भगवान् शिवने यक्षरूपसे अवतार धारण किया था। भगवान्का यह यक्षावतार अभिमानियोंके अभिमानको दूर करनेवाला तथा साधु पुरुषोंके लिये भक्तिको बढ़ानेवाला है।
एक बारकी बात है, समुद्र-मंथनके बाद जब अमृत निकला तो उसका पानकर देवताओंने असुरोंपर विजय प्रात कर ली और इस खुशीमें वे उन्मत्त हो उठे तथा शिव-आराधनाको भूल बैठे। उन्हें यह अभिमान हो आया कि हम ही सर्वशक्तिमान् हैं।
भक्तको भक्तिका व साधनाका मिथ्याभिमान हो जाय तो वह पतनका मार्ग हो जाता है। इसलिए भगवान ने देवताओंके मिथ्या गर्वको दूर करनेके लिये “यक्ष” नामक अवतार धारण किया और वे लीला करनेके लिये इसी यक्षरूपसे देवताओंके समीप जा पहुँचे।
वहाँ भगवान्ने पूछा कि आप सब लोग एकत्र होकर यहाँ क्या कर रहे हैं, तो सभी देवता समुद्रा-मंथनके संदर्भमें अपना-अपना पराक्रम बढ़-चढ़कर सुनाने लगे और कहने लगे कि हमारी ही शक्तिसे असुर पराजित होकर भाग गये।
देवताओंके उन अभिमान-भरे वचनोंको सुनकर यक्षरूपी महादेवने कहा – देवताओ! आपको गर्व करना ठीक नहीं; कर्ताहर्ता तो कोई दूसरा ही देव है, आप लोग उन महेश्वरको भूलकर व्यर्थ ही अपने बलका अभिमान कर रहे हैं। यदि आप अपनेको महान् बली समझते हों तो यह एक “तृण” (तिनका) है, इसे आप तोड़कर दिखायें, ऐसा यक्षावतारी शिवने लीला करते हुए अपने तेजसे सम्पत्र तृण (तिनका) उनके पास फेंका और उसे तोड़नेके लिये कहा।
इन्द्रादि सभी देवताओंने प्रथम तो पृथक्पृथक् फिर मिलकर अनेक अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग कर अपनी शक्ति लगा दी, पर उस रुद्रतेज-सम्पत्र तृणको (तिनकेको) तोड़नेमें वे समर्थ न हो सके। भला, जब स्वयं शिव ही लीला कर रहे थे तो उस लीलाको उनकी कृपाके बिना कौन समझ सके? देवता हतप्रभ हो गये।
उसी समय आकाशवाणी हुई, जिसे सुनकर देवताओंको बड़ा विस्मय हुआ। आकाशवाणीमें कहा गया – “अरे देवो! भगवान् शंकर ही परम शक्तिमान् हैं, वे ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। उनके बलसे ही सभी बलवान् हैं, उनकी लीला अपरम्पार है, उनकी लीलासे ही आप लोग मोहित हैं, आप सभी उन्हींकी शरण ग्रहण करें।”
यह सुनकर देवता लोग यक्षावतारी शिवको पहचान सके और अनेक प्रकारसे
उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान् शिवने अपने यक्षरूपका परित्याग करके शिवरूप धारण किया, जिसका दर्शनकर देवताओंको बड़ा आनन्द हुआ। ( शिवपुराण)