सतगुरु - कबीर के दोहे

Satguru – Kabir Dohe – Hindi

– सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।
– सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।
– तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार।
– सतगुरु खोजो सन्त, जोव काज को चाहहु।

Satguru – Kabir Dohe


सतगुरु सम कोई नहीं,
सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक न पाइये,
अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड॥


कबीर माया मोहिनी,
जैसी मीठी खांड़।
सतगुरु की कृपा भई,
नहीं तौ करती भांड़॥


सतगुरु तो सतभाव है,
जो अस भेद बताय।
धन्य शीष धन भाग तिहि,
जो ऐसी सुधि पाय॥


तीरथ गये ते एक फल,
सन्त मिले फल चार।
सतगुरु मिले अनेक फल,
कहें कबीर विचार॥


सतगुरु खोजो सन्त,
जोव काज को चाहहु।
मिटे भव को अंक,
आवा गवन निवारहु॥


सतगुरु शब्द उलंघ के,
जो सेवक कहूँ जाय।
जहाँ जाय तहँ काल है,
कहैं कबीर समझाय॥


सतगुरु को माने नही,
अपनी कहै बनाय।
कहै कबीर क्या कीजिये,
और मता मन जाय॥


सतगुरु मिला जु जानिये,
ज्ञान उजाला होय।
भ्रम का भांड तोड़ि करि,
रहै निराला होय॥


सतगुरु मिले जु सब मिले,
न तो मिला न कोय।
माता-पिता सुत बाँधवा,
ये तो घर घर होय॥


चौंसठ दीवा जोय के,
चौदह चन्दा माहिं।
तेहि घर किसका चाँदना,
जिहि घर सतगुरु नाहिं॥


सुख दुख सिर ऊपर सहै,
कबहु न छोड़े संग।
रंग न लागै का,
व्यापै सतगुरु रंग॥


यह सतगुरु उपदेश है,
जो मन माने परतीत।
करम भरम सब त्यागि के,
चलै सो भव जल जीत॥


जाति बरन कुल खोय के,
भक्ति करै चितलाय।
कहैं कबीर सतगुरु मिलै,
आवागमन नशाय॥


जेहि खोजत ब्रह्मा थके,
सुर नर मुनि अरु देव।
कहै कबीर सुन साधवा,
करु सतगुरु की सेव॥


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