<< गणेश पुराण – तृतीय खण्ड – अध्याय – 3
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
विप्रवेश धारण कर प्रभु का आना
उत्सव समाप्त होने पर शिव-शिवा अंतःपुर चले गये।
तभी उनके द्वार पर दीन-हीन, कुत्सित ब्राह्मण आकर पुकारने लगा- ‘शम्भो! हे सर्वकामनादायक प्रभो! हे दीनबन्धो! मैं भूख-प्यास से अत्यन्त व्याकुल एक दीन-हीन, दुर्बल ब्राह्मण हूँ।
भोजन की इच्छा से ही बहुत दूर से चलकर यहाँ आया हूँ।’
उसके सिर के केश रुक्ष, उलझे हुए, नये वस्त्र मैले-कुचैले थे।
किन्तु दाँत स्वच्छ और ललाट पर उज्ज्वल तिलक लगा था।
उसके हाथ में एक डण्डा था, जिसके सहारे खड़ा हुआ पुकार लगा रहा था- ‘अरे शिवजी! क्या कर रहे हो प्रभो! हे गिरिराजनन्दिनी! तुम्हारे द्वार पर याचक ब्राह्मण भूखा पुकार रहे हैं और तुम सुनतीं ही नहीं।
भला सर्वसम्पत्ति-सम्पन्न माता के रहते हुए उसका बालक भूख से व्याकुल पुकारता रहे, यह कैसी विचित्र बात है!’ब्राह्मण की पुकार सुनकर शिव-शिवा बाहर निकले।
उन्हें देखते ही उस दीन ब्राह्मण ने उनके चरणों में प्रणाम किया और स्तुति करने लगा- ‘आशुतोष प्रभो! मैं भूख से अत्यन्त व्याकुल हूँ तथा आप समस्त धन-धान्यों से सम्पन्न एवं समर्थ हैं।
हे दीनबन्धो! मेरी इस दशा को देखकर मुझपर कृपा कीजिए।
हे नाथ! आपके समान कोई दाता नहीं है।
हे माता! आपके समान कोई दयावती माता नहीं हो सकती।’
विप्र के दीनतायुक्त वचन सुनकर भगवान् आशुतोष प्रसन्न हो गए।
उन्होंने पूछा- ‘द्विजवर! आप कहाँ से आ रहे हैं? आपका शुभ नाम क्या है।
कृपया सभी बातें बताने का कष्ट करें।’
करुणामयी शैलनन्दिनी ने भी पूछा- ‘वेदपारंगत विप्रश्रेष्ठ! मेरा अत्यन्त सौभाग्य है जो आप मेरे यहाँ इतना कष्ट करके पधारे हैं।
वस्तुतः आप जैसे अतिथि के स्वागत-सत्कार एवं सेवा की बड़ी महिमा कही गई है।’ब्राह्मण ने कहा-‘हे माता! आप तो साक्षात् वेदमयी हैं।
आप मुझ क्षुधार्त्त को अन्न प्रदान कीजिए।
क्योंकि मैं बहुत दूर से चलकर यहाँ आने के कारण अत्यन्त थका हुआ हूँ।
वैसे भी मैं उपवास-व्रती एवं रोग से पीड़ित हैं।
बस, यही मेरा स्वागत सत्कार एवं पूजन है।’
भगवती शैलजा ने कहा- ‘विप्रवर! मुझे आज्ञा कीजिए कि आपको कौन-सा पदार्थ प्रस्तुत करूँ? आपकी जो इच्छा होगी, वही पदार्थ आपकी सेवा में उपस्थित करने का प्रयत्न करूँगी।
आप कुछ बताइए तो सही।’
ब्राह्मण ने कहा- ‘क्या बताऊँ जगज्जननि! मैं आप पुत्रविहीना माता का ही अनाथ पुत्र हूँ।
मुझे ज्ञात हुआ है कि आपने अभी ही व्रतों में सर्वश्रेष्ठ एवं महान् पुण्यक-व्रत का अनुष्ठान पूर्ण किया है।
उसके समायोजनार्थ अनेक दुर्लभ सामग्रियाँ इकट्ठी की गई होंगी।
अद्भुत पक्वान्न और मिष्ठान्न बनाये गये होंगे तथा स्वच्छ सुवासित शीतल जल भी पीने के लिए मँगाया गया होगा।
मुख-शुद्धि के लिए ताम्बूल भी प्रस्तुत किये गये होंगे।
माता! उन-उन समस्त वस्तुओं से मेरा पूजन कीजिए और वे सब पदार्थ मुझे इतने खिलाइए, इतने खिलाइए कि मेरा पेट तन जाये।
उन पदार्थों को खाकर मैं लम्बोदर हो जाऊँ।’
पार्वती जी उस ब्राह्मण की बात सुनती हुई कुछ आश्चर्य से उसका मुख देखने लगीं।
तभी ब्राह्मण ने भगवान् चन्द्रमौलि की ओर देखते हुए शैलजा से कहा- ‘जननि! सम्भवतः आप मेरे वचनों पर विश्वास नहीं कर रही हैं, किन्तु मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह अक्षरशः सत्य है।
आपके प्राणप्रिय पति सब पर शीघ्र ही प्रसन्न हो जाने के कारण आशुतोष कहलाते हैं।
वे विश्व में विद्यमान समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी होने के कारण सभी कुछ प्रदान करने में समर्थ हैं और आप भी समस्त धनों और यशों की स्वामिनी तथा साक्षात् लक्ष्मी स्वरूपिणी होने के कारण समस्त सत्कीर्तियों को प्रदान करने में समर्थ हैं।
इसलिए आप मुझे अत्यन्त रमणीय सिंहासन पर विराजमान कराइए, मुझे बहुमूल्य एवं दिव्य रत्नालंकार पहिनाइये, शुद्ध सुन्दर वस्त्र धारण कराकर भगवान् श्रीहरि का देव-दुर्लभ मन्त्र प्रदान कीजिए।
भगवान् त्रिलोकीनाथ की भक्ति तथा मृत्युञ्जय संज्ञक ज्ञान दीजिए।
इसके अतिरिक्त हे जननि! सुख देने वाली दान-शक्ति और समस्त सिद्धियों की भी प्राप्ति कराइये।’
पार्वती उसे इस प्रकार देख रही थीं जैसे उसकी बातों को समझ ही न रही हों।
विप्र भी उनकी भाव-भंगी को देखता-समझता हुआ कहता चला जा रहा था- ‘माता! मैं तपश्चर्या में रत रहने और उत्तम धर्म का पालन करने वाला हूँ।
मुझे जन्म-मरण और रोग-जरा आदि स्पर्श भी नहीं कर सकते और न मैं उस प्रकार के कर्मों को करूँगा ही, जिनके करने से जन्म-जरा-व्याधि और मृत्यु का प्रकोप हो सकता हो।’
अब ब्राह्मण ने जगत् की असारता पर प्रकाश डाला- ‘जगदीश्वरि! यह जगत् आपके आश्रय में रहता हुआ भी असार ही है।
जो इसकी असारता को जान लेता है, वह व्यामोह में नहीं पड़ता।
मैंने जगत् की यथार्थता का ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
इसलिए मुझे इसके कारण भूख, काम-क्रोध, लोभ-मोह व्याप्त नहीं कर सकते।
फिर आपकी कृपा होने पर तो जगत् के कारण रूप इन विकारों का अस्तित्व रह नहीं सकता।’हे माता! आप समस्त कर्मों का फल प्रदान करने वाली हैं।
आपने स्वयं नित्या, सत्या और सनातनी होते हुए भी लोक-शिक्षा के लिए तपश्चर्या, व्रतोपवास और पूजनादि कार्य सम्पन्न किए हैं और यही कारण है कि आपके अंक में गोलोकवासी परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण प्रत्येक कल्प में प्रकट होकर क्रीड़ा किया करते हैं।’
विप्र का अन्तर्धान होना शिशुरूप में प्राकट्य
शिव-प्रिया भवानी कुछ कहना ही चाहती थीं कि तभी वे वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, तेजोमय मुख-मण्डल वाले, किन्तु कृशकाय ब्राह्मणदेवता देखते-देखते अन्तर्धान हो गये।
पार्वतीजी आश्चर्य से सोच ही रही थीं कि यह क्या हुआ? कहाँ गये वे श्रेष्ठ विप्र?उधर वह ब्राह्मण अन्य कोई नहीं गोलोकपति जनार्दन ही थे जो अदृश्य रूप से अन्तःपुर में प्रविष्ट होकर माता पार्वतीजी की शय्या पर नवजात शिशु रूप में जा लेटे, जो अद्वितीय सुन्दर एवं दिव्य तेज से सम्पन्न थे।
सभी दिशाएँ उनसे प्रकाश प्राप्त करके जगमगा रही थीं तथा उनकी रूप-छटा भी अद्भुत थी-
“शुद्धचम्पकवर्णाभः कोटिचन्द्रसमप्रभः।
मुग्धदृश्यः सर्वजनैश्चक्षूरश्मिविवर्द्धकः।
अतीवसुन्दरतनुः कामदेवविमोहनः।
मुखं निरुपमं विभ्रच्छारदेन्दुविनिन्दकम्॥”
‘उसका वर्ण चम्पक के समान और तेज करोड़ों चन्द्रमाओं के समान था! वह सुखपूर्वक देखने के योग्य और सभी की नेत्र-ज्योति बढ़ाने वाला था।
उसका शरीर कामदेव को भी मोहित करता था तथा मुख अनुपम और शरद् के पूर्णचन्द्र को भी निन्दित करने में समर्थ था।
उसके सुन्दरतम नेत्रों की शोभा के समक्ष मनोहर कमल भी तिरस्कृत हो रहा था।
लाल- ओष्ठ पक्व बिम्बफल को लज्जित कर रहे थे!’
इधर तो उनकी शय्या में विद्यमान त्रैलोक्य भर में अनुपम शिशु अपने हाथ-पाँव उछाल रहा था, उधर पार्वती जी को उस ब्राह्मण के सहसा अदृश्य हो जाने से बड़ा दुःख हुआ।
उन्होंने त्रिलोचन प्रभु से कहा – ‘प्राणनाथ! उस अतिथि ब्राह्मण को तो देखिए, वह कहाँ चला गया! घर के द्वार पर आये हुए अतिथि का द्वार से निराश होकर लौट जाना शुभ नहीं होता।
वह भूख से पीड़ित हुआ अतिथि बिना कुछ प्राप्त किये चला गया!’ तभी आकाशवाणी सुनाई दी ‘जगज्जननि! व्याकुल न हो।
वे तो स्वयं परात्पर ब्रह्म ही थे, जो तुम्हारे पुत्र रूप से पर्यंक में क्रीड़ा कर रहे हैं।
देखो, तुम्हारे द्वार पर कोई अतिथि ब्राह्मण नहीं, वरन् साक्षात् जनार्दन ही पधारे थे।
यह सब तुम्हारे द्वारा किए गये महान् पुण्यक-व्रत का ही प्रभाव था।
अतएव तुम तुरन्त अपने घर जाकर करोड़ों कामदेवों का तिरस्कार करने वाले रूप लावण्य युक्त राशि अपने पुत्र को देखो।’
आकाशवाणी सुनकर पार्वती स्वस्थ-चित्त हुईं और उन्होंने भीतर जाकर अपने पुत्र को देखा।
वह अत्यन्त सुन्दर एवं तेजस्वी था।
उसके दिव्य अंगों से जो अनुपम तेज निकल रहा था, उससे समस्त अन्तःपुर प्रकाशमान हो रहा था।
उन्होंने उस सुन्दरतम नवजात शिशु को देखा तो हर्ष-विभोर हो उठीं और तुरन्त ही शिवजी के पास जाकर बोलीं- ‘प्राणेश्वर! कृपा कर घर के भीतर चलकर देखने का कष्ट कीजिए।
हे नाथ! आप जिस सद्यः फलदायक स्वरूप का ध्यान किया करते हैं, उसी के पुत्र रूप में दर्शन कीजिए।’
पार्वती से पुत्र के प्राकट्य का संवाद सुनकर समस्त हर्षों के आश्रय- स्थान भगवान् आशुतोष अत्यन्त हर्षित हुए।
उन्होंने शय्या पर लेटे हुए अपने पुत्र को देखा जो छत की ओर इकटक निहार रहा था।
शशिभूषण उस अत्यन्त अद्भुत रूप को देखकर आश्चर्य से सोचने लगे- ‘अरे! यह शिशु तो उसी मूर्ति का प्रतिरूप है, जिसका मैं सदैव ध्यान किया करता हूँ।
अवश्य ही वे परात्पर परमात्मा मेरे पुत्र में व्यक्त हुआ है।’
उन्होंने पार्वती से कहा- ‘प्रिये! तुम्हारा सौभाग्य है, जो ऐसे अद्भुत पुत्र की तुम्हें प्राप्ति हुई है।’
जगज्जननी ने अपने प्राणनाथ की बात के अनुमोदन स्वरूप शिशु को तुरन्त ही गोद में उठा लिया और वह उसका मुख चूमती हुई बोलीं-
“सम्प्राप्यामूल्यरत्नं त्वां पूर्णमेव सनातनम्।
यथा मनो दरिद्रस्य सहसा प्राप्य सद्धनम्॥
कन्ते सुमिरमायाते प्रोषिते योषितो यथा।
मानसं परिपूर्ण च बभूव च तथा मम॥”
‘हे पुत्र! जैसे सहसा अमूल्य रत्नादि शुभ धन प्राप्त होने पर दरिद्र का मन प्रसन्न हो उठता है, उसी प्रकार तुम सनातन पुरुष रूप अमूल्य रत्न के पुत्र रूप में प्राप्त होने से मेरी भी कामना पूर्ण हो गई है।
जैसे चिरकाल से परदेश में निवास करने वाले प्रियतम के सहसा घर लौट आने पर स्त्री का मन उल्लास से भर जाता है, वैसी ही मेरी मन-स्थिति हो रही है।’
इस प्रकार आनन्दमग्न हुई गिरिराजनन्दिनी नवजात शिशु रूप परात्पर ब्रह्म को प्यार से अपनी गोद में खिलाने लगीं तथा पुत्र-स्नेह के कारण उनके स्तनों में दूध उमड़ने लगा और वे शिशु को दूध पिलाने लगीं।
तदुपरान्त भगवान् त्रिलोचन ने अत्यन्त मुदित मन से पार्वती से अपने पुत्र को ले लिया और गोद में लिटाकर खेलाने लगे।
उन्होंने मन-ही-मन नमस्कार करके निवेदन किया ‘प्रभो! आपने मेरी चिर प्रतीक्षित साधना पूरी कर दी है।
आपकी इस कृपा से मैं सब प्रकार से धन्य हो गया हूँ।
परन्तु, हे प्रभो! यह प्रार्थना है कि मैं आपकी माया में विमोहित होकर कहीं आपके यथार्थ रूप को भूल न जाऊँ।’
पुत्त्रोत्सव तथा जातकर्म वर्णन
अब कैलास-शिखर स्थित शिव-सदन के प्रांगण में पुत्रोत्पत्ति की प्रसन्नता में उत्सव मनाया जाने लगा।
देवगण, किन्नरगण और अप्सराओं ने नृत्य-गायनादि आरम्भ किया।
सुमधुर बाजे बजने लगे।
नारियाँ मंगल गीत गाती हुई उस अद्भुत आयोजन में सम्मिलित हुईं।
भगवान् शंकर ने शिशु का जातकर्म-संस्कार कराया।
ब्राह्मणों ने शिशु के महिमाशाली होने का बखान करते हुए चिरायु होने का आशीर्वाद दिया।
तदुपरान्त ब्राह्मण भोजन के पश्चात् अभिलषित दक्षिणा दी गई।
वन्दीजनों और भिक्षुकों को भी उनकी इच्छानुसार धन-रत्नादि दिए गये।
हिमाचल ने अपने दौहित्र के जातकर्म-संस्कार उत्सव के अवसर पर ब्राह्मणों को एक लाख विशिष्ट रत्न, एक सहस्त्र श्रेष्ठ गजराज, तीन लाख दिव्य तुरङ्ग, दस लाख कपिला गौएँ, पाँच लाख स्वर्ण मुद्राएँ एवं बहुत सारे हीरे मोती-जवाहरात, बहुमूल्य रत्नालंकार एवं वस्त्रादि प्रदान किये।
उस अवसर पर भगवान् विष्णु ने भी हर्षातिरेक में भरकर प्रमुख दिव्य मुनियों का पूजन किया और कौस्तुभ मणि दान में दे दी।
फिर पार्वती के पुत्र रूप में परब्रह्म के प्रकट होने के उपलक्ष्य में उन्होंने वेद-संहिताओं और पुराणों का पाठ कराया और अनेक मांगलिक कार्य कराये।
ब्रह्माजी ने भी उस उत्सव में भाग लेकर ब्राह्मणों को अत्यन्त दुर्लभ वस्तुएँ दान कीं तथा नवजात शिशु को आशीर्वाद दिया।
देवराज इन्द्र ने भी दिव्याभरण दान दिये।
फिर अन्यान्य देवताओं, गन्धर्वों, पर्वतों आदि ने भी दान में अद्भुत वस्तुएँ दीं।
सूर्य और धर्म ने तथा देवियों ने भी विविध पदार्थों के दान किए।
इस प्रकार उस समय ब्राह्मणों को जो-जो वस्तुएँ दी गईं उनके मूल्य का अनुमान किया जाना भी असम्भव था।
भगवती गायत्री, सावित्री, शारदा, रमा, ब्रह्माणी आदि ने भी दुर्लभ वस्तुओं का दान किया था।
स्वयं माता पार्वती जी ने असीमित धन और गवादि पशुओं एवं वाहनों का दान कर दिया।
कुबेर ने भी ब्राह्मणों को बहुत-सा धन प्रदान किया।इस प्रकार भगवान् शङ्कर के यहाँ परब्रह्म परमात्मा के पुत्र रूप में प्रकट होने पर समस्त देवताओं ने आनन्दोत्सव मनाया और बालक के मंगलार्थ जो कुछ दानादि क्रिया की जा सकती थी, वह सब की गई।
सभी ने ब्राह्मणों को दान दिये और फिर बालक को चिरायु होने का आशीर्वाद दिया।
ब्रह्मा जी बोले-वत्स! तुम यथाशीघ्र यशस्वी बनो और समस्त देवताओं में प्रथमपूजा के अधिकारी होओ।’
विष्णु ने कहा- ‘शिशु! तुम चिरंजीवी रहो।
ज्ञान में अपने पिता शिवजी के समान और पराक्रम में मेरे समान होओ।
तुम समस्त सिद्धियों के अधीश्वर भी होगे।’धर्म ने कहा- ‘तुम सदैव धर्म में स्थित रहो।
तुम्हारे द्वारा कभी कोई अधर्म-कार्य न हो वरन् जो अधर्म करने वाले हों, उनके विनाश में सदैव तत्पर रहो।’इन्द्र ने कहा- ‘बालक! तुम देवताओं के सदैव रक्षक रहो।
विवाद उपस्थित होने पर देवपक्ष का समर्थन करो और असुरों एवं दुष्कर्मियों को उत्पीड़ित करो।’इस प्रकार अपनी बुद्धि के अनुसार लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री, शिव, हिमालय, मेनाक, पृथ्वी एवं पार्वती ने भी इस नवजात शिशु को आशीर्वाद दिया तथा उसके ऐश्वर्यवान्, बुद्धि एवं सिद्धिनिधान, विद्वान् एवं पुण्यवान् होने की मंगलकामना की तथा मनोहर रूप लावण्य सम्पन्न पत्नी, महान् कवित्व-शक्ति धारण एवं स्मरण शक्ति की प्राप्ति का वर प्रदान किया।
फिर यह कामना व्यक्त की कि वह हरि-भक्तों और सज्जनों का शरणदाता, विघ्ननाशक, धर्म के समान स्थिर, शिव के समान परमयोगी, समस्त प्राणियों पर दया करने वाला, मृत्यु पर भी विजय प्राप्त करने वाला, सभी कार्यों में परम निपुण, वेद वेदांगों में पारंगत एवं सिद्धि कामियों को सिद्धिदाता बने।
इस प्रकार देवताओं और देवियों द्वारा शुभ कामनाएँ एवं आशीर्वाद दिये जाने के पश्चात् समागत ऋषियों ने भी अनेक प्रकार के शुभ आशीर्वाद प्रदान किये।
फिर सभी ब्राह्मणों ने भी हार्दिक रूप से शुभाशीष दी और वन्दी जनों ने भी अपनी-अपनी ओर से मंगल कामनाएँ व्यक्त कीं।तदुपरान्त भगवान् श्रीहरि, कमलासन ब्रह्मा, आशुतोष शङ्कर एवं अन्यान्य समस्त देवगण यथोचित स्थानों पर विराजे।
मुनिजनों को भी उनके तदनुसार उच्चासन दिये गए।
इस प्रकार वहाँ अद्भुत समाज जुड़ा और सभी आनन्दपूर्वक सभा की शोभा बढ़ाने लगे।