श्री विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग – 7

Kashi Vishwanath Jyotirling

द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र से श्री विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग का श्लोक

सानन्दमानन्दवने वसन्त-
मानन्दकन्दं हतपापवृन्दम्।
वाराणसीनाथमनाथनाथं
श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये॥11॥

अर्थ: –
जो स्वयं आनन्दकन्द हैं और
आनन्दपूर्वक आनन्दवन (काशीक्षेत्र) में वास करते हैं,
जो पापसमूहके नाश करनेवाले हैं,
उन अनाथोंके नाथ काशीपति श्रीविश्वनाथकी शरणमें मैं जाता हूँ॥11॥


काशी में स्थित श्री विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग

बारह ज्योतिर्लिंग

द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र

यह ज्योतिर्लिंग उत्तर भारत की प्रसिद्ध नगरी काशी में स्थित है।

गंगा तट स्थित काशी विश्वनाथ शिवलिंग दर्शन हिन्दुओं के लिए सबसे पवित्र है।

इस नगरी का प्रलयकाल में भी लोप नहीं होता।

उस समय भगवान्‌ अपनी वासभूमि इस पवित्र नगरी को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टिकाल आने पर पुनः यथास्थान रख देते है।

सृष्टि की आदि स्थली भी इसी नगरी को बताया जाता है।

भगवान्‌ विष्णु ने इसी स्थान पर सृष्टि-कामना से तपस्या करके भगवान्‌ शंकरजी को प्रसन्न किया था।

अगस्त्य मुनि ने भी इसी स्थान पर अपनी तपस्या द्वारा भगवान्‌ शिव को संतुष्ट किया था।

इस पवित्र नगरी की महिमा ऐसी है कि, यहां जो भी प्राणी अपने प्राण त्याग करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

भगवान्‌ शंकर उसके कान में तारक मंत्र का उपदेश करते हैं।

इस मंत्र के प्रभाव से पापी से पापी प्राणी भी सहज ही भवसागर की बाधाओं से पार हो जाते हैं।

विषयासक्तचित्तोऽपि त्यक्तधर्मरतिर्नरः।
इह क्षेत्रे मृतः सोऽपि संसारे न पुनर्भवेत्‌॥

अर्थात्‌ – विषयों में आसक्त, अधर्मी व्यक्ति भी यदि इस काशी क्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त हो तो उसे भी पुनः संसार बंधन में नहीं आना पड़ता।

मत्स्य पुराण में इस नगरी का महत्व बताते हुए कहा गया है –

“जप, ध्यान और ज्ञानरहित तथा दुःखों से पीड़ित मनुष्यों के लिए काशी ही एकमात्र परमगति है।

श्री विश्वनाथ के आनंद-कानन में दशाश्वमेध, लोलार्क, बिंदुमाधव, केशव और मणिकर्णिका- ये पाँच प्रश्न तीर्थ हैं। इसी से इसे अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है।”

जपध्यानविहीनानां ज्ञानवर्जितचेतसाम्‌।
ततो दुःखाहतानां च गतिर्वाराणसी नृणाम्‌॥

तीर्थानां पञ्चकं सारं विश्वेशानंदकानने।
दशाश्वमेधं लोलार्कः केशवो बिंदुमाधवः॥

पञ्चमी तु महाश्रेष्ठा प्रोच्यते मणिकर्णिका।
एभिस्तु तीर्थवर्यैश्च वर्ण्यते ह्यविमुक्तकम्‌॥

इस परम पवित्र नगरी के उत्तर की तरफ ओंकारखंड, दक्षिण में केदारखंड और बीच में विश्वेश्वरखंड है।

प्रसिद्ध विश्वनाथ-ज्योतिर्लिंग इसी खंड में स्थित है।

पुराणों में इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में यह कथा दी गई है-


श्री विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग की कथा

भगवान्‌ शंकर पार्वतीजी से विवाह करके कैलास पर्वत रह रहे थे।

लेकिन वहां पिता के घर में ही विवाहित जीवन बिताना
पार्वतीजी को अच्छा न लगता था।

एक दिन उन्होंने भगवान्‌ शिव से कहा –

आप मुझे अपने घर ले चलिए।

यहां रहना मुझे अच्छा नहीं लगता।

सारी लड़कियाँ शादी के बाद अपने पति के घर जाती हैं,
मुझे पिता के घर में ही रहना पड़ रहा है।

भगवान्‌ शिव ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली।

माता पार्वतीजी को साथ लेकर
अपनी पवित्र नगरी काशी में आ गए।

यहां आकर वे विश्वनाथ-ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए।

इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन-पूजन द्वारा
मनुष्य समस्त पापों-तापों से छुटकारा पा जाता है।

प्रतिदिन नियम से
श्री विश्वनाथ के दर्शन करने वाले
भक्तों के योगक्षेम का समस्त भार
भगवान शंकर अपने ऊपर ले लेते हैं।

ऐसा भक्त उनके परमधाम का अधिकारी बन जाता है।

भगवान्‌ शिवजी की कृपा उस पर सदैव बनी रहती है।


शिवपुराण में श्री विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग कथा

विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग और उनकी महिमाके प्रसंगमें पंचक्रोशीकी महत्ताका प्रतिपादन – शिवपुराण से

बारह ज्योतिर्लिंग

Shiv Stotra Aarti List

शिवपुराण के कोटिरुद्रसंहिता खंड के अध्याय 18 में श्री विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग के प्रादुर्भावकी कथा और उसकी महिमा दी गयी है।

सूतजी कहते हैं –

मुनिवरो! अब मैं काशीके विश्वेश्वर नामक ज्योतिर्लिंगका माहात्म्य बताऊँगा, जो महापातकोंका भी नाश करनेवाला है।

तुमलोग सुनो, इस भूतलपर जो कोई भी वस्तु दृष्टिगोचर होती है, वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निर्विकार एवं सनातन ब्रह्मरूप है।

अपने कैवल्य (अद्वैत)-भावमें ही रमनेवाले उन अद्वितीय परमात्मामें कभी एकसे दो हो जानेकी इच्छा जाग्रत् हुई।

फिर वे ही परमात्मा सगुणरूपमें प्रकट हो शिव कहलाये।

वे शिव ही पुरुष और स्त्री दो रूपोंमें प्रकट हो गये।

उनमें जो पुरुष था, उसका “शिव” नाम हुआ और जो स्त्री हुई, उसे “शक्ति” कहते हैं।

उन चिदानन्दस्वरूप शिव और शक्तिने स्वयं अदृष्ट रहकर स्वभावसे ही दो चेतनों (प्रकृति और पुरुष)-की सृष्टि की।

मुनिवरो! उन दोनों माता-पिताओंको उस समय सामने न देखकर वे दोनों प्रकृति और पुरुष महान् संशयमें पड़ गये।

उस समय निर्गुण परमात्मासे आकाशवाणी प्रकट हुई –

“तुम दोनोंको तपस्या करनी चाहिये।

फिर तुमसे परम उत्तम सृष्टिका विस्तार होगा।”

वे प्रकृति और पुरुष बोले –

“प्रभो! शिव! तपस्याके लिये तो कोई स्थान है ही नहीं।

फिर हम दोनों इस समय कहाँ स्थित होकर आपकी आज्ञाके अनुसार तप करें।”

तब निर्गुण शिवने तेजके सारभूत
पाँच कोस लंबे-चौड़े शुभ एवं सुन्दर नगरका निर्माण किया,
जो उनका अपना ही स्वरूप था।

वह सभी आवश्यक उपकरणोंसे युक्त था।

उस नगरका निर्माण करके उन्होंने उसे उन दोनोंके लिये भेजा।

वह नगर आकाशमें पुरुषके समीप आकर स्थित हो गया।

तब पुरुष – श्रीहरिने उस नगरमें स्थित हो सृष्टिकी कामनासे शिवका ध्यान करते हुए बहुत वर्षोंतक तप किया।

उस समय परिश्रमके कारण उनके शरीरसे श्वेत जलकी अनेक धाराएँ प्रकट हुईं, जिनसे सारा शून्य आकाश व्याप्त हो गया।

वहाँ दूसरा कुछ भी दिखायी नहीं देता था।

उसे देखकर भगवान् विष्णु मन-ही-मन बोल उठे –

यह कैसी अद्भुत वस्तु दिखायी देती है?

उस समय इस आश्चर्यको देखकर उन्होंने अपना सिर हिलाया,
जिससे उन प्रभुके सामने ही उनके एक कानसे मणि गिर पड़ी।

जहाँ वह मणि गिरी, वह स्थान मणिकर्णिका नामक महान् तीर्थ हो गया।

जब पूर्वोक्त जलराशिमें वह सारी पंचक्रोशी डूबने और बहने लगी,
तब निर्गुण शिवने शीघ्र ही उसे अपने त्रिशूलके द्वारा धारण कर लिया।

फिर विष्णु अपनी पत्नी प्रकृतिके साथ वहीं सोये।

तब उनकी नाभिसे एक कमल प्रकट हुआ और उस कमलसे ब्रह्मा उत्पन्न हुए।

उनकी उत्पत्तिमें भी शंकरका आदेश ही कारण था।

तदनन्तर उन्होंने शिवकी आज्ञा पाकर अद्भुत सृष्टि आरम्भ की।

ब्रह्माजीने ब्रह्माण्डमें चौदह भुवन बनाये।

ब्रह्माण्डका विस्तार महर्षियोंने पचास करोड़ योजनका बताया है।

फिर भगवान् शिवने यह सोचा कि
“ब्रह्माण्डके भीतर कर्मपाशसे बँधे हुए प्राणी मुझे कैसे प्राप्त कर सकेंगे?”

यह सोचकर उन्होंने मुक्तिदायिनी पंचक्रोशीको इस जगत्‌में छोड़ दिया।

“यह पंचक्रोशी काशी लोकमें कल्याणदायिनी, कर्मबन्धनका नाश करनेवाली, ज्ञानदात्री तथा मोक्षको प्रकाशित करनेवाली मानी गयी है।

अतएव मुझे परम प्रिय है।

यहाँ स्वयं परमात्माने “अविमुक्त” लिंगकी स्थापना की है।

अतः मेरे अंशभूत हरे! तुम्हें कभी इस क्षेत्रका त्याग नहीं करना चाहिये।”

ऐसा कहकर भगवान् हरने काशीपुरीको स्वयं अपने त्रिशूलसे उतार कर मर्त्यलोकके जगत्‌में छोड़ दिया।

ब्रह्माजीका एक दिन पूरा होनेपर जब सारे जगत्‌का प्रलय हो जाता है, तब भी निश्चय ही इस काशीपुरीका नाश नहीं होता।

उस समय भगवान् शिव इसे त्रिशूलपर धारण कर लेते हैं और जब ब्रह्माद्वारा पुनः नयी सृष्टि की जाती है, तब इसे फिर वे इस भूतलपर स्थापित कर देते हैं।

कर्मोंका कर्षण करनेसे ही इस पुरीको “काशी” कहते हैं।

काशीमें अविमुक्तेश्वरलिंग सदा विराजमान रहता है।

वह महापातकी पुरुषोंको भी मोक्ष प्रदान करनेवाला है।

मुनीश्वरो! अन्य मोक्षदायक धामोंमें सारूप्य आदि मुक्ति प्राप्त होती है।

केवल इस काशीमें ही जीवोंको सायुज्य नामक सर्वोत्तम मुक्ति सुलभ होती है।

जिनकी कहीं भी गति नहीं है, उनके लिये वाराणसी पुरी ही गति है।

महापुण्यमयी पंचक्रोशी करोड़ों हत्याओंका विनाश करनेवाली है।

यहाँ समस्त अमरगण भी मरणकी इच्छा करते हैं।

फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है।

यह शंकरकी प्रिय नगरी काशी सदा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है।

कैलासके पति, जो भीतरसे सत्त्वगुणी और बाहरसे तमोगुणी कहे गये हैं, कालाग्नि रुद्रके नामसे विख्यात हैं।

वे निर्गुण होते हुए भी सगुणरूपमें प्रकट हुए शिव हैं।

उन्होंने बारंबार प्रणाम करके निर्गुण शिवसे इस प्रकार कहा।

रुद्र बोले – विश्वनाथ! महेश्वर! मैं आपका ही हूँ, इसमें संशय नहीं है।

साम्ब महादेव! मुझ आत्मजपर कृपा कीजिये।

जगत्पते! लोकहितकी कामनासे आपको सदा यहीं रहना चाहिये।

जगन्नाथ! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ।

आप यहाँ रहकर जीवोंका उद्धार करें।

सूतजी कहते हैं –

तदनन्तर मन और इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले अविमुक्तने भी शंकरसे बारंबार प्रार्थना करके नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए ही प्रसन्नतापूर्वक उनसे कहा।

अविमुक्त बोले –

कालरूपी रोगके सुन्दर औषध देवाधिदेव महादेव! आप वास्तवमें तीनों लोकोंके स्वामी तथा ब्रह्मा और विष्णु आदिके द्वारा भी सेवनीय हैं।

देव! काशीपुरीको आप अपनी राजधानी स्वीकार करें।

मैं अचिन्त्य सुखकी प्राप्तिके लिये यहाँ सदा आपका ध्यान लगाये स्थिरभावसे बैठा रहूँगा।

आप ही मुक्ति देनेवाले तथा सम्पूर्ण कामनाओंके पूरक हैं? दूसरा कोई नहीं।

अतः आप परोपकारके लिये उमासहित सदा यहाँ विराजमान रहें।

सदाशिव! आप समस्त जीवोंको संसार-सागरसे पार करें।

हर! मैं बारंबार प्रार्थना करता हूँ कि आप अपने भक्तोंका कार्य सिद्ध करें।

सूतजी कहते हैं – ब्राह्मणो! जब विश्वनाथने भगवान् शंकरसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब सर्वेश्वर शिव समस्त लोकोंका उपकार करनेके लिये वहाँ विराजमान हो गये।

जिस दिनसे भगवान् शिव काशीमें आ गये, उसी दिनसे काशी सर्वश्रेष्ठ पुरी हो गयी।


वाराणसी तथा विश्वेश्वरका माहात्म्य – शिवपुराण से

सूतजी कहते हैं –

मुनीश्वरो! मैं संक्षेपसे ही वाराणसी तथा विश्वेश्वरके परम सुन्दर माहात्म्यका वर्णन करता हूँ, सुनो।

एक समयकी बात है कि पार्वतीदेवीने लोकहितकी कामनासे बड़ी प्रसन्नताके साथ भगवान् शिवसे अविमुक्त क्षेत्र और अविमुक्त लिंगका माहात्म्य पूछा।

तब परमेश्वर शिवने कहा – यह वाराणसीपुरी सदाके लिये मेरा गुह्यतम क्षेत्र है और सभी जीवोंकी मुक्तिका सर्वथा हेतु है।

इस क्षेत्रमें सिद्धगण सदा मेरे व्रतका आश्रय ले नाना प्रकारके वेष धारण किये मेरे लोकको पानेकी इच्छा रखकर जितात्मा और जितेन्द्रिय हो नित्य महायोगका अभ्यास करते हैं।

उस उत्तम महायोगका नाम है पाशुपत योग।

उसका श्रुतियोंद्वारा प्रतिपादन हुआ है।

वह भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाला है।

महेश्वरि! वाराणसीपुरीमें निवास करना मुझे सदा ही अच्छा लगता है।

जिस कारणसे मैं सब कुछ छोड़कर काशीमें रहता हूँ, उसे बताता हूँ, सुनो।

जो मेरा भक्त तथा मेरे तत्त्वका ज्ञानी है, वे दोनों अवश्य ही मोक्षके भागी होते हैं।

उनके लिये तीर्थकी अपेक्षा नहीं है।

विहित और अविहित दोनों प्रकारके कर्म उनके लिये समान हैं।

उन्हें जीवन्मुक्त ही समझना चाहिये।

वे दोनों कहीं भी मरें, तुरंत ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।

यह मैंने निश्चित बात कही है।

सर्वोत्तमशक्ति देवी उमे! इस परम उत्तम अविमुक्त तीर्थमें जो विशेष बात है, उसे तुम मन लगाकर सुनो।

सभी वर्ण और समस्त आश्रमोंके लोग चाहे वे बालक, जवान या बूढ़े, कोई भी क्यों न हों – यदि इस पुरीमें मर जायँ तो मुक्त हो ही जाते हैं, इसमें संशय नहीं है।

स्त्री अपवित्र हो या पवित्र, कुमारी हो या विवाहिता, विधवा हो या वन्ध्या, रजस्वला, प्रसूता, संस्कारहीना अथवा जैसी-तैसी – कैसी ही क्यों न हो, यदि इस क्षेत्रमें मरी हो तो अवश्य मोक्षकी भागिनी होती है – इसमें संदेह नहीं है।

स्वेदज, अण्डज, उद्‌भिज्ज अथवा जरायुज प्राणी जैसे यहाँ मरनेपर मोक्ष पाता है, वैसे और कहीं नहीं पाता।

देवि! यहाँ मरनेवालेके लिये न ज्ञानकी अपेक्षा है न भक्तिकी; न कर्मकी आवश्यकता है न दानकी; न कभी संस्कृतिकी अपेक्षा है और न धर्मकी ही; यहाँ नामकीर्तन, पूजन तथा उत्तम जातिकी भी अपेक्षा नहीं होती।

जो मनुष्य मेरे इस मोक्षदायक क्षेत्रमें निवास करता है, वह चाहे जैसे मरे, उसके लिये मोक्षकी प्राप्ति सुनिश्चित है।

प्रिये! मेरा यह दिव्य पुर गुह्यसे भी गुह्यतर है।

ब्रह्मा आदि देवता भी इसके माहात्म्यको नहीं जानते।

इसलिये यह महान् क्षेत्र अविमुक्त नामसे प्रसिद्ध है; क्योंकि नैमिष आदि सभी तीर्थोंसे यह श्रेष्ठ है।

यह मरनेपर अवश्य मोक्ष देनेवाला है।

धर्मका सार सत्य है, मोक्षका सार समता है तथा समस्त क्षेत्रों एवं तीर्थोंका सार यह “अविमुक्त” तीर्थ (काशी) है – ऐसी विद्वानोंकी मान्यता है।

इच्छानुसार भोजन, शयन, क्रीड़ा तथा विविध कर्मोंका अनुष्ठान करता हुआ भी मनुष्य यदि इस अविमुक्त तीर्थमें प्राणोंका परित्याग करता है तो उसे मोक्ष मिल जाता है।

जिसका चित्त विषयोंमें आसक्त है और जिसने धर्मकी रुचि त्याग दी है, वह भी यदि इस क्षेत्रमें मृत्युको प्राप्त होता है तो पुनः संसार-बन्धनमें नहीं पड़ता।

फिर जो ममतासे रहित, धीर, सत्त्वगुणी, दम्भहीन, कर्मकुशल और कर्तापनके अभिमानसे रहित होनेके कारण किसी भी कर्मका आरम्भ न करनेवाले हैं, उनकी तो बात ही क्या है।

वे सब मुझमें ही स्थित हैं।

इस काशीपुरीमें शिवभक्तोंद्वारा अनेक शिवलिंग स्थापित किये गये हैं।

पार्वति! वे सम्पूर्ण अभीष्टोंको देनेवाले और मोक्षदायक हैं।

चारों दिशाओंमें पाँच-पाँच कोस फैला हुआ यह क्षेत्र “अविमुक्त” कहा गया है, यह सब ओरसे मोक्षदायक है।

जीवको मृत्युकालमें यह क्षेत्र उपलब्ध हो जाय तो उसे अवश्य मोक्षकी प्राप्ति होती है।

यदि निष्पाप मनुष्य काशीमें मरे तो उसका तत्काल मोक्ष हो जाता है और जो पापी मनुष्य मरता है, वह कायव्यूहोंको प्राप्त होता है।

उसे पहले यातनाका अनुभव करके ही पीछे मोक्षकी प्राप्ति होती है।

सुन्दरि! जो इस अविमुक्त क्षेत्रमें पातक करता है, वह हजारों वर्षोंतक भैरवी यातना पाकर पापका फल भोगनेके पश्चात् ही मोक्ष पाता है।

शतकोटि कल्पोंमें भी अपने किये हुए कर्मका क्षय नहीं होता।

जीवको अपने द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्मका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।

केवल अशुभ कर्म नरक देनेवाला होता है, केवल शुभ कर्म स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला होता है तथा शुभ और अशुभ दोनों कर्मोंसे मनुष्ययोनिकी प्राप्ति बतायी गयी है।

अशुभ कर्मकी कमी और शुभ कर्मकी अधिकता होनेपर उत्तम जन्म प्राप्त होता है।

शुभ कर्मकी कमी और अशुभ कर्मकी अधिकता होनेपर यहाँ अधम जन्मकी प्राप्ति होती है।

पार्वति! जब शुभ और अशुभ दोनों ही कर्मोंका क्षय हो जाता है, तभी जीवको सच्चा मोक्ष प्राप्त होता है।

यदि किसीने पूर्वजन्ममें आदरपूर्वक काशीका दर्शन किया है, तभी उसे इस जन्ममें काशीमें पहुँचकर मृत्युकी प्राप्ति होती है।

जो मनुष्य काशी जाकर गंगामें स्नान करता है, उसके क्रियमाण और संचित कर्मका नाश हो जाता है।

परंतु प्रारब्ध कर्म भोगे बिना नष्ट नहीं होता, यह निश्चित बात है।

जिसकी काशीमें मुक्ति हो जाती है, उसके प्रारब्ध कर्मका भी क्षय हो जाता है।

प्रिये! जिसने एक ब्राह्मणको भी काशीवास करवाया है, वह स्वयं भी काशीवासका अवसर पाकर मोक्ष लाभ करता है।

सूतजी कहते हैं – मुनिवरो! इस तरह काशीका तथा विश्वेश्वरलिंगका प्रचुर माहात्म्य बताया गया है, जो सत्पुरुषोंको भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है।

इसके बाद मैं त्र्यम्बक नामक ज्योतिर्लिंगका माहात्म्य बताऊँगा, जिसे सुनकर मनुष्य क्षणभरमें समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है।


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