गणेश पुराण – तृतीय खण्ड – अध्याय – 9

<< गणेश पुराण – तृतीय खण्ड – अध्याय – 8

<< गणेश पुराण - Index

गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)


शिव द्वारा सूर्यदेव का वध

सूतजी द्वारा उक्त उपाख्यान सुनकर शौनकजी ने अत्यन्त उत्सुकतापूर्वक शङ्का व्यक्त की- ‘हे महामुने! इस उपाख्यान में मुझे बड़ी शङ्का हो रही है, उसके निवारण की कृपा कीजिए।

प्रभो! सर्वशक्तिमान् गोलोकवासी भगवान् श्रीकृष्ण के अंशभूत एवं सर्वभूतभावन भगवान् शंकर द्वारा पार्वतीजी के गर्भ से उत्पन्न शिशु को इस प्रकार के विघ्न की प्राप्ति क्यों हुई थी? भला शनि को इस प्रकार की शक्ति कहाँ से प्राप्त हो गई, जिसके कारण देवाधिदेव भगवान् का ही मस्तक छिन्न हो गया था? एक शङ्का यह भी है कि गणेशजी के मस्तक छिन्न होने की कथा अन्य प्रकार से भी मिलती है, जिसमें स्वयं भगवान् शंकर द्वारा ही उनका मस्तक काट लेना और फिर हाथी का मस्तक जोड़ देना कहा गया है।

इस कारण इस विषय में मेरा कुतूहल और भी बढ़ गया है कि कथाओं में इस प्रकार की भिन्नता क्यों है? कृपया इस सबका समाधान कीजिए।’

सूतजी आनन्दविभोर हो गए और भगवान् का स्मरण करने के पश्चात् बोले- ‘शौनकजी! तुम धन्य हो जो ऐसे लोकोपकारी प्रश्नों को पूछते हो।

मैं भी अपने को धन्य ही मानता हूँ जो ऐसे हरिभक्त श्रोता की शङ्काओं का समाधान करने का मुझे सुअवसर प्राप्त हुआ है।

‘वत्स! तुमने जो प्रश्न किया है, वैसा ही प्रश्न देवर्षि नारद ने श्रीनारायण से किया था और नारायण ने जो उत्तर दिया था, वही तुम्हें बताऊँगा।

देवर्षि नारदजी ने पूछा-

“नारायण महाभाग वेदवेदाङ्गपारग।
पृच्छामि त्वामहं किञ्चिदतिसन्देहमीश्वर।।
सुतस्य त्रिदशेशस्य शङ्करस्य महात्मनः।
विघ्नविघ्नस्य यद्विघ्नमीश्वरस्य कथं प्रभोः॥”

‘हे नारायण! महाभाग! हे वेदवेदाङ्गों के पारगामी प्रभो! हे ईश्वर! मुझे कुछ सन्देह हुआ है, इसलिए आपसे पूछता हूँ।

हे नाथ! भगवान् शंकर तो महान् हैं, उनके आत्मभूत पुत्र जो स्वयं भी सभी विघ्नों के विघ्न दूर करने में समर्थ हैं, उन परमात्मा को विघ्न की प्राप्ति किस कारण से हुई थी?’

‘हे भगवन्! गोलोकनाथ तो पर से भी परे, परिपूर्ण परमात्मा हैं तथा पार्वती के यह पुत्र उन्हीं के अंश रूप हैं तो कैसे आश्चर्य का विषय है कि उन परिपूर्ण परमेश्वर का मस्तक भी शनि की दृष्टि मात्र से छिन्न हो गया?’


कश्यप द्वारा शिवजी को शाप देना

नारायण बोले- ‘ब्रह्मन्! तुमने बहुत सुन्दर प्रश्न किया है।

तुम सावधान होकर अपने प्रश्न का उत्तर सुनो।

यह बहुत प्राचीनकाल की बात है-एक बार भगवान् शंकर ने सूर्यदेव को अपने त्रिशूल से मार गिराया, इस कारण समस्त संसार में अन्धकार छा गया था।

महर्षि कश्यप उनके चेतनाहीन शरीर को गोद में लेकर विलाप करने लगे।

उस समय त्रिभुवन में अन्धकार के कारण हाहाकार होने लगा, जिससे सब देवता भी अत्यन्त त्रस्त हो गए।

महर्षि कश्यप ब्रह्माजी के पौत्र, परम तपस्वी एवं तेज से जाज्वल्यमान थे।

उन्होंने अपने पुत्र के संहारकर्त्ता शिवजी को शाप दे डाला-

“मत्पुत्रस्य यथा वक्षश्च्छिन्नं शूलेन तेऽद्य च।
त्वत्पुत्रस्य शिरश्छिन्नमेवभूतम्भविभष्यिति॥”

‘शंकर! तुमने आज जिस प्रकार से मेरे पुत्र का वक्षःस्थल विदीर्ण किया है, उसी प्रकार तुम्हारे पुत्र का भी किसी दिन मस्तक छिन्न हो जायेगा।

‘इस शाप को सुनकर शिवजी को भी क्रोध आ गया और वे कश्यप को शाप देने के लिए उद्यत हुए तभी ब्रह्माजी ने मध्यस्थता कर उन्हें शांत करने का प्रयत्न किया।

ब्रह्माजी बोले- ‘हे देवाधिदेव! हे महादेव! आप तो तीनों लोकों के स्वामी और संहारकर्ता हैं।

यह समस्त जीव आपकी ही ओर करुण-दृष्टि से देख रहे हैं।

अतएव प्रभो! आप क्रोध को त्याग दीजिए और कश्यप से प्रतिशोध मत लीजिए।

हे नाथ! आपके ऐसा करने से विवाद और भी बढ़ जायेगा।

हे दयामय! अब शीघ्र ही प्रसन्न होकर अन्धकार दूर कीजिए जिससे कि समस्त प्राणी भय मुक्त हो सकें।’

शिवजी तो शीघ्र ही प्रसन्न होने में प्रसिद्ध हैं, इसलिए उन्हें ‘आशुतोष’ कहते हैं।

अतः ब्रह्माजी की स्तुति सुनकर तुरन्त प्रसन्न होकर बोले- ‘ब्रह्मन्! मैं तुम्हारे स्तवन से प्रसन्न हूँ।

जो चाहे वही वर प्राप्त कर लें।’

ब्रह्माजी ने कहा- ‘प्रभो! अन्य कोई भी वर अभीष्ट नहीं है।

मैं तो केवल यह याचना करता हूँ कि भास्कर को पुनर्जीवन की प्राप्ति हो, जिससे संसार में छाया हुआ घोरतम अन्धकार दूर हो सके।

अन्यथा त्रिलोकी ही नष्ट हो जायेगी।

क्योंकि सूर्य में मुझ ब्रह्मा, विष्णु और आपका भी अंश विद्यमान है।

इस प्रकार सूर्य त्रिगुणात्मक हैं और शिव भी त्रिगुणात्मक हैं।

जब उन्हें गुणों की प्राप्ति नहीं होगी, तब उनमें प्राण भी कहाँ रहेंगे?’


सूर्यदेव को पुनर्जीवन की प्राप्ति

ब्रह्माजी के स्तवन को सुनकर शिवजी प्रसन्न हो गए और उन्होंने सूर्य को पुनर्जीवन प्रदान कर दिया।

जब सूर्य जीवित हो गए तब अपने पिता कश्यपजी के आगे बैठ गये।

किन्तु उन्होंने अपने क्रियाशील रहने से वैराग्य ले लिया।

वे बोले- ‘अब मैं समस्त विषयों का त्याग कर केवल भगवान् जनार्दन का ही भजन करूँगा।

क्योंकि यह समस्त विश्व नाशवान् है।

इस तुच्छ नश्वर और अकृतज्ञ संसार के हित में सतत गतिमान् रहते हुए परिश्रम करना व्यर्थ है।

जब अकारण ही मेरे साथ शत्रुवत् व्यवहार किया गया, तब मैं समझता हूँ कि मैं ही क्यों इन देवताओं, ऋषि-मुनियों, गन्धर्वों, किन्नरों, यक्षों आदि की प्रसन्नता के लिए अहर्निश भाग-दौड़ करता रहूँ?’

तब सभी देवताओं के निवेदन करने पर ब्रह्माजी ने सूर्य को

समझाया- ‘वत्स! संसार में जो उत्पन्न हुआ या प्रकट हुआ है, उसे अपने-अपने कर्म को करना होता है।

वस्तुतः संसार कर्म-क्षेत्र है, यहाँ कर्म की ही महिमा है।

जो प्राणी अपने कर्त्तव्य कर्म को त्याग देता है, वह धर्म से वञ्चित हुआ अत्यन्त दुःख भोगता है।

अतः हे दिनकर! हे अंशुमालिन्! तुम अपने कर्म में पूर्ववत् लग जाओ।

तुम्हारा इसी में कल्याण निहित है।’

सूर्य ने अपना हठ छोड़ दिया।

वे लोकहित की दृष्टि से पुनः गतिमान् होने को प्रस्तुत हुए।

तभी ब्रह्माजी ने कहा- ‘वत्स! भगवान् शंकर समस्त कारणों के कारण, लोकों के स्वामी तथा सर्गान्त में प्रलय किया करते हैं।

इस सर्वेश्वर प्रभु की स्तुति और प्रणामादि से प्रसन्न करके ही अपने कर्त्तव्य कर्म में लगो।’

ब्रह्माजी के वचन सुनकर सूर्यदेव ने शिवजी की स्तुति की- ‘हे आशुतोष! हे शंकर! आप समस्त लोकों के नाथ को मैं प्रणाम करता हूँ।

हे प्रभो! मुझसे जो कुछ भी अपराध हुआ हो, उसे कृपया क्षमा कर दें।

मैं आपका अनन्य सेवक और सदैव कृपाभिलाषी हूँ।

उमानाथ! मुझपर कृपा कर प्रसन्न हो जाइए प्रभो!’

आशुतोष तो आशुतोष ही हैं, जब कोई भक्त सच्चे हृदय से उनकी स्तुति करे तो उनके प्रसन्न होने में देर नहीं लगती।

उन्होंने भास्कर को भक्तिपूर्वक स्तुति करते देखा तो तुरन्त ही सन्तुष्ट हो गये।

उन्होंने कहा- ‘दिनकर! तुम्हारा कल्याण हो।

अब कोई भय तुम्हारे नहीं आ सकता।

जाओ, लोकहित के निमित्त अपने कर्म में पूर्ववत् लग जाओ।’

शिवजी का आदेश मिलने पर सूर्य ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और परिक्रमा करके अपने गतिशील रथ पर जा बैठे।

उनके बैठते ही रथ चल पड़ा और विश्व का गहनतम अन्धकार धीरे-धीरे प्रकाश के रूप में बदलने लगा।


शिशु के धड़ में गजमुख जोड़ने के प्रति संदेह

सूतजी बोले- ‘शौनक! तुमने जो पूछा, वह मैंने सुना दिया है।

अब यदि कुछ पूछना हो वह पूछो, यदि जानता हूँगा तो अवश्य बताऊँगा।’

शौनक बोले- ‘प्रभो! इस कथा के सुनने पर एक शंका उत्पन्न हो गई है बालक के छिन्न मस्तक के स्थान पर हाथी का मुख ही क्यों लगाया गया? और भी तो अनेकानेक सुन्दर मुख के प्राणी संसार में देखे जाते हैं।

और कुछ नहीं तो किसी देवता या मनुष्य का ही सिर उसके धड़ में जोड़ा जा सकता था।

इसके अतिरिक्त यह शंका भी अभी रह गयी कि शिव- पुत्र के धड़ में गजमुख जोड़े जाने की घटना का विवरण विभिन्न ऋषियों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से कहा जाता है, तब उनमें से सत्य विवरण कौन-सा माना जाये।’

सूतजी हँसे, उन्होंने कहा- ‘शौनकजी! मैं तो समझता था कि अपनी पूरी शंका का समाधान तो तुम स्वयं ही पा गए होगे, इसलिए नहीं कह सका।

परन्तु जब तुम पूछते हो तब और भी स्पष्ट करके कहता हूँ, सुनो-एक ही चरित्र के भिन्न-भिन्न प्रकार से पाये जाने में कोई विशेष रहस्य नहीं छिपा है।

वे सभी घटनाएँ कल्प-भेद से ज्यों-की-त्यों घटित हुई हैं।

भगवान् नारायण ने नारदजी को बताया था, उससे यह तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है।

नारदजी ने प्रश्न किया था कि प्रभो! मेरे मन में कुछ शंका उत्पन्न हो गई है, उसका निवारण कीजिए।

भगवान् शंकर के पुत्र के शरीर पर हाथी के मुख की ही योजना क्यों की? जबकि संसार में एक से बढ़कर सुन्दर जन्तु विद्यमान हैं, क्या गजमुख के योजन का कोई विशेष कारण था?’


Next.. (आगे पढें…..) >> गणेश पुराण – तृतीय खण्ड – अध्याय – 10

गणेश पुराण का अगला पेज पढ़ने के लिए क्लिक करें >>

गणेश पुराण – तृतीय खण्ड – अध्याय – 10


Ganesh Bhajan, Aarti, Chalisa

Ganesh Bhajan