श्रीहनुमानजी के गुणों का वर्णन
श्रीहनुमानजी भगवान् श्रीरामके सर्वोत्तम दास-भक्त हैं।
कहा जाता है कि
जहाँ श्रीरामकी कथा या कीर्तन होता है,
वहाँ श्रीहनुमानजी किसी-न-किसी वेषमें उपस्थित रहते ही हैं।
श्रद्धा न होनेके कारण लोग उन्हें पहचान नहीं पाते।
भगवान् और उनके भक्तोंके गुणोंका वर्णन
कोई भी मनुष्य कैसे कर सकता है।
इस विषयमें जो कुछ भी लिखा जाय,
वह बहुत ही थोड़ा है।
यहाँ संक्षेपमें श्रीहनुमानजीके चरित्रोंद्वारा
उनके गुणोंका वर्णन दिया गया है।
श्रीहनुमानजी के गुणों के वर्णन का यह लेख,
श्रीजयदयालजी गोयन्दका के प्रवचन से लिया गया है।
श्रीहनुमानजीके कुछ विलक्षण गुण
श्रीहनुमानजीके गुण अपार हैं।
श्रीहनुमानजी
महान् वीर, अतिशय बलवान्,
अत्यन्त बुद्धिमान्, चतुरशिरोमणि,
विद्वान्, सेवाधर्मके आचार्य,
सर्वथा निर्भय, सत्यवादी, स्वामिभक्त,
भगवानके तत्त्व, रहस्य, गुण और प्रभावको भली प्रकार जाननेवाले,
महाविरक्त, सिद्ध, परम प्रेमी भक्त और
सदाचारी महात्मा हैं।
श्रीहनुमानजी युद्ध-विद्यामें बड़े ही निपुण,
इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ तथा
भगवान के नाम, गुण, स्वरूप और लीलाके बड़े ही रसिक हैं।
पहले-पहल जब पम्पा सरोवरपर
श्रीराम और लक्ष्मणसे श्रीहनुमानजी मिले हैं,
उस प्रसङ्गको देखनेसे मालूम होता है कि
इनमें विनय, विद्वत्ता, चतुरता, दीनता,
प्रेम और श्रद्धा आदि सभी विलक्षण गुण विद्यमान हैं।
हनुमानजी का प्रभु राम से पहली बार मिलने का प्रसंग
अपने मन्त्रियोंके साथ ऋष्यमूक-पर्वतपर बैठे हुए
सुग्रीवकी दृष्टि पम्पा-सरोवरकी ओर जाती है, तो वे देखते हैं कि
हाथोंमें धनुष-बाण लिये हुए बड़े सुन्दर, विशालबाहु,
महापराक्रमी दो वीर पुरुष इसी ओर आ रहे हैं।
उन्हें देखते ही सुग्रीव भयभीत होकर
श्रीहनुमानजीसे कहते हैं कि
“हनुमान! तुम जाकर इनकी परीक्षा तो करो।
यदि ये वालीके भेजे हुए हों
तो मुझे संकेतसे समझा देना,
जिससे मैं इस पर्वतको छोड़कर तुरंत ही भाग जाऊँ।”
सुग्रीवकी आज्ञा पाकर
श्रीहनुमानजी ब्रह्मचारीका रूप धारण कर वहाँ जाते हैं और
श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करके उनसे प्रश्न करते हैं।
मानस-रामायणमें श्रीतुलसीदासजी
उनके प्रश्नका यों वर्णन करते हैं –
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा।
छत्री रूप फिरहु बन बीरा॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी।
कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥
की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ।
नर नारायन की तुम्ह दोऊ॥
जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार।
की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार॥
(४ । ४-५, १)
अध्यात्मरामायणमें भी लगभग ऐसा ही वर्णन मिलता है।
इसके अतिरिक्त वहाँ श्रीरामचन्द्रजी भाई श्रीलक्ष्मणसे
हनुमानजीकी विद्वत्ताकी सराहना करते हुए कहते हैं –
“लक्ष्मण!
देखो, यह व्यक्ति ब्रह्मचारीके वेषमें
कैसा सुन्दर भाषण करता है।
अवश्य ही इसने सम्पूर्ण शब्द-शास्त्र
बहुत प्रकारसे पढ़ा है।
इसने इतनी बातें कहीं,
किंतु इसके बोलनेमें
कहीं कोई भी अशुद्धि नहीं आयी।”
वाल्मीकीय रामायणमें तो
श्रीरामने यहाँतक कहा है कि –
“इसने अवश्य ही सब वेदोंका अभ्यास किया है,
नहीं तो यह इस प्रकारका भाषण कैसे कर सकता है।”
इसके सिवा और भी बहुत प्रकारसे
श्रीहनुमानजीके वचनोंकी सराहना करते हुए
वे अन्तमें कहते हैं कि
“जिस राजाके पास ऐसे बुद्धिमान् दूत हों,
उसके समस्त कार्य दूतकी बातचीतसे ही सिद्ध हो जाया करते हैं।”
रामचरितमानसमें आगेका वर्णन बड़ा ही प्रेमपूर्ण है –
भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अपना समस्त परिचय देकर
श्रीहनुमानजीसे पूछते हैं कि –
“ब्राह्मण! बतलाइये, आप कौन हैं?”
हनुमानजी प्रभु राम को पहचान जाते है
यह सुनते ही हनुमानजी
श्रीरामको भलीभाँति पहचानकर
तुरंत ही उनके चरणोंमें गिर पड़ते हैं,
उनका शरीर पुलकित हो जाता है,
मुखसे बोला नहीं जाता,
वे टकटकी लगाकर भगवानकी रूपमाधुरी और
विचित्र वेषको निहारने लगते हैं।
कैसा अलौकिक प्रेम है।
फिर धैर्य धारण करके
वे भगवानसे कहते हैं –
मोर न्याउ मैं पूछा साईं।
तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥
तव माया बस फिरउँ भुलाना।
ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥
एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें।
सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥
(४ । २ । ४-५, २; ३ । १)
कितना प्रेम और दैन्यभाव है!
इसके बाद विनयपूर्वक सुग्रीवकी परिस्थिति बतलाकर
दोनों भाइयोंको अपनी पीठपर चढ़ाकर
वे सुग्रीवके पास ले जाते हैं।
वहाँ दोनों ओरकी सब बातें सुनाकर
अग्निदेवकी साक्षीमें
श्रीराम और सुग्रीवकी मित्रता करा देते हैं।
वालीका वध करके
भगवान् श्रीराम भाई लक्ष्मणके सहित
प्रवर्षण पर्वतपर निवास कर
वर्षा-ऋतुका समय व्यतीत करते हैं।
उधर सुग्रीव राज्य, ऐश्वर्य और
स्त्री आदिके मिल जानेसे
भोगोंमें फँसकर भगवानके कार्यको भूल जाते हैं।
यह देखकर श्रीहनुमानजी राजनीतिके अनुसार
सुग्रीवको भगवानके कार्यकी स्मृति दिलाते हैं और
उनकी आज्ञा लेकर वानरोंको बुलानेके लिये देश-देशान्तरोंमें दूत भेजते हैं।
कैसी बुद्धिमानी है!
इसके बाद जब श्रीसीताजीकी खोजके लिये
सब दिशाओंमें वानरोंको भेजनेकी बातचीत हो रही थी,
उस समयका वर्णन
श्रीवाल्मीकीय रामायणमें देखनेसे मालूम होता है कि
सुग्रीवका श्रीहनुमानजीपर कितना भरोसा और विश्वास था
तथा भगवान् श्रीरामको भी
उनकी कार्यकुशलतापर कितना विश्वास था।
सुग्रीव हनुमानजी की प्रशंसा करते है
वहाँ श्रीरामके सामने ही सुग्रीव हनुमानसे कहते हैं –
न भूमौ नान्तरिक्षे वा नाम्बरे नामरालये।
नाप्सु वा गतिभङ्गं ते पश्यामि हरिपुंगव॥
सासुरा: सहगन्धर्वाः सनागनरदेवता:।
विदिता: सर्वलोकास्ते ससागरधराधरा:॥
गतिर्वेगश्च तेजश्च लाघवं च महाकपे।
पितुस्ते सदृशं वीर मारुतस्य महौजस:॥
तेजसा वापि ते भूतं न समं भुवि विद्यते।
तद् यथा लभ्यते सीता तत्त्वमेवानुचिन्तय॥
त्वय्येव हनुमन्नस्ति बलं बुद्धि: पराक्रम:।
देशकालानुवृत्तिश्च नयश्च नयपण्डित॥
(४ । ४४ । ३-७)
“कपिश्रेष्ठ! तुम्हारी गतिका अवरोध
न पृथ्वीमें, न अन्तरिक्षमें,
न आकाशमें और न देवलोकमें
अथवा जलमें ही देखा जाता है।
देवता, असुर, गन्धर्व,
नाग, मनुष्य और इनके सहित
उन-उनके समस्त लोकोंका
समुद्र और पर्वतोंसहित तुम्हें भलीभाँति ज्ञान है।
महाकपे!
तुम्हारी गति, वेग, तेज और
फुर्ती-तुम्हारे महान् बलशाली पिता वायुके समान हैं।
वीर! इस भूमण्डलपर कोई भी प्राणी
तेजमें तुम्हारी समानता करनेवाला
न कभी हुआ और न है।
अत: जिस प्रकार सीता मिल सके,
वह उपाय तुम्हीं सोचकर बताओ।
हनुमान! तुम नीतिशास्त्रके पण्डित हो;
बल, बुद्धि, पराक्रम, देश-कालका अनुसरण और
नीतिपूर्ण बर्ताव-ये सब एक साथ तुममें पाये जाते हैं।”
इस प्रकार सुग्रीवकी बातें सुनकर
भगवान् श्रीराम हनुमानजीकी ओर देखकर
अपना कार्य सिद्ध हुआ ही समझने लगे।
प्रभु राम हनुमानजी को अंगूठी देते है
उन्होंने मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न होकर
अपने नामके अक्षरोंसे युक्त एक अँगूठी
हनुमानजीके हाथमें देकर कहा –
अनेन त्वां हरिश्रेष्ठ चिह्नेन जनकात्मजा।
मत्सकाशादनुप्राप्तमनुद्विग्नानुपश्यति॥
व्यवसायश्च ते वीर सत्त्वयुक्तश्च विक्रम:।
सुग्रीवस्य च संदेश: सिद्धिं कथयतीव मे॥
(४ । ४४ । १३-१४)
“कपिश्रेष्ठ! इस चिह्नके द्वारा
जनकनन्दिनी सीताको यह विश्वास हो जायगा
कि तुम मेरे पाससे ही गये हो।
तब वह निर्भय होकर
तुम्हारी ओर देख सकेगी।
वीरवर! तुम्हारा उद्योग, धैर्य और पराक्रम तथा
सुग्रीवका संदेश मुझे इस बातकी सूचना दे रहे हैं कि
तुम्हारेद्वारा इस कार्यकी सिद्धि अवश्य होगी।”
अध्यात्मरामायणमें भी प्राय: इसी प्रकार
श्रीरामने हनुमानजीके गुणोंकी प्रशंसा की है।
वहाँ सहिदानीके रूपमें अपनी मुद्रिका देकर
भगवान् श्रीराम हनुमानजीसे कहते हैं –
अस्मिन् कार्ये प्रमाणं हि त्वमेव कपिसत्तम।
जानामि सत्त्वं ते सर्वं गच्छ पन्था: शुभस्तव॥
(४ । ६ । २९)
“कपिश्रेष्ठ! इस कार्यमें केवल तुम्हीं समर्थ हो।
मैं तुम्हारा समस्त पराक्रम भलीभाँति जानता हूँ।
अच्छा, जाओ;
तुम्हारा मार्ग कल्याणकारक हो।”
हनुमानजी वानरों के साथ समुद्रतट तक पहुँचते है
इसके बाद जब जाम्बवान् और अङ्गद आदि वानरोंके साथ
हनुमानजी श्रीसीताजीकी खोज करते-करते
समुद्रके किनारे पहुँचते हैं और
श्रीसीताका अनुसंधान न मिलनेके कारण
शोकाकुल होकर सब वहीं अनशन-व्रत लेकर बैठ जाते हैं,
तब गृध्रराज सम्पातिसे बातचीत होनेपर
उन्हें यह पता लगता है कि
सौ योजन समुद्रके पार लंकापुरीमें राक्षसराज रावण रहता है,
वहाँ अपनी अशोक-वाटिकामें उसने सीताको छिपा रखा है।
तब सब वानर एक जगह बैठकर
परस्पर समुद्र लाँघनेका विचार करने लगे।
अङ्गदके पूछनेपर
सभीने अपनी-अपनी सामर्थ्यका परिचय दिया;
परंतु श्रीहनुमानजी चुप साधे बैठे ही रहे।
कैसी निरभिमानता है!
यह प्रसङ्ग श्रीवाल्मीकीय रामायणमें
बड़ा ही रोचक और विस्तृत है।
वहाँ जाम्बवान्ने श्रीहनुमानजीकी बुद्धि,
बल, तेज, पराक्रम, विद्या और
वीरताका बड़ा ही विचित्र चित्रण किया है।
वे कहते हैं –
वीर वानरलोकस्य सर्वशास्त्रविदां वर।
तूष्णीमेकान्तमाश्रित्य हनूमन् किं न जल्पसि॥
रामलक्ष्मणयोश्चापि तेजसा च बलेन च॥
गरुत्मानिव विख्यात उत्तम: सर्वपक्षिणाम्॥
पक्षयोर्यद् बलं तस्य भुजवीर्यबलं तव।
विक्रमश्चापि वेगश्च न ते तेनापहीयते॥
बलं बुद्धिश्च तेजश्च सत्त्वं च हरिपुङ्गव।
विशिष्टं सर्वभूतेषु किमात्मानं न सज्जसे॥
(४ । ६६ । २-७)
“सम्पूर्ण शास्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ
तथा वानर-जगतके अद्वितीय वीर हनुमान!
तुम कैसे एकान्तमें आकर चुप साधे बैठे हो?
कुछ बोलते क्यों नहीं?
तुम तो तेज और बलमें
श्रीराम और लक्ष्मणके समान हो।
गमनशक्तिमें सम्पूर्ण पक्षियोंमें श्रेष्ठ
विनतापुत्र महाबली गरुड़के समान विख्यात हो।
उनकी पाँखोंमें जो बल, तेज तथा पराक्रम है,
वही तुम्हारी इन भुजाओंमें भी है।
वानरश्रेष्ठ! तुम्हारे अंदर समस्त प्राणियोंसे बढ़कर बल,
बुद्धि, तेज और धैर्य है;
फिर तुम अपना स्वरूप क्यों नहीं पहचानते?”
जाम्बवान् हनुमानजी को उनकी शक्तियों की याद दिलाते है
इसके बाद जाम्बवान् उनके जन्मकी कथा सुनाते हैं
तथा बाल्यावस्थाके पराक्रम और
वरदानकी बात कहकर
उनके बलकी स्मृति दिलाते हुए अन्तमें कहते हैं –
उत्तिष्ठ हरिशार्दूल लङ्घयस्व महार्णवम्।
परा हि सर्वभूतानां हनुमन् या गतिस्तव॥
विषण्णा हरय: सर्वे हनुमन् किमुपेक्षसे।
विक्रमस्व महावेग विष्णुस्त्रीन् विक्रमानिव॥
(४ । ६६ । ३६-३७)
“वानरश्रेष्ठ हनुमान!
उठो और इस महासागरको लाँघ जाओ।
जो तुम्हारी गति है,
वह सभी प्राणियोंसे बढ़कर है।
सभी वानर चिन्तामें पड़े हैं और
तुम इनकी उपेक्षा करते हो,
यह क्या बात है?
तुम्हारा वेग महान् है।
जैसे भगवान् विष्णुने,
पृथ्वीको नापनेके लिये तीन डगें भरी थीं,
उसी प्रकार तुम छलाँग मारकर
समुद्रके उस पार चले जाओ।”
इतना सुनते ही श्रीहनुमानजी
तुरंत ही समुद्र लाँघनेके लिये
अपना शरीर बढ़ाने लगे।
रामचरितमानसमें भी इसी आशयका वर्णन है।
वहाँ अङ्गदको धैर्य देनेके बाद
जाम्बवान् हनुमानजीसे कहते हैं –
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।
का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं।
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥
कनक बरन तन तेज बिराजा।
मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
(४ । ३० । २-४)
अध्यात्मरामायणमें भी प्राय: इसी तरहका वर्णन है।
इसके सिवा पर्वताकार रूप धारण करनेके अनन्तर
वहाँ श्रीहनुमानजी कहते हैं –
लङ्घयित्वा जलनिधिं कृत्वा
लङ्कां च भस्मसात्॥
रावणं सकुलं हत्वाऽऽनेष्ये जनकनन्दिनीम्।
यद्वा बद्ध्वा गले रज्ज्वा रावणं वामपाणिना॥
लङ्कां सपर्वतां धृत्वा रामस्याग्रे क्षिपाम्यहम्।
यद्वा दृष्ट्वैव यास्यामि जानकीं शुभलक्षणाम्॥
(४ । ९ । २२-२४)
“वानरो! मैं समुद्रको लाँघकर लंकाको भस्म कर डालूँगा और
रावणको कुलसहित मारकर
श्रीजनक-नन्दिनीको ले आऊँगा
अथवा कहो तो रावणके गलेमें रस्सी डालकर
तथा लंकाको त्रिकूट-पर्वतसहित बायें हाथपर उठाकर
भगवान् श्रीरामके आगे ला रखूँ?
या शुभलक्षणा श्रीजानकीजीको देखकर ही,
रामजीके पास चला आऊँ?”
कितना आत्मबल है!
इसपर जाम्बवान्ने कहा –
“वीर! तुम्हारा शुभ हो,
तुम केवल शुभलक्षणा श्रीजानकीजीको
जीती-जागती देखकर ही चले आओ।”
समुद्रको लाँघनेके लिये तैयार होकर
हनुमानजीने वानरोंसे जो वचन कहे हैं,
उनसे यह पता चलता है कि
उनका श्रीराम-नामपर बड़ा ही दृढ़ विश्वास था ।
हनुमानजी भगवान् श्रीरामके गुण, प्रभाव और
तत्त्वको भलीभाँति जानते थे तथा
श्रीराममें उनका अविचल प्रेम था ।
अध्यात्मरामायणमें यह प्रसङ्ग इस प्रकार है –
पश्यन्तु वानरा: सर्वे गच्छन्तं मां विहायसा॥
अमोघं रामनिर्मुक्तं महाबाणमिवाखिला:।
पश्याम्यद्यैव रामस्य पत्नीं जनकनन्दिनीम्॥
कृतार्थोऽहं कृतार्थोऽहं पुन: पश्यामि राघवम्।
प्राणप्रयाणसमये यस्य नाम सकृत् स्मरन्॥
नरस्तीर्त्वा भवाम्भोधिमपारं याति तत्पदम्।
किं पुनस्तस्य दूतोऽहं तदङ्गाङ्गुलिमुद्रिक:॥
तमेव हृदये ध्यात्वा लङ्घयाम्यल्पवारिधिम्।
(५ । १ । २-६)
सुंदरकांड प्रसंग
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सुन्दरकाण्ड हिन्दी में अर्थ सहित
“समस्त वानरो!
तुम सभी लोग
भगवान् श्रीरामद्वारा छोड़े हुए अमोघ बाणकी भाँति
आकाशमार्गसे जाते हुए मुझे देखो।
मैं आज ही श्रीरामप्रिया जनकनन्दिनी
श्रीसीताजीके दर्शन करूँगा।
निश्चय ही मैं कृतकृत्य हो चुका,
कृतकृत्य हो चुका;
अब मैं फिर श्रीरघुनाथजीका दर्शन करूँगा।
प्राण निकलनेके समय
जिनके नामका एक बार स्मरण करनेसे ही
मनुष्य अपार संसार-सागरको पारकर
उनके परमधामको चला जाता है,
उन्हीं भगवान् श्रीरामका दूत,
उनके हाथकी मुद्रिका लिये हुए,
हृदयमें उन्हींका ध्यान करता हुआ
मैं यदि इस छोटे-से समुद्रको लाँघ जाऊँ
तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।”
समुद्र लाँघनेके लिये श्रीहनुमानजीने
जो भयानक रूप धारण किया था,
उसका वर्णन वाल्मीकीय रामायणमें विस्तारपूर्वक है।
यहाँ उसका दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है।
वहाँ लिखा है –
ववृधे रामवृद्ध्यर्थं समुद्र इव पर्वसु॥
निष्प्रमाणशरीर: सँल्लिलङ्घयिषुरर्णवम्।
बाहुभ्यां पीडियामास चरणाभ्यां च पर्वतम्॥
स चचालाचलश्चाशु मुहुर्त्तं कपिपीडित:।
तरूणां पुष्पिताग्राणां सर्वं पुष्पमशातयत्॥
तमूरुवेगोन्मथिता: सालाश्चान्ये नगोत्तमा:।
अनुजर्मुहनूमन्तं सैन्या इव महीपतिम्॥
(५ । १ । १०-१२, ४८)
“जिस प्रकार पूर्णिमाके दिन समुद्र बढ़ता है,
उसी प्रकार भगवान् श्रीरामके कार्यकी सिद्धिके लिये हनुमान बढ़ने लगे।
समुद्र लाँघनेकी इच्छासे
उन्होंने अपने शरीरको बेहद बढ़ा लिया और
अपनी भुजाओं एवं चरणोंसे उस पर्वतको दबाया,
तो वह हनुमानजीके द्वारा ताडित हुआ पर्वत
तुरंत काँप उठा और मुहूर्त्तभर काँपता ही रहा।
उसपर उगे हुए वृक्षोंके समस्त फूल झड़ गये।
जब उन्होंने उछाल मारी,
तब पर्वतपर उगे हुए साल
तथा दूसरे वृक्ष इधर-उधर गिर गये।
उनकी जाँघोंके वेगसे टूटे हुए वृक्ष
इस प्रकार उनके पीछे चले,
जैसे राजाके पीछे सेना चलती है।”
इसके अतिरिक्त वहाँपर
श्रीहनुमानजीके स्वरूपका मनोहर भाषामें
बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया गया है।
वहाँ लिखा है कि
उस समय श्रीहनुमानजीकी दस योजन चौड़ी और
तीस योजन लम्बी परछाईं
वेगके कारण समुद्रमें बड़ी सुन्दर जान पड़ती थी।
वे परम तेजस्वी, महाकाय कपिवर
आकाशमें आलम्बनहीन पंखवाले पर्वतकी भाँति जान पड़ते थे।
इससे उनकी लम्बाई-चौड़ाईके विस्तारका कुछ पता चलता है।
यह देखकर मैनाक-पर्वत
उनसे विश्राम लेनेके लिये
अनेक प्रकारसे प्रार्थना करता है,
परंतु भगवान् श्रीरामका कार्य पूरा किये बिना
श्रीहनुमानजी विश्राम कहाँ!
हनुमानजी उसे केवल स्पर्श करके ही आगे बढ़ जाते हैं।
रामचरितमानसमें श्रीतुलसीदासजी कहते हैं –
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रमहारी॥
हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥
(५ । १ । ४-५, १)
सुरसाको अपने बुद्धि-बलका परिचय देकर
आगे जाते-जाते जब समुद्रपर श्रीहनुमानजीकी दृष्टि पड़ती है,
तब क्या देखते हैं कि
एक विशालकाय प्राणी समुद्रके जलपर पड़ा हुआ है।
उस विकरालवदना राक्षसीको देखकर वे सोचने लगे –
“कपिराज सुग्रीवने
जिस महापराक्रमी छायाग्राही अद्भुत जीवकी बात कही थी,
वह निःसंदेह यही है।”
ऐसा निश्चय करके
उन्होंने अपने शरीरको बढ़ाया।
हनुमानजीके शरीरको बढ़ता देखकर
सिंहिका भी अपना भयानक मुख फैलाकर
हनुमानजीकी ओर दौड़ी।
तब हनुमानजी छोटा रूप बनाकर
उसके मुखमें घुस गये और
अपने नखोंसे उसके मर्मस्थलको फाड़ डाला।
इस प्रकार कुशलता और धैर्यपूर्वक
उसे मारकर फिर वे पहलेकी भाँति ही आगे बढ़ गये।
कैसा विचित्र बुद्धि-कौशल,
धैर्य और साहस है!
इस प्रकार समुद्रको पार करके
श्रीहनुमानजी त्रिकूट पर्वतपर जा उतरे।
बिना विश्राम सौ योजनके समुद्रको लाँघनेपर भी
हनुमानजीके शरीरमें किसी प्रकारकी थकावट नहीं आयी।
वहाँसे उन्होंने भलीभाँति लंकाका निरीक्षण किया।
फिर लंकाके समीप जाकर
उसके भीतर प्रवेश करनेके
विषयमें भलीभाँति विचार करके
अन्तमें यह निश्चय किया कि
रात्रिके समय छोटा रूप बनाकर
इसमें प्रवेश करना ठीक होगा।
इसके बाद संध्याकालमें
जब हनुमानजी छोटा-सा रूप धारण करके
लंकापुरीमें प्रवेश करने लगे,
तब द्वारपर लंकापुरीकी अधिष्ठात्री
लंकिनी राक्षसीने उनको देख लिया।
उसने श्रीहनुमानजीको डाँट-डपटकर जब उन्हें लात मारी,
तब हनुमानजीने बायें हाथका
एक मुक्का उसके शरीरपर जमा दिया।
उसके लगते ही वह रुधिर वमन करती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ी,
फिर उठकर ब्रह्माजीकी बातका स्मरण करके
हनुमानजीकी स्तुति करने लगी और अन्तमें बोली –
धन्याहमप्यद्य चिराय राघव- स्मृतिर्ममासीद् भवपाशमोचिनी।
तद्भक्तसङ्गोऽप्यतिदुर्लभो मम प्रसीदतां दाशरथि: सदा ह्यदि॥
(अध्यात्म० ५ । १ । ५७)
“आज मैं भी धन्य हूँ,
जो चिरकालके बाद मुझे संसार-बन्धनका नाश करनेवाली
श्रीरघुनाथजीकी स्मृति प्राप्त हुई
तथा उनके भक्तका अति दुर्लभ सङ्ग भी मिला।
वे दशरथपुत्र श्रीराम
सदा ही मेरे हृदयमें प्रसन्नतापूर्वक निवास करें।”
रामचरितमानसमें यह प्रसङ्ग इस प्रकार है –
हनुमानजीके प्रहारसे व्याकुल होकर गिर पड़नेके बाद
सावधान होकर लंकिनी कहती है –
तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता॥
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
(५ । ४ । ४,४)
इसके बाद हनुमानजी
छोटा-सा रूप धारण कर
लंकापुरीमें सीताकी खोज करते-करते
बहुत-से राक्षसोंके घरोंमें घूम-फिरकर
रावणके महलमें जाते हैं।
वहाँ रावणके महलकी विचित्र रचना देखते-देखते
पुष्पक-विमानको आश्चर्ययुक्त होकर देखते हैं।
इसके बाद जिस समय उन्होंने सीताको पहचाननेके लिये
रावणके महलमें उसकी स्त्रियोंको देखकर
अपने मनकी स्थितिका वर्णन किया है,
उसे देखनेसे यह पता चलता है कि
हनुमानजीकी ब्रह्मचर्य-निष्ठा कितनी ऊँची थी,
परस्त्री-दर्शनको हनुमानजी कितना बुरा समझते थे और
हनुमानजीका कितना सुन्दर विशुद्ध भाव था।
वाल्मीकीय रामायणकी कथा है कि
जब हनुमानजीने रावणके महलका कोना-कोना छान डाला,
परंतु उन्हें जानकी कहीं दिखायी नहीं पड़ीं
तो उस समय सीताको खोजनेके उद्देश्यसे
स्त्रियोंको देखते-देखते उनके मनमें धर्म-भयसे शङ्का उत्पन्न हुई।
वे सोचने लगे,
“इस प्रकार अन्तःपुरमें सोयी हुई
परायी स्त्रियोंको देखना
तो मेरे धर्मको एकदम नष्ट कर देगा;
परंतु इन परस्त्रियोंको मैंने
कामबुद्धिसे नहीं देखा है।
इस दृश्यसे मेरे मनमें
तनिक भी विकार नहीं हुआ।
समस्त इन्द्रियोंकी
अच्छी-बुरी प्रवृत्तियोंका कारण मन ही है और
मेरा मन सर्वथा शुद्ध एवं निर्विकार है।
इसके अतिरिक्त सीताजीको
दूसरे ढंगसे मैं खोज भी नहीं सकता।
स्त्रियोंको ढूँढ़ते समय
उन्हें स्त्रियोंके ही बीचमें ढूँढ़ना पड़ता है”- इत्यादि।
ऐसे सुन्दर विचार और
ऐसा विशुद्ध भाव हनुमानजीके ही उपयुक्त है।
साधकोंको इससे विशेष शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये और
विकट परिस्थितियोंमें भी
अपने मनमें किसी प्रकारका भी विकार नहीं आने देना चाहिये।
वाल्मीकीय रामायणमें सीताजीकी खोजका
बड़ा ही विचित्र और विस्तृत वर्णन है।
यहाँ उसमेंसे बहुत ही थोड़े-से प्रसङ्गका
दिग्दर्शनमात्र कराया गया है।
रामचरितमानसमें लिखा है कि
सीताको खोजनेके लिये
लंकामें घूमते-घूमते हनुमानजीकी दृष्टि
एक सुन्दर भवनपर पड़ती है,
जिसपर भगवान् श्रीरामके आयुध अङ्किति किये हुए हैं।
तुलसीके पौधे उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं।
यह देखकर हनुमानजी सोचने लगते हैं कि
यहाँ तो राक्षसोंका ही निवास है,
यहाँ सज्जन पुरुष क्यों निवास करने लगे।
उसी समय विभीषण जाग उठते हैं और
बार-बार श्रीराम-नामका उच्चारण करते हैं।
यह देखकर हनुमानजीने सोचा कि
निःसंदेह यह कोई भगवान्का भक्त है,
इससे अवश्य पहचान करनी चाहिये;
क्योंकि साधुसे कभी कार्यकी हानि नहीं हो सकती।
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।
मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।
आयहु मोहि करन बड़भागी॥
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम॥
(५ । ६ । ३-४, ६)
भगवानके भक्तोंमें परस्पर स्वाभाविक प्रेम कैसा होना चाहिये,
इसका यहाँ बड़ा ही सुन्दर चित्र खींचा गया है।
विभीषण कहते हैं –
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥
तामस तनु कछु साधन नाहीं।
प्रीति न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥
(५ । ७ । १-२)
तब हनुमानजी कहते हैं –
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।
करहिं सदा सेवक पर प्रीती॥
कहहु कवन मैं परम कुलीना।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी।
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥
(५ । ७ । ३-४, ७; ८ । १)
कितना सुन्दर दैन्यभाव,
अतुलित विश्वास और
अनन्य भगवत्प्रेम है!
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