हाथ की माला और मन की माला में फर्क
माला फेरत जुग गया,
मिटा न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे,
मन का मनका फेर॥
माला फेरत जुग गया – कबीरदासजी कहते है की, हे मनुष्य, तुमने हाथ में माला लेकर फेरते हुए कई युग बिता दिए
मिटा न मन का फेर – फिर भी संसार के विषयो के प्रति मोह और आसक्ति का अंत नहीं हुआ।
कर का मनका डारि दे – इसलिए हाथ की माला को छोड़कर
- कर यानी हाथ और मनका मतलब माला
मन का मनका फेर – मन को ईश्वर के ध्यान में लगाओ।
- मन का मनका – मन में ईश्वर के नाम की माला, मन से ईश्वर को याद करना
मन, माया, आशा, तृष्णा और शरीर का सम्बन्ध
माया मरी न मन मरा,
मर मर गये शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी,
कह गये दास कबीर॥
माया मरी न मन मरा – न माया मरी और ना मन मरा
मर मर गये शरीर – सिर्फ शरीर ही बारंबार जन्म लेता है और मरता है।
आशा तृष्णा ना मरी – क्योंकि मनुष्य की आशा और तृष्णा नष्ट नहीं होती।
कह गये दास कबीर – कबीर दास जी कहते हैं – आशा और तृष्णा जैसे विकारों से मुक्त हुए बिना मनुष्य की मुक्ति या मोक्ष संभव नहीं है।
- तृष्णा – craving, greed – लालच, लोभ, तीव्र इच्छा
बाहर के स्नान से ज्यादा जरूरी, भीतर से मन को साफ करना
न्हाये धोये क्या हुआ,
जो मन का मैल न जाय।
मीन सदा जल में रहै,
धोये बास न जाय॥
न्हाये धोये क्या हुआ – सिर्फ नहाने धोने से (शरीर को सिर्फ बाहर से साफ़ करने से) क्या होगा?
जो मन मैल न जाय – यदि मन मैला ही रह गया, अर्थात मन के विकार नहीं निकाल सके।
मीन सदा जल में रहै – मछली हमेशा जल में रहती है,
धोए बास न जाय – इतना धुलकर भी उसकी दुर्गन्ध (बास) नहीं जाती।
यदि मन शांत हो जाए, तो क्या होगा?
जग में बैरी कोय नहीं,
जो मन शीतल होय।
या आपा को डारि दे,
दया करे सब कोय॥
जग में बैरी कोय नहीं – संसार में हमारा कोई शत्रु (बैरी) नहीं हो सकता,
जो मन शीतल होय – यदि हमारा मन शांत हो तो।
या आपा को डारि दे – यदि हम मन से मान-अभिमान (आपा) और अहंकार को छोड़ दे,
दया करे सब कोय – तो हम सब पर दया करेंगे और सभी हमसे प्रेम करने लगेंगे।
तन से योगी की अपेक्षा, मन से योगी बनना ज्यादा जरूरी
तन को जोगी सब करै,
मन को करै न कोय।
सहजै सब विधि पाइये,
जो मन जोगी होय॥
तन को जोगी सब करै – तन से (योगी के वस्त्र पहनकर) कोई भी योगी बन सकता है,
मन को करै न कोय – मन से योगी (मन से आसक्तियों को त्यागकर योगी) कोई नहीं बनता।
सहजै सब सिधि पाइये – उस मनुष्य को सहज ही सब सिद्धिया मिल जाती है,
जो मन जोगी होय – जो मन से योगी बन जाता है यानी की जो मन को शांत कर लेता है।
कबीर के दोहे – मन का फेर – अर्थ सहित
बुरा जो देखन मैं चला,
बुरा न मिलिया कोय।
जो मन देखा आपना,
मुझ से बुरा न कोय॥
ऐसी वाणी बोलिए,
मन का आपा खोये।
औरन को शीतल करे,
आपहुं शीतल होए॥
फल कारण सेवा करे,
करे न मन से काम।
कहे कबीर सेवक नहीं,
चाहे चौगुना दाम॥
मन दिना कछु और ही,
तन साधून के संग।
कहे कबीर कारी दरी,
कैसे लागे रंग॥
सुमिरन मन में लाइए,
जैसे नाद कुरंग।
कहे कबीरा बिसर नहीं,
प्राण तजे ते ही संग॥
कबीर मन पंछी भय,
वहे ते बाहर जाए।
जो जैसी संगत करे,
सो तैसा फल पाए॥
धीरे-धीरे रे मना,
धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा,
ॠतु आए फल होय॥
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