(दुर्गा सप्तशती अध्याय १ से )
कल्प (प्रलय) के अन्त में
सम्पूर्ण जगत् जल में डूबा हुआ था।
सबके प्रभु भगवान विष्णु,
शेषनाग की शय्या बिछाकर
योगनिद्रा का आश्रय ले शयन कर रहे थे।
उस समय उनके कानों की मैल से
दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए,
जो मधु और कैटभ के नाम से विख्यात थे।
वे दोनों ब्रह्मा जी का वध करने को तैयार हो गये।
प्रजापति ब्रह्माजी ने
जब उन दोनों भयानक असुरों को,
अपने पास आया और भगवान को सोया हुआ देखा,
तो सोचा की मुझे कौन बचाएगा।
एकाग्रचित्त होकर ब्रम्हाजी,
भगवान विष्णु को जगाने के लिए,
उनके नेत्रों में निवास करने वाली
योगनिद्रा की स्तुति करने लगे,
जो विष्णु भगवान को सुला रही थी।
जो इस विश्व की अधीश्वरी,
जगत को धारण करने वाली,
संसार का पालन और संहार करने वाली
तथा तेज:स्वरूप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति हैं,
उन्हीं भगवती निद्रादेवी की भगवान ब्रह्मा स्तुति करने लगे।
ब्रह्मा जी ने कहा –
देवि तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तम्ही वषट्कार हो।
स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं।
तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो।
नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार –
इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो
तथा इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है,
जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो।
देवी! तुम्हीं संध्या, सावित्री
तथा परम जननी हो।
देवी! तुम्हीं इस विश्व ब्रह्माण्ड को धारण करती हो।
तुम से ही इस जगत की सृष्टि होती है।
तुम्हीं से इसका पालन होता है और
सदा तुम्ही कल्प के अंत में सबको अपना ग्रास बना लेती हो।
जगन्मयी देवि!
इस जगत की उत्पप्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो,
पालन-काल में स्थितिरूपा हो तथा
कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।
तुम्हीं महाविद्या, महामाया,
महामेधा, महास्मृति, महामोह रूपा,
महादेवी और महासुरी हो।
तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो।
भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और
मोहरात्रि भी तुम्हीं हो।
तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्रीं और
तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो।
लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और
क्षमा भी तुम्हीं हो।
तुम खङ्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा
तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो।
बाण, भुशुण्डी और परिघ – ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं।
तुम सौम्य और सौम्यतर हो;
इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं,
उन सबकी अपेक्षा तुम अत्याधिक सुन्दरी हो।
पर और अपर और
सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो।
सर्वस्वरूपे देवि!
कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और
उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो।
ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है।
जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं,
उन भगवान को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है,
तो तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है।
मुझको, भगवान शंकर को
तथा भगवान विष्णु को भी
तुमने ही शरीर धारण कराया है।
अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है।
देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो।
ये जो दोनों दुर्घर्ष असुर मधु और कैटभ हैं,
इनको मोह में डाल दो और
जगदीश्वर भगवान विष्णु को शीघ्र ही जगा दो।
साथ ही इनके भीतर,
इन दोनों असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो।
जब ब्रह्मा जी ने वहाँ मधु और कैटभ को मारने के उद्देश्य से,
भगवान विष्णु को जगाने के लिए,
तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा की इस प्रकार स्तुति की,
तब वे भगवान के नेत्र, मुख, नासिका,
बाहु, हृदय और वक्ष स्थल से निकलकर, अव्यक्तजन्मा
ब्रह्माजी की दृष्टि के समक्ष खडी हो गयी।
योगनिद्रा से मुक्त होने पर
जगत के स्वामी भगवान जनार्दन,
उस एकार्णव के जल में शेषनाग की शय्या से जाग उठे।
फिर उन्होंने उन दोनों असुरों को देखा।
वे दुरात्मा मधु और कैटभ अत्यन्त बलवान तथा परक्रमी थे और
क्रोध से ऑंखें लाल किये ब्रह्माजी को खा जाने के लिये उद्योग कर रहे थे।
तब भगवान श्री हरि ने उठकर उन दोनों के साथ
पाँच हजार वर्षों तक केवल बाहु युद्ध किया।
वे दोनों भी अत्यन्त बल के कारण उन्मत्त हो रहे थे।
तब महामाया ने उन्हें (असुरो को) मोह में डाल दिया।
और वे भगवान विष्णु से कहने लगे –
हम तुम्हारी वीरता से संतुष्ट हैं।
तुम हम लोगों से कोई वर माँगो।
श्री भगवान् बोले – यदि तुम दोनों मुझ पर प्रसन्न हो
तो अब मेरे हाथ से मारे जाओ।
बस, इतना सा ही मैंने वर माँगा है।
यहाँ दूसरे किसी वर से क्या लेना है।
दैत्योको को अब अपनी भूल मालूम पड़ी।
उन्होंने देखा की सब जगह पानी ही पानी है
और कही भी सुखा स्थान नहीं दिखाई दे रहा है।
(कल्प – प्रलय के अन्त में सम्पूर्ण जगत् जल में डूबा हुआ था।)
इसलिए उन्होंने कमलनयन भगवान से कहा –
जहाँ पृथ्वी जल में डूबी हुई न हो,
जहाँ सूखा स्थान हो,
वहीं हमारा वध करो।
ऋषि कहते हैं- तब तथास्तु कहकर,
शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान ने
उन दोनों के मस्तक अपनी जाँघ पर रखकर चक्रसे काट डाले।
इस प्रकार देवी महामाया महाकाली,
ब्रह्माजी की स्तुति करने पर स्वयं प्रकट हुई थीं।
(दुर्गा सप्तशती अध्याय १ से )
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