गणेश पुराण – सप्तम खण्ड – अध्याय – 5


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गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)


मूषक गणेश का वाहन

गजमुख धीरे-धीरे बढ़ने लगे।

उन्होंने नौ वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते सभी वेद-वेदाङ्ग, उपनिषद्, स्मृति, नीति-शास्त्र, धर्म-शास्त्र पुराणादि का अध्ययन कर लिया और सभी विद्याओं में पारंगत हो गये।

उनकी बाल-क्रीड़ाओं को देख-देखकर समस्त ऋषि-मुनि और उनकी पत्नियों को बड़ी प्रसन्नता होती थी।उनकी क्रीड़ाओं में भाग लेने वाले मुनिकुमारों को उनके नेतृत्व में आनन्द आता था और वे समर्पित सेवक के समान उनके आदेशों का पालन करते थे।

इस प्रकार भगवान् गजानन सभी ऋषियों, ऋषि-पत्नियों और ऋषिकुमारों के प्रीतिभाजन बने हुए थे।

उधर सिन्दूरासुर के अत्याचार बढ़ रहे थे।

उसके भय से देवता, ऋषि-मुनि, सदाचारी, भक्त तथा साध्वी स्त्रियाँ घर छोड़ अन्यत्र छिपे रहते थे।

उसने यज्ञादि कर्म करने वालों को दण्ड देना अपना कर्त्तव्य मान रखा था।

लूट-खसोट बढ़ रही थी, हत्याएँ करने में किसी को भय नहीं होता था।

स्त्रियों का अपहरण साधारण-सी बात थी।धन, सम्मान और धर्म किसी का भी सुरक्षित न था।

असुर की आज्ञा थी कि राजाज्ञा ही सर्वोपरि है।

शास्त्रादि सभी कुछ राजाज्ञा में ही निहित हैं।

ईश्वर कोई नहीं, केवल राजा ही ईश्वर है।

उसी की पूजा होनी चाहिए।

जो लोग राजा को प्रसन्न नहीं रख सकते उन्हें जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है।’जिसने उसके इस सिद्धान्त को अमान्य किया, उन राजद्रोहियों को सीधे प्राणदण्ड की व्यवस्था थी।

इसलिए खुलकर तो कोई भी राजाज्ञा का निरादर करता ही न था, कभी कोई परोक्ष में भी आज्ञा का निरादर नहीं कर पाता था।

भूल से जो सत्यप्रिय एवं धर्मज्ञ व्यक्ति वैसा कर भी बैठे तो तुरन्त कारागृह में डाल दिये गए अथवा अनेकों के प्राण ले लिये गए।

प्रजाजनों, मुनियों आदि की गतिविधियों पर कड़ी दृष्टि रखी जाने लगी।

न जाने कितने गुप्तचर केवल इसी कार्य पर लगे थे।

राजा के समक्ष जाकर वे झूठ-सच जो कुछ भी कह देते वह सब विश्वसनीय माना जाता था।

जब घोर अत्याचार बढ़े तो विश्व काँप उठा।

सभी प्राणी त्रसित हो कहे थे।

मांस-मदिरा का जोर बढ़ने के कारण असंख्य जीवों की हत्या हो चुकी थी।

हजारों दुधमुहे अबोध बालकों को काल के गाल में डाल दिया गया था।

महिलाएँ अपनी निधि को सुरक्षित रख सकने में असमर्थ हो रही थीं।

यह सब सम्वाद समय-समय पर पराशर-आश्रम में भी पहुँचते रहते थे।


गजानन का युद्ध के लिए प्रस्थान करना

एक दिन कुछ ब्राह्मणों ने सिन्दूरासुर की निर्दयता और अधिक क्रूरता की बात वहाँ आकर सुनाई तो भगवान् गजानन अधिक अधीर हो गए और उन्होंने विचार किया कि ‘किसी प्रकार संसार को भयंकर त्रास से बचाना ही होगा’ अतः वे महर्षि के समीप आकर और चरणों में प्रणाम कर कहने लगे- ‘पूज्य पिताजी! दुष्ट सिन्दूरासुर के अत्याचारों के विषय में यहाँ कभी-कभी ही समाचार आ पाते हैं।

किन्तु, वे सब इतने दुखद होते हैं कि सुनकर चित्त काँप उठता है।

वस्तुतः उसके अत्याचारों से मुक्त होने का तब तक कोई उपाय नहीं हो सकता, जब तक उसपर शासन करने और उसे दण्ड देने में सक्षम व्यक्ति उसे न रोके।

जब तक उसे रोका नहीं जायेगा, तब तक सभी सदाचार-परायण जन पीड़ित ही होते रहेंगे।’

महर्षि अपने लाड़ले पुत्र का अभिप्राय समझ न पाये।

उन्होंने सोचा- ‘जैसे अन्य सब लोग सामयिक चर्चाओं में भाग लिया करते हैं, वैसे ही यह भी ले रहा है।

अच्छा है, ऐसी चर्चाओं में भाग लेने से योग्यता बढ़ती है और व्यक्तित्व भी निखरता है।’

इसलिए उन्होंने पुत्र को प्रोत्साहन देते हुए उसका समर्थन किया ‘ठीक कहते हो पुत्र! जब तक दैत्यराज के कार्यों में अवरोध उत्पन्न नहीं होगा, तब तक सदाचारी जनों की पीड़ा बढ़ती ही जायेगी और कभी-न-कभी कोई सक्षम पुरुष उसको वश में करेगा ही।

क्योंकि संसार में जब अत्याचारियों के अत्याचार बढ़ जाते हैं, तब कोई अवतारी पुरुष अवश्य प्रकट होता है।’

गजानन ने विनम्रता से कहा- ‘प्रभो! यदि आप आज्ञा दें तो यह कार्य मैं कर सकता हूँ।

वस्तुतः उसके द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों को सुनकर मैं व्याकुल हो रहा हूँ।

आप अपना वरद-हस्त मेरे मस्तक पर रखकर आशीर्वाद दें, जिससे कि संसार के उपकार का यह पवित्रतम कार्य करने में समर्थ हो सकूँ।’

गजानन की बात सुनकर महर्षि को हँसी आ गई और फिर उत्साह देखकर कुछ आनन्द भी हुआ।

फिर उन्होंने स्नेहसिक्त वचनों में उन्हें समझाते हुए कहा – ‘पुत्र! तेरा सोचना तो ठीक है, किन्तु तेरी आयु अभी नौ वर्ष की है।

बाल-सुलभ क्रीड़ा वाला स्वभाव और सुकुमार शरीर धरती पर रहकर चन्द्रमा को छूने के कुलावे तो भिड़ा सकता है, किन्तु वहाँ पहुँच नहीं सकता।

बेटा! सिन्दूरासुर विशालकाय एवं असीमित बल से सम्पन्न है।

वह ब्रह्माजी से वर प्राप्त होने के कारण अजेय भी हो रहा है।

इसलिए उसे तो कोई अत्यन्त शक्तिशाली पूर्ण वयस् पुरुष ही मार सकेगा।’महर्षि की बात सुनकर गजमुख ने पुनः विनम्र भाव से निवेदन किया- ‘महर्षे! मुनिनाथ! आप मेरे परम पूजनीय हैं, आपसे अपने विषय में अधिक कहना कुछ उचित नहीं होगा।

मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि असुर का वध मैं अवश्य ही कर डालूँगा।

आप आशीर्वाद तो दीजिए मुझे।’

मुनि ने शंका व्यक्त की- ‘पुत्र! मेरे हृदय! जिस सिन्दूरासुर के गर्जन मात्र से सब दिशाएँ काँप जाती हैं, जिसके पदाघात से त्रिभुवन में हाहाकार मच जाता है, उस अपरिमित पराक्रम वाले असुर से केवल मेरे आशीर्वाद से ही युद्ध करना चाहते हो तो वह सदैव तुम्हारे साथ ही है।

किन्तु केवल आशीर्वाद से ही काम चल जाता तो सिन्दूरासुर क्या, किसी भी दुष्ट का ऐसा साहस न होता कि उससे समस्त विश्व ही त्रसित हो सकता।’

गजानन ने अपने पालक पिता को विश्वास दिलाने के लिए घोर गर्जन किया, जिसे सुनकर समस्त संसार काँप उठा।

देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, किन्नर, यक्षादि सभी भयभीत हो गए।

अनेक पर्वत शिखर और वृक्ष धराशायी हो गए।

यहाँ तक कि सिन्दूरासुर भी सोचने लगा कि यह क्या है? ऐसा प्रलयंकारी शब्द तो पहिले कभी सुना ही न था।’

प्रकृतिस्थ होकर उन्होंने पुनः हाथ जोड़कर निवेदन किया- ‘ऋषिश्रेष्ठ! मेरा प्राकट्य ही सिन्दूरासुर एवं उसके साथी दैत्यों को मारकर पृथ्वी का भार हल्का करने के लिए हुआ है।

मैं अवश्य ही उस राक्षसराज को मारकर ऋषि-मुनियों का हित साधन करूँगा।

वह मेरे हाथों अवश्य ही मारा जायेगा।

केवल आपकी आज्ञा और आशीर्वाद का सम्बल मेरे साथ रहने से यह कार्य सहज ही सम्पन्न हो जायेगा।’

महर्षि को विश्वास हो गया।

फिर उन्हें ज्ञात हुआ-‘अरे, यह तो पूर्ण परमात्मा हैं, इनकी शंका कैसी? मैं मोहवश इनके कार्य में व्यर्थ ही व्यवधान डाल रहा हूँ।’

फिर उन्होंने गजमुख को हृदय से लगाया और उनके मस्तक पर वरदहस्त रखते हुए शुभकामना व्यक्त की- ‘पुत्र! भगवान् चन्द्रचूड़ तुम्हें विजय प्राप्त करावें।

मेरा आशीर्वाद है कि राक्षसराज सिन्दूर को मारने में तुम्हें सफलता प्राप्त हो।’

ऐसा कहकर महर्षि स्नेहवश उनके मस्तक पर बहुत देर तक हाथ फेरते रहे।

गजानन ने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और माता से आज्ञा माँगी – ‘माता! मुझे आज्ञा और आशीर्वाद दो कि मैं अधर्म के नाश और धर्म की स्थापना में समर्थ हो सकूँ।’

वत्सला की आँखों में आँसू आ गए।

नौ वर्ष तक लाड़-प्यार से पाले हुए पुत्र का वियोग उसे व्याकुल करने लगा।

उसने किसी प्रकार समझाने का प्रयत्न किया – ‘प्राणप्रिय पुत्र! मेरे गजानन! कहाँ तू छोटा-सा बालक और कहाँ वह त्रैलोक्य विजेता राक्षस? भला कौन ऐसी निष्ठुर माता होगी जो अपने पुत्र को स्वयं जम्बूक के समक्ष फेंक दे? मेरे लाल! अभी समर्थ हो जाओ, तब जो चाहो वही करना।’

गजानन ने विनीत भाव से कहा- ‘माता! आपका आशीर्वाद ही मुझे समर्थ बना देगा।

अब उस राक्षस का अन्त समय निकट आ गया है, इसलिए मुझे आज्ञा देने की कृपा कीजिए।’

ऋषि-पत्नी ने उनके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- ‘पुत्र! मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है।

मैं तुझे अभीष्ट पूर्ति के लिए जाने की आज्ञा देती हूँ और कामना करती हूँ कि अवश्य ही विजय प्राप्त हो।’

तदुपरान्त गजानन ने महर्षि पराशर और माता वत्सला को प्रणाम किया और उपस्थित ऋषि-समुदाय को भी नमस्कार कर मूषक पर आरूढ़ हुए और चलते समय भयंकर गर्जना की, जिससे तीनों लोक काँप उठे।

उनका तेजस्वी मुखमण्डल अग्नि-ज्वाला के समान देदीप्यमान हो रहा था।


सिन्दूरासुर का भगवान् गजानन के साथ युद्ध

सिन्दूरासुर की राजधानी का नाम सिन्दूरबाड़ था।

यह स्थान घृसृणेश्वर के निकट है।

राक्षसराज वहीं रहता हुआ तीन लोकों पर शासन कर रहा था।

गजानन पराशर आश्रम से वायुवेग से चलते हुए सिन्दूरबाड़ के उत्तर की ओर आकर सिंह गर्जना करने लगे, जिसके फलस्वरूप भूकम्प आ गया।

समूची नगरी त्राहि-त्राहि कर उठी।

समुद्र में आकाश तक जाने वाली तरंगें उठने लगीं।

उस स्थिति से अनेक वीर मूच्छित हो गये।

यहाँ तक कि सिन्दूरासुर भी मूच्छित हो गया।

दैत्यराज को चेत हुआ तो वह सोचने लगा कि ऐसा कौन वीर यहाँ आ गया, जिसकी भयंकर गर्जना से मैं भी मूच्छित हो गया! उसने अपने अनुचरों को आज्ञा की ‘जाओ, उसका पता लगाओ जो यहाँ आकर गर्जना कर रहा है।

यदि ला सको तो साथ ही पकड़कर मेरे सामने ले आओ।’

अनुचर दौड़े।

उन्होंने बाहर जाकर गजानन का अत्यन्त भयंकर और अद्भुत रूप देखा तो भय से काँप उठे।

फिर कुछ साहस कर उनके कुछ निकट पहुँचकर बोले- ‘अरे! तुम कौन हो? अभी तो नौ-दस वर्ष के छोटे से बालक ही प्रतीत होते हो।

क्या तुम्हें महापराक्रमी, त्रैलोक्य विजयी असुरराज सिन्दूर की शक्ति का ज्ञान नहीं है, जो उनके राज्य की सीमा पर ऐसी गर्जना कर रहे हो?’

गजमुख ने क्रोधपूर्ण मुद्रा में कहा-‘दैत्यो! मुझे तुम्हारे स्वामी की शक्ति का भली प्रकार से पता है और मैं उसी का वध करने के उद्देश्य से यहाँ आया हूँ।

मैं शिव-शिवा का पुत्र गजानन हूँ।

तुम सभी अधर्मी राक्षसों को मारकर संसार में धर्म की स्थापना करूँगा।

जाओ, मेरा यह संदेश अपने राजा से कह दो।’

अनुचरों ने अपने स्वामी की सेवा में उपस्थित होकर कहा- ‘राजेन्द्र! बाहर जो गर्जन कर रहा है वह शिव-शिवा का पुत्र गजानन है।

उसकी आयु अभी नौ-दस वर्ष से अधिक नहीं होगी।

वह आप जैसे महाबली से युद्ध करने, दैत्यवंश का नाश करने और मुनियों की रक्षा करने के लिए ही यहाँ आ गया है।

हमें आश्चर्य है कि मच्छर के समान मूर्ख बालक आप जैसे अद्वितीय वीर के समक्ष कैसे टिकेगा?’

सिन्दूर ने अनुचरों से उक्त संवाद सुना तो आकाशवाणी का स्मरण हो गया।

किन्तु फिर सँभलकर क्रोध करता हुआ उठा और अहंकार- पूर्वक बोला- ‘अरे! वह छोटा-सा बालक बात-ही-बात में मसल डाला जायेगा! उस बेचारे की क्या विसात है, जब बड़े-बड़े भूपाल मेरे कारागार में पड़े सड़ रहे हैं।

अनेकों राजा और देवता अपने-अपने प्राणों की रक्षा के लिए निविड़ अरण्यों और गिरि-कन्दराओं में जा छिपे हैं।’

फिर उसने घोर गर्जना की और युद्ध के लिए तैयार होने लगा।

तभी उसके अमात्यों ने निवेदन किया ‘महाराज! उस छोटे से बालक के साथ आप स्वयं युद्ध करेंगे? स्वामिन्! फिर आपकी यह विशाल सेना किस उपयोग में आयेगी जो बहुत समय से युद्ध का अवसर न आने के कारण निष्क्रिय बैठी रही है? आप अपने किसी एक सेनापति को आज्ञा दीजिए कि वह कुछ सेना साथ लेकर उस मुनि-बालक को पकड़ लाये अथवा वहीं मार दे।

यदि हमें आज्ञा हो तो हम जायें।

अकेले बालक को वश में करने के लिए तो किसी सेना की भी आवश्यकता नहीं प्रतीत होती।’

सिन्दूर ने अमात्यों के विचार का आदर और वीरता की प्रशंसा करने के पश्चात् कहा- ‘वीरो! यद्यपि यह कार्य आप लोगों के द्वारा सहज में हो सकता था, किन्तु उस अहंकारी एवं दुराग्रही बालक को अपने हाथ से ही दण्ड देने का मैंने निश्चय किया है।

इसलिए मैं स्वयं ही वहाँ जा रहा हूँ।’


युद्ध में सिन्दूरासुर का मारा जाना

यह कहकर दैत्यराज शीघ्रता से गजानन के. समक्ष जा पहुँचा और बोला- ‘अरे मूर्ख बालक! तू तो ऐसा गर्जन कर रहा है, जैसे तीनों लोकों को खा जायेगा।

किन्तु, तू जानता नहीं कि मैंने तीनों लोकों को जीत लिया और ब्रह्मा, विष्णु, शिव सभी को वशीभूत कर लिया है? फिर भी तू सुकुमार बालक है, तुझसे युद्ध करना मेरे लिए शोभा की बात नहीं है।

अतएव तू अपनी माता की गोद में बैठकर दुग्धपान कर, व्यर्थ विवाद कर अपने प्राणों से क्यों हाथ धोना चाहता है?’

nmगजानन ने अट्टहास किया और फिर बोले- ‘राक्षस! तू अवश्य ही नीतिकुशल प्रतीत होता है।

परन्तु क्या तू नहीं जानता कि अग्नि की एक सामान्य चिंगारी समूचे नगर को भस्म करने में समर्थ है।

मैं अल्प बालक होकर भी तीनों लोकों को अकेला ही जीत सकता हूँ।

मेरा प्राकट्य समस्त दैत्यों का संहार कर मुनिजनों को स्वच्छन्द करने के लिए हुआ है।

मैं अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करूँगा, फिर भी मैं तुझे एक प्रतिज्ञा करने पर छोड़ सकता हूँ कि तू अपने जीवन भर सदाचारी, धर्मरत मुनि-ब्राह्मणों का पूजन, सृष्टि के सभी प्राणियों के प्रति दया रखने वाला, न्यायवान् और प्रजापालक रहेगा।

किसी की हिंसा नहीं करेगा तथा बन्दी नरेशों को तुरन्त मुक्त कर देगा।

इस प्रकार की प्रतिज्ञा करता हुआ तू मेरी शरण में आ, अन्यथा तू अपना काल समीप आया जान।’

यह कहकर भगवान् गजानन ने उसे अपने विराट् रूप का दर्शन कराया।

उनका सिर आकाश से जा लगा और चरण पाताल में प्रविष्ट हो गए।

दशों-दिशाएँ कानों से आच्छादित हो गईं।

विशाल भुजाओं का कहीं अन्त दिखाई नहीं देता था।

उनके सहस्त्र शीश, सहस्त्र नेत्र, सहस्त्र भुजाएँ और सहस्त्र चरण थे।

उनके शरीर पर दिव्य वस्त्रालंकार एवं दिव्य गन्ध लगी थी।

उनका मुखमण्डल करोड़ों सूर्यो के समान दमक रहा था।

गजानन के उस रूप को देखकर सिन्दूरासुर भौंचक्का रह गया और भयभीत होकर पीछे हटा।

किन्तु तुरन्त कुछ सँभलकर आगे बढ़ा और खड्ग खींचकर उनपर प्रहार करने के लिए प्रस्तुत हुआ ही था कि परमात्मा विनायकदेव ने उसका गला पकड़ते हुए उच्चस्वर में कहा- ‘अरे

मूर्ख! तू अब भी मेरे दुर्लभ रूप को न जान सका।

अब तेरा काल ही आ गया तो मैं क्या करूँ?’

वे उसके कण्ठ को अपने वज्रसदृश हाथों से भींचने लगे।

इस प्रकार उसके नेत्र बाहर निकल आये, जिह्वा लटक गई और प्राणपखेरू उड़ गए! गजानन भगवान् ने उसका लाल रक्त अपने दिव्य शरीर पर लगा लिया।

इस कारण वे ‘सिन्दूरप्रिय’ या ‘सिन्दूरवदन’ नाम से प्रसिद्ध हुए।

सिन्दूरासुर का वध होते ही ‘भगवान् गजानन की जय’ का घोष करते हुए देवगण ने आकाश से पुष्प-वृष्टि की।

अप्सराएँ नृत्यगान करने लगीं।

अनेक प्रकार के सुमधुर वाद्य बजने लगे।

सर्वत्र आनन्द की अद्भुत लहर दौड़ गई।

ब्रह्माजी के नेतृत्व में समस्त ऋषि-मुनि, देवता आदि ने वहाँ आकर अनेक प्रकार के उपहार भेंट करके उनका षोड़शोपचार पूजन किया और भक्तिभाव-पूर्वक स्तवन करने लगे-

“यत्र कुण्ठाश्चतुर्वेदा ब्रह्माद्याश्च मुनीश्वराः।
त्वं कर्त्ता कारणं कार्यं रक्षकः पोषकोऽपि च॥”

‘हे प्रभो! जिनकी महिमा का गान करने में चारों वेद, ब्रह्मा आदि देवगण एवं मुनिगण भी कुण्ठित हैं, वहाँ हम तो वस्तु ही क्या हैं? आप इस अखिल विश्व के कर्त्ता, कार्य, रक्षक एवं पोषक सभी कुछ हैं।

संहारक, मोहक और ज्ञानदाता भी आप ही हैं।

नदियाँ, समुद्र, वृक्ष, पर्वत, समस्त देहधारी वायु, आकाश, पृथिवी, अग्नि और जल भी आपके ही रूप हैं।

ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, मरुद्गण मुनि, गन्धर्व, चारण, यक्ष, राक्षस, उरग, अप्सरा, किन्नर एवं अन्य समस्त चराचर विश्व आपसे भिन्न नहीं है।

हमको आप मोक्ष-साधक परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन हुए हैं, इसलिए हम सब आज अत्यन्त सौभाग्यशाली हैं।

देव! इस राक्षस के मारे जाने पर सभी देवगण सुखी हो गए हैं।

अब सभी मुनिगण, नरेशगण एवं प्रजावर्ग के सभी व्यक्ति अपने-अपने कार्यों को प्रसन्नतापूर्वक करेंगे तथा स्वधा, स्वाहा और वषट्‌कार के आश्रित जितनी भी क्रिया हैं, वे सब विघ्न-रहित रूप से होने लगेंगी।

हे नाथ! आप अनेक रूप में अवतार धारण कर लोक का पालन कार्य विशिष्ट रूप से किया करते हैं।

दुष्टों का विनाश और भक्तों की कामनाओं की तत्काल पूर्ति आपका स्वभाव ही है-

“नानावतारैः कुरुषे पालनं त्वं विशेषतः।
दुष्टानां नाशनं सद्यो भक्तानां कामपूरकः॥

इस प्रकार स्तुतियों से भगवान् को प्रसन्न कर देवताओं ने वहाँ एक भव्य मन्दिर बनवाया और उसमें गजानन भगवान् की अत्यन्त सुन्दर प्रतिमा स्थापित कर षोड़शोपचार से उनका पूजन किया।

भगवान् की उस प्रतिमा के दर्शन मात्र से समस्त पाप दूर हो जाते हैं।

उस प्रतिमा का नाम ‘सिन्दूरहा’ विख्यात हुआ तथा वह स्थान ‘राजसदन’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।


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