अथर्वशिर उपनिषद अथर्ववेद से सम्बंधित उपनिषद् है, जिसमें भगवान् शिव अर्थात रूद्र के बारे में विस्तार से दिया गया है।
इस उपनिषद में
भगवान् शिव ने देवताओं को रूद्र के बारे में जो बताया था,
और फिर रूद्र के स्वरुप का देवताओं ने
किस प्रकार विस्तार से वर्णन किया,
और उनकी स्तुति की, वह दिया गया है।
शिव रुद्राष्टकम स्तोत्र (नमामीशमीशान निर्वाणरूपं स्तोत्र) में भगवान् शिव के रूद्र स्वरुप की स्तुति की गयी है।
रुद्राष्टकम स्तोत्र अर्थसहित पढ़ने के लिए क्लिक करे –
श्री शिव रुद्राष्टकम स्तोत्र – अर्थ सहित
रूद्र कौन है?
एक समय देवताओं ने स्वर्गलोक में जाकर रुद्र से पूछा –
आप कौन हैं?
भगवान् शिव अपने अवतार के बारे में देवताओं को बताते है
भगवान् शिव सभी कालों में
रुद्र ने उत्तर दिया –
मैं एक हूँ,
भूतकाल हूँ,
वर्तमान काल हूँ और
भविष्यत्काल भी मैं ही हूँ।
मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
जो अन्तर के भी अन्तर में विद्यमान है,
जो समस्त दिशाओं में स्थित है, वह मैं ही हूँ।
मैं ही नित्य और अनित्य,
व्यक्त और अव्यक्त,
ब्रह्म और अब्रह्म हूँ।
भगवान् शिव सभी दिशाओं में
मैं ही पूर्व और पश्चिम,
उत्तर और दक्षिण,
ऊर्ध्व और अधः आदि दिशाएँ हूँ।
अग्र, मध्य, बाह्य और
पूर्व आदि दसों दिशाओं में अवस्थित और
अनवस्थित ज्योतिरूप शक्ति मुझे ही मानना चाहिए और
सब कुछ मुझमें ही व्याप्त जानना चाहिए।
भगवान् शिव सभी रूपों में
पुरुष और स्त्री भी मैं ही हूँ।
मैं ही गायत्री, सावित्री और सरस्वती हूँ।
त्रिष्टप, जगती और अनुष्टप आदि छन्द भी मैं ही हूँ।
अग्नि और तेजस भी मैं ही हूँ।
मैं सत्य, गौ, गौरी, ज्येष्ठ,
श्रेष्ठ और वरिष्ठ हूँ।
भगवान् शिव सभी वेदों में
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और
अथर्ववेद भी मैं ही हूँ।
अक्षर-क्षर, गोप्य (छिपाने योग्य) और
गुह्य (छिपाया हुआ) भी मैं हूँ।
अरण्य, पुष्कर (तीर्थ), पवित्र मैं हूँ।
इस प्रकार जो मुझे जानता है,
वह समस्त देवों और अङ्गों सहित समस्त वेदों को जानता है।
मैं गौओं को गोत्व से,
ब्राह्मणों को ब्राह्मणत्व से,
हवि को हविष्य से,
आयु को आयुष्य से,
सत्य को सत्यता से,
धर्म को धर्म तत्त्व से तृप्त करता हूँ।
यह सुनकर देवगणों ने रुद्र को देखा और
उनका ध्यान करने लगे।
तत्पश्चात् भुजाएँ उठाकर इस प्रकार स्तुति की॥1॥
देवताओं द्वारा भगवान् शिव की स्तुति
ब्रह्मा, विष्णु और शिव स्वरुप
हे भगवान् रुद्र !
आप ब्रह्मा स्वरूप हैं, आपको नमन है।
हे भगवान् रुद्र !
आप विष्णु स्वरूप हैं, आपको नमस्कार है।
हे भगवान् रुद्र!
आप स्कन्द रूप हैं, आपको नमन है।
इंद्र, अग्नि, वायु, चन्द्रमा स्वरुप
आप इन्द्र स्वरूप, अग्नि स्वरूप,
वायु स्वरूप और सूर्य स्वरूप हैं, आपको नमन है ।
हे भगवान् रुद्र!
आप सोम स्वरूप हैं, अष्टग्रह स्वरूप,
प्रतिग्रह स्वरूप हैं, आपको नमस्कार है।
पृथ्वी से आकाश तक सभी स्वरूपों में
आप भूः स्वरूप, भुवः स्वरूप,
स्वः स्वरूप और महः स्वरूप हैं, आपको नमन है।
हे रुद्र भगवान् !
आप पृथ्वी, अन्तरिक्ष और
आकाश रूप हैं, आपको नमस्कार है।
हे रुद्र भगवान् !
आप विश्वरूप, स्थूलरूप, सूक्ष्मरूप,
कृष्ण और शुक्ल स्वरूप हैं, आपको नमन है।
आप सत्यरूप और सर्वस्वरूप हैं,
आपको बारम्बार नमन है॥२॥
हे रुद्र भगवान् !
भूः, भुवः और स्वः लोक क्रमश:
आपके नीचे, मध्य और शीर्ष के लोक हैं।
आप विश्वरूप हैं और एक मात्र ब्रह्म हैं;
किन्तु भ्रमवश दो और तीन संख्या वाले प्रतीत होते हैं।
आप वृद्धि स्वरूप, शान्तिस्वरूप,
पुष्टिरूप, दत्तरूप-अदत्तरूप,
सर्वरूप-असर्वरूप, विश्व-अविश्वरूप,
कृतरूप-अकृतरूप, पर-अपररूप और
परायणरूप हैं।
सोम और सोमपान का आध्यात्मिक महत्व
आपने हमें (देवों को) अमृत स्वरूप सोमपान कराकर
अमृतत्व प्रदान किया है।
हम ज्योति स्वरूप होकर ज्ञान को प्राप्त हुए हैं।
अब कामादि शत्रु हमें क्षति नहीं पहुँचा सकते।
आप मनुष्यों के लिए अमृत तुल्य हैं।
- सोम स्थूल ही नहीं, सूक्ष्म दिव्य ज्ञान रूप भी है।
- सोम रूप ज्ञान को आत्मसात् करके साधक स्वयं ज्योतित हो जाता है।
- तब दिव्य ज्ञान के साथ स्वाभाविक रूप से योग होता है और
- काम क्रोध आदि विकार प्रभावी नहीं हो पाते।
रूद्र का सूक्ष्म रूप
हे देव! आप सोम (चन्द्र) और
सूर्य से भी पूर्व उत्पन्न सूक्ष्म पुरुष हैं।
आप सम्पूर्ण जगत् का हित करने वाले,
अक्षर रूप, प्राजापत्य (प्रजापतियों द्वारा प्रशंसनीय, स्तुत्य),
सूक्ष्म, सौम्य पुरुष हैं,
जो अपने तेज से अग्राह्य को अग्राह्य से,
भाव को भाव से, सौम्य को सौम्य से,
सूक्ष्म को सूक्ष्म से, वायु को वायु से ग्रस लेते हैं,
ऐसे महाग्रास करने वाले आप (रुद्र भगवान्) को नमस्कार है।
- अग्राह्य अर्थात – ग्रहण करने योग्य न हो, जो अपनाने के लायक न हो
रूद्र सभी जीवों के भीतर
सभी हृदयों में देवगण, प्राण और आत्म चेतन रूप में आप विराजते हैं।
- मनुष्य के अन्तस् अर्थात अंतःकरण, मन या हृदयमें परमात्मा का आवास ऋषि अनुभव करते हैं।
- उन्हें उनसे सम्बन्धित अनुशासनों के माध्यम से सक्रिय एवं फलित किया जा सकता है।
ॐ कार से महेश्वर तक की कड़ी
हृदय में विराजते हुए आप
तीनों मात्राओं (अ, उ, म्) से परे हैं।
(हृदय के) उत्तर में उसका सिर है,
दक्षिण में पाद हैं,
जो उत्तर में विराजमान है, वही ओंकार है।
ओंकार को ही प्रणव कहते हैं और
प्रणव ही सर्वव्यापी है।
वह सर्वव्यापी प्रणव ही अनन्त है ।
जो अनन्त है, वही तारक स्वरूप है।
जो तारक है, वही सूक्ष्म स्वरूप है।
जो सूक्ष्म स्वरूप है, वही शुक्ल है।
जो शुक्ल (प्रकाशित) है, वही
विद्युत् (विशेष रूप से द्युतिमान्) है।
जो विद्युत् है, वही परब्रह्म है।
जो परब्रह्म है, वही एक रूप है।
जो एक रूप है, वही रुद्र है।
जो रुद्र है, वही ईशानरूप है।
जो ईशान है, वही भगवान् महेश्वर है॥ ३ ॥
(ऋषि यहाँ ‘स्व’-जीव चेतना, ईश- नियामक चेतना तथा महेश्वर-परमात्म चेतना तीनों की एकरूपता का आभास करा रहे हैं।)
ओमकार और प्रणव क्यों कहा जाता है?
ॐकार किस कारण से कहा जाता है?
यह इसलिए कहा जाता है कि
ॐकार उच्चारित करने में
श्वास (प्राणों) को ऊपर की ओर खींचना पड़ता है।
प्रणव इसलिए कहा जाता है कि
इसका उपयोग (उच्चारण) ऋक, यजुः, साम,
अथर्वाङ्गिरस और ब्राह्मणों को प्रणाम करने के लिए किया जाता है।
इसीलिए इसका नाम प्रणव ऐसा हुआ है।
सर्वव्यापी और अनंत क्यों कहा जाता है?
इसे सर्वव्यापी क्यों कहा जाता है?
इसलिए कि जिस प्रकार तिल में तेल विद्यमान (संव्याप्त) है,
उसी प्रकार यह अव्यक्त रूप से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है,
इसी कारण सर्वव्यापी’ ऐसा कहा जाता है।
इसका नाम अनन्त इसलिए है कि
इस शब्द का उच्चारण करते हुए
ऊपर-नीचे और तिरछे कहीं भी इसका अन्त प्रतीत नहीं होता।
रूद्र और ईशान क्यों कहा जाता है?
रुद्र इसलिए कहा जाता है कि
इसके स्वरूप का ज्ञान ऋषियों को सहज ही हो सकता है।
सामान्य जनों को इसका ज्ञान हो सकना कठिन है।
ईशान क्यों कहते हैं, इसलिए कि
वह समस्त देवों और उनकी शक्तियों पर
अपना प्रभुत्व (ईशत्व) रखता है।
महेश्वर क्यों कहा जाता है?
आपको भगवान् महेश्वर क्यों कहते हैं?
इसलिए कि जो भक्तजन ज्ञान पाने के लिए आपका भजन करते हैं और
आप उन पर कृपा-वर्षण करते हैं,
वाक् शक्ति का प्रादुर्भाव करते हैं,
साथ ही समस्त भावों का परित्याग करके
आत्मज्ञान और योग के ऐश्वर्य से अपनी महिमा में स्थित रहते हैं,
इसीलिए आपको महेश्वर कहा जाता है।
तारक, शुक्ल, सूक्ष्म और वैद्युत
तारक नाम इसलिए दिया गया है कि
यह गर्भ, जन्म, व्याधि, वृद्धावस्था और
मरण से युक्त संसार के भय से तारने वाला है।
इसका नाम शुक्ल इसलिए है कि
यह स्व प्रकाशित है, अन्यों के लिए प्रकाशक है।
इसे सूक्ष्म इस कारण कहा जाता है कि
इसका उच्चारण करने पर
यह सूक्ष्म स्वरूप होकर स्थावर आदि सभी शरीरों में अधिष्ठित होता है।
इसे वैद्युत कहने का कारण यह है कि
इसका उच्चारण करने से घोर अन्धकार (अज्ञान) की स्थिति में भी
समग्र काया (स्थूल, सूक्ष्म, कारण आदि) विशेष रूप से द्युतिमान् हो जाती है।
परब्रह्म क्यों कहा जाता है?
परब्रह्म कहने का कारण यह है कि
वह पर, अपर और परायण (इन तीनों) बृहत् (व्यापक घटकों) को
बृहत्या (विशालता के माध्यम से) व्यापक बनाता है।
(ऋषि द्वारा परमात्म-सत्ता को परब्रह्म कहने का तात्पर्य प्रकट किया गया है-
परब्रह्म के संयोग से परब्रह्म बना है।
जो पर (अव्यक्त) है तथा
जो अपर (व्यक्त) है,
वे एक दूसरे के परायण-एक दूसरे के प्रति जागरूक-परस्पर पूरक हैं।)
इस भाव को प्रथम पद “पर” से प्रकट किया गया है।
जो बृहत्-विशाल है तथा विशालता (संकीर्णता से मुक्तभाव) से सभी घटकों को व्यापकता प्रदान करता है,
उसके लिए दूसरा पद “ब्रह्म” प्रयुक्त किया गया है।
इसे (ब्रह्म को) एक इसलिए कहा जाता है कि यह समस्त प्राणों का भक्षण करके “अज” स्वरूप होकर उत्पत्ति और संहार करता है।
समस्त तीर्थों में वह एक ही (तत्त्व) विद्यमान है।
अनेक लोग पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के विभिन्न तीर्थों में परिभ्रमण करते हैं।
वहाँ भी उनकी सद्गति का कारण वह एक ही (तत्त्व) है।
समस्त प्राणियों में एक रूप में निवास करने के कारण उस तत्त्व को एक कहते हैं।
(सो हे रुद्र!) आप शूर की हम उसी प्रकार स्तुति करते हैं, जिस प्रकार दुग्ध प्राप्त करने के लिए गौ को प्रसन्न किया जाता है।
(हे रुद्र!) आप ही इन्द्र रूप होकर स्थावर-जंगम संसार के ईश और दिव्य दृष्टि सम्पन्न हैं, इसी कारण आपको ‘ईशान’ नाम से सम्बोधित किया जाता है।
इस प्रकार इस रुद्र के चरित का वर्णन हुआ॥
भगवान् रूद्र और सृष्टि का संचालन
एक ही ऐसा देवता है, जो समस्त दिशाओं में निवास करता है।
सर्वप्रथम उसी का आविर्भाव हुआ।
वही मध्य और अन्त में स्थित है।
वही उत्पन्न होता है और आगे भी उत्पन्न होगा।
प्रत्येक में वही संव्याप्त हो रहा है।
अन्य कोई नहीं,
केवल एक रुद्र ही इस लोक का नियमन (नियंत्रण) कर रहा है।
समस्त प्राणी उसी के अन्दर निवास करते हैं और
अन्ततः सबका उसी में विलय भी होता है।
विश्व का उद्भव और संरक्षण कर्ता भी वही है,
जो समस्त जीवों में संव्याप्त हो रहा है और
समस्त प्राणी जिसमें संव्याप्त हो रहे हैं,
उस ‘ईशान’ देव के ध्यान से मनुष्य को परम शान्ति का लाभ मिल सकता है।
समस्त प्रपञ्चों के हेतु भूत-अज्ञान का परित्याग करके
संचित कर्मों को बुद्धि के द्वारा रुद्र में अर्पित करके
परमात्मा का एकत्व प्राप्त होता है।
जो शाश्वत और पुराण पुरुष अपनी सामर्थ्य से
अन्न आदि प्रदान करके प्राणियों को मृत्युपाश से मुक्त करता है।
वही आत्मज्ञान प्रदान करने वाला ॐ
चतुर्थ मात्रा से शान्ति प्रदाता और बन्धन मुक्ति प्रदाता है।
ॐ की मात्राएँ
उन रुद्रदेव की प्रथम मात्रा ब्रह्मा की है,
जो लाल वर्ण की है,
उसके नियमित ध्यान से ब्रह्मपद प्राप्त होता है।
दूसरी मात्रा विष्णु की है,
जो कृष्ण वर्ण की है,
उसके नियमित ध्यान से विष्णु पद की प्राप्ति होती है।
तृतीय मात्रा ईशान की है,
जिसका वर्ण पीला है,
उसका ध्यान करने से ईशान पद की प्राप्ति होती है।
जो अर्ध चतुर्थ मात्रा है,
वह समस्त देवों के रूप में अव्यक्त होकर
आकाश में विचरण करती है,
वह शुद्ध स्फटिक मणि के वर्ण की है, जिसके ध्यान से मुक्ति प्राप्त होती है।
मनीषियों का कहना है कि इस अर्ध मात्रा की उपासना ही उचित है;
क्योंकि इससे कर्मों के बन्धन कट जाते हैं।
इस उत्तरायण (उत्तरी मार्ग) से ही देव, पितर और ऋषिगण गमन करते हैं।
यही पर, अपर तथा परायण मार्ग है।
बाल के अग्रभाग के तुल्य,
सूक्ष्म रूप से हृदय में निवास करने वाले,
विश्वरूप, देवरूप,
समस्त उत्पन्न हुए लोगों को जानने वाले श्रेष्ठ परमात्मा को
जो ज्ञानी जन अपने अन्दर देखते हैं,
वे ही शान्ति प्राप्त करते हैं,
अन्य किसी को वह शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती।
तृष्णा, क्रोध आदि हेतु समूह के मूल का परित्याग करके संचित कर्मों का बुद्धिपूर्वक रुद्र में स्थापन करने से रुद्र से एकत्व प्राप्त होता है।
रुद्र ही शाश्वत और पुराण (प्राचीन) हैं।
अस्तु, वे अपनी शक्ति और तप से सबके नियंत्रक हैं।
अग्नि, वायु, जल, स्थल (भूमि) और आकाश ये सभी भस्म रूप हैं।
भगवान् पशुपति (बंधन से बँधे प्राणियों के स्वामी) की भस्म का
जिसके अङ्ग में स्पर्श नहीं हुआ,
वह भी भस्म के समान ही है।
इस प्रकार पशुपति रुद्र की ब्रह्मरूप-भस्म पशु (प्राणियों) के बन्धनों को काटने वाली है॥5॥
(पदार्थ अपने रूप में इसलिए रहता है कि उसमें कणों को जोड़े रहने वाली प्रवृत्ति सक्रिय होती है।)
भस्म बनने पर उसका वह रूप समाप्त हो जाता है।
क्योंकि उसकी वह बाँधे रहने वाली क्षमता समाप्त हो जाती है।
पशुपति के रूप में वही आदि सत्ता जीव को काया के साथ बाँधे रहती है
तथा ब्रह्मरूप में वही सत्ता बाँधे रहने की प्रवृत्ति से मुक्त रहती है,
इसीलिए परब्रह्म को रूप, गुण के बन्धन से मुक्त भस्मरूप कहा गया है।]
जो रुद्र, अग्नि और जल में निवास करते हैं।
वे ही ओषधियों और वनस्पतियों में भी प्रविष्ट हो गये हैं।
जिनके द्वारा यह समस्त विश्व उत्पन्न हुआ है,
उन अग्नि रूप रुद्र को नमन है ।
जो रुद्रदेव, अग्नि, ओषधियों तथा वनस्पतियों में वास करते हैं और
जिनके द्वारा विश्व और समस्त भुवनों का सृजन किया जाता है, उन्हें नमस्कार है।
जो रुद्रदेव जल, वनस्पतियों और ओषधियों में विराजमान हैं,
जिनके द्वारा यह समस्त जगत् धारण किया गया है,
जो रुद्र द्विधा (शिव और शक्ति) तथा त्रिधा (सत्, रज, तम) से
इस पृथ्वी को संचालित करते हैं,
जिनने नागों (बादलों) को अन्तरिक्ष में प्रतिष्ठित कर रखा है, उन्हें नमन है।
भगवान् रुद्र की प्रणवरूप मूर्धा की उपासना करने वाले
अथर्वा की उच्च स्थिति प्राप्त करते हैं और
उपासना न करने वाले निम्न स्थिति में ही रहते हैं।
समस्त देवताओं का सामूहिक स्वरूप रुद्र भगवान् का सिर ही है।
उनका प्राण मन
और मस्तक का रक्षक है।
पृथिवी, आकाश अथवा स्वर्ग का संरक्षण करने में देवता स्वयं समर्थ नहीं हैं।
सभी कुछ रुद्र भगवान् में ही समाहित है,
उनसे परे कुछ भी नहीं है, उनसे पूर्व भी कुछ नहीं था।
उनसे पूर्व भूतकाल में और
उनसे आगे (भविष्यत्काल) में भी कुछ नहीं है।
सहस्रपद और एक मस्तक वाले रुद्र समस्त भूतों में संव्याप्त हैं।
(रुद्र का संकल्प निर्धारण एक ही है।
अस्तु, उन्हें एक सिर वाला कहा गया है।
उनकी गतिशीलता के हजारों पक्ष हैं,
इसलिए उन्हें सहस्रपाद कहा गया है।)
अक्षर से काल की उत्पत्ति होती है और
काल से वह व्यापक कहलाता है।
व्यापक और शोभायमान रुद्र जब शयन करने लगते हैं,
तब समस्त प्रजा (प्राणि समुदाय) का संहार हो जाता है।
जब भगवान् रुद्र श्वास लेते हैं,
तो तम उत्पन्न हो जाता है।
तम से आप: तत्त्व का प्रादुर्भाव होता है।
उस आप: को (रुद्र द्वारा) अपनी अङ्गली द्वारा मथे जाने पर
शिशिर (आप: तत्त्व का जमा हुआ गाढ़ा रूप) उत्पन्न होता है।
उस शिशिर के मथे जाने पर फेन उत्पन्न होता है,
फेन से अण्डा और अण्डे से ब्रह्मा का प्रादुर्भाव होता है।
तत्पश्चात् ब्रह्मा से वायु और वायु से ओंकार,
ओंकार से सावित्री प्रकट होती हैं ।
सावित्री से गायत्री और गायत्री से लोकों का उद्भव होता है।
जब वे (रुद्र) तप करते हैं,
तब सत्यरूपी मधु क्षरित होता है,
जो शाश्वत होता है।
यह परम तप है।
आपः, ज्योतिः, रस, अमृत, ब्रह्म, भूः, भुवः और
स्वः रूप परब्रह्म को नमस्कार है॥6॥
इस उपनिषद् के पाठ का महत्त्व
जो ब्राह्मण इस अथर्वशिर उपनिषद् का अध्ययन करता है,
वह श्रोत्रिय न हो, तो भी श्रोत्रिय हो जाता है।
अनुपवीत व्यक्ति,
उपवीत सम्पन्न हो जाता है।
वह अग्नि के समान, वायु के समान,
सूर्य के समान, सोम के समान और
सत्य के समान पवित्र हो जाता है।
वह समस्त देवों का ज्ञाता, समस्त वेदों का अध्येता और समस्त तीर्थों का स्नातक हो जाता है, वह समस्त यज्ञों के पुण्य का फल तथा साठ हजार गायत्री मन्त्र के जप का फल प्राप्त करता है।
उसे इतिहास और पुराणों के अध्ययन का,
एक लक्ष रुद्र के जप का
तथा दस हजार प्रणव के जप का प्रतिफल प्राप्त होता है।
उसका दर्शन पाकर लोग पवित्र हो जाते हैं।
वह अपने पूर्व की सात पीढ़ियों का उद्धार कर देता है।
भगवान् ने कहा कि अथर्वशिर के एक बार के जप से
साधक पवित्र होकर कल्याण कर्म का अधिकारी बन जाता है।
दूसरी बार जप करने से
गाणपत्य पद प्राप्त करता है
तथा तृतीय बार जप करने से
वह सत्यरूप ओंकार में प्रविष्ट हो जाता है।
यह सत्यरूप ओंकार ही त्रिकाल सत्य है॥
शिव रुद्राष्टकम स्तोत्र जिसमें भगवान् शिव के इसी रूद्र स्वरुप की स्तुति की गयी है, उस स्तोत्र को अर्थसहित पढ़ने के लिए क्लिक करे –
श्री शिव रुद्राष्टकम स्तोत्र – अर्थ सहित – नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
Shiv Stotra Mantra Aarti Chalisa Bhajan
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- श्री शिव पंचाक्षर स्तोत्र – अर्थ सहित – नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय
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- श्री बद्रीनाथजी की आरती – बद्रीनाथ स्तुति
- शिव चालीसा - Shiv Chalisa
- शिव अमृतवाणी – शिव अमृत की पावन धारा
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- श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग – 3
- श्री केदारनाथ ज्योतिर्लिंग – 5