शिवपुराण के वायवीयसंहिता (उत्तरखण्ड) के अध्याय 12 और 13 में ॐ नमः शिवाय इस पंचाक्षर और षडक्षर मन्त्र के माहात्म्यका वर्णन दिया गया है।
शिवपुराण में कई जगहों पर ॐ नमः शिवाय मन्त्र का महत्व बताया गया है।
लेकिन, वायवीयसंहिता (उत्तरखण्ड) के अध्याय 12 और 13, मुख्यतः इसी पंचाक्षर और षडक्षर मन्त्र के बारे में है।
इसलिए इस पोस्ट में इन्ही दो अध्यायों में जो ॐ नमः शिवाय का माहात्म्य वर्णित है, वह दिया गया है।
पंचाक्षर और षडक्षर अर्थात क्या?
पंचाक्षर अर्थात पांच अक्षर। नमः शिवाय इस मंत्र में पांच अक्षर है –
न, म, शि, वा, य। इसलिए इसे पंचाक्षर मन्त्र कहते है।
षडक्षर अर्थात छह अक्षर। नमः शिवाय के पहले ॐ जोड़ दिया जाए, तो यह षडक्षर मंत्र बन जाता है।
ॐ नमः शिवाय – पंचाक्षर-मन्त्रके माहात्म्यका वर्णन – शिवपुराण से
श्रीकृष्ण बोले – सर्वज्ञ महर्षिप्रवर! आप सम्पूर्ण ज्ञानके महासागर हैं।
अब मैं आपके मुखसे पंचाक्षर-मन्त्रके माहात्मका तत्त्वतः वर्णन सुनना चाहता हूँ।
उपमन्युने कहा – देवकीनन्दन! पंचाक्षर-मन्त्रके माहात्म्यका विस्तारपूर्वक वर्णन तो
सौ करोड़ वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता; अतः संक्षेपसे इसकी महिमा सुनो –
वेदमें तथा शैवागममें दोनों जगह यह षडक्षर (प्रणवसहित पंचाक्षर)-मन्त्र समस्त शिवभक्तोंके सम्पूर्ण अर्थका साधक कहा गया है।
इस मन्त्रमें अक्षर तो थोड़े ही हैं, परंतु यह महान् अर्थसे सम्पन्न है। यह वेदका सारतत्त्व है।
मोक्ष देनेवाला है, शिवकी आज्ञासे सिद्ध है, संदेहशून्य है तथा शिवस्वरूप वाक्य है।
यह नाना प्रकारकी सिद्धियोंसे युक्त, दिव्य, लोगोंके मनको प्रसन्न एवं निर्मल करनेवाला, सुनिश्चित अर्थवाला (अथवा निश्चय ही मनोरथको पूर्ण करनेवाला) तथा परमेश्वरका गम्भीर वचन है।
इस मन्त्रका मुखसे सुखपूर्वक उच्चारण होता है।
सर्वज्ञ शिवने सम्पूर्ण देहधारियोंके सारे मनोरथोंकी सिद्धिके लिये इस “ॐ नमः शिवाय” मन्त्रका प्रतिपादन किया है।
यह आदि षडक्षर-मन्त्र सम्पूर्ण विद्याओं (मन्त्रों)-का बीज (मूल) है।
जैसे वटके बीजमें महान् वृक्ष छिपा हुआ है, उसी प्रकार अत्यन्त सूक्ष्म होनेपर भी इस मन्त्रको महान् अर्थसे परिपूर्ण समझना चाहिये।
“ॐ” इस एकाक्षर-मन्त्रमें तीनों गुणोंसे अतीत, सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, द्युतिमान्, सर्वव्यापी प्रभु शिव प्रतिष्ठित हैं।
ईशान आदि जो सूक्ष्म एकाक्षररूप ब्रह्म हैं, वे सब “नमः शिवाय” इस मन्त्रमें क्रमशः स्थित हैं।
सूक्ष्म षडक्षर-मन्त्रमें पंचब्रह्मरूपधारी साक्षात् भगवान् शिव स्वभावतः वाच्यवाचक-भावसे विराजमान हैं।
अप्रमेय होनेके कारण शिव वाच्य हैं और मन्त्र उनका वाचक माना गया है।
वाच्य का अर्थ है बोलने का विषय जिसके द्वारा इस बात का बोध होता है
शिव और मन्त्रका यह वाच्य-वाचकभाव अनादिकालसे चला आ रहा है।
जैसे यह घोर संसारसागर अनादिकालसे प्रवृत्त है, उसी प्रकार संसारसे छुड़ानेवाले भगवान् शिव भी अनादिकालसे ही नित्य विराजमान हैं।
जैसे औषध रोगोंका स्वभावतः शत्रु है, उसी प्रकार भगवान् शिव संसार-दोषोंके स्वाभाविक शत्रु माने गये हैं।
यदि ये भगवान् विश्वनाथ न होते तो यह जगत् अन्धकारमय हो जाता; क्योंकि प्रकृति जड है और जीवात्मा अज्ञानी।
अतः इन्हें प्रकाश देनेवाले परमात्मा ही हैं।
प्रकृतिसे लेकर परमाणुपर्यन्त जो कुछ भी जडरूप तत्त्व है, वह किसी बुद्धिमान् (चेतन) कारणके बिना स्वयं “कर्ता” नहीं देखा गया है।
जीवोंके लिये धर्म करने और अधर्मसे बचनेका उपदेश दिया जाता है।
उनके बन्धन और मोक्ष भी देखे जाते हैं।
अतः विचार करनेसे सर्वज्ञ परमात्मा शिवके बिना प्राणियोंके आदिसर्गकी सिद्धि नहीं होती।
जैसे रोगी वैद्यके बिना सुखसे रहित हो क्लेश उठाते हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञ शिवका आश्रय न लेनेसे संसारी जीव नाना प्रकारके क्लेश भोगते हैं।
अतः यह सिद्ध हुआ कि जीवोंका संसारसागरसे उद्धार करनेवाले स्वामी अनादि सर्वज्ञ परिपूर्ण सदाशिव विद्यमान हैं।
वे प्रभु आदि, मध्य और अन्तसे रहित हैं।
स्वभावसे ही निर्मल हैं तथा सर्वज्ञ एवं परिपूर्ण हैं।
उन्हें शिव नामसे जानना चाहिये।
शिवागममें उनके स्वरूपका विशदरूपसे वर्णन है।
यह पंचाक्षर-मन्त्र उनका अभिधान (वाचक) है और वे शिव अभिधेय (वाच्य) हैं।
अभिधान और अभिधेय (वाचक और वाच्य)-रूप होनेके कारण परमशिवस्वरूप यह मन्त्र “सिद्ध” माना गया है।
“ॐ नमः शिवाय” यह जो षडक्षर शिववाक्य है, इतना ही शिवज्ञान है और इतना ही परमपद है।
यह शिवका विधि-वाक्य है, अर्थवाद नहीं है।
यह उन्हीं शिवका स्वरूप है, जो सर्वज्ञ, परिपूर्ण और स्वभावतः निर्मल हैं।
जो समस्त लोकोंपर अनुग्रह करनेवाले हैं, वे भगवान् शिव झूठी बात कैसे कह सकते हैं?
जो सर्वज्ञ हैं, वे तो मन्त्रसे जितना फल मिल सकता है, उतना पूरा-का-पूरा बतायेंगे।
परंतु जो राग और अज्ञान आदि दोषोंसे ग्रस्त हैं, वे ही झूठी बात कह सकते हैं।
वे राग और अज्ञान आदि दोष ईश्वरमें नहीं हैं; अतः ईश्वर कैसे झूठ बोल सकते हैं?
जिनका सम्पूर्ण दोषोंसे कभी परिचय ही नहीं हुआ, उन सर्वज्ञ शिवने जिस निर्मल वाक्य – पंचाक्षर-मन्त्रका प्रणयन किया है, वह प्रमाणभूत ही है, इसमें संशय नहीं है।
इसलिये विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह ईश्वरके वचनोंपर श्रद्धा करे।
यथार्थ पुण्य-पापके विषयमें ईश्वरके वचनोंपर श्रद्धा न करनेवाला पुरुष नरकमें जाता है।
शान्त स्वभाववाले श्रेष्ठ मुनियोंने स्वर्ग और मोक्षकी सिद्धिके लिये जो सुन्दर बात कही है, उसे सुभाषित समझना चाहिये।
जो वाक्य राग, द्वेष, असत्य, काम, क्रोध और तृष्णाका अनुसरण करनेवाला हो, वह नरकका हेतु होनेके कारण दुर्भाषित कहलाता है।
अविद्या एवं रागसे युक्त वाक्य जन्म-मरणरूप संसार-क्लेशकी प्राप्तिमें कारण होता है।
अतः वह कोमल, ललित अथवा संस्कृत (संस्कारयुक्त) हो तो भी उससे क्या लाभ?
जिसे सुनकर कल्याणकी प्राप्ति हो तथा राग आदि दोषोंका नाश हो जाय, वह वाक्य सुन्दर शब्दावलीसे युक्त न हो तो भी शोभन तथा समझने योग्य है।
मन्त्रोंकी संख्या बहुत होनेपर भी जिस विमल षडक्षर-मन्त्रका निर्माण सर्वज्ञ शिवने किया है, उसके समान कहीं कोई दूसरा मन्त्र नहीं है।
षडक्षर-मन्त्रमें छहों अंगोंसहित सम्पूर्ण वेद और शास्त्र विद्यमान हैं; अतः उसके समान दूसरा कोई मन्त्र कहीं नहीं है।
सात करोड़ महामन्त्रों और अनेकानेक उपमन्त्रोंसे यह षडक्षर-मन्त्र उसी प्रकार भिन्न है, जैसे वृत्तिसे सूत्र।
जितने शिवज्ञान हैं और जो-जो विद्यास्थान हैं, वे सब षडक्षर-मन्त्ररूपी सूत्रके संक्षिप्त भाष्य हैं।
जिसके हृदयमें “ॐ नमः शिवाय” यह षडक्षर-मन्त्र प्रतिष्ठित है, उसे दूसरे बहुसंख्यक मन्त्रों और अनेक विस्तृत शास्त्रोंसे क्या प्रयोजन है?
जिसने “ॐ नमः शिवाय” इस मन्त्रका जप दृढ़तापूर्वक अपना लिया है, उसने सम्पूर्ण शास्त्र पढ़ लिया और समस्त शुभ कृत्योंका अनुष्ठान पूरा कर लिया।
आदिमें “नमः” पदसे युक्त “शिवाय” – ये तीन अक्षर जिसकी जिह्वाके अग्रभागमें विद्यमान हैं, उसका जीवन सफल हो गया।
पंचाक्षर-मन्त्रके जपमें लगा हुआ पुरुष यदि पण्डित, मूर्ख, अन्त्यज अथवा अधम भी हो तो वह पापपंजरसे मुक्त हो जाता है।
पंचाक्षर-मन्त्रकी महिमा – शिवपुराण से
- पंचाक्षर-मन्त्रकी महिमा,
- उसमें समस्त वाङ्मयकी स्थिति,
- उसकी उपदेशपरम्परा,
- देवीरूपा पंचाक्षरीविद्याका ध्यान,
- उसके समस्त और व्यस्त अक्षरोंके ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति तथा अंगन्यास आदिका विचार
देवी बोलीं – महेश्वर!
कलुषित कलिकालमें जब सारा संसार धर्मसे विमुख हो पापमय अन्धकारसे आच्छादित हो जायगा, वर्ण और आश्रम-सम्बन्धी आचार नष्ट हो जायँगे, धर्मसंकट उपस्थित हो जायगा, सबका अधिकार संदिग्ध, अनिश्चित और विपरीत हो जायगा, उस समय उपदेशकी प्रणाली नष्ट हो जायगी और गुरु-शिष्यकी परम्परा भी जाती रहेगी, ऐसी परिस्थितिमें आपके भक्त किस उपायसे मुक्त हो सकते हैं?
महादेवजीने कहा –
देवि! कलिकालके मनुष्य मेरी परम मनोरम पंचाक्षरी विद्याका आश्रय ले भक्तिसे भावितचित्त होकर संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं।
जो अकथनीय और अचिन्तनीय हैं – उन मानसिक, वाचिक और शारीरिक दोषोंसे जो दूषित, कृतघ्न, निर्दय, छली, लोभी और कुटिलचित्त हैं, वे मनुष्य भी यदि मुझमें मन लगाकर मेरी पंचाक्षरी विद्याका जप करेंगे, उनके लिये वह विद्या ही संसारभयसे तारनेवाली होगी।
देवि! मैंने बारंबार प्रतिज्ञापूर्वक यह बात कही है कि भूतलपर मेरा पतित हुआ भक्त भी इस पंचाक्षरी विद्याके द्वारा बन्धनसे मुक्त हो जाता है।
देवी बोलीं – यदि मनुष्य पतित होकर सर्वथा कर्म करनेके योग्य न रह जाय तो उसके द्वारा किया गया कर्म नरककी ही प्राप्ति करानेवाला होता है।
ऐसी दशामें पतित मानव इस विद्याद्वारा कैसे मुक्त हो सकता है?
महादेवजीने कहा – सुन्दरि! तुमने यह बहुत ठीक बात पूछी है।
अब इसका उत्तर सुनो, पहले मैंने इस विषयको गोपनीय समझकर अबतक प्रकट नहीं किया था।
यदि पतित मनुष्य मोहवश (अन्य) मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक मेरा पूजन करे तो वह निःसंदेह नरकगामी हो सकता है।
किंतु पंचाक्षर-मन्त्रके लिये ऐसा प्रतिबन्ध नहीं है।
जो केवल जल पीकर और हवा खाकर तप करते हैं तथा दूसरे लोग जो नाना प्रकारके व्रतोंद्वारा अपने शरीरको सुखाते हैं, उन्हें इन व्रतोंद्वारा मेरे लोककी प्राप्ति नहीं होती।
परंतु जो भक्तिपूर्वक पंचाक्षर-मन्त्रसे ही एक बार मेरा पूजन कर लेता है, वह भी इस मन्त्रके ही प्रतापसे मेरे धाममें पहुँच जाता है।
इसलिये तप, यज्ञ, व्रत और नियम पंचाक्षरद्वारा मेरे पूजनकी करोड़वीं कलाके समान भी नहीं है।
कोई बद्ध हो या मुक्त, जो पंचाक्षर-मन्त्रके द्वारा मेरा पूजन करता है, वह अवश्य ही संसारपाशसे छुटकारा पा जाता है।
देवि! ईशान आदि पाँच ब्रह्म जिसके अंग हैं, उस षडक्षर या पंचाक्षर-मन्त्रके द्वारा जो भक्तिभावसे मेरा पूजन करता है, वह मुक्त हो जाता है।
कोई पतित हो या अपतित, वह इस पंचाक्षर-मन्त्रके द्वारा मेरा पूजन करे।
मेरा भक्त पंचाक्षर-मन्त्रका उपदेश गुरुसे ले चुका हो या नहीं, वह क्रोधको जीतकर इस मन्त्रके द्वारा मेरी पूजा किया करे।
जो इस मन्त्रकी दीक्षा लेकर मैत्री, मुदिता (करुणा, उपेक्षा) आदि गुणोंसे युक्त तथा ब्रह्मचर्यपरायण हो भक्तिभावसे मेरा पूजन करता है, वह मेरी समता प्राप्त कर लेता है।
इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ?
मेरे पंचाक्षर-मन्त्रमें सभी भक्तोंका अधिकार है। इसलिये वह श्रेष्ठतर मन्त्र है।
पंचाक्षरके प्रभावसे ही लोक, वेद, महर्षि, सनातनधर्म, देवता तथा यह सम्पूर्ण जगत् टिके हुए हैं।
देवि! प्रलयकाल आनेपर जब चराचर जगत् नष्ट हो जाता है और सारा प्रपंच प्रकृतिमें मिलकर वहीं लीन हो जाता है, तब मैं अकेला ही स्थित रहता हूँ, दूसरा कोई कहीं नहीं रहता।
उस समय समस्त देवता और शास्त्र पंचाक्षर-मन्त्रमें स्थित होते हैं।
अतः मेरी शक्तिसे पालित होनेके कारण वे नष्ट नहीं होते हैं।
तदनन्तर मुझसे प्रकृति और पुरुषके भेदसे युक्त सृष्टि होती है।
तत्पश्चात् त्रिगुणात्मक मूर्तियोंका संहार करनेवाला अवान्तर प्रलय होता है।
उस प्रलयकालमें भगवान् नारायणदेव मायामय शरीरका आश्रय ले जलके भीतर शेष-शय्यापर शयन करते हैं।
उनके नाभि-कमलसे पंचमुख ब्रह्माजीका जन्म होता है।
ब्रह्माजी तीनों लोकोंकी सृष्टि करना चाहते थे; किन्तु कोई सहायक न होनेसे उसे कर नहीं पाते थे।
तब उन्होंने पहले अमिततेजस्वी दस महर्षियोंकी सृष्टि की, जो उनके मानसपुत्र कहे गये हैं।
उन पुत्रोंकी सिद्धि बढ़ानेके लिये पितामह ब्रह्माने मुझसे कहा – महादेव! महेश्वर! मेरे पुत्रोंको शक्ति प्रदान कीजिये।
उनके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर पाँच मुख धारण करनेवाले मैंने ब्रह्माजीके प्रति प्रत्येक मुखसे एक-एक अक्षरके क्रमसे पाँच अक्षरोंका उपदेश किया।
लोकपितामह ब्रह्माजीने भी अपने पाँच मुखोंद्वारा क्रमशः उन पाँचों अक्षरोंको ग्रहण किया और वाच्यवाचक-भावसे मुझ महेश्वरको जाना।
मन्त्रके प्रयोगको जानकर प्रजापतिने विधिवत् उसे सिद्ध किया।
तत्पश्चात् उन्होंने अपने पुत्रोंको यथावत् रूपसे उस मन्त्रका और उसके अर्थका भी उपदेश दिया।
साक्षात् लोकपितामह ब्रह्मासे उस मन्त्ररत्नको पाकर मेरी आराधनाकी इच्छा रखनेवाले उन मुनियोंने उनकी बतायी हुई पद्धतिसे उस मन्त्रका जप करते हुए मेरुके रमणीय शिखरपर मुंजवान् पर्वतके निकट एक सहस्र दिव्य वर्षोंतक तीव्र तपस्या की।
वे लोकसृष्टिके लिये अत्यन्त उत्सुक थे।
इसलिये वायु पीकर कठोर तपस्यामें लग गये।
जहाँ उनकी तपस्या चल रही थी, वह श्रीमान् मुंजवान् पर्वत सदा ही मुझे प्रिय है और
मेरे भक्तोंने निरन्तर उसकी रक्षा की है।
उन ऋषियोंकी भक्ति देखकर मैंने तत्काल उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया और उन आर्य ऋषियोंको पंचाक्षर-मन्त्रके ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति, कीलक, षडंगन्यास, दिग्बन्ध और विनियोग – इन सब बातोंका पूर्णरूपसे ज्ञान कराया।
संसारकी सृष्टि बढ़े इसके लिये मैंने उन्हें मन्त्रकी सारी विधियाँ बतायीं, तब वे उस मन्त्रके माहात्म्यसे तपस्यामें बहुत बढ़ गये और देवताओं, असुरों तथा मनुष्योंकी सृष्टिका भलीभाँति विस्तार करने लगे।
अब इस उत्तम विद्या पंचाक्षरीके स्वरूपका वर्णन किया जाता है।
आदिमें “नमः” पदका प्रयोग करना चाहिये।
उसके बाद “शिवाय” पदका।
यही वह पंचाक्षरी विद्या है, जो समस्त श्रुतियोंकी सिरमौर है तथा सम्पूर्ण शब्दसमुदायकी सनातन बीजरूपिणी है।
यह विद्या पहले-पहल मेरे मुखसे निकली; इसलिये मेरे ही स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाली है।
इसका एक देवीके रूपमें ध्यान करना चाहिये।
इस देवीकी अंग-कान्ति तपाये हुए सुवर्णके समान है।
इसके पीन पयोधर ऊपरको उठे हुए हैं।
यह चार भुजाओं और तीन नेत्रोंसे सुशोभित है।
इसके मस्तकपर बालचन्द्रमाका मुकुट है।
दो हाथोंमें पद्म और उत्पल हैं।
अन्य दो हाथोंमें वरद और अभयकी मुद्रा है।
मुखाकृति सौम्य है।
यह समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न तथा सम्पूर्ण आभूषणोंसे विभूषित है।
श्वेत कमलके आसनपर विराजमान है।
इसके काले-काले घुँघराले केश बड़ी शोभा पा रहे हैं।
इसके अंगोंमें पाँच प्रकारके वर्ण हैं, जिनकी रश्मियाँ प्रकाशित हो रही हैं।
वे वर्ण हैं – पीत, कृष्ण, धूम्र, स्वर्णिम तथा रक्त।
इन वर्णोंका यदि पृथक्-पृथक् प्रयोग हो तो इन्हें विन्दु और नादसे विभूषित करना चाहिये।
विन्दुकी आकृति अर्द्धचन्द्रके समान है और नादकी आकृति दीपशिखाके समान।
सुमुखि! यों तो इस मन्त्रके सभी अक्षर बीजरूप हैं, तथापि उनमें दूसरे अक्षरको इस मन्त्रका बीज समझना चाहिये।
दीर्घ-स्वरपूर्वक जो चौथा वर्ण है, उसे कीलक और पाँचवें वर्णको शक्ति समझना चाहिये।
इस मन्त्रके वामदेव ऋषि हैं और पंक्ति छन्द है।
वरानने! मैं शिव ही इस मन्त्रका देवता हूँ।
वरारोहे! गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, अंगिरा और भरद्वाज – ये नकारादि वर्णोंके क्रमशः ऋषि माने गये हैं।
गायत्री, अनुष्टुप्, त्रिष्टुप्, बृहती और विराट् – ये क्रमशः पाँचों अक्षरोंके छन्द हैं।
इन्द्र, रुद्र, विष्णु, ब्रह्मा और स्कन्द – ये क्रमशः उन अक्षरोंके देवता हैं।
वरानने! मेरे पूर्व आदि चारों दिशाओंके तथा ऊपरके – पाँचों मुख इन नकारादि अक्षरोंके क्रमशः स्थान हैं।
पंचाक्षर-मन्त्रका पहला अक्षर उदात्त है।
दूसरा और चौथा भी उदात्त ही है।
पाँचवाँ स्वरित है और तीसरा अक्षर अनुदात्त माना गया है।
इस पंचाक्षर-मन्त्रके – मूल विद्या शिव, शैव, सूत्र तथा पंचाक्षर नाम जाने।
शैव (शिवसम्बन्धी) बीज प्रणव मेरा विशाल हृदय है।
नकार सिर कहा गया है, मकार शिखा है, “शि” कवच है, “वा” नेत्र है और यकार अस्त्र है।
इन वर्णोंके अन्तमें अंगोंके चतुर्थ्यन्तरूपके साथ क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् और फट् जोड़नेसे अंगन्यास होता है।
देवि! थोड़ेसे भेदके साथ यह तुम्हारा भी मूलमन्त्र है।
उस पंचाक्षर-मन्त्रमें जो पाँचवाँ वर्ण “य” है, उसे बारहवें स्वरसे विभूषित किया जाता है, अर्थात् “नमः शिवाय” के स्थानमें “नमः शिवायै” कहनेसे यह देवीका मूलमन्त्र हो जाता है।
अतः साधकको चाहिये कि वह इस मन्त्रसे मन, वाणी और शरीरके भेदसे हम दोनोंका पूजन, जप और होम आदि करे।
(मन आदिके भेदसे यह पूजन तीन प्रकारका होता है – मानसिक, वाचिक और शारीरिक।)
देवि! जिसकी जैसी समझ हो, जिसे जितना समय मिल सके, जिसकी जैसी बुद्धि, शक्ति, सम्पत्ति, उत्साह एवं योग्यता और प्रीति हो, उसके अनुसार वह शास्त्रविधिसे जब कभी, जहाँ कहीं अथवा जिस किसी भी साधनद्वारा मेरी पूजा कर सकता है।
उसकी की हुई वह पूजा उसे अवश्य मोक्षकी प्राप्ति करा देगी।
सुन्दरि! मुझमें मन लगाकर जो कुछ क्रम या व्युत्क्रमसे किया गया हो, वह कल्याणकारी तथा मुझे प्रिय होता है।
तथापि जो मेरे भक्त हैं और कर्म करनेमें अत्यन्त विवश (असमर्थ) नहीं हो गये हैं, उनके लिये सब शास्त्रोंमें मैंने ही नियम बनाया है, उस नियमका उन्हें पालन करना चाहिये।