान थे।
उन पुष्पों की सुगन्ध से सुवासित हुई वायु अरण्य को ही सुगन्धित बनाये हुए थी।
देवराज उस मनोहर स्थान पर घूम ही रहे थे कि उनकी दृष्टि रम्भा नाम की एक स्त्री पर पड़ी जो वहाँ विश्राम के लिए समुपस्थित हुई थी।
उसे देखते ही इन्द्र कामासक्त हो गये और निर्निमेष नेत्र से उसी पर दृष्टि लगाये रहे।
रम्भा भी इन्द्र की ओर आकर्षित हुई।
उसे अपनी ही ओर आती देखकर इन्द्र ने कहा- ‘वरारोहे! तुम कौन हो? कहाँ से आई और कहाँ जा रही हो? क्या मेरा भी कुछ प्रिय करोगी?’
रम्भा बोली- ‘प्रभो! मैं तो आपकी दासी हूँ, भला आप आज्ञा दें और अस्वीकार कर दूँ यह कैसे सम्भव है?’
ऐसा कहकर वह लज्जा त्यागकर इन्द्र के पास ही उपस्थित हो गई।
तभी महर्षि दुर्वासा अपनी शिष्य-मण्डली के साथ उसी मार्ग से निकले।
इन्द्र ने महर्षि को देखा तो तुरन्त उनके समीप जाकर प्रणाम किया।
इन्द्र को नत मस्तक देखकर महर्षि ने उन्हें ‘सुखी रहो’ कहकर आशीर्वाद दिया।’
दुर्वासा का इन्द्र को पारिजात पुष्प देना
महर्षि उस समय बैकुण्ठ से आ रहे थे।
भगवान् नारायण ने उन्हें एक दिव्य पारिजात पुष्प भेंट की थी।
वही पुष्प महर्षि ने प्रसन्न होकर देवराज को प्रसाद रूप में दे दिया और उसका माहात्म्य बताते हुए कहा-
“सर्वविघ्नहरं पुष्पं नारायणनिवेदितम्।
मूर्तीदं यस्य देवेन्द्र जयस्तस्यैव सर्वतः॥”
‘हे देवेन्द्र! यह पुष्प सभी विघ्नों को नाश करने वाला है।
भगवान् नारायण द्वारा प्रदत्त यह पुष्प जिसके मस्तक पर सुशोभित रहेगा, सब प्रकार से उसकी विजय निश्चित है।’
‘इस पुष्प को मस्तक पर धारण करने वाले का सर्वत्र पूजन होगा।
वह सभी देवताओं में अग्रपूजन का अधिकारी रहेगा।
महालक्ष्मीजी भी सदैव उसके साथ रहेंगी।
जब तक यह पुष्प रहेगा, लक्ष्मीजी, उसका त्याग नहीं करेंगी।
उसे धारण करने वाला व्यक्ति ज्ञान, तेज, बुद्धि, बल, पराक्रम आदि में साक्षात् भगवान् श्रीहरि के ही समान हो जायेगा।
जो परम अहंकार मद के वश में पड़कर भक्तिभावपूर्वक मस्तक पर धारण नहीं करेगा, वह भ्रष्ट श्रीवाला होगा।
यह भगवान् श्रीहरि का नैवेद्य निरभिमान रूप से धारण करना चाहिए।’
पारिजात पुष्प को हाथी के मस्तक पर रखना
‘इस प्रकार कहकर महर्षि दुर्वासा अपने शिष्यों के सहित कैलास पर्वत की ओर चले गए।
उधर, इन्द्र ने महर्षि से तो पुष्प ले लिया, किन्तु अपने मस्तक पर धारण नहीं किया वरन् रम्भा के निकट ही हाथी के मस्तक पर स्थापित कर दिया।
हे शौनक! पुष्प का वह निरादर इन्द्र के लिए दुर्भाग्य रूप बन गया।
अप्सरा रम्भा को इन्द्र से विरक्ति हो गई और वह उन्हें विरह-व्यथा देकर अपने स्थान को चली गई।
‘मस्तक पर भगवान् नारायण के नैवेद्य रूप पुष्प को धारण कर इन्द्र का हाथी भी महाबली और महातेजस्वी हो गया था।
उसने भी देवराज का साथ छोड़ दिया।
इन्द्र ने उसे बहुत रोकना चाहा, किन्तु श्रीहीन होने के कारण उनमें इतनी शक्ति कहाँ रह गई थी जो उसे रोकते।
इन्द्र उसपर चढ़ने को हुए तो उसने उन्हें वहाँ धरती पर डाल दिया।
‘अब उस हाथी को एक हथिनी भी उसी अरण्य में मिल गई।
गजराज के तेज को देखकर वह हथिनी स्वयं ही उसके पास चली आई।
दोनों ही स्नेह-बन्धन में ऐसे बँधे कि परस्पर में कोई किसी को नहीं छोड़ना चाहता था।
वस्तुतः वह हाथी बड़ा अभिमानी हो गया था।
दूर अरण्य में निवास करने वाले जन्तुओं को पीड़ित करने लगा था।
‘देवर्षि! भगवान् किसी का मद नहीं बना रहने देते।
जो उनकी शरण में जाता है उसका तो अहंकार ही पहले नष्ट करते हैं और जो शरण में नहीं जाता, उसे भी गर्वहीन बना देते हैं।
‘भगवान् ने अत्यन्त मदान्वित हुए उसी गजराज का मस्तक छिन्न करके शिवा-पुत्र के धड़ पर लगाया था।
इससे गजराज के गर्व का तो खण्डन हुआ ही शिवा-शिशु भी जीवित हो गये।
वत्स! यह मस्तक चरित्र मैंने तुम्हारे प्रति कह दिया है, जो कि सभी पापों का नष्ट करने वाला है, बोलो, अब क्या सुनना चाहते हो?’शौनक बोले- ‘हे सूतजी! हे महाभाग! आपने यह बड़ा सुन्दर, सुखद वृत्तान्त सुनाया है।
प्रभो! अब यह बताने की कृपा कीजिए कि श्रीहीन हुए देवराज इन्द्र ने फिर क्या किया? किस प्रकार उन्हें राज्यश्री की पुनः प्राप्ति हुई? यह सब मेरे प्रति कहिए।’
सूतजी बोले- ‘शौनक! तुम्हारा जो प्रश्न है, वैसा ही प्रश्न महर्षि नारदजी ने श्रीनारायण से किया था।
उन्होंने पूछा- ‘हे जगन्निवास! हे प्रभो! अभिशाप को प्राप्त देवराज एवं उनके अनुयायी देवगण खोई हुई श्री को पुनः कब, किस प्रकार प्राप्त कर सके, वह सब मेरे प्रति कहने की कृपा कीजिए।