गणेश पुराण – तृतीय खण्ड – अध्याय – 3

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पार्वती का आत्मघात के लिए तैयार होना

गिरिराजपुत्री ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया और वह अपने निश्चय को कार्यरूप में परिणत करने को ही थीं कि अन्तरिक्ष के शून्य में सहसा करोड़ों सूर्यों के सम्मिलित समूह के समान एक परम-उत्कृष्टतेजपुञ्ज प्रकट हो गया, जिसके कारण समूचा कैलास पर्वत और समस्त दिशाएँ प्रकाशमान हो उठीं।

वह तेज-मण्डल असीमित अनन्त था।

यह देखकर समस्त देवता और ऋषि-मुनि समझ गए कि भगवान् हैं, इसलिए सभी भक्तिभाव से प्रणाम करके गद्गद कण्ठ से उनकी स्तुति करने लगे।

देवताओं ने कहा- ‘हे प्रभो! आप असीमित और अनन्त की यथार्थ रूप से स्तुति करने में तो हम पूर्णरूपेण असमर्थ हैं, क्योंकि आप समस्त विश्व के परमाश्रय, मायामय और माया से परे भी हैं।

हे नाथ! यह दृश्यमान जगत् आपका ही महिमामय स्वरूप है।

कोई भी दृश्यमान या अदृश्य पदार्थ किसी भी अवस्था में आपसे भिन्न नहीं हो हो सकता।

प्रभो! हे जगदीश्वर! इस समय जो विकट परिस्थिति उत्पन्न हुई, उससे आप ही उबार सकते हैं।’

ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने कहा- ‘प्रभो! आप समस्त देवता, ऋषि-मुनि एवं हम त्रिदेवों के भी उत्पत्तिकर्त्ता हैं।

हम सब आपके ही संकेतानुसार सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और प्रलय किया करते हैं।

हे प्रभो! हे नाथ! हे जगदीश्वर! आप हमपर कृपा कीजिए।’

धर्म ने निवेदन किया- ‘त्रिलोकीनाथ! आपकी आज्ञा से ही समस्त धार्मिक और न्यायवान् पुरुष मेरी रक्षा में तत्पर रहते हैं।

हे प्रभो! यह सब आपकी महिमा का प्रभाव है।

अन्य देवताओं ने कहा- ‘हे नाथ! आप वाणी से परे होने के कारण अकथनीय, स्वेच्छामय, ज्ञानमय एवं ज्ञानातीत हैं, तब आप समस्त वेदों के कारण स्वच्छ ज्ञानमूर्ति का स्तवन किस प्रकार किया जाय? हे प्रभो! हम सब आपके कलांश होने के कारण आपकी सम्पूर्ण कलाकारी को ठीक प्रकार से जानने में भी समर्थ नहीं हैं।’

ऋषियों ने कहा- ‘मोक्षप्रद प्रभो! आप समस्त कल्याणों के आश्रय, सिद्धियों के प्रदाता तथा बुद्धि के प्रेरक हैं।

आपकी ही प्रेरणा से हम सब केवल आपके ध्यान में अहर्निश तल्लीन रहते हैं।

फिर भी आप करुणामूर्ति के साक्षात् दर्शन नहीं कर पाते।

हे प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं।

आपकी जय हो, जय हो।’

तभी सर्वत्र जयघोष होने लगा।

सभी दिशाएँ भगवान् परब्रह्म श्रीकृष्ण के जय-जयकार से गूंज उठीं।

तभी जगज्जननी पार्वतीजी ने परमात्मा के स्वरूप का गुणगान करते हुए निवेदन किया – ‘सर्वान्तर्यामी! आपका अद्भुत तेज करोड़ों सूर्यों को लजाने में समर्थ है।

आपके स्वरूप का वर्णन कोई भी नहीं कर सकता।

आप अणु-अणु में व्याप्त एवं परम महिमामय हैं।

आप इच्छा मात्र से ही सभी कुछ करने में समर्थ हैं, इसलिए आप तो मुझे जानते हैं, किन्तु मैं आपको यथार्थ रूप में कैसे जान सकती हूँ? हे प्रभो! मैंने पुत्र की कामना से पुण्यक व्रत का अनुष्ठान किया है, किन्तु इस अनुष्ठान की समाप्ति पर विधानानुसार अपने प्राणपति को दक्षिणा रूप में दिया जाता है, यह कार्य अत्यन्त दुष्कर है।

कोई साध्वी नारी पुत्र के लिए अपने पति का त्याग कैसे कर सकती है? हे करुणामय! हे गोलोकनाथ! आप मेरी इस शोचनीय स्थिति को समझकर मुझपर दया कीजिए।


श्रीकृष्ण के ध्यान में पार्वती का मग्न होना

गर्भवती गिरिजा भगवान् श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न हो गईं।

उन्हें उस समय अपने तन-मन की सुधि नहीं थी।

उनकी दृष्टि अन्तरिक्ष में उभरे हुए तेजपुञ्ज पर टिकी थी।

तभी उन्हें उस अनन्त तेज-राशि के मध्य अद्भुत रूप-लावण्ययुक्त अत्यन्त मनोहर स्वरूप के दर्शन हुए।

मुख-मण्डल पर अवर्णनीय तेज, अधरों पर सरल मुसकान, हाथ में अमृत की वर्षा करने वाली मुरली, कण्ठ में मणियों और वनपुष्यों के हार, मस्तक पर स्वर्ण-रत्नमय किरीट, कानों में दिव्य कुण्डल, विशाल भाल पर तिलक, नीलवर्ण देह पर पीताम्बर, विभिन्न अङ्गों में रत्नाभरण, कटि में कञ्चन मेखला, चरणों में क्वणित किङ्किणी और किरीट पर मोर का पङ्ख सुशोभित था।

वे भगवान् दिव्य एवं भव्य रत्न-सिंहासन पर विराजमान थे।

उनके पीछे सखाजन चॅवर डुला रहे थे।

शैलनन्दिनी ने उस भुवनमोहन स्वरूप को देखा तो एकटक देखती ही रह गईं।

उनके मन में हुआ कि पुत्र मिले तो इसी रूप के समान सुन्दर हो।

उन्होंने सुना- ‘गिरिजे! तुम्हारा व्रत सफल हो गया।

तुमने जैसे पुत्र की कामना की है, वैसा ही प्राप्त होगा।’

गिरिराजनन्दिनी के हर्ष की सीमा न रही, उन्होंने निवेदन किया – ‘प्रभो! आपने व्रत की सफलता स्वरूप अपने समान पुत्र प्राप्ति का वर तो दे दिया, किन्तु जो मूल समस्या है, उसका तो समाधान ही नहीं हुआ।

हे परमात्मदेव! मुझपर कृपा कीजिए।’

पार्वती को लगा कि भगवान् त्रिभुवन हँसते हुए कह रहे हैं- ‘पार्वती! यह समस्या तो सामयिक है।

स्थायी नहीं।

इसका प्रतिकार तो स्वतः ही हो जायेगा।

तुम कोई चिन्ता न करो, तुम्हारी जो भी कामनाएँ हैं, वे सभी पूर्ण हो गईं समझो।

निश्चय ही तुम पूर्ण काम हो गई हो गिरिराजनन्दिनी।

और तब शैलजा ने उन परम प्रभु को प्रणाम किया और वे परमात्मदेव सबके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गए।

सहसा अन्तरिक्ष में प्रकट वह तेजपुञ्ज तिरोहित हो गया।

अब महर्षि सनत्कुमार ने भगवान् विष्णु की प्रेरणा से शैलनन्दिनी के प्रति कहा- ‘जगज्जननी! तुम्हारे पति तो निरे औघड़ बाबा हैं, यह मेरे किसी काम के नहीं।

मैंने विचार करके देखा कि इन्हें लिये लिये मैं कहाँ-कहाँ फिरूँगा? इसलिए तुम इन्हें अपने ही पास रखो।’

देवी पार्वती की प्रसन्नता की सीमा न थी।

उन्होंने पुरोहित से निवेदन किया- ‘विप्रश्रेष्ठ! आप बड़े कृपालु हैं।

मैं आपकी महानता को नहीं समझ सकी थी।

अब आप मुझे आज्ञा दीजिए कि इनके बदले में क्या वस्तु प्रदान करूँ?’

सनत्कुमार बोले- ‘देवि! ब्राह्मण को वैसे तो कुछ भी अभीष्ट नहीं है, फिर भी व्रत की सम्पन्नता-स्वरूप और उसे फलवान् बनाने के लिए दक्षिणा लेना आवश्यक ही है।

इसलिए कपिला गौ ही दे दीजिए।’

शैलनन्दिनी ने सनत्कुमार को कपिला गौओं का दान किया और अनेक बहुमूल्य रत्नाभूषण तथा दिव्य वस्तुएँ प्रदान कीं तथा अन्य समस्त ब्राह्मणों, ऋषि-मुनियों, बन्दीजनों एवं भिक्षुकों आदि को उनकी अभीष्ट वस्तुएँ दीं और सुस्वादु पदार्थों से भोजन कराया।

सभी सब प्रकार से सन्तुष्ट होकर उनकी प्रशंसा करते हुए आशीर्वाद देने लगे।

तदुपरान्त देवी पार्वती ने अपने प्राणपति का अत्यन्त प्रीतिपूर्वक पूजन किया।

उस समय दिव्य वाह्य बजने लगे, गन्धर्व गाने लगे और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं।

सुमुखियाँ मङ्गल गीत गाने लगीं।

सर्वत्र आनन्द-उल्लास छा गया।

इस प्रकार भगवती गिरिराजनन्दिनी का पुण्यक-व्रत समाप्त हुआ।

इसके पश्चात् उन्होंने शिवजी के साथ स्वयं भी भोजन किया।

तदुपरान्त समस्त उपस्थित जनों को मुख-शुद्धि के लिए ताम्बूल दिये गये और शिव-शिवा ने भी ताम्बूलों का सेवन किया।

इसके पश्चात् उत्सव समाप्त हुआ और सभी आगजतन अपने-अपने स्थानों को लौट गये।


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