संगति - कबीर के दोहे

Sangati – Kabir Dohe – Hindi

कबीर संगत साधु की, नित प्रति कीजै जाय।
कबीर संगत साधु की, जौ की भूसी खाय।
संगत कीजै साधु की, कभी न निष्फल होय।
संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय।

Sangati – Kabir Dohe


कबीर संगत साधु की,
नित प्रति कीजै जाय।
दुरमति दूर बहावसी,
देसी सुमति बताय॥

अर्थ (Doha in Hindi):

  • कबीर संगत साधु की – संत कबीर कहते हैं कि, सज्जन लोगों की संगत
  • नित प्रति कीजै जाय – प्रतिदिन करनी चाहिए,
    • ज्ञानी सज्जनों की संगत में प्रतिदिन जाना चाहिए
  • दुरमति दूर बहावसी – इससे दुर्बुद्धि (दुरमति) दूर हो जाती है
    • मन के विकार नष्ट हो जाते है और
  • देसी सुमति बताय – सदबुद्धि (सुमति) आती है

कबीर संगत साधु की,
जौ की भूसी खाय।
खीर खांड भोजन मिले,
साकट संग न जाए॥

अर्थ (Doha in Hindi):

  • कबिर संगति साधु की – कबीरदासजी कहते हैं कि, साधु की संगत में रहकर यदि
  • जो कि भूसी खाय – स्वादहीन भोजन (जौ की भूसी का भोजन) भी मिले तो भी उसे प्रेम से ग्रहण करना चाहिए
  • खीर खांड भोजन मिले – लेकिन दुष्ट के साथ यदि खीर और मिष्ठान आदि स्वादिष्ट भोजन भी मिले
  • साकत संग न जाय – तो भी उसके साथ (दुष्ट स्वभाव वाले के साथ) नहीं जाना चाहिए।

संगत कीजै साधु की,
कभी न निष्फल होय।
लोहा पारस परसते,
सो भी कंचन होय॥

अर्थ (Doha in Hindi):

  • संगत कीजै साधु की – संत कबीर कहते है की, सन्तो की संगत करना चाहिए क्योंकि वह
  • कभी न निष्फल होय – कभी निष्फल नहीं होती
    • (संतो की संगति का फल अवश्य प्राप्त होता है)
  • लोहा पारस परसते – जैसे पारस के स्पर्श से लोहा भी
  • सो भी कंचन होय – सोना बन जाता है।
    • वैसे ही संतो के वचनों को ध्यानपूर्वक सुनने और उन का पालन करने से मनुष्य के मन के विकार नष्ट हो जाते है और वह भी सज्जन बन जाता है

संगति सों सुख्या ऊपजे,
कुसंगति सो दुख होय।
कह कबीर तहँ जाइये,
साधु संग जहँ होय॥


कबीरा मन पँछी भया,
भये ते बाहर जाय।
जो जैसे संगति करै,
सो तैसा फल पाय॥


सज्जन सों सज्जन मिले,
होवे दो दो बात।
गहदा सो गहदा मिले,
खावे दो दो लात॥


मन दिया कहुँ और ही,
तन साधुन के संग।
कहैं कबीर कोरी गजी,
कैसे लागै रंग॥


साधु संग गुरु भक्ति अरू,
बढ़त बढ़त बढ़ि जाय।
ओछी संगत खर शब्द रू,
घटत-घटत घटि जाय॥


साखी शब्द बहुतै सुना,
मिटा न मन का दाग।
संगति सो सुधरा नहीं,
ताका बड़ा अभाग॥


साधुन के सतसंग से,
थर-थर काँपे देह।
कबहुँ भाव कुभाव ते,
जनि मिटि जाय सनेह॥


हरि संगत शीतल भया,
मिटी मोह की ताप।
निशिवासर सुख निधि,
लहा अन्न प्रगटा आप॥


जा सुख को मुनिवर रटैं,
सुर नर करैं विलाप।
जो सुख सहजै पाईया,
सन्तों संगति आप॥


कबीरा कलह अरु कल्पना,
सतसंगति से जाय।
दुख बासे भागा फिरै,
सुख में रहै समाय॥


संगत कीजै साधु की,
होवे दिन-दिन हेत।
साकुट काली कामली,
धोते होय न सेत॥


सन्त सुरसरी गंगा जल,
आनि पखारा अंग।
मैले से निरमल भये,
साधू जन को संग॥


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